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श्रेष्ठिकुमार शंख यात्रा में तो ऐसे शकुन ही श्रेष्ठ माने जाते हैं! कार्य को सामने रखकर शकुन के बारे में सोचना चाहिए। फिर भी यदि तुम्हारे मन में शंका हो तो मैं कहता हूँ...'इन सारे शकुन का जो भी फल हो, वह सब मुझ पर हो... तुम निर्भय
और निश्चित होकर मेरे पीछे-पीछे चले आओ।' ___ बाबा की बात सुनकर भुवनचन्द्र को बाबा पर भरोसा जम गया। वह बाबा के पीछे-पीछे चलने लगा...तीनों दोस्त भी मन मसोस कर पीछे-पीछे चलने लगे।
चलते-चलते वे विंध्याचल पर्वत की तलहटी में आ पहुँचे। वहाँ पर 'कुडंगविजय' नाम का जंगल था। कितना डरावना जंगल! बाप रे...इधर चीते, बाघ, शेर की गर्जनाएँ सुनाई देती, तो उधर दिन होने पर भी-सूरज के उगने पर भी उस जंगल में काला स्याह अन्धेरा छाया था...इतनी तो वहाँ घनी झाड़ियाँ थीं।
वहाँ पर एक यक्ष का मन्दिर भी था। बाबा ने कहा : 'यहाँ पर स्नान करके हम सब को चंपा के फूलों से यक्ष की पूजा करनी है।' सभी ने स्नान करके यक्ष की पूजा की...और बाद में चारों मित्र थके-थके उस मंदिर के चबुतरे पर ही लंबे होकर सो गये।
जब वे जगे तब साँझ ढल चूकी थी। उस दौरान 'ज्ञानकरंडक' बाबा न जाने कहीं से चार बकरे पकड़ लाया था...। उसने चारों मित्रों से कहा :
'पाताललोक में जाने के लिए जो द्वार खोलना पड़ेगा उसके लिये पहले यक्षराज को खुश करना पड़ेगा। इन चार बकरों की कुरबानी देने से वह यक्षराज प्रसन्न हो उठेगा। पहले मैं चारों बकरों को स्नान करवाऊँगा। फिर तुम चारों को भी स्नान करवा के पवित्र बनाऊँगा।'
बाबा ने चारों बकरों को नहलाया। इसके पश्चात् चारों दोस्तों को स्नान करवाया। बाबाने अपने झोले में से चन्दन का डिब्बा निकाला। उस डिब्बे में पानी मिला कर हाथ से हिलाकर विलेपन तैयार किया। फिर चारों मित्रों के शरीर पर विलेपन किया। __बाबा ने कहा : 'अब तुम सब को एक-एक बकरे का बलि देना है...। बकरे को मार कर उसके खून से यक्ष को अंजलि देना है।' बाबा ने सबसे पहले राजकुमार के हाथ में तलवार दी। राजकुमार ने एक बकरे की हत्या कर दी। इसके बाद अर्जुन ने दूसरे बकरे को मार डाला और इसके पश्चात् सोम ने तीसरे बकरे को मार डाला।
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