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पराक्रमी अजानंद
१०१ बाहर निकाला | हमारी पीड़ा दूर कर दी। हम तुम्हारा उपकार कभी नहीं भूल सकते । दुनिया तो स्वार्थ के पीछे पागल बने हुए लोगों से भरी पड़ी है। उसमें तुम एक ऐसे निकले जिन्होंने हमारे ऊपर महान उपकार किया। तुम्हारे इस उपकार का बदला हम किस कदर चुका सकेंगे?'
यों अजानंद की जी भरकर प्रशंसा की और फिर पूछा : 'ओ महापुरुष! हमें जरा यह तो बताओ कि तुम आग में कूद गये फिर भी तुम्हें जरा भी आँच नहीं आयी, यह कैसे हुआ? और तुम एक फल के बजाय दो फल कैसे ले आये?'
अजानंद ने कहा : 'भाइयों, मैं जैसे ही अग्निकुंड में कूदा, वैसे ही मुझे ऐसा लगा कि किसी देवी ने मुझे हाथों में उठा लिया और उसी देवी ने मुझे अग्निकुंड के बाहर रख दिया।'
अजानंद ने दोनों फल उन भाइयों को दे दिये | पर भाइयों ने एक ही फल अपने पास रखा। दूसरा फल आग्रह करके अजानंद को वापस दे दिया। अजानंद फल लेकर मन्दिर से बाहर निकला और अपने रास्ते पर आगे बढ़ा।
इधर वे चारों भाई फल लेकर अपने घर पर गये। फल को पकाकर बच्चे को खिलाया और जैसे कि चमत्कार हुआ...कुछ ही दिनों में बच्चे का रोग दूर हो गया।
अजानंद अपने रास्ते पर आगे बढ़ता जाता है । जंगली रास्ता होने पर भी उसको जरा भी डर नहीं है। रास्ते में एक सुन्दर सरोवर उसने देखा | सरोवर पानी से लबालब भरा था। पानी भी स्वच्छ और शीतल था। कमल के फूल जगह-जगह पर खिले हुए थे। और उन पर मंडराते हुए भँवरे मीठा गुंजारव कर रहे थे। अजानंद सरोवर के किनारे पर जाकर बैठा। उसे प्यास लगी थी। उसने रुमाल में अग्निकुंड वृक्ष के फल बाँधकर किनारे पर रख दिया और पानी पीने के लिये सरोवर में उतरा । वह पानी पी रहा था । इतने में एक बन्दर वहाँ पर आया और फल की सुंगध से आकर्षित होकर रुमाल को हाथ में उठाया। उसने रुमाल खोला, फल को देखा और हाथ में फल लेकर छलाँग लगाता हुआ समीप के पेड़ पर चढ़ गया।
इधर अजानंद पानी पीकर किनारे पर आया। उसने रुमाल तो देखा पर उसमें फल नहीं था। उसको चिन्ता हुई। उसके दिल में धुकधुकी-सी फैल गयी। उसने इधर-उधर नजर फेंकी। कोई आदमी या जानवर उसे नजर नहीं
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