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श्रेष्ठिकुमार शंख
महाराजा विजयसेन ने ज्ञानी गुरुदेव के चरणों में जाकर चारित्र अंगीकार किया।
एक दिन राजा जय राजसिंहासन पर बैठा हुआ था। उसके सर पर श्वेत छत्र था। दोनों तरफ दो परिचारिकाएँ चामर दुलो रही थी। अनेक आज्ञांकित राजा जयराजा को प्रणाम करके अपने-अपने सिंहासन पर बैठे हुए थे। राजसभा के मध्यभाग में नृत्यांगनाएँ नृत्य की तैयारियाँ कर रही थी। बंदीलोग राजा की बिरुदावलियाँ गा रहे थे। पंडित, कवि, कलाकार और अनेक विशिष्ट व्यक्ति वहाँ हाजिर थे। पूरी राजसभा खचाखच भरी हुई थी। । इतने में अचानक एक तरफ शोर मच उठा | राजा और सभी सभाजन उस तरफ देखने लगे।
'क्या हुआ है वहाँ? जल्दी तलाश करो।' राजा ने अपने अंगरक्षक को उस तरफ भेजा। इतने में वहाँ से एक सैनिक दौड़ता हुआ आया और बोला :
'महाराजा, आपके धनपाल वगैरह तीनों मित्र उस तरफ बेहोश होकर जमीन पर गिर गये हैं। आप वहाँ पधारें।' राजा तुरंत वहाँ पर पहुँचा। वहाँ पर खड़े एक राजपुरुष ने कहा :
'महाराजा, आपके ये प्रिय मित्र, इस दीवार पर के चित्र को देखने में लीन हो गये थे...और अचानक बेहोश होकर जमीन पर ढेर हो गये।'
राजा जय की निगाह भी दीवार पर के चित्र पर गई। राजा भी टकटकी बाँधे चित्र देखने लगा...और वह भी बेहोश होकर जमीन पर ढेर हो गया।
राजसभा में हाहाकार मच गया। गीत-गान-नृत्य सब बंद हो गये।
राजा और तीन मित्रों के इर्द-गिर्द सशस्त्र सैनिक जमा हो गये | मंत्रीमंडल भी 'क्या करना?' इस बारे में मशविरा करने लगे। मुख्य परिचारिकाएँ महाराजा पर शीतल पानी के छींटे देने लगी। पंखे से हवा झलने लगी। कुछ देर बाद राजा की बेहोशी दूर हुई। राजा ने आँखें खोली।
उपस्थित अन्य राजाओं ने पूछा : 'महाराजा, अचानक आपको क्या हो गया?' राजा जय ने कहा : 'चलो, सभी राजसभा में बैठ जाओ...अपनी-अपनी जगह पर | मैं वहाँ सारी बात बताता हूँ।
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