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श्रेष्ठिकुमार शंख
५९ 'जल्दबाजी करने की जरूरत नहीं है...और किसी चीज की भी आवश्यकता नहीं है। तुम सब शांति से बैठ जाओ...।' __ शंख ने जमीन साफ करवायी और स्वंय पद्मासन लगाकर बैठ गया वहाँ पर | उसने अपनी दृष्टि नाक के अग्रभाग पर जमा दी। अपने मन को हृदय के नीचे नाभिप्रदेश में स्थिर किया । उसने नवकार महामंत्र का ध्यान लगाया। दो घड़ी ध्यान करके उसने फिर स्पष्ट रूप से मधूर ध्वनि में नवकार महामंत्र का गान प्रारंभ किया...जैसे कि अमृत की बरसात बरसती हो...शांत नदीझरने का पानी कल-कल बहता हो! उसका स्वर मधुर-मधुरतम बनता चला।
सरदार के बेटे के कानों में वह ध्वनि पड़ रही थी। अचानक उसका शरीर काँपने लगा...और जो पिशाच उसको सता रहा था... वह जोरों से चिल्लाता हुआ वहाँ से निकल भागा!
सरदार के पुत्र का शरीर शांत हो गया। उसके चेहरे पर शीतलतास्वस्थता छाने लगी। सरदार भी खुशी से खिल उठा। उसकी आँखों में से हर्ष के आँसू बहने लगे। उसने शंख से कहा : _ 'ओ महापुरुष! तुम दिखने में छोटे हो, पर वास्तव में महान हो...। तुम्हारे प्रभाव से मेरा बेटा स्वस्थ हो गया । तुम्हारी मंत्रशक्ति की ताकात से सब कुछ अच्छा हो गया... | तुम्हारी ताकत का उपयोग भी तुमने खुद के लिये नहीं किया... परोपकार के लिये किया। मैं तुम्हारे ऊपर बेहद खुश हूँ...। मैं तुम्हारी कोई भी इच्छा पूरी करने के लिये तैयार हूँ। माँगो...तुम...जो भी तुम्हारी इच्छा हो... वह माँग लो!!!'
शंख ने कहा : 'ओ पल्लीपति सरदार! यदि तुम मेरे ऊपर सचमुच ही प्रसन्न हुए हो तो मेरे साथ जिन दस आदमियों को पकड़ा है...उन्हें जीवनदान दे दो...| स्वजनों की तरह उन्हें सम्मानित करके, उन्हें प्रेम से बिदा कर दो।' __ पल्लपति, शंख की भावना देखकर बड़ा ही प्रसन्न हुआ। उसने सभी मुसाफिरों को अच्छे वस्त्र दिये, मिठाई का नाश्ता दिया... और बड़े आदर के साथ सब को बिदाई दी।
पल्लपति ने शंख से कहा :
'छोटे महापुरुष, तुम को मैं अभी बिदाई नहीं दूंगा! कुछ दिन तुम यहीं पर रहो...। मैं तुम्हारी सेवा करूँगा...। तुम्हें अच्छी तरह रखूगा | मुझे तुम अपना
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