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मायावी रानी और कुमार मेघनाद
२३ चन्द्र जैसे शीतल! कमलपत्र से निर्लेप!
गुरुदेव के दर्शन करके, वंदन करके, विनयपूर्वक सभी जमीन पर बैठे। सैंकड़ों नगरवासी स्त्री-पुरुष भी वहाँ पर एकत्रित हुए थे। ___ गुरुदेव ने धर्म का उपदेश देना प्रारंभ किया। उनकी वाणी में जैसे शहद घुली हुई थी...सभी नर-नारी वाणी सुनने में रसलीन बन गये। गुरुदेव ने संसार के सुखों की असारता बतलायी। पुण्यकर्म और पापकर्म के फल बताये। धर्म के प्रभाव का वर्णन किया। परम सुखमय मोक्ष का स्वरूप समझाया। एक-एक बात तरह-तरह के उदाहरण दलीलें व तर्क देकर इतनी सरस शैली में बतलायी कि श्रोताओं के मन में वैराग्य की भावना जाग उठी। श्रोताओं के मन को आनंद मिला। उनके संताप दूर हो गये। सभी के हृदय को शांति मिली। राजा लक्ष्मीपति ने खड़े होकर, सर झुकाकर, दोनों हाथ जोड़कर गुरुदेव से कहा : __'गुरुदेव, आत्मा पर लगे हुए अनंत-अनंत कर्मो का नाश करने के लिये मैं तत्पर बना हूँ। आपके धर्मोपदेश से मेरा मन सभी प्रकार के सांसारिक सुखों से विरक्त बना है। गुरुदेव, मैं आपके चरणों में अपना जीवन समर्पित करना चाहता हूँ। मुझे दीक्षा देकर, संसार सागर से पार उतारिये!'
गुरुदेव ने कहा : 'राजन, अच्छे कार्य में अनेक प्रकार की बाधाएँ आती रहती हैं, इसलिये विलंब करना उचित नहीं हैं।' ___ कुमार मेघनाद ने भी खड़े होकर विनयपूर्वक गुरुदेव से कहा : 'ओ गुरुदेव! मैं भी इस संसार के तमाम सुखों से विरक्त बना हूँ। मुझे भी गृहस्थजीवन में नहीं जीना हैं...आप मुझे भी दीक्षा प्रदान करके भवसागर से पार करें।'
गुरुदेव ने पल दो पल आँखे मूंदी और कुमार के भविष्य को अपने ध्यान के माध्यम से देखा। आँखे खोल कर उन्होंने कुमार से कहा : __ 'कुमार, तेरी भावना सुंदर है... चारित्रधर्म का पालन किये बगैर मोक्ष का मिलना संभव नहीं है... पर जैसे अशुभ कर्म भुगते बिना छुटकारा नहीं होता है... वैसे शुभ कर्मों के उदय को भी भोगना ही पड़ता है। पापकर्म लोहे की जंजीर है, तो पुण्यकर्म सोने की जंजीर। वत्स, तुझे तो अभी बहुत सारे
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