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श्रेष्ठिकुमार शंख
५१ राजकुमार के मन में तो पाताल की राजकुमारियाँ चक्कर काट रही थी। रातभर राजकुमार सपने देखता रहा पातालकन्याओं के! उसने सोचा : 'सबेरे मैं अकेला ही बाबा के पास चला जाऊँगा।'
सुबह में राजकुमार अकेला ही जा पहुँचा बाबा के पास! बाबा तो राह देखकर ही बैठा हुआ था। उसका तीर ठीक निशाने पर ही लगा था। बाबा ने बड़ी खुशी जताई राजकुमार के आने पर| राजकुमार ने पूछा : 'बाबाजी आपने कल जिस गुफा के बारे में बताया था...क्या वहाँ पर जाया जा सकता है? कैसे जाया जाता है? मेरा मन वहाँ जाने के लिये अति व्याकुल है... मैं रातभर सोया भी नहीं हूँ...।'
बाबा ने कहा : 'बेटा, ज्यादा तो क्या कहूँ? पर यदि मैं तुझे पातालकन्याओं के पास न ले चलूँ तो मेरा नाम ज्ञानकरंडक नहीं! तू मेरे ऊपर थूक देना... पर देख कुमार, अच्छे कार्य में अनेक अंतराय आते हैं, अवरोध खड़े होते हैं । इसलिये तू जल्दी से जल्दी तैयारी करके आ जा | बात करने में या सोचने में समय बिता दिया तो फिर मौका हाथ से निकल जायेगा।'
कुमार बाबा को प्रणाम करके राजमहल में गया। उसने अपने तीनो मित्रों को बुलाकर कहा : 'मेरे प्यारे दोस्तों, तुम योगी की बात में जरा भी शंका मत करो... मैं आज ही उनके पास जाकर आया हूँ...। वे अपने को पातालकन्याओं के पास गुफा में ले जायेंगे। इसलिये जरा भी देरी किये बगैर तुम तैयार हो जाओ! हमको इस ढंग से यहाँ से निकलना है ताकि किसी को न तो मालूम पड़े, न ही कोई हमें रोक पाये...।
तीनों दोस्तों को राजकुमार की बात जरा भी ऊँची नहीं परन्तु आखिर दोस्ती तो पक्की थी...। इतनी सी बात को लेकर दोस्ती टूट जाय यह उन्हें पसंद नहीं था। राजकुमार के साथ जाने के लिये शंख, अर्जुन और सोम तैयार हो गये।
रात के समय चारों दोस्तों ने भेष बदल लिया। किसी को पता न लगे इस ढंग से वे नगर के बाहर बगीचे में आये । आधी रात गये चार अनजान आदमियों को यकायक आये देखकर बाबाजी भड़क उठे। उन्होंने चौंककर पूछा : 'कौन हो तुम?' 'महात्माजी, यह तो मैं कुमार...'
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