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श्रेष्ठिकुमार शंख
५६ राजा को, पुरोहित को और सेनापति को जवाब देना पड़ेगा | उनके पुत्रों की करुण मृत्यु के समाचार सुनकर उन्हें बड़ी पीड़ा होगी...। वे दुःखी-दुःखी हो जायेंगे। मुझे भी दोस्तों के बगैर गाँव में अच्छा नहीं लगेगा...| तो जाऊँ कहाँ? अभी चंपा मुझे पूछ ले कि 'शंख तू कहाँ जानेवाला है?' तब मैं उसे क्या जवाब दूं? खैर, उसे तो यह कह दूँगा कि 'यहाँ से वापस 'विजयवर्धन' जाना है।' परंतु यदि उसने वहाँ का कोई कार्य बतला दिया तो? मुझे विजयवर्धन तो जाना नहीं है। ठीक है... एक बात जरुर है कि मुझे यहाँ से जल्द से जल्द निकल जाना चाहिए।'
उसकी इच्छा तो इस गाँव में से जल्दी निकल जाने की थी, परंतु चंपा ने उसको जाने नहीं दिया। तीन दिन तक उसे रखा, फिर बिदा किया। जाते जाते शंख ने अपनी सोने की अंगूठी निकाल कर चंपा को पहना दी 'भाई की इतनी भेंट तो बहन को लेनी ही चाहिए।' कहकर वह वहाँ से निकल गया। ___ वह उत्तर दिशा में चला | श्री नवकारमंत्र का स्मरण करते-करते वह चला जा रहा है | चंपा ने साथ में एक नाश्ते का डिब्बा बाँध दिया है। मध्याह्न के समय शंख एक सरोवर किनारे पहुँचा। सरोवर के किनारे बड़े-बड़े पेड़ों का झुरमुट था। एक पेड़ के नीचे छाया में बैठकर नाश्ते का डिब्बा खोल कर उसने भोजन किया और पास के सरोवर में उतरकर पानी पी लिया। उसने सोचा : 'धूप थोड़ी ढल जाय तब तक यहीं विश्राम करूँ, बाद में आगे बढूँगा।'
नवकारमंत्र का स्मरण करते-करते वह सो गया। जब वह जगा तब उसने पास में से गुजरते हुए एक छोटे यात्रासंघ को देखा। काफी घोड़े थे, खच्चर थे, खच्चरों पर माल-सामान लदा हुआ था। एक सौ जितने स्त्री-पुरुष थे। उसने एक आदमी से पूछा :
'आप लोग तीर्थयात्रा करने के लिये जा रहे हो क्या?' 'नहीं भाई नहीं... हम तो व्यापारी हैं। हमारे साथ कुछ मुसाफिर हैं। इस रास्ते पर चोर-डाकुओं का डर होने से मुसाफिर हमारे साथ, इस तरह आतेजाते रहते हैं।'
शंख के मन में आया : 'मैं भी इन लोगों के साथ जुड़ जाऊँ?' उसने व्यापारी से पूछ लिया : 'क्या मैं भी तुम्हारे साथ आ सकता हूँ...?' व्यापारी ने हामी भर ली।
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