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पराक्रमी अजानंद
१४२ वहाँ उपस्थित सभी लोग एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। 'ऐसा आदमी खोजना कहाँ? और शायद मिल भी जाए तो वह खुद की जीभ काट कर देगा क्या?'
इतने में अजानंद ने कहा : 'वैद्यराज, मैं खुद भी बकरी के दूध पर ही बड़ा हुआ हूँ। मैं मेरी जीभ काट कर देता हूँ।' यों कह कर उसने चाकू मँगवाया और अपनी जीभ काटने के लिए तैयार हो गया। इतने में एक दिव्य वाणी सुनाई दी : 'ओ सात्विक राजा, साहस मत कर।' और उसी क्षण वहाँ पर एक दिव्य शरीरधारी देवी प्रगट हुई। दूसरी ओर वह रोगी औरत और परदेशी वैद्य अचानक वहाँ से अदृश्य हो गये! वहाँ पर खड़े सभी लोग आश्चर्य चकित रह गये । राजा अजानंद भी इस अद्भुत घटना से स्तब्ध-सा रह गया। उसने चाकू बगल में रख दिया और देवी को प्रणाम किया। देवी ने आशीर्वाद देकर कहा :
'परोपकारी राजा, मैं इस चंद्रानना नगरी की अधिष्ठायिका देवी हूँ। तेरा जन्म हुआ तब से मेरे दिल में तेरे लिए वात्सल्य है। मैं तेरे जन्म से तेरे साथ हूँ| अनेक आपत्तियों से मैंने तुझे बचाया है। यह विशाल राज्य मैंने तुझे दिया है और तेरी परोपकार की भावना की परीक्षा भी आज मैंने ले ली है।
वत्स, पराक्रम का प्रयोजन ही परोपकार है। तुम में वैसा पराक्रम है। तू परोपकार करते रहना । लम्बे समय तक तू इस विशाल राज्य का उपभोग कर सकेगा और चक्रवर्ती जैसा महान होगा।'
इतना कह कर देवी अदृश्य हो गई। अजानंद अंजलि जोड़कर नतमस्तक होकर खड़ा रहा।
जीवन बीत रहा है। संसार की यात्रा चलती रहती है। एक दिन राजा अजानंद अपने खंड में अकेला बैठा था। वहाँ उसके मन में परलोक का विचार आया : 'मैं मर कर किस गति में जाऊँगा? राजा मर कर नरक में जाता है।' - इस सत्य को स्वीकार करके तो मेरे पिता ने मेरा त्याग कर दिया था। तो क्या मैं नरक में जाऊँगा? नहीं...नहीं...मुझे नरक में नहीं जाना है... यदि कोई सद्गुरु मिल जाए तो मैं उनसे उपाय पूछूगा... वे जैसा कहेंगे वैसा करूँगा।'
पुण्यशाली जीव की इच्छा जल्दी ही सफल हो जाती है। दूसरे ही दिन उसे समाचार मिले कि 'श्री विजयसेनसूरि नाम के आचार्यदेव नगर के बाहरी उद्यान में पधारे हैं।' अजानंद अपने परिवार के साथ गुरुदेव को वंदन करने
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