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श्रेष्ठिकुमार शंख
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शंख ने प्रणाम किया। 'भाई शंख, अर्जुन और सोम कहाँ हैं? वे तेरे साथ वापस क्यों नही लौटे?'
'पूज्यवर, आपको सुनकर जरूर दुःख होगा । परंतु मुझे सच-सच बात तो बतानी ही चाहिए। मेरे उन तीनों जिगरजान दोस्तों की मृत्यु हुई है !'
'मृत्यु ? ओह... पर कैसे ? कहाँ ? कब ?' एक साथ सेनापति और राजपुरोहित बोल उठे। उनकी पत्नियाँ तो करुण विलाप करने लगी ।
शंख ने ‘ज्ञानकरंडक' बाबा की बात कही। शुरू से लेकर सारी बात कही । यह सुनकर पुरोहित बोला : 'उनके किये हुए पाप का फल उन्हे तत्काल मिल गया। उन्होंने बकरे मारे तो बाबा ने उनको मार डाला। भाई शंख तू सचमुच पराक्रमी है, दयालु है। तेरे दयाधर्म के प्रभाव से तूने संपत्ति प्राप्त की... और वापस घर को सुरक्षित लौट आया। अब तू महाराजा के पास जा और हमें जो बात बतायी वह सारी बातें तू उन्हें कहो । राजा-रानी तो राजकुमार की चिंता में दुःखी दुःखी हो गये हैं!'
शंख के साथ धनश्रेष्ठि भी राजमहल में गये। महाराजा जयसुंदर और महारानी विजयावती राह देखते हुए ही बैठे थे। श्रेष्ठि और श्रेष्ठिपुत्र को देखकर वे दोनों खड़े हो गये । सामने जाकर उनका स्वागत किया । खड़े-खड़े ही राजा ने पूछा :
'शंख, राजकुमार कहाँ है ? वह तेरे साथ वापस क्यों नहीं लौटा ?'
'महाराजा, आप आसन पर बैठिये। मैं शुरू से लेकर अंत तक की सारी बात आपको बता रहा हूँ। बात दुःखद है, पर जो हो चुका वह मिथ्या नहीं होने का।' सभी नीचे जमीन पर बैठ गये । राजा-रानी आसन पर बैठे और शंख ने सारी बात शुरू से अंत तक कह सुनायी। राजकुमार मृत्यु के समाचार सुनकर राजा - रानी एकदम रो पड़े । राजा ने स्वस्थ होकर कहा :
‘शंख बेटा, तू धर्मात्मा है ... दयाधर्म में तेरी श्रद्धा बेजोड़ है। तू सुखी होगा!' सारे नगर में चारों दोस्तों की बात फैल गई । घर-घर और गली-गली में शंख की प्रशंसा होने लगी।
धनश्रेष्ठी ने शंख के लिये उसी नगर के प्रभंजन श्रेष्ठि की कन्या पद्मिनी की मंगनी की। प्रभंजन ने खुशी-खुशी अपनी बेटी का ब्याह शंख के साथ अच्छा मुहूर्त देखकर कर दिया ।
धनश्रेष्ठि ने शंख से कहा :
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