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पराक्रमी अजानंद
११२ राजा दासी के साथ व्यंतर देवी के महल पर गया । महल के दरवाजे पर ही सर्वांगसुन्दरी सारे सिंगार सजकर दुल्हन सी बनकर खड़ी थी। उसने मुस्कराते हुए राजा का स्वागत किया और उसे महल में आने का निमंत्रण दिया। राजा उस व्यंतर देवी के साथ महल में गया। समय कहाँ बीत रहा है राजा को मालूम ही नहीं पड़ रहा था।
४. नरक का दुःख
वह मायावी हाथी अजानंद को अपनी सूंड़ में पकड़ कर व्यंतरों के प्रदेश में ले गया। एक नगर के बाहर उसे रखकर वह हाथी अदृश्य हो गया। अजानंद उस रमणीय इलाके में अपने आप को खड़ा देखकर सोचने लगा : 'अरे! क्या मैं देवों की दुनिया में आ गया हूँ?'
उसने नगर में प्रवेश किया। नगर के राजमार्ग रत्नों से जड़े हुए थे। एकएक मकान महल के जितना विशाल एवं भव्य था। जगह-जगह पर उद्यान
और बगीचे छाये हुए थे। अजांनद कुछ दूर चला। इतने में एक व्यंतर की नजर उस पर पड़ी। उसके चेहरे पर नाराजगी के भाव उभर आये। अरे, यह मनुष्य जाति का कीड़ा यहां पर कैसे आ गया? ये गंदे लोग हमारी दुनिया को भी गंदा कर देंगे। मैं इस को अभी उठाकर अपने राजा के महल में उनके समक्ष छोड़ देता हूँ।' यों सोचकर उसने अजानंद को उठाया और व्यंतरेन्द्र के महल में ले जाकर रख दिया। ____ महल के चारों तरफ सोने का बड़ा ऊँचा किला था। किले के ऊपर रत्नों के कॅगूरे लगे हुए थे। जमीन पर अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे रत्न जड़े हुए थे। अजानंद ने महल में सुन्दर और मनमोहक आकृति वाले देवों को देखा तो खूबसूरती के खजाने जैसी देवांगनाओं को भी देखा। राजसभा में भव्य सिंहासन पर बैठे हुए व्यंतरेन्द्र को देखा | व्यंतरेन्द्र करूणा के सागर जैसा था। अजानंद ने बड़े सलीके से व्यंतरेन्द्र को नमस्कार किया। इन्द्र ने अजानंद की ओर देखा । उसे अजानंद के प्रति स्वाभाविक वात्सल्य उभरने लगा। इन्द्र ने बड़े प्यार से अजानंद को पूछा : 'वत्स, तू कौन है और यहाँ पर तू कैसे आ गया?'
अजानंद ने शुरु से लेकर यहाँ पर पहुँचने तक की अपनी आप-बीती कह सुनायी। इन्द्र ने तो दाँतो में अँगुली दबा ली। अजानंद के साहस की बातें सुनता ही रहा। उसकी निडरता, पराक्रम और उसकी दयालुता पर इन्द्र मुग्ध
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