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पराक्रमी अजानंद
११३ हो उठा। उसने कहा : 'कुमार, अच्छा हुआ, तू यहाँ पर आ गया । अब तू यहीं पर मेरे पास रहना। मेरे घर को तू अपना ही घर समझना। यहाँ पर तुझे किसी तरह की तकलीफ नहीं होगी।' ___ अजानंद के आनंद की सीमा न रही, उसका हृदय नाच उठा। इन्द्र ने अपने पास में खड़े सेवक को आज्ञा की : 'इस कुमार को अपने साथ ले जाओ। स्नान वगैरह से निवृत्त करके सुन्दर वस्त्र एवं अलंकारों से सजाकर मेरे पास ले आना ।' सेवक देव-देवी अजानंद को लेकर चले गये।
अजानंद ने स्नान किया और सुन्दर वस्त्र पहने। कीमती आभूषण पहने । मनपसंद खाना खाया और आराम करने के लिए पलंग पर लेट गया । लेटते ही उसे गहरी नींद आ गयी।
फिर तो अजानंद इन्द्र के साथ मजेदार बातें करता है। देव-देवियों के साथ भी ज्ञानभरी बातें करता है। अपने मधुर स्वभाव और मीठी जबान के कारण अजानंद सबका प्रिय हो गया। अजानंद को ऐसे लगने लगा जैसे कि वह भी देव हो गया हो!
एक दिन अजानंद के मन में विचार आया, 'वह व्यंतरों की दुनिया कितनी समृद्धि से भरी पड़ी है, कितना सुख है यहाँ पर | लेकिन इस पृथ्वी के नीचे क्या होगा?' उसने एक दिन व्यंतरेन्द्र से पूछ लिया। व्यंतरेन्द्र ने कहा : 'कुमार, इस पृथ्वी के नीचे सात नरक बनी हुई है।' अजानंद ने पूछा : 'उन सात नरक में कौन रहता है?' ___ व्यंतरेन्द्र ने कहा - 'कुमार, जो लोग पाप करते हैं, बुरे काम करते हैं, वे मरकर वहाँ जाते हैं। हिंसा-हत्या वगैरह करनेवाले पशु भी नरक में जाते हैं, वहाँ जनमते हैं और घोर पीड़ा का अनुभव करते हैं | वहाँ पर दुःख, दर्द और पीड़ा के सिवा कुछ भी नहीं है।'
'तो क्या देव वहाँ पर नहीं जाते हैं?' 'नहीं, देवों का आयुष्य पूरा होने के पश्चात् वे या तो मनुष्यगति में जन्म लेते हैं या फिर तिर्यंचगति में चले जाते हैं। तिर्यंचगति यानी पशु-पक्षी और जानवरों की दुनिया ।'
अजानंद सोच में डूब गया। उसने कहा : 'देवेन्द्र, मेरी इच्छा है कि मैं उन नरकों को अपनी आँखों से देखू। क्या आप मेरी इच्छा पूरी करेंगे?' ___ व्यंतरेन्द्र ने कहा : 'तू यहाँ पर स्थिर होकर बैठ जा | मैं अपनी विद्या-शक्ति से तुझे सातों नरक यहीं पर बैठे-बैठे दिखाता हूँ।'
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