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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पराक्रमी अजानंद १२५ उठा लिए...और एक व्यापारी को बेच दिये । व्यापारी ने इतने सुन्दर-दिव्य वस्त्र नगर के राजा विक्रम को भेंट स्वरूप दे दिये। वसन्त उत्सव के दिन आये। नगर के लोग बढ़िया कपड़े पहन कर सजधज कर नगर के बाहर बगीचे में घूमने-फिरने जाने लगे । राजा विक्रम भी, वे दोनों दिव्य वस्त्र पहन कर बगीचे में पहुँचा । इधर बुद्धिधन श्रेष्ठि का पुत्र मतिसागर भी सुन्दर वस्त्र पहनकर और अजानंद का हार गले में डालकर घूमने के लिए आया था। राजा ने बगीचे में टहलते हुए मतिसागर को देखा । उसके गले में पहने हुए रत्नहार को भी देखा । राजा चौंका। उसने मतिसागर को अपने पास बुलवाया और पूछा : 'यह रत्नहार तू कहाँ से लाया ? सच - सच बताना!' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मतिसागर सकपका गया । वह जवाब नहीं दे पाया। सचमुच तो उसे पता ही नहीं था कि यह हार अजानंद का है। राजा ने गुस्से में आकर सैनिकों को इशारा किया...और सैनिक टूट पड़े उस मतिसागर पर ! लातों और घूँसों से उसकी हालत खस्ता कर दी ! रस्सी से बाँधकर ... ऊपर से डंडे मारने लगे । बेचारा मतिसागर खून की उल्टी करता हुआ बेहोश होकर ढेर हो गया । सेठ बुद्धिधन को समाचार मिला कि राजा के सैनिकों ने मतिसागर को मारा है। इसलिए अजानंद के साथ बुद्धिधन दौड़ता हुआ बगीचे में पहुँचा । पुत्र की दुर्दशा देखकर सेठ रो पड़ा। उसने राजा से पूछा : ‘आपके सैनिकों ने मेरे बेटे को इतनी मारपीट क्यों की | क्या गुनाह है मेरे बेटे का ?' 'गुनाह? अरे चोर है, चोर तुम्हारा सपूत ! इसने मेरे रत्नहार की चोरी की है... यह रत्नहार मेरा है ! ' 'पर महाराजा, यह हार तो इस परदेशी अजानंद कुमार का है । यह मेरी हवेली में मेहमान है। इसने मुझे हार दिया था सम्हालने के लिए। वही हार मेरे बेटे ने पहना है... ! ' सेठ ने कहा । मैने राजा ने मतिसागर को छोड़ते हुए कहा : 'क्यों रे परदेशी, तूने चुराया है यह हार ?' 'जी हाँ, चुराया है।' अजानंद को तो इस तरह का नाटक करना ही था । For Private And Personal Use Only
SR No.009636
Book TitleMayavi Rani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size1 MB
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