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पराक्रमी अजानंद
१२९
'कहीं भी भागा नहीं है... यह सामने जो कालिया - काला आदमी खड़ा है वही तेरा हाथी था। मैंने उसे दिव्य चूर्ण के प्रभाव से आदमी बना दिया है!'
राजकुमार अजानंद की बात सुनकर विस्मय से मुग्ध हो उठता है । अजानंद ने अपने पास जो कुछ खाने का सामान था वह राजकुमार और हाथी-नर को खाने के लिए दिया। दोनों खा कर झरने का पानी पी कर स्वस्थ हुए ।
मगरनर, हाथीनर, राजकुमार और अजानंद, चारों वहाँ से आगे के लिए चल दिये। चलते-चलते रात हो आई... इतनें में एक जीर्ण देवालय नजर आया । चारों ने वहाँ पर विश्राम किया ।
अजानंद वगैरह तीनों तो थकान के मारे सो गये पर विमलवाहन की आँखों में नींद नहीं थी। वह करवटें बदलता हुआ यों ही चुपचाप लेटा था। इतने में एक विस्मयकारी घटना हुई ।
मंदिर के एक कोने में से कोई मद्धिम आवाज में बात कर रहा हो वैसी फुसफुसाहट सुनाई दी । विमलवाहन ने कान लगाये। मंदिर में अंधेरा था ... फिर भी छिटकती चाँदनी की हल्की-हल्की रोशनी मंदिर में आ रही थी। उसने ठीक ध्यान से देखा उस कोने की तरफ । वहाँ पर एक तोता-मैना का जोड़ा बैठा हुआ था। मजे की बात तो यह थी कि वे दोनों आदमी की जबान में फुसफुसा रहे थे । राजकुमार धीरे से खड़ा हुआ और एक खंभे की आड़ में खड़ा हो गया। उसके कान पर तोता-मैना की बातें सुनाई दी ।
मैना ने पूछा, 'अरे...इतने दिन तुम कहाँ खो गये थे ? आने में इतनी देरी क्यों कर दी ? कहाँ लगे इतने दिन तुम्हें?'
तोते ने कहा : 'तूने देखा था ना कि वह भील मुझे पकड़कर ले गया था । वह मुझे विजयानगरी में ले गया। उसने राजा की दासी के हाथों मुझे बेच दिया । दासी ने ले जाकर रानी शीलवती के हाथों सौंप दिया मुझे । रानी मुझे देखकर खिलखिला उठी। मैंने मनुष्य की भाषा में संस्कृत श्लोक बोले...अरे... पूरा राजपरिवार प्रसन्न हो उठा। मुझे एक सोने के पिंजरे में रखा गया। पिंजरा सोने का था। पर मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगा ! कैसा भी हो ... मेरे लिए तो वह जेल था। हम तो वन-उपवन के पंखी... हम तो नीलगगन में उड़ना जानें... डाल-डाल पर मुड़ना जानें! मैंने पिंजरे में बैठे-बैठे सोचा... सच तो मूर्खता मेरी ही है । मैं यदि संस्कृत के श्लोक गाता ही नहीं... रानी के आगे
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