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मायावी रानी और कुमार मेघनाद व आराम होने के पश्चात वापस यात्रा चालू होती है। रात के समय पड़ाव लगता है। यों करते-करते दस दिन बीत गये ।
कुमार के काफिले ने उस राक्षस के जंगल में प्रवेश किया, जिस राक्षस से मिलने का वादा राजकुमार ने किया था। सेनापति ने सभी से सावधानी रखकर चलने की सूचना दी। संध्या का समय हुआ। राजकुमार ने सेनापति को बुलाकर कहा :
'सेनापति, आज रात का पड़ाव इसी जंगल में कोई अच्छी जगह देखकर डाल दीजिये! रात यहाँ बिता कर सबेरे आगे चलेंगे।'
‘पर कुमार... यह जंगल डरावना एवं बीहड़ है...हम जंगल को पूरा करके बाद में विश्राम करें तो?' _ 'ओफ्फोह, तुम भी क्या डरपोक जैसी बातें कर रहे हो? इतने सारे सैनिक अपने साथ हैं, तुम हो, और फिर मैं बैठा हूँ ना? क्यों चिंता करते हो? पड़ाव इसी जंगल में डालना है...। मैं कहूँ वैसे करो!'
जंगल में लग गये डेरे-तम्बू! राजकुमार साँझ की घिरती बेला में परमात्मा का पूजन करने के लिये बैठ गया। दो घंटों तक वह परमात्मा का पूजन-ध्यान करता रहा। फिर मदनमंजरी के साथ गपशप करने में रात के तीन घंटे बीत गये। श्री नमस्कार महामंत्र का स्मरण करके राजकुमार सोने की तैयारी करता है...। अचानक उसके दिल में राक्षस को दिया हुआ वचन याद आता है! राक्षस का चेहरा... उसके साथ की हुई बात बिजली की तरह कौंधी उसके दिमाग में!
उसकी नींद उड़ गई। वह सोचने लगा : 'मुझे मेरा वचन तो निभाना ही चाहिए। मुझे जाना ही चाहिए राक्षस के पास! वह मेरे शरीर को खा जाये तो भी परवाह नहीं! मैं जाऊँगा जरुर उसके पास! पर फिर मेरी इस पत्नी का क्या होगा? इसका मुझ पर कितना प्यार है... यह मेरा विरह सह नहीं पायेगी...। मेरे पीछे यह भी शायद जान दे देगी।'
कुमार गहरे सोच में डूब गया। वह सोचता है : ___ 'मेरी यह पत्नी चाहे अपने प्राणों को त्याग दे... मेरा राज्य लुट जाये तो भी गम नहीं...चाहे मेरी जान भी चली जाये तो शिकवा नहीं...फिर भी मैं अपना वचन जरुर निभाऊँगा! वचन से मुकर कर जीने का क्या मतलब?
तो क्या यह सो जाये तब मैं गुपचुप चला जाऊँ यहाँ से? नहीं... नहीं...
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