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श्रेष्ठिकुमार शंख
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‘शंख, अब मैं आत्मकल्याण करना चाहता हूँ... । अब यह घर, दुकान, व्यापार सब तुझे सम्हालना है। मैं और तेरी माँ सद्गुरु के चरणों में जीवन समर्पित करके चारित्र-धर्म की आराधना करते हुए आत्मा का कल्याण करेंगे।'
धनश्रेष्ठि और धनवती ने दीक्षा अंगीकार की। सारे नगर में शंख की प्रशंसा होने लगी। दिन-ब-दिन उसका यश फैलने लगा। राजा ने शंख को नगरश्रेष्ठि का पद दिया | शंख के गुणों की प्रशंसा लोग खुले मुँह करने लगे । सभी का दिल शंख ने जीत लिया था।
शंख ने अपनी अपार संपत्ति का सद्व्यय करके पाँच सुन्दर जिनमन्दिर बनवाये। कई धर्मशालाएँ, विश्रामगृह बनवाये । सद्गुरु के पास बारह व्रतमय श्रावक जीवन स्वीकार किया। श्री नवकार मंत्र की विधिपूर्वक विशिष्ट आराधना की। धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों पुरूषार्थ का उचित ढंग से पालन किया । मानवजीवन को उसने सार्थक बनाया ।
उसका आयुष्य पूर्ण हुआ। श्री नवकार मंत्र का स्मरण करते-करते उसकी मृत्यु हुई। मरकर भवनपति देवलोक में वह देव बना ।
देवलोक में तो जन्म लेते ही जवानी आ जाती है । वहाँ पर तो शरीर हमेशा युवा ही रहता है । बचपन या बुढ़ापा वहाँ पर है ही नहीं! जन्म के साथ ही वहाँ पर अवधिज्ञान होता है । देव अपने ज्ञान से दूर-दूर की बातें जान सकता है...। शंखदेव ने अपने अवधिज्ञान से देखा कि 'वह कहाँ से मरकर यहाँ पर देव के रूप मे पैदा हुआ है? क्या करने से उसे देव का जन्म मिला है?'
‘ओह...यह तो दयाधर्म का प्रभाव है। श्री नवकार मंत्र का प्रभाव है !' वह प्रसन्न हो उठा। देवलोक में भी जिनमन्दिर होते हैं । शंखदेव वहाँ पर भी परमात्मा की पूजा करता है।
पृथ्वी पर एक मुनिराज को केवलज्ञान प्रगट हुआ । केवलज्ञान का महोत्सव मनाने के लिए देव-देवी आते हैं, पृथ्वी पर । स्वर्ग में से अनेक देव-देवी पृथ्वी पर आये। सोने का सुन्दर कमल आकृतिवाला सिंहासन बनाया । मुनिराज उस आसन पर बिराजमान हुए। देवों ने गीत गाये... नृत्य किया । मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया। शंखदेव ने खड़े होकर विनयपूर्वक पूछा :
'हे भगवान, देवलोक का आयुष्य पूरा होने के पश्चात् मेरा जन्म कहाँ पर होगा? आप मुझे कहने की कृपा करें । '
केवलज्ञानी भगवंत ने कहा :
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