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मायावी रानी और कुमार मेघनाद
३२ सब से पहले उसने मूर्ति पर से बासी फूल वगैरह दूर किये। फिर भावपूर्वक पानी का अभिषेक किया। चंदन से मूर्ति के नौ अंगो पर पूजा की। खुश्बूदार फूल चढ़ाये। धूप किया। दिया जलाया । अक्षत से स्वस्तिक रचाया । उस पर मिठाई रखी। फल चढ़ाया।
जिन्दगी में पहले-पहल उसने उस तरह अष्टप्रकारी पूजा की। इसके पश्चात् उसने आरती उतारी और मंगलदीप उतारा। उसका मन आनंद से तरबतर हुआ जा रहा था। वह घर पर गया। उसने धन्या से पूजा में आये आनंद की बात कही। धन्या ने प्रसन्न होकर प्रशंसा की।
फिर तो धनराज रोजाना इस तरह भगवान की पूजा करने लगा। पूजा करके वह भोजन करता है। वह भी दो-चार साधर्मिकों को अपने साथ बिठाकर भोजन करवाता है। बाद में खुद भोजन करता है। भोजन करवा कर उन्हें उत्तम वस्त्र वगैरह की भेंट देता है।
नगर में धनराज की प्रशंसा होने लगी। मान्य लोगों में उसका नाम लिया जाने लगा। अब तो वह हररोज सबेरे और शाम को प्रतिक्रमण करता है। गुरुजनों के चरणों में बैठकर विनय से धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है। गुरुजनों को भक्तिभावपूर्वक भिक्षा देता है। पुस्तकें लिखवाकर साधु-पुरुषों को देता है।
अब वह मात्र दो प्रहर-छह घंटे ही सोता है। रात्रि में जब जाग जाता है... तब आत्मा के बारे में चिंतन करता है। श्री नवकार महामंत्र का स्मरण करता
उसने जिनमंदिर बनवाया। स्वर्ण की सुन्दर प्रतिमा बनवाकर मंदिर में स्थापित की।
हजारों रुपये खर्च करके उसने हजारों पशुओं को बचाये । दुःखी मनुष्यों को भोजन-वस्त्र वगैरह का दान दिया। उनके दुःख दूर किये।
इस तरह उसने जैनधर्म का पालन किया । धन्या ने भी जैनधर्म का सुन्दर पालन किया। दोनों का आयुष्य पूरा हुआ। धनराज मर कर तू मेघनाद हुआ है और धन्या मर कर मदनमंजरी बनी है।
तूने जो अपूर्व व अद्भुत प्रभुभक्ति की थी और दानधर्म का पालन किया था, उसके कारण तुझे इस जन्म मैं कल्पवृक्षसा रत्नों का दिव्य कटोरा मिला है। ढेर सारी राज्यसंपत्ति मिली है।
अपने और मदनमंजरी के पूर्वजन्म की बातें सुनकर मेघनाद को और
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