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पराक्रमी अजानंद
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अदृश्य हो गयी। इधर मेरा स्वप्न भी पूरा हो गया । और मैं जगा । मैंने स्वप्न को अच्छी तरह याद रखा। फिर बाकी रात मैं सोया नहीं । परमात्मा के ध्यान में ही मैंने रात व्यतीत की। अब आप यहाँ आ गये हो, यह हमारा महान भाग्योदय है। हमारी किस्मत ही तुम्हें यहाँ खींच लायी है । आप हम पर कृपा करें और हमारे महाराज को पुनः मनुष्य बना दें।'
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महामंत्री स्वयं अजानंद को लेकर बाघ के पिंजरे के पास गये। अजानंद ने बाघ को देखा। बाघ ने भी अजानंद को देखा। अजानंद ने अपने मन में अग्निवृक्ष की अधिष्ठायिका देवी को याद किया और अग्निवृक्ष का जो फल उसके पास था उसका उसने चूर्ण बनाया। जरा सा चूर्ण लेकर खाने में मिलाकर बाघ को खिला दिया। जैसे ही बाघ ने भोजन किया कि तुरन्त ही उसका शरीर आदमी का हो गया, जैसे नया चमत्कार हो गया हो ! मंत्री वगैरह तो खुशी से नाच उठे ।
राजा की स्मृति चली गयी थी। उसे कुछ भी याद नहीं था । उसने मंत्री से पूछा : 'ऐ...तुम सब कौन हो ? यहाँ मुझे घेरकर क्यों खड़े हो?'
मंत्री ने राजा को विस्तार से सारी कहानी सुनाई। धीरे-धीरे राजा की याददाश्त वापस लौटने लगी ।
'अरे...अरे...! मैंने खुद अपने बेटे को मार डाला । मैं हत्यारा हूँ। मैं कितना पापी हूँ। राजा फूट-फूट कर रोने लगा। जमीन पर सिर पटकने लगा और फिर बेहोश हो गया। रानियों को समाचार मिलते ही दौड़ी-दौड़ी आयीं । उन्होंने पानी के छींटे मारकर राजा की बेहोशी दूर की। राजा वापस जोरजोर से रोने लगा। राजकुमार नरसिंह के गुणों को याद कर-कर के आँसू बहाने लगा। अपना बेटा किसे प्यारा नहीं होता है ? और इसमें भी राजकुमार नरसिंह तो बड़ा गुणी था । वह हमेशा हँसमुख रहता था। वह सभी के साथ प्यार से बोलता था। सभी का लाड़ला था । राजा को इस तरह रोते-कलपते देखकर अजानंद ने आश्वासन दिया और राजा से शांत होने को कहा ।
राजा ने अजानंद के सामने देखा ।
'ओ महापुरुष! मैंने खुद अपने हाथों अपने बेटे की हत्या कर दी ! कितना बड़ा पाप कर दिया मैंने ! अब मेरा क्या होगा ? मर कर मुझे नरक में जाना पड़ेगा? वहाँ भी इस पाप से मेरा छुटकारा नहीं होगा ।
अजानंद ने महाराजा को आश्वासन देते हुए कहा :
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