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बड़ों का कहा मानो
७८ अभयकुमार पास में ही खड़ा था, उसने कहा : 'माफ करना महाराजा, इस तरह विद्या नहीं सीखी जा सकती। विद्या तो आपको यह ठीक ही सिखा रहा है, पर आपका अविनय ही बाधक बना हुआ है, विद्या सीखने में। 'मेरा अविनय? वह कैसे?' 'देखिये...आपको सीखना है और आप खुद सिंहासन पर बैठे हैं मजे से, और जिससे सीखना है उस मातंग को सामने जमीन पर खड़ा कर रखा है! सीखनेवाला बड़ा है या सिखानेवाला?'
राजा को अपनी गलती का खयाल आ गया।
राजा सिंहासन पर से नीचे उतरा और खुद जमीन पर बैठकर मातंग को अपने सिंहासन पर बिठाया। हाथ जोड़कर बहुमानपूर्वक राजा ने विद्या सीखने की शुरुआत की। चंडाल ने राजा को दोनों विद्याएँ दी। राजा को याद रह गयी। बगीचे में जाकर चंडाल के समक्ष ही दोनों विद्याओं का सफल प्रयोग किया। राजा ने प्रसन्न होकर मातंग चंडाल को ढेर सारी संपत्ति दी और उसका सम्मान किया।
इस तरह मातंग चंड़ाल राजा का विद्यागुरु बन गया।
इस कहानी का सारांश यह है कि हम भी जिन से कुछ सीखें...विनय से, नम्रता से और बहुमानपूर्वक, आदर के साथ सीखें। सिखानेवाले पर कभी भी गुस्सा न करें। अध्यापक या गुरुजनों के सामने न बोलें। उनकी मजाक न उड़ायें। तो ही हम सही रूप में कुछ भी सीख पायेंगे। हमारे नीतिशास्त्रधर्मशास्त्र कहते हैं-'विद्या विनयेन शोभते' विद्या विनय से शोभती है। विनय तो विद्या का शृंगार है। कुछ भी सीखो, पूरे विनय के साथ, आदर के साथ। खूब पढ़ो पर विनय के साथ! आगे बढ़ो पर नम्रता के साथ!
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