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श्रेष्ठिकुमार शंख
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ही समझकर यहाँ रहो ।' शंख वहाँ रुक गया । पल्लीपति ने शंख को बड़े प्यार से रखा। दोनों के बीच दोस्ती की डोर बँध गयी । शंख ने पल्लीपति को कई
बार समझाया :
'ओ वीरपुरुष! जीवों की हत्या करना... बेगुनाह जीवों को मारना ही सारे दुःखो की जड़ है । निरपराधी, निःशस्त्र और अशरण जीवों की हत्या जैसा बुरा पाप कोई नहीं है! तुम क्यों जीवहिंसा का पाप करते हो? छोड़ दो यह हिंसा का जीवन! अहिंसाधर्म का पालन करो। जीवों के ऊपर दया रखो, प्रेम और करुणा रखो ।
सरदार! इन्सान का कीमती जीवन, अच्छा स्वस्थ शरीर... और लोगों में आदर-सम्मान, यह सब अहिंसा धर्म के प्रभाव से ही मिलता है । जो मौत के भय से फड़कते जीवों को जीवनदान देता है, अभय का वरदान देता है, वह अपने जीवन में अवश्यमेव निर्भय बनकर जीता है, इसलिये मेरी तुम से हार्दिक विनती है कि तुम जीवहिंसा छोड़ दो! चोरी और लूटमार करना भी छोड़ दो...। तुम्हारे पास कितनी सारी जमीन है ... । तुम खेती कर सकते हो...आदमियों के पास खेती करवा सकते हो...। हजारों पशुओं का पालन कर सकते हो। तुम्हारे पास ढेर सारी संपत्ति है... इससे अनेक पर उपकार के कार्य कर सकते हो। इस मनुष्य जीवन को सफल बनाने के सारे कार्य तुम कर सकते हो!'
शहद से भी ज्यादा मीठी वाणी सुनकर पल्लीपति मेघ मुग्ध हो उठा। उसकी आत्मा में दयाभाव का झरना बहने लगा। उसने शंख के पास अहिंसाव्रत लिया ।
शंख को बहुत आनंद हुआ। उसने सोचा : 'पल्लीपति को धर्म के पालन में मजबूत बनाने के लिये मुझे अभी और कुछ दिन यहीं पर गुजारने होंगे। वैसे भी सरदार खुद ही मुझे जल्दी तो जाने नहीं देगा ।'
शंख वहीं पर रहा कुछ दिन | महीने आनंद-प्रमोद में बीत गये । एक दिन शंख को अपने घर की याद सताने लगी। उसने पल्लीपति से इजाजत ली।
पल्लीपति ने शंख को सोना-चाँदी से भरी एक गठरी दी... । वह उसे चार कोस तक पहुँचाने के लिये साथ गया । बिदा देते-देते पल्लीपति की आँखें गीली हो गई। कुछ मुसाफिरों का काफिला मिलने पर शंख उनके साथ हो गया। इधर पल्लीपति मेघ वापस लौटा ।
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