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पराक्रमी अजानंद थे। कुछ नरक के जीवों को औंधे सिर लटकाकर उनके अंगोपाँग पका-पका कर वे खा रहे थे तो कुछ जीवों को पत्थर की चट्टानों पर धोबी जैसे कपड़े पटकता है, वैसे पटक रहे थे।
कुछ नरक के जीव परस्पर एक दूसरे को मारते थे-काटते थे। इसके उपरांत भूख और प्यास के भयंकर दुःखो में वे जी रहे थे। अजानंद ने यह सब देखा । देखते-देखते उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे कि वह खुद इन दुःखो को भोग रहा है। वह बेहोश होकर जमीन पर ढेर हो गया। तुरन्त व्यंतरेन्द्र ने उसके ऊपर ठण्ढ़े पानी के छींटे डालकर उसे होश में लाया।
नरक के दुःखो को प्रत्यक्ष देखकर अजानंद का मन संसार की मौज-मजा और सुखभोग से विरक्त हो गया। उसके मन में धर्म की आराधना करने की तीव्र इच्छा पैदा हुई। उसने सोचा 'मुझे अब यहाँ से चलना चाहिये।' उसने व्यंतरेन्द्र से अपनी इच्छा कही और जाने की इजाजत माँगी | व्यंतरेन्द्र ने खुशी के साथ इजाजत दी । 'रूप परावर्तन' नामक एक जादुई गुटिका व्यंतरेन्द्र ने अजानंद को दी। अजानंद ने भावविभोर होते हुए व्यंतरेन्द्र को प्रणाम किया। इन्द्र ने अपने सेवक देव को आज्ञा की : 'जाओ, अजानंद को सरोवर के किनारे पर वापस छोड़ दो।' सेवक देव ने आँख के पलकारे में अजानंद को सरोवर के किनारे छोड़ दिया।
अजानंद आँखें मसलता हुआ सरोवर के किनारे पर खड़ा-खड़ा इधर-उधर देखता है, पर उसे कहीं राजा नजर नहीं आया। हाँ, कुछ सैनिक लोग जरूर दिखे। वह एक ऊँचे वृक्ष पर चढ़ा। उसने दूर-दूर देखा पर कहीं पर भी उन सैनिकों के अलावा और कोई नजर नहीं आ रहा था। नीचे उतरकर वह दौड़ता हुआ सैनिकों के पास गया । वह सैनिकों से राजा के बारे में पूछे उससे पहले तो सभी सैनिकों ने एक साथ उससे पूछा : 'कुमार, अपने महाराजा कहाँ हैं?'
अजानंद ने कहा : 'मुझे तो कुछ भी मालूम नहीं है।'
सैनिकों ने कहा : 'वह हाथी तुम्हें सूंड़ में पकड़कर सरोवर में घुस गया तब महाराजा भी तुम्हारे पीछे तुम्हें बचाने के लिए सरोवर में कूदे और उन्होंने गहरे पानी में डुबकी लगा दी। इसके बाद हमने सरोवर में कई बार महाराजा को खोजा पर वे कहीं नहीं मिले। उस दिन से आज तक हम उन्हें खोजते रहे, परन्तु उनका कोई अता-पता नहीं मिल पाया है और इधर राजा के बिना नगर के सब लोग दुःखी-दु:खी हो उठे हैं। लेकिन खुशकिस्मती है कि आज तुम मिल गये। अब हमें विश्वास है कि महाराजा भी अवश्य मिल जायेंगे।'
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