Book Title: Lakshya Banaye Safalta Paye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | श्री चन्द्रप्रभ लक्ष्य बनाएँ सफलतापाएँ मंज़िल होगी क़दमों तले पुस्तक महल लक्ष्य-प्राप्ति के छह चरण = उन्नत लक्ष्य+ कार्य-योजना+ सकारात्म Ron Personal & Private Use Only निरन्तर प्रयत्न Naww.jainelibrary.org वश्वास Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्य बनाएँ सफलता पाएँ उठो, जागो और तब तक न रुको, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। - स्वामी विवेकानंद उन्नत होना और आगे बढ़ना प्रत्येक जीव का लक्ष्य है। - अथर्ववेद ● कर्म, ज्ञान और भक्ति इन तीनों का जिस तरह ऐक्य होता है, वही श्रेष्ठ पुरुषार्थ है । - श्री अरविंद ● देवता पुरुषार्थी से प्रेम करते हैं, आलसी से नहीं । - ऋग्वेद V ईश्वर रूप होने का प्रयत्न ही सच्चा और एकमात्र पुरुषार्थ है। - महात्मा गांधी For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्य बनाएँ सफलता पाएँ मंज़िल होगी क़दमों तले श्री चन्द्रप्रभ पुस्तक महल ® For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक O पुस्तक महल J-3/16, दरियागंज, नई दिल्ली -110002 123276539, 23272783, 23272784• फैक्स: 011-23260518 E-mail: info@pustakmahal.com • Website: www.pustakmahal.com विक्रय केन्द्र • 10-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-110002 • 23268292, 23268293, 23279900 • फैक्स: 011-23280567 E-mail: rapidexdelhi@indiatimes.com • 6686, खारी बावली, दिल्ली-110006 .23944314, 23911979 शाखाएं बंगलुरू: 080-2234025 • टेलीफैक्स: 080-22240209 E-mail: pustak@sancharnet.in •pustak@airtelmail.in मुंबई: : 022-22010941, 022-22053387 E-mail: rapidex@bom 5.vsnl.net.in पटनाः 70612-3294193 • टेलीफैक्स: 0612-2302719 E-mail: rapidexptn@rediffmail.com हैदराबादः टेलीफैक्स: 040-24737290 E-mail: pustakmahalhyd@yahoo.co.in © पुस्तक महल, नई दिल्ली ISBN 978-81-0844-0 संस्करण: 2012 भारतीय कॉपीराइट एक्ट के अंतर्गत इस पुस्तक के तथा इसमें समाहित सारी सामग्री (रेखा व छायाचित्रों सहित) के सर्वाधिकार “पुस्तक महल" के पास सुरक्षित हैं। इसलिए कोई भी सज्जन इस पुस्तक का नाम, टाइटल डिजाइन, अंदर का मैटर व चित्र आदि आंशिक या पूर्ण रूप से तोड़-मरोड़ कर एवं किसी भी भाषा में छापने व प्रकाशित करने का साहस न करें, अन्यथा कानूनी तौर पर वे हर्जे-खर्चे व हानि के जिम्मेदार होंगे। मुद्रकः सुपर फाईन बुक - वर्क्स, ट्रोनिका सिटी, लोनी गाजि०(यू०पी०) For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व स्वर. सफलताएं संयोग से नहीं मिलतीं। सफलता समर्पण चाहती है। हर सफल व्यक्ति का जीवन-महल श्रम और निष्ठा की नींव पर ही टिका होता है। जो व्यक्ति नाकामयाब रहते हैं, उनका जीवन समंदर में भटकी हुई किश्ती की तरह होता है, जो बिना लक्ष्य के पानी के थपेड़ों के बीच अपने वजूद को बचाने के लिए विवश होती है। हमारा अस्तित्व उस किश्ती की तरह बनकर न रह जाए, हम अपना एक लक्ष्य निर्धारित करें और उसे पाने के लिए दिलो-जान से जुट जाएं, यही श्री चंद्रप्रभ जी की पावन-प्रेरणा है, लक्ष्य बनाएं, पुरुषार्थ जगाएं। प्रख्यात चिंतक और जीवन-द्रष्टा श्री चंदप्रभ जी का साहित्य विपुल है, शब्द की दृष्टि से ही नहीं, अर्थ के नजरिए से भी। अर्थ की गहराइयों से लिपटा हर शब्द सीधा हृदय पर दस्तक देता है और व्यक्ति को सोचने के लिए विवश कर देता है। श्री चंद्रप्रभ जी का न भाषा के प्रति आग्रह है, न पंथ विशेष के लिए दुराग्रह और न ही वैचारिक स्तर पर कोई पूर्वाग्रह । वे केवल जीवन देखते हैं और देखते हैं, मानवीय चेतना की हर संभावित ऊंचाई को। श्री चंद्रप्रभ जी अपने उद्बोधनों के माध्यम से केवल राह ही नहीं दिखाते, बल्कि राह की कठिनाइयों और अड़चनों से भी वाकिफ़ कराते हैं। उनकी प्रेरणा लक्ष्य-निर्धारण के बाद पुरुषार्थ तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वे हर उस आयाम को हमें सौंपना चाहते हैं, जो हमें मंज़िल के और करीब ले जाने के लिए सुगमता दे। प्रथम चरण में वे कहते हैं कि व्यक्ति अपने मन के बोझ को उतार फेंके बोझिल मन से किया गया काम और जिआ गया जीवन भला किस काम का सुखी जीवन का स्वामी तो वही है, जो अपने चित्त में किसी तरह का बोझ नहीं रखता, शांत, निश्चित और हर हाल में मस्त रहता है। __ शांति जीवन का सबसे बड़ा वैभव है। जिसके जीवन में शांति नहीं है वह अकूत ख़जाने का मालिक होकर भी खिन्न और दुःखी है। इस शांति को पाने के लिए लोग क्या-क्या नहीं करते, फिर भी वह नसीब नहीं होती, पर For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चंद्रप्रभ जी एक ऐसी कीमिया दवा सुझाते हैं, जो कभी बेकार नहीं जाती और वह है, प्रतिक्रियाओं से परहेज़ । वे कहते हैं कि क्रियाओं का होना स्वाभाविक है, किंतु प्रतिक्रियाओं का होना आत्मनियंत्रण का अभाव है । जो अपने पर काबू नहीं रख सकते, वे ही बात-बेबात व्यर्थ की प्रतिक्रियाएं करते रहते हैं । जो अपने जीवन में इस बात का बोध बनाए रखता है कि मैं क्रिया-प्रतिक्रिया के भंवर - जाल में नहीं उलझंगा, वही अपने जीवन में शांति और आनंद को बरकरार रख पाएगा । जीवन की सफलताओं में स्वस्थ - सुंदर शरीर की अपेक्षा स्वस्थ- सुंदर मन की भूमिका कहीं अधिक होती है । जिसका मन रुग्ण है, उसकी सोच भी रुग्ण और विकृत होती है। ऐसा व्यक्ति अपने जीवन को नरक बना डालता है । श्री चंद्रप्रभ जी कहते हैं कि मनुष्य सोच सकता है, इसीलिए वह मनुष्य है 1 इससे भी बढ़कर बात यह है कि सोच ही मनुष्य है । मनुष्य की सत्ता से यदि सोचने-समझने की क्षमता को अलग कर दिया जाए, तो धरती पर मनुष्य की सत्ता का कोई अर्थ ही नहीं रहेगा, वह एक निर्बल असहाय दोपाया जानवर भर रह जाएगा। व्यक्ति जो भी सोचे, स्वस्थ - सुंदर सोचे, हर बिंदु पर समग्रता और सकारात्मकता से सोचे । 1 आदमी का जीवन को देखने का नज़रिया अत्यंत नकारात्मक है । नकारात्मकता के विष के कारण उसका जीवन तनाव - अवसाद से घिर गया है । इससे उबरने का एकमात्र उपाय सकारात्मकता को अंगीकार करना है। श्री चंद्रप्रभ जी की नज़रों में यह सर्वकल्याणकारी मंत्र है, जो कभी निष्फल नहीं होता । सकारात्मकता से बढ़कर कोई पुण्य नहीं और नकारात्मकता से बढ़कर कोई पाप नहीं होता । सकारात्मक जीवन-दृष्टि के साथ किया गया पुरुषार्थ निश्चय ही व्यक्ति को लक्ष्य के और करीब ले जाता है । आपको अपनी मंज़िल हासिल हो, यही कामना है । बस, लक्ष्य को अपनी आंखों में बसाए रखें और प्रतिपल पुरुषार्थ को प्रेरित करती आचार्य जी की वाणी को हर - हमेशा हृदय में हिलोरें लेने दें । 1 -सोहन For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंदर के पृष्ठों में. लक्ष्य बनाएं, पुरुषार्थ जगाएं मन के बोझ उतारें औरों का दिल जीतें प्रतिक्रियाओं से परहेज रखें भय का भूत भगाएं स्वस्थ सोच के स्वामी बनें जीवन-दृष्टि सकारात्मक बनाएं For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पुस्तक से... लक्ष्य को आंखों में बसाकर ही अर्जुन ने कभी चिड़िया की आंख को, तो कभी मछली की आंख को बेधने में सफलता पाई थी । क्षेत्र चाहे व्यवसाय का हो या साधना का, शिक्षा का हो या संस्कार का, विकास का हो या विज्ञान का, दृष्टि लक्ष्य पर हो, तो लक्ष्य अवश्य सिद्ध होगा। आपके जीवन में सफलता का सूर्योदय अवश्य होगा। आखिर आप भी अपने कर्म क्षेत्र के अर्जुन हैं। जिन तत्वों को अपनाकर अर्जुन सफल हुए या दुनिया के अन्य महानुभाव जीवन और जगत के क्षेत्र में हर ओर विजयी हुए, तो आप और हम क्यों नहीं हो सकते? For Personal & Private Use Only श्री चंद्रप्रभ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्य बनाएं, पुरुषार्थ जगाएं जिन स तरह कोई राहगीर समुद्र के किनारे बैठकर समुद्र की लहरों को देखता है, उसी तरह मैं भी जीवन के किनारे बैठकर जीवन हारा करता हूं । जीवन चाहे मेरा हो या किसी और का, जीवन तो जीवन ही होता है । हर जीवन के साथ एक जैसी ही प्राण-धारा बहती है। सभी व्यक्ति जीवन के तयशुदा रास्तों से गुजरते हैं । जिस रास्ते से महावीर और बुद्ध, राम और रहीम, मीरा और मंसूर गुजरे थे, उसी रास्ते से हम भी गुजर रहे हैं । आइंस्टीन और एडीसन, शेक्सपियर और मैक्समूलर, अल्फ्रेड नोबल और नेल्सन मंडेला भी आख़िर हममें से ही पैदा हुए हैं । जैसे मां की कोख से हम पैदा हुए थे, वैसे ही वे पैदा हुए। जैसे हम खाते हैं, संसार भोगते हैं और मर जाते हैं, ऐसे ही उनके जीवन में घटित हुआ था । आखिर उनके और हमारे जीवन में अंतर क्या है ? उनका एक लक्ष्य था, जीवन की सुनिश्चित । प्रकृति देती है प्रतिफल हमारे तो सर्वांग संपन्न हैं, मैं उन लोगों को भी देख रहा हूं, जो शरीर से अपूर्ण या अपाहिज होते हुए भी सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंचे और उन्होंने जीवन का भरपूर परिणाम पाया । प्रकृति के द्वारा दिए गए अभावों के बावजूद जो ऊंचाइयों तक पहुंचे, वे ही तो धरती पर शिखर पुरुष कहलाते हैं । सूरदास नेत्रहीन थे, पर उनकी काव्य-प्रतिभा की सारी मानवता कायल है । प्रसिद्ध विद्वान डॉ. रघुवंश सहाय वर्मा हाथ से लाचार थे, वह पैर से लेखन - कार्य करते थे । क्या यह उदाहरण हमारी सोई हुई चेतना को जगाने के लिए पर्याप्त नहीं है? जब कभी 9 For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेलन केलर को पढ़ता हूं, तो हृदय इस बात से अभिभूत हो जाता है कि एक गूंगी, बहरी और अंधी, यद्यपि इस शब्द-प्रयोग के लिए मैं क्षमा चाहता हूं, क्या जीवन की इतनी पारदर्शी गहराइयों तक उतर सकती है! जीवन का क्षेत्र अत्यंत जब चलोगे, तब लड़खड़ाओगे भी, | गिरोगे भी, ठोकरें भी लगेंगी, विस्तीर्ण है और कार्य करने को | फिसलोगे भी, पर जो आदमी अनंत । यदि हम किसी भी वस्तु की प्राप्ति की आकांक्षा अपने लड़खड़ाने और फिसलने से डर संपूर्ण मन से करें और उसे प्राप्त गया, वह कहीं नहीं पहुंच पाएगा। करने के लिए निरंतर प्रयास -स्वयं से साक्षात्कार और संघर्ष करते रहें, तो प्रकृति हमें सफलता वैसे ही दे देती है, जैसे सूरज से चली किरण और बादल से बरसी बूंद हम तक पहुंच ही जाती है। जो लोग अपने जीवन में एक लक्ष्य बनाकर जिंदगी के रास्तों से गुज़रते हैं, वे अपनी मंजिलों को हासिल कर ही लेते हैं। जो लोग लक्ष्यहीन जीवन जीते हैं, वे संसार की इस पाठशाला में पढ़ने के लिए फिर भेज दिए जाते हैं। आख़िर जो यहां नहीं चला, वह और कहीं चल पाएगा। ऐसा कम ही संभव है। जो जिंदगी के रास्ते से गुज़रकर जीवन से मुक्त हो जाते हैं, वे सिद्धि और सफलता को प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग जीवन के रास्तों से गुज़रकर भी जिंदगी के पाठों को पढ़ नहीं पाते, वे संसार की पाठशाला में फिर-फिर लौटा दिए जाते हैं, किसी बैरंग लिफ़ाफ़े की तरह। मनुष्य के पुनर्जन्म की यही कहानी है। लक्ष्य बसाएं आंखों में जिस आदमी को जिंदगी में अपना लक्ष्य नज़र आता है, वह व्यक्ति अपने जीवन की अंतिम सांस तक का उपयोग कर लेता है। जिस आदमी के जीवन का कोई लक्ष्य नहीं होता, वह आदमी न तो जी रहा है और न ही मर रहा है। उस आदमी की स्थिति बिल्कुल ऐसी ही हो जाती है, जैसे किसी आदमी को तरल ऑक्सीजन में गिरा दिया जाए। तरलता आदमी को जीने नहीं देती और ऑक्सीजन आदमी 10 For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को मरने नहीं देती। ऐसी स्थिति हर किसी की है । व्यक्ति इसलिए रहा है, क्योंकि मौत अभी तक आई नहीं है । ऐसा व्यक्ति अपनी ज़िंदगी में कभी कुछ नहीं कर सकता । दुनिया ऐसे लोगों से भरी पड़ी है, जीवन को केवल भोग की वस्तु समझते हैं या जिन्हें ज़िंदगी के नाम पर केवल मौत ही दिखाई देती है । जो आदमी मौत से भयभीत रहता है, वह अपनी ज़िंदगी का सही उपयोग नहीं कर सकता । I हम सब कुछ कर सकते हैं, इस आत्मविश्वास और आत्म संकल्प के साथ पुरुषार्थ करो । - न जन्म, न मृत्यु जीवन के द्वार पर खड़े होकर अपने जीवन के लक्ष्य का निर्धारण वही कर सकता है, जिसे अपनी ज़िंदगी की मुंडेर पर जीवन का जलता हुआ चिराग़ नज़र आता है । वह व्यक्ति कभी पुरुषार्थ नहीं कर सकता, जिसे हर ओर अंधेरा ही नज़र आता है । कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में किसी भी लक्ष्य का निर्धारण इसलिए नहीं कर पाता, क्योंकि उसका नज़रिया निराशावादी है । निराशा और मायूसी में घिरे व्यक्ति का चेहरा देखने लायक होता है । बुझा-बुझा निस्तेज चेहरा, आंखें अंदर धंसी हुई, हंसी-मुस्कान से दूर-दूर का रिश्ता I नहीं । आदमी का चेहरा तो हमेशा गुलाब के फूल की तरह खिला-खिला रहे, महकता रहे । निराशा को गले में लटकाए रखने वाले व्यक्ति अकर्मण्य हो जाते हैं, निष्क्रिय हो जाते हैं । नाकामयाबी का खौफ आदमी के मन में गहराई तक उतरा हुआ है । उसे लगता है, उसे अपने काम में असफलता ही हाथ लगेगी, इसलिए वह कुछ नहीं करता । हक़ीक़त तो यह है कि सफलता का रास्ता तब ही पार होता है, जब व्यक्ति सफलता-विफलता का आंशिक भाव भी मन में लाए बगैर निष्ठा - भाव से कार्य में जुटा रहता है । हर असफलता व्यक्ति को सफलता के मार्ग पर ही अग्रसर करती है । जो आदमी तालाब में उतरना चाहे, लेकिन डूबने के डर से भयग्रस्त रहे, वह आदमी कभी तैरना नहीं सीख पाएगा । तैरना सीखने के लिए तो मन से डूबने का खौफ निकालना ही होगा । जो आदमी डूबने के डर से कतराते हैं, वे सौ फीसदी डूबने की तरफ़ ही बढ़ते हैं । 11 For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छा-शक्ति का बिगुल बजाएं 1 I आदमी अपने जीवन में लक्ष्य का निर्धारण नहीं कर पाता, क्योंकि आदमी की इच्छा-शक्ति और आत्मविश्वास बड़ा कमजोर है । मनुष्य के जीवन में पलने वाली उसकी इच्छा-शक्ति उसकी मूल प्रेरक बनती है । वही उसके जीवन का मूल प्रोत्साहन बन पाती है । जिसके जीवन में संकल्प शक्ति और इच्छा-शक्ति सुदृढ़ और प्रबल है, वह व्यक्ति हर कठिनाई से लड़ सकता है। ऐसा ही एक व्यक्ति था, नेपोलियन । नेपोलियन कहता था कि उसके शब्द - कोष में 'असंभव' नाम का कोई शब्द नहीं है । इसी हौसले के बल पर वह दुर्गम घाटियों को पल-भर में पार कर जाता था । ऐसे ही एक और महानुभाव थे, सुकरात । एक बार सुकरात सरोवर में स्नान कर रहे थे। सुकरात से एक युवक ने पूछा, 'महाशय, क्या तुम यह बताओगे कि ज़िंदगी में सफल होने का राज़ क्या है?" युवक सुकरात तक पहुंच चुका था । उसने झट से युवक को पकड़ा और पानी में डूबो दिया। वह आदमी छटपटाने लगा। सुकरात ने अपनी सारी ताकत लगाकर उसे दबाए रखा, मगर युवक की सहन क्षमता जवाब दे गई । अंततः उसने पूरी ताकत लगाकर सुकरात को एक तरफ़ धकेल दिया । वह तालाब से बाहर की ओर भागा। बाहर निकलकर युवक ने सुकरात से कहा, 'तुम्हारी यह बदतमीजी अक्षम्य है, सुकरात ।' सुकरात ने हंसते हुए कहा, 'तुम अपने प्रश्न का समाधान भी चाहते हो और मरने से भी डरते हो। तुम ज़रा बताओ कि जब मैंने तुम्हें पानी में डुबोया, तो तुम्हारी अंतिम इच्छा क्या थी?' युवक ने कहा, 'तब मेरी एकमात्र इच्छा जीने की थी।' सुकरात ने तब कहा, 'सफलता के लिए इससे बड़ा और कोई मंत्र नहीं होता है, जहां आदमी के पास केवल एक ही इच्छा बच जाए और वह इच्छा जीने की इच्छा हो ।' इच्छा-शक्ति और आत्मविश्वास के बल पर ही लक्ष्यों को पाया जा सकता है । आत्मविश्वास से ही बड़ी से बड़ी चट्टानों को भी हटाया I 12 For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा सकता है और अपनी जिंदगी की हर पराजय को विजय में बदला जा सकता है। ध्यान रखें, जीवन में वे जरूर जीतेंगे, जिनके भीतर जीत सकने का पूरा विश्वास है। आत्मगौरव करना सीखें आदमी अपना लक्ष्य निर्धारित नहीं कर पाता, क्योंकि उसका स्वाभिमान बड़ा कमजोर है। आदमी में कभी भी अपने आप पर आत्मगौरव करने का भाव ही नहीं उठता। आपने शायद धर्म की किताबों में इसे अहंकार के रूप में पाया है, पर मैं कहता हूं कि आदमी कभी-कभी अपने आप पर भी गौरव करना सीखे कि ईश्वर ने मुझे इस जीवन के नाम पर कितनी बड़ी महान् सौगात प्रदान की है। सदा अपने आप पर गौरव करो। कभी भी अपने आपको दीन-हीन और गरीब मत समझो। स्वयं को हमेशा करोड़पति समझो। हमारी आंखें, हृदय, गुर्दे और अन्य अंगों की कीमत बाजार में करोड़ों में है, फिर किस बात की हीनता, किस बात का डर! अपने कमजोर स्वाभिमान को उठाकर किनारे फेंको, अपने हृदय की तुच्छ दुर्बलता को किनारे कर दो। बस, अपने आप पर गौरव करो। गौरव इसलिए करो, ताकि तुम हर समय उत्साह-उमंग-ऊर्जा से ओत-प्रोत रह सको। टालमटोल की आदत से बचें आदमी में टालमटोल करने की भी बुरी आदत होती है। वह हर काम को कल पर टालने का आदी है। वह तो मौका ढूंढ़ता है। सोचता है, 'आज करे सो काल कर, काल करे सो परसों। ऐसा करके केवल काम को ही कल पर नहीं टाल रहे, आज को भी कल पर टाल रहे हो। यह कौन-सी गारंटी है कि कल का दिन भी आएगा। आज का कार्य आज ही संपन्न हो। अगर कल पर टालना ही है, तो अपने अशुभ भावों को, अपने क्रोध को, अपने द्वेष-वैमनस्यता को कल पर टालिए? और प्रेम, सहानुभूति, करुणा, शांति के कामों को आज ही कर डालिए। शुभ कार्यों को करने के लिए किसी मुहूर्त की ज़रूरत नहीं होती। मुहूर्त निकलवाना है, तो अशुभ कार्यों के लिए निकाला जाए। अगर गुस्सा आ जाए, तो उसी क्षण किसी संत और मुनि के पास जाना 13 For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और कहना कि मैं गुस्सा करना चाहता हूं, इसलिए कोई ऐसा मुहूर्त निकाल दीजिए कि मैं गुस्सा कर पाऊं। अगर किसी से प्रेम करना हो, तो किसी मुहूर्त की ज़रूरत नहीं है। अगर तुम कालसर्पयोग में भी प्रेम कर लोगे, तो वह 'अमृत-सिद्धि' योग हो जाएगा। अगर शुभ कार्य को अशुभ समय में करो, तो भी कल्याण होगा और अशुभ कार्य को शुभ समय में करो, तो भी अकल्याण होगा। शुभ आज करेंगे, अशुभ को कल पर टालेंगे। बिना लक्ष्य का जीवन कैसा हर आदमी अपने आप में निरुद्देश्य जीवन जी रहा है। चारों ओर भागमभाग है। हर आदमी भाग रहा है, सारी दुनिया दौड़ रही है। करोड़पति भी दौड़ रहा है और रोडपति भी। पैसा जिंदगी का रास्ता हो सकता है, लेकिन मंजिल नहीं; साधन हो सकता है, साध्य नहीं। नतीजतन आदमी की जिंदगी धोबी के कुत्ते-सी हो गई है, घर से घाट और घाट से घर के बीच ही जिंदगी गुजर जाती है, वह घर का रहता है, न घाट का। इनसान दस मिनट के लिए बैठे और अपने जीवन के उद्देश्य के बारे में विचार करे। परिवार की एक आधार-स्तंभ नारी भी उद्देश्यहीन जीवन जीती है। सुबह उठते ही मकान में झाडू-पोंछा लगाना, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना, पति को दुकान भेजना, दिन में खाना बनाना, गेहूं बीनना, शाम को फिर पति की सेवा करना, बस, इसी में सिमट कर रह गया है नारी-जीवन। पुरुष भी उसी तरह माया जाल में उलझा है। व्यक्ति का जीवन निरुद्देश्य-लक्ष्यहीन हो गया है। बगैर लक्ष्य का जीवन तो पशु-तुल्य है। पशु भी हमारी ही तरह पैदा होते हैं, पेट भरते हैं, बच्चे पैदा करते हैं और एक दिन देह छोड़ जाते हैं, फिर हममें और पशु में फर्क क्या रहा? आदमी का जीवन पशु की तरह ही हो गया है। जिस शिक्षा द्वारा पशुता को कम करना होता था, वह भी दिशाहीन हो गई है। शिक्षा मनुष्य को जीने की कला सिखाती है, अंतर्दृष्टि देती है, लेकिन वह शिक्षा रोजी-रोटी कमाने तक ही सीमित हो चुकी है। आज की शिक्षा एम.ए. बना देती है, 14 For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमएएन (MAN) नहीं बना पाती। आदमी को आदमी बना दे, इसी में शिक्षा की अर्थवत्ता है। शिक्षा कमाने के लिए ही न हो। एक अनपढ़ मजदूर भी अपना पेट पाल लेता है और एक बुद्धिहीन जानवर भी अपना पेट भर लेता है। इनसान कुछ पल के लिए शांत चित्त होकर सोचे कि क्या पेट भरना और पेट भरने के लिए दिन-रात जुटे रहना ही जीवन का उद्देश्य है? निरर्थक जीवन मत जीओ, अपने जीवन में कुछ सृजन करो, धरती को थोड़ा प्रमुदित करो, अपनी ओर से कुछ फूल खिलाओ। कविता के छंदों की तरह लयबद्ध होओ, संगीत जैसा अपने आपको स्वरूप दो। शिक्षा को हमने रोजगार के साथ जोड़ा है, जीवन के साथ नहीं जोड़ा। शिक्षा जीवन के साथ जुड़े और आदमी को यह समझ दे कि उसके जीवन का कोई लक्ष्य है। बगैर लक्ष्य का जीवन जीओगे, तो वह भार हो जाएगा। आप ज़रा सोचें कि ईश्वर ने आपको पूरे सौ वर्ष की जिंदगी दी है। क्या सौ साल की जिंदगी भी अपर्याप्त है? आप अपनी जिंदगी में जीते जी ऐसे इंतजाम कर लें कि मौत जिंदगी के द्वार पर आ खड़ी हो, तो कोई शिकवा न रहे। केंद्रीकरण हो शक्ति का जिंदगी का पूरा-पूरा उपयोग हो। उसके हर अंश का, हर कतरे का। हम मरने के लिए नहीं जी रहे हैं, जीने के लिए जी रहे हैं। जीवन कभी भी क्षणभंगुर नहीं होता, क्षणभंगुर तो मौत होती है। मौत क्षण में आती है और क्षण में चली जाती है। जीवन कभी भी क्षण में नहीं आता, न क्षण में जाता है। जो क्षणभंगुर है, उस पर तो हम अपना इतना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं और जिसे हमें पूरे सौ वर्ष जीना होता है, उसके लिए हम पूरी तरह से लापरवाह बने हुए हैं। जीवन में लक्ष्य का निर्धारण करो। अपनी असली संतुष्टि और तृप्ति तब मानना, जब हर दिन लक्ष्य की पूर्ति होती चली जाए और तुम हर दिन को यह मानो कि लक्ष्य की तरफ़ हमारे क़दम आगे बढ़ चुके हैं। For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 हम बचपन में खेला करते थे । मां जिस आईने को देखकर अपना चेहरा संवारा करती थी, हम उसे लेकर दोपहर में धूप में बैठ जाते और किसी कागज़ पर उसकी किरणें केंद्रित करते । तुम भी अपनी ज़िंदगी के सारे पुरुषार्थों को अगर कहीं एक जगह पर केंद्रित कर दो, तो पाओगे कि जीवन रोशन हो चुका है। ऐसे ही तुम अपने जीवन की ऊर्जा को कहीं भी केंद्रित कर दो, तो वह ऊर्जा तुम्हारे जीवन के लिए चमत्कार साबित हो जाएगी। वह ऊर्जा मस्तिष्क में केंद्रित हो जाए, तो तुम्हारा मस्तिष्क प्रखर हो जाएगा और तुम्हारे शरीर में किसी दर्द वाले स्थान पर केंद्रित हो जाए, तो उस स्थान की रेकी हो जाएगी, उपचार हो जाएगा। जीवन की ऊर्जा को अगर केंद्रित करना आ जाए, तो वह ऊर्जा अद्भुत परिणाम देती है। ज़िंदगी का अगर एक लक्ष्य बना दो, तो जीवन का चिराग रोशन हो उठेगा। आप रेलवे स्टेशन पर जाते हैं, तो क्या किसी ऐसी ट्रेन पर सवार होना चाहेंगे, जिसके गंतव्य का कोई पता न हो ? जब आप बिना मंजिल के पते वाली ट्रेन में सवार नहीं होना चाहते हैं, तो आपने ज़िंदगी की गाड़ी को ऐसी पटरी पर क्यों डाल रखा है, जिसका कोई लक्ष्य नहीं है । ज़िंदगी का एक सुनिश्चित लक्ष्य हो । कर्मक्षेत्र के अर्जुन हों कहते हैं गुरु द्रोणाचार्य छात्रों को तीरंदाजी का प्रशिक्षण दे रहे थे । कौरव और पाण्डव सभी एकत्र थे। पेड़ पर एक चिड़िया टंगी हुई थी। सभी से कहा गया उन्हें चिड़िया की आंख पर निशाना लगाना है। एक-एक करके विद्यार्थी आते। सबसे पहले उनसे एक प्रश्न पूछा जाता कि उन्हें क्या दिखाई दे रहा है? कोई कहता कि उन्हें पेड़ दिखाई दे रहा है, कोई कहता कि चिड़िया दिखाई दे रही है, कोई कहता कि दूर क्षितिज तक सारे दृश्य दिखाई दे रहे हैं । उन सबको निशाना लगाने का मौका दिए बिना अलग खड़ा कर दिया जाता। एक-एक करके सारे शिष्य आते हैं, लेकिन सभी किनारे खड़े होते चले जाते हैं । 16 For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्ठिर आता है। उससे भी यही प्रश्न किया जाता है। युधिष्ठिर कहता है, 'मुझे चिड़िया दिखाई देती है।' द्रोणाचार्य उसे भी एक तरफ खड़े होने का संकेत करते हैं। जब अर्जुन आता है, तो उससे भी यही प्रश्न किया जाता है। अर्जुन कहता है, 'मुझे चिड़िया की केवल आंख दिखाई देती है।' गुरु द्रोण उसकी पीठ थपथपाते हैं और कहते हैं, 'तीर चलाओ।' लक्ष्य का संधान वही कर सकता है, जिसकी आंखों में सदा लक्ष्य रहता है। लक्ष्य को आंखों में बसाकर ही अर्जुन ने कभी चिड़िया की आंख को, तो कभी मछली की आंख को बेधने में सफलता पाई थी। क्षेत्र चाहे व्यवसाय का हो या साधना का, शिक्षा का हो या संस्कार का, विकास का हो या विज्ञान का, दृष्टि लक्ष्य पर हो, तो लक्ष्य अवश्य सिद्ध होगा। आपके जीवन में सफलता का सूर्योदय अवश्य होगा। आख़िर आप भी अपने कर्मक्षेत्र के अर्जुन हैं। जिन तत्त्वों को अपनाकर अर्जुन सफल हुए या दुनिया के अन्य महानुभाव जीवन और जगत के क्षेत्र में हर ओर विजयी हुए, तो आप और हम क्यों नहीं हो सकते। लक्ष्य बनाएं, पुरुषार्थ जगाएं। हमारे कर्तव्य हमें किसी देवदूत की तरह आमंत्रित कर रहे हैं। कह रहे हैं, 'जागो मेरे पार्थ! अपने कर्तव्य के लिए सन्नद्ध हो जाओ, अपने लक्ष्य को साधे बिना विश्राम मत लो, मैं तुम्हारे साथ हूं।' क्या हम इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं? संकल्प हों सुदृढ़ ध्यान रखो, अपनी जिंदगी में कोई लक्ष्य बनाओ, तो उस पर दृढ़ रहो। निश्चय सुदृढ़ है, तो सफलता भी निश्चित है। निश्चय इतना दृढ़ हो कि जब तक हमारा संकल्प, हमारा लक्ष्य पूरा न होगा, हम चैन की सांस न लेंगे। आप अपने संकल्प को बार-बार दोहराएं। ऊंचे स्वर में प्रतिज्ञा करें कि हां, मैं अपने संकल्प को हर हाल में पूरा करूंगा। अगर-मगर की बात न उठाएं। दृढ़ता और निश्चय की बात करें। एक सफल अभिनेता से जब पूछा गया कि अगर आप अभिनेता न होते, तो क्या होते? अभिनेता ने कहा, 'ऐसा हो ही नहीं सकता 17 For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था। मुझे अभिनेता ही होना था, सो मैं अभिनेता हूं।' क्या हममें यह निश्चय-शक्ति है, अगर ऐसा है, तो नतीजा यह निकलेगा कि आपकी असफलताएं भी आपको सफलता के करीब पहुंचाएंगी। कार्य योजना हो सुव्यवस्थित दृढ़ निश्यच के साथ ही लक्ष्य को अर्जित करने की निश्चित कार्य योजना हो। निश्चित कार्य योजना के अभाव में कोई भी सेनापति युद्ध नहीं जीत सकता, कोई भी लेखक व्यवस्थित रचना नहीं लिख सकता, कोई भी व्यवसायी उत्साहजनक परिणाम नहीं पा सकता। कार्य की एक सुनिश्चित योजना होनी चाहिए। कार्य योजना क्या और कैसे होती है, यह एक सज्जन से बखूबी जाना जा सकता है। वह हैं श्री प्रकाश दफ्तरी। मैं उनके कर्मयोग को देखकर बहुत चकित होता था। वह दिन-भर में पचासों काम निपटा लेते थे। मैं उनकी कार्य-शैली से बहुत प्रभावित हुआ। मैंने जानना चाहा, तो पता चला कि वे दिन-भर में जो भी काम करते, उनकी सुबह फ़हरिस्त बना लेते हैं । दिन-भर का सारा कार्य उसी फ़हरिस्त के अनुसार होता था। वह जब शाम को घर लौटते, तो उनका एक भी कार्य बकाया नहीं रहता। उनको अगर 'शेविंग' करनी होती, तो वह भी उस 'लिस्ट' का हिस्सा होती। आप अपने जीवन में कितने कार्य एक दिन में निपटा पाते हैं? आपके कार्यों में तारतम्य नहीं है, क्योंकि कार्यों में व्यवस्था नहीं है, कार्य योजना नहीं है। जीवन के पचासों कामों को निबटाने के लिए एक दिन ही पर्याप्त है, बशर्ते हमारे पास एक सुनिश्चित कार्य योजना हो। ऐसे तो आपको चार कार्य भी याद नहीं रहते, लेकिन योजना बन जाए, तो आप जितने काम निबटाते हैं, उनके बारे में जानकर आपको स्वयं ही ताज्जुब होगा। जब आप रात को सोएंगे, तो उससे पहले कोई भी कार्य शेष नहीं रहेगा। कार्य करें निष्ठा से जब हम कार्य योजना बना लें, तो मनोयोगपूर्वक, लगनपूर्वक उस कार्य को पूरा करने में लग जाएं। ऐसा नहीं कि निठल्ले बैठे रहें। हमारे 18 For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां कमी रहती है, तो बस, यही कि हम योजनाएं लंबी-चौड़ी बना लेते हैं, लेकिन उनको पूरा करने के प्रति कोई चेष्टा नहीं करते। निकम्मे बैठे रहते हैं और कहते हैं कि हम व्यस्त हैं। निकम्मेपन का त्याग हो जाए, यही तो गीता का संदेश है। कोई भी व्यक्ति लगनपूर्वक अपने कार्य को संपन्न करता है, तो यह सुनिश्चित है कि अगर वह गरीब है, तो उसे अमीर बनते देर नहीं लगती, मंजिल आगे बढ़कर उसके क़दम चूमती है। कुछ दिन पहले ही मैंने समस्त समाज से कहा था कि अगर आप समाज के किसी भी कार्य को पूरा करने के लिए कदम बढ़ाएं, तो हमारा पूरा-पूरा सहयोग मिलेगा। वह कार्य किसी मंदिर, विद्यालय, चिकित्सा-केंद्र या सराय के निर्माण का हो सकता है या और कोई, जिससे पूरे समाज का हित सधता हो। लोग करने के नाम पर बस राजनीति करते हैं। समाज को आपकी नेतागीरी की नहीं, निष्ठापूर्ण कार्यों की ज़रूरत है। समाज चाहता है कि काम करो, कुछ रचनात्मक काम करो, कुछ बनाओ। जो बना नहीं पाता, वह बिगाड़ता ही है। जो सृजन नहीं कर पाता, वह विध्वंस ही करता है। इस मानवीय प्रवृत्ति पर विजय पाएं और दत्तचित्त होकर काम में लग जाएं। कल ही मैं एक मंदिर में गया था। वहां के कर्ताधर्ता ने बताया कि मंदिर का जीर्णोद्धार कराया जाएगा, जिसमें फलां सुधार होगा, फलां निर्माण होगा। मैंने कहा, ' 'होगा' में कुछ नहीं होगा, क्यों न तुम कार्य की शुरुआत आज से ही करवा दो।' ऐसा सुनते ही वह बगलें झांकने लगा। दुनिया में बातों के बादशाह बहुत होते हैं, आचरण के आचार्य कम। लोगों को करना-धरना कुछ नहीं, केवल बातें करेंगे। मनोयोगपूर्वक तुम लग जाओ, तो सारी सृष्टि तुम्हारे सहयोग के लिए तैयार रहेगी। थॉमस अल्वा एडीसन ने बल्ब का आविष्कार किया था। वह अपने प्रयोग के दौरान हज़ारों बार असफल रहे। उसके सभी साथी उसे छोड़ गए, फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। वह अपने काम में, पुरुषार्थ में जुटे रहे और आख़िर उसने अपने लक्ष्य को पा ही लिया और तब सारा संसार बल्ब की रोशनी से नहा उठा। केवल 19 For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोयोग चाहिए, लगन चाहिए सितारों को तोड़ लाने के लिए । लक्ष्य बनाएं, पुरुषार्थ जगाएं। मंजिल आपके क़दमों में होगी । पुरुषार्थ हो निरंतर 1 यदि हम अपने लक्ष्य के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहेंगे, तो लक्ष्य को सिद्ध करने से कोई रोक नहीं सकता । भले ही कोई अपनी असफलता के लिए किस्मत को दोष देता फिरे, पर हक़ीक़त यह है कि किस्मत भी उसी का साथ निभाती हैं, जो पुरुषार्थी होते हैं । चर्चित पद है करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान । रसरी आवत जात ते, सिल पर पड़त निशान । । अगर निरंतरता बनी रहे, प्रयत्न जारी रहे, तो पत्थर भी घिस ता है। काम करने का तरीका आता हो, तो पत्थर कला का नायाब नमूना हो सकता है । वह किसी महापुरुष को प्रतिबिंबित कर सके, ऐसी प्रतिमा बन सकता है । हम कुनकुने प्रयासों की बजाए स्वयं को लक्ष्य के लिए समग्रता से लगाएं । लक्ष्य सिद्धि के लिए एक ही बात चाहिए और वह चाहिए समग्रता । धीरज धरो, विश्वास करो संभव है सफलता पहले पुरुषार्थ में न मिले, पर इससे अधीर होने की आवश्यकता नहीं है । हम धैर्य रखें । आखिर दुनिया में कोई भी चीज़ मुफ़्त में नहीं मिलती और उस उपलब्धि का मूल्य ही क्या, जो बिना श्रम के मिल जाए । आदमी का असफल होना स्वाभाविक है । आखिर गिरता वही है, जो चला करता है, पर जो गिरकर भी फिर उठ खड़ा हो जाए और फिर सुदृढ़ता से चलना शुरू कर दे, वह शिखर तक पहुंच ही जाता है 1 धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । माली सींचे सौ घड़ा, रितु आए फल होय ।। 20 For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम केवल सिंचन को मूल्य दो। फल देना प्रकृति का काम है। तुम प्रकृति की व्यवस्थाओं में भी कुछ तो निष्ठा रखो। अधीर लोग ही निराश होते हैं और निराशा पुरुषार्थ की दुश्मन है। लक्ष्य, योजना, निरंतर प्रयास- ये तीन सूत्र हैं सफलता के लिए और साथ में चाहिए दो विशेष संबल। वे हैं धैर्य और आत्मविश्वास। ये पांच मंत्र हैं जिसके हाथ में, सफलता है उसके साथ में। __ आप यदि अपने आपको असफल देख रहे हैं, तो यह तय है कि हमने अभी तक अपनी सफलता के लिए पच्चीस फीसदी ताक़त ही लगाई है। शत-प्रतिशत शक्ति लगा दें, तो सफलता आपके हाथ में होगी। अब तक जो सफल हुए, वे समग्रता से सन्नद्ध हो जाने के कारण ही हुए। जो चीज़ औरों के साथ हो सकती है, वही हमारे साथ भी क्यों नहीं हो सकती। भगवान कहते हैं, जागो मेरे पार्थ! तुम्हारे कर्तव्य तुम्हें आमंत्रित कर रहे हैं। तुम क़दम उठाकर तो देखो, आकाश की ओर छलांग लगाकर तो देखो, चांद तुम्हारी हथेली में होगा। शिखरों पर तुम्हारे पद-चिह्न होंगे, आने वाली पीढ़ी के लिए, फिर से किसी को प्रेरणा देने के लिए, ऊंचाइयों को पाने के लिए। 21 For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन के बोझ उतारें जीवन मनुष्य के लिए एक बेशकीमती सौग़ात है। जीवन के सामने दुनिया भर की संपदाएं तुच्छ और नगण्य हैं। व्यक्ति भले ही परम पिता परमेश्वर की आराधना कर उनसे कोई वरदान पाना चाहे, लेकिन यह वरदान तो उसे जीवन के रूप में पहले से ही हासिल है। जीवन अपने आप में ही वरदान है। जीवन से बढ़कर कोई उपहार या पुरस्कार भला क्या होगा? जो व्यक्ति अपने आपको दीन-हीन मान बैठा है, वह प्रकृति की एक महान् सौगात को नज़रअंदाज़ कर रहा है। दीन-हीन क्यों हो मनुष्य? उसे तो इतना अमूल्य जीवन मिला हुआ है कि उसका दर्जा किसी भी अति साधन-संपन्न व्यक्ति से कम नहीं हो सकता। वह ज़रा अपने एक-एक अंग की कीमत आंके। उसकी आंखें, उसका दिल, उसके गुर्दे, क्या लाखों-करोड़ों देकर भी इन्हें पाया जा सकता है? व्यक्ति अपना नजरिया बदले और जीवन की महत्ता, मूल्यवत्ता और गरिमा को समझे। सृजनात्मक हो जीवन का स्वरूप व्यक्ति के सम्मुख जीवन जीने के दो तरीके हैं : पहला व्यक्ति सृजन करे और दूसरा, उसकी ऊर्जा विध्वंस में चली जाए। ऊर्जा के दो ही उपयोग हो सकते हैं : बनाना या मिटाना। जो व्यक्ति अपनी ओर से समाज में नई रचनाएं सृजित नहीं कर सकता, वह बनी हुई रचना को बिगाड़ने की कोशिश जरूर करेगा। अगर हिटलर को जीवन को सकारात्मक रूप देने का मार्ग मिल चुका होता, तो हिटलर हिटलर न होता। वह पच्चीस सौ साल बाद फिर महावीर या बुद्ध होता। 22 For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर बुद्ध को अपने जीवन में दिव्य मार्ग न मिलता, तो वे बुद्ध नहीं, हिटलर या चंगेज़ खां ही होते। जो जीवन व्यक्ति के लिए महान वरदान के रूप में है, वह उसे सृजन का मार्ग देता है या विध्वंस का, बनाने का कौशल देता है या मिटाने का, यह स्वयं व्यक्ति पर ही निर्भर है। अगर कुदरत ने हमें वाणी दी है, तो नाव पर उतना ही भार इस वाणी द्वारा हम गीत गाते हैं या किसी वहन करें कि वह हमें को गालियां देते हैं, यह हम पर निर्भर किनारा दिखा सके। करेगा। किसी लाठी का उपयोग हम किसी अतिरिक्त लादा गया बूढ़े आदमी के सहारे के रूप में करना | भार नाव को मझधार में चाहते हैं या किसी की पीठ पर वार करके डुबोता है। उसको धराशायी करने में, यह हम पर -जए तो ऐसे जिएं र करता है। जो तीली घर के अंधेरे को भगा देती है, वही घर को जला भी सकती है। तीली का सदुपयोग या दुरुपयोग हम पर ही निर्भर है। आदमी चाहे तो अपने जीवन को स्वर्ग के आयाम दे सकता है और चाहे तो नरक मार्ग पर स्वयं को धकेल सकता है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आप किस कुल में पैदा हुए और आपके पूर्वज कौन थे? महत्त्व इस बात का है कि आपने जीवन की कौन-सी समझ ग्रहण की? मैं एक ऐसे परिवार की मिसाल आपके सामने रखना चाहूंगा, जिसमें दो भाई थे। एक भाई अव्वल दर्जे का नशेबाज़ था, जो हरदम शराब में धुत्त रहता, अपनी पत्नी और बच्चों को मारता-पीटता, जो कमाता, सारा नशे में उड़ा देता। उसी का दूसरा भाई अपने बच्चों पर जान छिड़कता, पत्नी को बड़ी नाज़ों से रखता, उसके घर में किसी प्रकार की कमी नहीं थी, समाज में खूब मान-सम्मान था। मैंने उन दोनों भाइयों से मिलकर इसका कारण जानना चाहा कि आखिर एक मां की कोख से जन्म लेने वाली उन संतानों में इतना अंतर कैसे? ___मैंने शराबी भाई से कारण पूछा, तो उसने कहा, “अगर मैं अपने बच्चों को मारता-पीटता हूं, गाली-गलौज करता हूं, तो इसमें नई बात कौन-सी है? मेरा बाप भी ऐसा ही था। वह भी मेरी मां को ज़लील करता, हम बच्चों को खूब मारता-पीटता, सारे पैसे शराब में फूंक 23 For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डालता। मैं जो कुछ हूं, अपने बाप के कारण हूं।" मैं दूसरे भाई के पास गया और उससे भी पूछा, “जनाब, तुम इतने सुशील कैसे हो? तुम सब लोगों के साथ इतनी मधुरता और शालीनता से कैसे पेश आते हो?" उसने कहा, "अपने पिता के कारण।" मैं आश्चर्य में पड़ गया। मैंने पूछा, "क्या मतलब?" मेरा प्रश्न सुनकर दूसरे भाई ने कहा, "बचपन में मैं देखा करता था कि मेरे पिता अव्वल दर्जे के नशेबाज़ थे। वे नशे में मेरी मां को, हम बच्चों को बड़ी बेरहमी से मारते-पीटते, असह्य गालियां निकालते। उसी वक़्त मैंने संकल्प ले लिया कि मैं कभी भी अपनी पत्नी पर हाथ नहीं उठाऊंगा, मैं अपने बच्चों को नहीं सताऊंगा। मैं समाज में इज्ज़त की जिंदगी जिऊंगा। मेरे जीवन में जो कुछ भी अच्छाइयां हैं, वे इसी संकल्प की बदौलत हैं।" एक ही माता-पिता की संतान, एक ही वातावरण, लेकिन स्वभाव में और परिणाम में कितनी भिन्नता! जीवन का पाठ पढ़कर हम उसे ऊंचाइयां प्रदान करते हैं या गर्त में ढकेलते हैं, यह हम पर, हमारी समझ और दृष्टि पर ही निर्भर है। स्वर्ग हमारे हाथ में कहीं ऐसा तो नहीं कि जो जीवन हमारे लिए एक अमृत-वरदान है, जिसके सामने दुनिया भर की संपदाएं तुच्छ और बेमानी हैं, उसे हमने बहुत दुखी, खिन्न, विपन्न और दीन-हीन बना डाला हो? जीवन तो हम सब कुछ कर सकते | 7 बांस की एक पोंगरी है। एक ऐसी पोंगरी | कि जिसको लोग या तो आपस में हैं, इस आत्मविश्वास लड़ने लड़ाने के काम में लेते हैं या शामियानों और आत्म संकल्प के | को खड़ा करने के उपयोग में लेते हैं या साथ पुरुषार्थ करो। अंत्येष्टि संस्कार में प्रयोग करते हैं। मेरे -न जन्म, न मृत्यु | लिए यह पोंगरी बड़ी मूल्यवान है। उतनी ही, जितना यह जीवन है। जीवन में और बांस की पोंगरी में कुछ साम्यता है। इस जीवन रूपी पोंगरी का एक बेहतरीन उपयोग है, जिसे लोग नज़र-अंदाज़ कर देते हैं, जिसके प्रति आंखें मूंद लेते हैं। वह उपयोग है, उस पोंगरी से स्वरलहरियां पैदा करना, उसे बांसुरी का रूप देना। अगर बांस बांसुरी बन जाए, बांसुरी पर अंगुलियां 24 For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सध जाएं, तो बांस, बांस न रहेगा, बांसुरी बन जाएगा। संगीत का अनुपम संसार साकार हो जाएगा। तब बांस को, जीवन के बांस को जीने का मज़ा कुछ और होगा, अनेरा होगा, मधुरिम होगा। इनसान चाहे तो अपने जीवन को आनंद का उत्सव बना सकता है। उसे किसी मंदिर में जाकर किसी पंचकल्याणक महोत्सव को मनाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, वरन् उसका जीना और मुस्कराना भी पंचकल्याणक महोत्सव का पुण्य लिए हुए होगा। उसकी सौम्यता, शालीनता और आनंद ही उसका उत्सव होगा। उत्सवों के लिए उसे मेलों-महोत्सवों और पर्यों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। उसकी पलक खोलना और क़दम बढ़ाना भी किसी मेले का निमंत्रण होगा। स्वर्ग और नरक इसी जीवन के दो पर्याय हैं। स्वर्ग के गीत और नरक का आतंक, दोनों जीवन के ही अवदान हैं। स्वर्ग के गीतों को इसी जीवन से निनादित किया जा सकता है। मरने के बाद तो मुझे नहीं मालूम कि हमारे बाप-दादाओं को कितना स्वर्ग मिला होगा! स्वर्ग तो उन्हीं को मिलता है, जिन्होंने अपना जीवन स्वर्ग बनाया है। हम चाहे मरने के बाद किसी के नाम के नीचे स्वर्गीय लिख दें, मगर उसको नरक में जाने से कोई नहीं रोक सकता, क्योंकि उसने अपना जीवन नरक बनाकर जीआ था। हमने अगर क्रोध के साथ अपना जीवन जीआ, तो मरने के बाद हमें चंडकौशिक बनने से कोई नहीं रोक सकता। नरक उनको मिलता है, जिनका जीवन आज नरक है। स्वर्ग उनको मिलता है, जिनका जीवन आज स्वर्ग है। स्वर्ग और नरक दोनों ही जीवन के पर्याय और परिणाम हैं। जो व्यक्ति हर हाल में मस्त है, वह नरक को भी स्वर्ग बनाने की कला जानता है। जिसने जीवन को स्वर्ग बनाना सीख लिया है, जीवन उसके लिए वरदान है, सौगात है। मैं जीवन का हर हाल में आनंद उठाता हूं, चाहे कोई हमें गाली दे या स्तुति करे। जीसस ने तो सलीब का भी आनंद उठाया, हम कम-से-कम किसी की गाली का तो आनंद उठा ही सकते हैं। मीरा ने तो विष-पान को भी अमृत-भाव प्रदान कर दिया। हम किसी की उपेक्षा और उपहास के विष का तो सामना कर ही सकते हैं! अगर जीने की यह कला आ जाए, तो सच, तुम्हारा हर कार्य मुक्ति का द्वार होगा। 25 For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसन्न मन से हो हर काम अगर बेमन से अपने कार्य को संपादित करोगे, तो तुम्हारा हर कार्य तुम्हारे लिए बंधन की बेड़ी बन जाएगा और प्रफुल्लित हृदय से अगर यहां पर झाड़ लगाओगे, तो तुम्हारा झाड़ लगाना भी तुम्हारे लिए मुक्ति का सोपान हो जाएगा। तुम कितने बोझिल मन से अपने जीवन को जीते हो, तुम्हारे लिए जीवन उतना ही बोझिल, बंधन की बेड़ी और नरक का द्वार बन जाएगा। जिंदगी को अगर उत्सव के साथ, बोझिल मन के बगैर जीना आ गया और तुम्हारे सामने शिव प्रकट होकर कहें कि वत्स, तू क्या मांगता है? तुम कहोगे कि अगर देना ही है, तो सदा-सदा यह जीवन ही देना और कुछ नहीं चाहिए। तुम अगर मुझे दुख भी दोगे, तो भी दुख, दुख न लगेगा, क्योंकि मैंने हर दुख को अपने लिए सुख का सेतु बना लिया है। जो व्यक्ति सलीब पर चढ़ाए जाने के बावजूद कहता है कि मेरे प्रभु, तू इन्हें क्षमा कर। ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं? इतनी करुणा, प्रेम की ऐसी रस-धार बहाता है, तुम ज़रा सोचो तो सही, उस व्यक्ति के लिए केवल जीवन ही आनंद का वरदान नहीं होता, मृत्यु भी जीवन का महोत्सव बन जाया करती है। जीवन को बंधन की बेड़ी भी बनाया जाता है और स्वर्ग का सेतु भी। हर अभाव में जीवन को वैसे ही रोशन कर सकते हो, जैसे अंधेरे कमरे में कोई एक दीप जलता है और जैसे कीचड़ के बीच कोई कमल खिलता है। लोग जीवन को बोझिल मन से जीते हैं और बोझिल मन से ही जीवन की गतिविधियों को संपन्न करते हैं। अगर बेटे से यह कह दिया जाए कि बेटा, जाकर ब्रेड का एक पैकेट ले आओ, तो बेटा कहता है, “ओहो, पापा, अब ब्रेड के लिए क्या जाना? मम्मी ने परांठा बनाया है, उसी को खा लीजिए न।" बोझिल मन से ब्रेड खरीदने जाओगे, तो तुम्हें वह ब्रेड भी कुत्ते का भोजन ही दिखाई देगी। प्रफुल्लित हृदय से जाओगे, तो तुम बासी ब्रेड में भी कोई ताज़ी ब्रेड चुनकर ले आओगे, कांटों में फूल तलाश लोगे। कार्य प्रफुल्लित हृदय से किया जाए, तो कोई कार्य बोझिल नहीं होता। कार्य स्वयं परमात्मा की प्रार्थना बन जाता है। 26 For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन का बोझ हटाएं कोई भी व्यक्ति अपने कंधे पर बोझा तभी तक लादता है, जब तक वह सामान एक जगह से दूसरी जगह तक न पहुंच जाए। उसे तुम मूर्ख न कहोगे, तो क्या कहोगे, जो रात को सोया था, तब तो तकिया लगाकर सोया था और जब दिन में चल रहा है, तो भी तकिए को अपने माथे से लगाकर चलता है। रात के लिए वह सुख का साधन रहा होगा, पर दिन के लिए तो वह चित्त का बोझा बन चुका है। तुम अगर कहो कि मैं भला इस तकिए को कैसे छोड़ दूं, तो यह तुम्हारा बचपना है। ऐसे ही अगर सोचते हो, चिंतन करते हो, मगर उस ऊहापोह से मुक्त नहीं हो पाते, तो वह चिंतन भी चिंता का कारण बन जाया करता है। जब ज़रूरत न हुई तो मन शांत, 'ब्लैंक' कर लिया। यही जीवन को सुख से जीने का सीधा-सरल रास्ता है। शांत, सजग और उत्साहपूर्ण जीवन का स्वामी होना ही जीवन को उत्सव बनाना है। साधु-संत लोग शरीर को यातनाएं देते हैं और गृहस्थ लोग हर पल अपनी मानसिक यंत्रणाएं झेलते रहते हैं, कभी क्रोध में, कभी ईर्ष्या में, कभी द्वेष में, कभी वैमनस्य में। जैसे चक्की पीसती है, वैसे ही आदमी दिन-रात अपने मन और चित्त के बोझ से दबा रहता है, पिसता रहता है। मैं कहता हूं, जीवन उत्सव है, जीवन वरदान है। जीवन की हर गतिविधि ईश्वर की ही आराधना है। हमारा हर कार्य प्रभात का पुष्प बन जाए, एक ऐसा पुष्प, जिसे हम सिर पर रख सकें, हृदय को सुवासित करने के लिए प्रयोग कर सकें, परमात्मा को अहोभाव से समर्पित कर सकें। इसलिए तुम हर कार्य को बड़े प्रफुल्लित हृदय से करो। अगर लगता है कि कार्य उल्लसित भाव से नहीं हो रहा है, आपको परिणाम नहीं दे रहा है, तो कार्य को बदलने के बजाय अपने चित्त की दशा को बदलने की कोशिश करो। अगर आप आईने के सामने जाते हैं और आईना आपको आपकी भद्दी शक्ल दिखाता है, तो आईने को बदलने से बात न बनेगी। अपने चेहरे पर एक सुवास भरी मुस्कान ले आओ, आईना अपने आप गुलाब के फूल की तरह खिल उठेगा। 27 For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर किसी बगीचे में कोई लकड़हारा या सुथार जाता है, तो वह यह टटोलेगा कि किस पेड़ की लकड़ी कैसी है। उसकी नज़र सीधे उस पेड़ की लकड़ी पर जाकर टिकेगी। अगर कोई सौंदर्य प्रेमी व्यक्ति वहां पहुंच जाए, तो वह देखेगा कि फूल किस तरह से खिले हुए हैं और उनसे कैसी महक आ रही है। प्रसन्न हृदय से संसार को देखोगे, तो संसार स्वर्ग नज़र आएगा और खिन्न हृदय से देखोगे, तो संसार नश्वर और नरक है। चित्त के बोझों को नीचे उतार फेंको, ताकि हमारा जीवन आकाश-भर आनंद का मालिक बन सके। मन को दें सार्थक दिशाएं क्या हैं आख़िर चित्त के बोझ? कौन-से वे पहलू हैं, जो हमारे चित्त में बोझ बनकर दिन-रात हमें पीस रहे हैं, घिस रहे हैं, दबा रहे हैं? मनुष्य का मन हो शांत, निर्भार, पुलकित और ऊर्जस्वित । अगर हम अपने मन को बोझिल और तनावग्रस्त देख रहे हैं, तो चिंतित न हों। मन बदला जा सकता है। बोझों को मन के कंधों से नीचे उतारा जा सकता है। हमारे युग की यह बड़ी उपलब्धि है कि मनुष्य अपनी सोच, समझ और जीने की शैली में परिवर्तन लाकर जीवन को उत्सव का आयाम दे सकता है। मैं ऐसा होता हुआ देख रहा हूं, इसीलिए अनुरोध करता हूं। हम मात्र अपने मन के बोझों को, भारों को समझें और भीतर के निषेधों को रचनात्मकता प्रदान करें। अपनी नकारात्मक प्रवृत्तियां हटाएं और सकारात्मक या रचनात्मक प्रवृत्तियां ग्रहण करें। चिता बुझाएं चिंता की चित्त का पहला बोझ है, दिन-रात मन में पलने वाली चिंताएं। चिता और चिंता दोनों समान हैं। केवल एक बिंदु का फ़र्क है। चिता मात्र मुर्दे को जलाती है, किंतु चिंता जीवित को भी भस्म कर देती है। इसीलिए चिंता चिता से दस गुनी ज्यादा खतरनाक है। कोई अगर पूछे कि शरीर का ज्वर क्या है? आप कहेंगे, मलेरिया। वहीं कोई पूछे कि मन का ज्वर क्या है? मैं कहूंगा, चिंता। चिंता ही ज्वर है और चिंता ही जरा। चिंता ही अकाल मृत्यु का कारण है। चिंता का मतलब है, ऐसी सोच, ऐसी घुटन कि यह कैसे हुआ या कैसे होना चाहिए या कैसे होगा। मन में इस तरह की चलने वाली 28 For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उधेड़बुन ही चिंता है। ठाली या निकम्मा बैठा आदमी चिंता ही करेगा। दुखों से मुक्त रहना चाहते हो, तो स्वयं को सदा व्यस्त रखो। कहते हैं कि चर्चिल को अठारह घंटे काम करना पड़ता था। किसी ने पूछा, 'इतनी जिम्मेदारियों से क्या आपको चिंता नहीं होती?' चर्चिल ने जवाब दिया, 'मेरे पास इतना समय ही कहां है कि मैं चिंता करूं?' व्यस्तता चिंता से मुक्त होने का पहला मंत्र है। ठाली बैठा आदमी सौ तरह की चिंताएं पालता है। कभी धन के बारे में, कभी पत्नी के बारे में, कभी बच्चों के बारे में, कभी दोस्त-दुश्मन के बारे में। आदमी चाहे-अनचाहे अपने साथ इन चिंताओं को ढोता रहता है। वह अगर अपने वर्तमान की चिंता करे, तो शायद कुछ बात भी बने, मगर वह या तो अतीत के बारे में सोचता है या भविष्य के विषय में। जो व्यक्ति भूतकाल के बारे में सोचता है, वह भूत ही हो जाता है। जो बीत चुका, सो बीत चुका। बीता हुआ समय और बीती हुई बातें लौटकर नहीं आने वाली हैं। रूठा हुआ देवता एक बार आपके प्रसाद चढ़ाने से प्रसन्न हो सकता है, मगर बीता हुआ वक्त आदमी की ज़िंदगी में कभी लौटकर नहीं आता। बीत गई, सो बात गई, तक़दीर का शिकवा कौन करे? जो तीर कमान से निकल चुका, उस तीर का पीछा कौन करे? जब तक तीर तुम्हारी कमान में है, तब तक तुम उसके बारे में सोचो, विचारो, शायद बात बन जाए, लेकिन जो तीर कमान से छूट गया है, जो बात ज़बान से निकल गई है, जो घटना घट चुकी है, उसके बारे में क्या सोचना? पुराना हो जाने पर तो हम दीवार से कलेंडर तक उतार देते हैं, फिर किसी बात का दामन क्यों थामे बैठे रहें ? पर ऐसा ही होता है। कोई महानुभाव जब घर पर मिलने के लिए आता है, आधे घंटे तक आपस में बतियाते हैं और जब वह चला जाता है, तो हम बैठे-बैठे उसके बारे में सोचते हैं। आदमी गया, बात ख़त्म हो गई। तुम उस आदमी के जाने के बाद उसके बारे में बैठे-बैठे सोचते रहते हो, यही तो चिंता है। तुम तो आईना बनो, एक दर्पण बनो कि कोई आया और तुम बोल उठे। वह हटा, आईना साफ़। आईना पहले भी साफ था, बाद में भी साफ़ रहा। 29 For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्त रहें हर हाल में मेरे संदेशों का सार-सूत्र है, मस्त रहो, हर हाल में मस्त रहो। हर हाल में मस्ती और खुशमिजाज़ी आत्मा का सबसे बेहतरीन स्वास्थ्य है। रूखी-सूखी मिल गई तो भी मस्त, चिकनी-चुपड़ी मिल गई तो भी मस्त। मैं क्यों दुनिया की सोचूं? दुनिया की वह सोचेगा, जो दुनिया को बनाता है। मैं तो अपने बारे में सोचूं और अपने में मस्त रहूं। तब तुम देखोगे कि तुम कितने शांत और प्रसन्न-चित्त हो । कोई मेरे चलने को देखे, तो असमंजस में पड़ जाएगा, क्योंकि मेरा हर कदम बहुत प्रफुल्लित क़दम होता है। मेरा हाथ का उठाना भी मुझे आनंद देता है। मेरा बतियाना भी मुझे सुकून देता है। मैं आप लोगों से इसलिए बोल रहा हूं, क्योंकि मुझे बोलना भी सुख देता है। मेरे लिए वाणी का उच्चारण करना भी आप सब लोगों के जीवन से प्यार करने जैसा है। चिंता नहीं, जो होता है, संयोग है। आने वाले कल के बारे में सोच-सोचकर तुम अपनी काया को ही दुबली करोगे। निश्चित रहो। अरे, जो आने वाला कल देगा, वह कल की व्यवस्था भी देगा। ___ कोई अगर मुझसे पूछे कि मेरे जीवन में संतोष और शांति कैसे आई, जबकि मनुष्य तो मैं भी हूं! मैंने जब किसी मां को किसी संतान को जन्म देते देखा और उसकी कोख से बच्चा बाहर निकल आया और बाहर निकलते ही वह रोने लगा, तो मां ने झट से अपना आंचल उघाड़ा और उसको दूध पिलाना शुरू कर दिया। जीवन में देखा गया यह दृश्य सदा-सदा के लिए आनंदित कर बैठा कि जो प्रकृति, जो ईश्वर मनुष्य को जन्म देने से पहले उसके जीवन की व्यवस्था करता है, फिर हमें किस बात की चिंता! हम जन्म बाद में लेते हैं, मां का आंचल दूध से पहले भर जाता है। दुनिया में किसी की बेटी अब तक धन के अभाव में कुंआरी नहीं रही है। कोई-न-कोई व्यवस्था बैठ ही जाती है और बेटी पार लग ही जाती है। तू किस बात की चिंता करता है? मस्त रह, मस्त, हर हाल में मस्त। ___ हर हाल में मस्त रहना, संतुष्ट और प्रसन्न रहना चिंता से मुक्त होने का रामबाण तरीका है। न अतीत की सोचो और न भविष्य की। उपयोग हो वर्तमान का। अतीत की ग़लती वर्तमान में न दोहराई 30 For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाए और वर्तमान में ऐसे बीज न बोए जाएं, भविष्य में जिनकी फसलों को काटते समय खेद और गिला रहे। वर्तमान का ही ऐसा प्रबंध हो कि भविष्य वर्तमान का सुनहरा परिणाम बने। हीन भावना दूर हटाएं चित्त का दूसरा बोझ है, हीन-भावना से ग्रस्त होना। आदमी के भीतर यह बोझ पलता है कि वह हर वक्त अपने आपको हीन भावनाओं से घिरा हुआ पाता है। उसे हर समय यह लगता है कि मैं कायर हूं, कमजोर हूं, मैं कुछ नहीं कर सकता, मुझमें कुछ नहीं, मैं तुम्हारे मुकाबले क्या हो सकता हूं? हीनता का यह विचार, यह ग्रंथि आदमी की सकारात्मक सोच, आत्मविश्वास, स्वाभिमान और उसके गौरव को कुंठित कर डालती है। आदमी जब किसी दूसरे सुंदर व्यक्ति को देखता है, तो सोचता है कि मै सुंदर नहीं हूं। कभी उसे लगता है कि मैं काला हूं, कभी लगता है कि मैं कम पढ़ा-लिखा हूं, कभी लगता है कि मैं अपाहिज हूं। कभी आदमी को लगता है कि उसके पास पैसे नहीं हैं, वह कमजोर है। आदमी अपने चित्त में यह सोच-सोचकर अपने आपको, अपने मन-मस्तिष्क को भारभूत बना लेता है कि मुझमें अमुक-अमुक कमी है। अगर आप यह सोचते हैं कि आपके हाथ में एक छोटी-सी छठी अंगुली और निकल आई, इस कारण आप अपने आपको कमजोर और हीन समझते हैं, तो ज़रा उसको भी तो देखो, जिसका पूरा हाथ ही कटा हुआ है। तुम्हारे चेहरे पर आंख के एक किनारे छोटा-सा दाग है, जिसके कारण तुम अपने आपको बदसूरत समझते हो, ज़रा उस पर भी तो नज़र डालो, जिसकी एक आंख ही नहीं है। अपने से बड़ों को देखकर यह सोचना कि मैं छोटा, मैं अपाहिज, मैं कुछ करने जैसा नहीं हूं, अनुचित है। हर समय आत्मविश्वास से भरे रहो, सोचना है, तो हमेशा सकारात्मक सोचो। ईश्वर ने जो दिया है, उसके प्रति शुक्रिया अदा करो। जो दिया है, हम उसमें ही आनंद मनाएं। वह आनंद ही अनेरा होगा। For Perso 31 Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मविश्वास की अलख जगाएं मैं कहना चाहूंगा एक ऐसे व्यक्ति के बारे में, जिसने आत्मविश्वास को नई ऊंचाइयां दीं । उस व्यक्ति ने अपने जीवन के इक्कीसवें वर्ष में व्यापार किया और वह असफल हो गया । बाइसवें वर्ष में उसने चुनाव लड़ा, मगर उस छोटे-से चुनाव में वह हार गया। सत्ताइस वर्ष की उम्र में उसकी पत्नी का देहावसान हो गया और अट्ठाइसवें वर्ष में वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठा। अपनी उम्र के पैंतीसवें वर्ष में उसने कांग्रेस का चुनाव लड़ा और वह चुनाव भी हार गया । उसने अपने जीवन के पैंतालीसवें वर्ष में सीनेट का चुनाव लड़ा, मगर वह चुनाव भी हार गया। सैंतालीसवें वर्ष में उसने उपराष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा, वह उसमें भी हार गया, लेकिन बावनवें वर्ष में उसने फिर चुनाव लड़ा। इस बार जीत उसके हाथ लगी । वह एक साधारण इनसान से उठकर अमेरिका का राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन बन गया। यदि व्यक्ति अपने आप पर आत्मविश्वास, स्वाभिमान तथा निरंतर सकारात्मक सोच और कर्मठता बनाए रखे, तो दुनिया में मिलने वाली सौ-सौ असफलताएं भी उसको सफलता की ओर ही ले जाएंगी । ज़िंदगी में कोई भी असफलता, असफलता नहीं होती। याद रखें, आत्मविश्वास के बगैर आप अपनी ज़िंदगी में कुछ नहीं कर पाएंगे । अपने आपको हीन मत समझो। काले हैं, तो ग्रंथि न पालें । श्याम रंग का भी अपना सौंदर्य होता है, वरना उस श्याम के लिए लोग इतने बावरे क्यों होते ? श्याम को काला कहकर अपने आपको हीन मत समझो, उस श्याम रंग का सौंदर्य पान करने की चेष्टा करो । 'ब्लैक इज़ ब्यूटीफुल' । श्याम रंग भी सौंदर्य का आधार होता है । अपने आप पर, अपने छोटे-से-छोटे कार्य पर गौरव करो कि यह मेरा कार्य है, इसे मैंने संपादित किया है । अगर कोई आदमी आपको यहां पर झाड़ू लगाने का काम सौंप दे, तो बड़ी शालीनता से झाड़ू भी लगा लो कि जैसे माइकल एंजलो ने पत्थर को तराश-तराशकर भगवान बुद्ध की प्रतिमा उकेरी हो । कि जैसे रवींद्रनाथ टैगोर अपनी 'गीतांजलि’ की रचना में लगे हों । कोई भी कार्य दुनिया में छोटा नहीं होता । छोटा वह तब बन जाता है, जब तुम कार्य को सही तरीके से नहीं कर पाते हो, उस कार्य के प्रति लापरवाही बरतते हो या पूर्वग्रह पाल लेते हो । 32 For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम किस जाति-कुल में पैदा हुए, इससे फ़र्क नहीं पड़ता। हरिजन कुल में पैदा हुए एक महानुभाव, जगजीवनराम भी देश का नेतृत्व कर सकते हैं। गौर करें, भारत के पूर्व राष्ट्रपति भी अनुसूचित जनजाति से जुड़े हुए हैं। हम अपने भीतर टटोलें कि आखिर वे कौन-से कारण हैं, जिनके चलते हम हीन भावना से ग्रसित हैं। अगर गरीबी के कारण हम कुंठित हैं, तो कुंठा निराधार है। देश के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री और अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन गरीब ही थे, पर उनके विकास में गरीबी कभी भी बाधक न बनी। अगर आपको लगता है कि आप सुंदर नहीं हैं, इस कारण कुंठित रहते हैं, तो देखिए, माइकल एंजेलो को, जो स्वयं कुरूप थे, पर उन्होंने चित्र इतने सुंदर बनाए कि उनके भीतर का सौंदर्य जग-जाहिर हो गया। विकलांग हैं, तो भी क्या, प्रसिद्ध संगीतकार रवींद्र जैन अंधे हैं। प्रसिद्ध कवि पोप अपंग थे। मध्यकालीन युग के महान कवि मलिक मोहम्मद जायसी आंख से काने और बदसूरत थे। हम उन श्रेष्ठ लोगों को आज भी याद करते हैं। उनकी सूरत के कारण न सही, पर उनकी सीरत आज भी संसार के लिए प्रेरणादायी है। मैं तो कहूंगा कि अगर जीवन में कोई कमी भी है, तो उसकी चिंता न करें, वरन सफलताओं के उन शिखरों को छूने की कोशिश करें, जो आपको सम्मानित बनाएं। आपकी सफलता की सुंदरता में कुरूपता दब जाए। आदमी यह सोचे कि मैं जैसा हूं, अच्छा हूं। अपने कार्य पर, अपनी कार्य-शैली पर गौरव करो और अगर लगे कि जीवन की शैलियां नकारात्मक हैं, तो उन्हें सकारात्मक बनाएं। हर कार्य को करते समय स्वाभिमान और आत्मगौरव के भाव से भरे हुए रहें। ऐसा करने से हमारी शक्ति दोगुनी हो जाएगी। आत्मविश्वास का संबल कभी कमजोर नहीं होना चाहिए। विश्वास और साहस हमारे जीवन की संजीवनी शक्ति बन जाए, आंखों की रोशनी बन जाए। तुम चले, तो आंधियां-तूफ़ान खुद ही चल पड़ेंगे। सागरों की बात क्या, हिमगिरि सरीखे ढल पड़ेंगे। मत समझना ये निशाएं तुम्हारा पथ रोक लेंगी, तुम जले, तो दीप क्या, सूरज हज़ारों जल पड़ेंगे। 33 For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकता है, केवल विश्वास और पुरुषार्थ को जगाने की। हावी मत होने दो किसी भी हीनता और दीनता को अपने मन पर। जागो, जागे सो महावीर। जो डर गया, वही कायर है। बचें लालसाओं के चंगुल से तीसरी बात, जिसके कारण आदमी के चित्त पर सदा बोझ बना रहता है, वह है आदमी के मन में पलने वाली व्यर्थ की लालसाएं, लालच की प्रवृत्तियां। जीवन में सम्यक कर्मों को संपादित करना, आजीविका के साधन जुटाना, सुख पूर्वक जीवन जीना मानव मात्र की आवश्यकता है। हर किसी व्यक्ति को श्रम करना चाहिए, विकास की ऊंचाइयों को छूना चाहिए, पर व्यर्थ की लालसाओं और तृष्णाओं में उलझकर जीवन को कोल्हू के बैल की एक ही दायरे में चलने वाली यात्रा नहीं बनना चाहिए। स्वार्थ और लोभ-लालच आदमी को मानवता से वंचित कर देते हैं। उसे सूझता है केवल और पाऊं, और पाऊं। लालसाएं तो मकड़जाल की तरह होती हैं, जिसमें मन की मकड़ी घिर जाती है। लोभ-लालच के चलते आदमी दिन-रात घर से दुकान और दुकान से घर के बीच अपनी जिंदगी पूरी कर देता है। मैंने बचपन में वह कहानी पढ़ी थी कि जिसमें एक गधा था, जो घर से घाट और घाट से घर के बीच अपनी जिंदगी पूरी कर देता है। मुझे यह प्रतीक बड़ा प्यारा लगा। प्यारा इसलिए लगा, क्योंकि जब इनसान को पढ़ा, तो लगा कि इनसान भी तो ऐसा ही जीवन जीता है। वह भी तो घर से दुकान और दुकान से घर के बीच अपनी जिंदगी को झोंक देता है। __ दो दिन पहले एक महानुभाव हमारे पास बैठे थे, शायद किसी संत ने उनको संकेत किया कि जब समय मिले, तो मंदिर-दर्शन का जरूर लाभ उठाएं, तो उन्होंने कहा, 'मैं तो दुकान चला जाता हूं।' उनसे पूछा, 'कितने बजे जाते हो?' 'सुबह छह बजे।' उन्होंने जवाब दिया। आदमी की लालसा या लालच तो देखो, आज इस कलियुग में लोग आठ-नौ बजे तक तो बिस्तरों में दुबके रहते हैं कुंभकरण की 34 For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरह, लेकिन यह महानुभाव तो सुबह छह बजे दुकान खोल देते हैं। पूछा, 'दुकान रात को कितने बजे बंद होती है?' जवाब मिला, 'रात को बारह बजे।' कार्यों और कर्तव्यों का निर्वाह होना चाहिए, मगर अमर्यादित लालसाएं और कामनाएं मनुष्य को ऊंचा बनाती हैं। जीवन का हर कार्य और कर्तव्य मनुष्य के लिए देवदूत की तरह होता है, लेकिन जिन भौतिक सुखों के पीछे हम अंधे होकर दौड़ते हैं, वे हमारी जिंदगी के चापलूस शत्रु हुआ करते हैं, जो आदमी के खून को चूसते रहते हैं। पैसे कमाने के चक्कर में आदमी भूल जाता है कि उसके लिए समाज भी कुछ है, परिवार भी कुछ है, बूढ़े-बुजुर्ग भी कुछ हैं। उसे याद नहीं रहता कि और भी लोग हैं, जिनके बीच उठना-बैठना चाहिए और अपने प्यार को, अपने स्नेह को बांटना चाहिए। __ कमाओ, ज़रूर कमाना चाहिए, किंतु कमाने की एक सीमा हो। बच्चे चाहते हैं कि उनके पिता उनको प्यार दें, उन्हें गले लगाएं, उनको पढ़ने और आगे बढ़ने के सभी अवसर मिलें। बच्चों के प्रति अपने दायित्वों और कर्तव्यों की आप उपेक्षा नहीं कर सकते। आप अपने कर्तव्यों को ज़रूर निभाएं, मगर व्यर्थ की लालसाओं में न उलझें। ज़िंदगी को घर से घाट और घाट से घर के बीच ही पूरा न कर डालें । कर्तव्य के और भी क्षेत्र हैं। काम करने को और भी हैं। जीवन को उत्सव बनाएं, अमृत बनाएं, वरदान बनाएं। ___हमारे सौ-सौ जन्मों के पुण्यों से जीवन का यह स्वरूप उभरा है। अपने जीवन को हम जितना अधिक वरदान बनाकर, प्रकृति की सौपात बनाकर जिएंगे, यह जीवन हमें उतना ही सुख और आनंद देगा। मैंने जाना है कि जीवन कितना सुखकर होता है। किस तरह से यह स्वर्ग के गीत रचता है। मेरे लिए यह जीवन केवल बांस की पोंगरी नहीं, एक सुरीली बांसुरी है, जिसको मैं जब-तब बड़े प्रफुल्लित भाव से सुना करता हूं, गुनगुनाया करता हूं। आप भी इस बांसुरी को साधना सीखें, जीवन को बोझ न मानें । मस्त रहें, मस्त, हर हाल में मस्त। 35 For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औरों का दिल जीतें मनुष्य के पास ऐसी कोई जादुई छड़ी नहीं है, जिसे हवा में लहराएं और दुनिया की फिजा बदल जाए। उसके पास वे पंख भी नहीं हैं कि जिनके चलते वह आकाश में ऊंचा उड़ सके। हां, व्यक्ति के पास वे क़दम ज़रूर हैं, जिनके सहारे वह जंजीरों से न बंध पाने | | बड़े-से-बड़े पर्वतों को भी लांघ सकता है। वाले दिल से बंध जाते | मनुष्य के क़दम भले ही छोटे लगते -सत्यम शिवम संदरम् | हों, पर यदि वह निरंतरता और सातत्य बनाए रखे, तो आत्मविश्वास से भरे ये छोटे-छोटे कदम उन ऊंचाइयों को छू सकते हैं, जिनकी उसने कल्पना भी नहीं की हो। लक्ष्य अगर उन्नत है, दृष्टि अगर उच्च है, तो ये वामन कदम ढाई डग में ही सारे ब्रह्मांड को नाप सकते हैं। विशाल नज़र आने वाली नदी अपने उद्गम-स्थल पर छोटी-सी धार भर होती है, एक ऐसी पतली धार कि जिसे कोई टिड्डा और पतंगा भी पार कर सकता है। वही धार विराट बनते-बनते किसी नील का, किसी गंगा का रूप ले लेती है। जिन्हें हम केवल बादल की छोटी-सी बूंदें कहते हैं, वे अगर विकराल रूप धारण कर लें, तो बाढ़ का रूप ले लेती हैं। किसे पता है कि यह बरगद का विशाल वृक्ष कभी नाखून पर रखे जा सकने वाले किसी बीज से जन्मा है। जिसे हम तीली कहते हैं, अगर आग का रूप धारण कर ले, तो वह बड़े-से-बड़े नगर को भी भस्मीभूत कर सकती है। __ मनुष्य के अंतर्मन में उठने वाली कल्पना की एक लघु तरंग कला के नायाब नमूनों में तब्दील हो जाया करती है। मनुष्य का एक छोटा-सा वक्तव्य इतिहास की धारा को मोड़ सकता है और उसका एक छोटा-सा 36 For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिंतन एक नए आविष्कार का सूत्रधार | दिल प्रेम के लिए है। बन जाया करता है। जिस गदगा स सभा | कृपया उसे नफ़रत के घृणा करते हैं, वह खाद बनकर किसी फूल | खून से लथपथ कसाई को खिलाने की सामर्थ्य रखती है, खुशबू | खाना मत बनाओ। लुटाने का माद्दा रखती है। जब गंदगी | -प्याले में तूफ़ान भी उपेक्षा योग्य नहीं है, तो मनुष्य अपने को दीन-हीन क्यों माने? उसके जीवन में भी चमत्कार घटित होने की भरपूर संभावनाएं हैं। जगह बनाएं औरों के दिलों में आदमी जन्म के साथ अकेला पैदा होता है और मृत्यु के साथ अकेला ही जाता है, लेकिन जीवन-भर अपने आपको लोगों से घेरे रखता है, रिश्तों का नाम देकर, समाज की संज्ञा देकर। महत्त्व इस बात का नहीं है कि आदमी समाज में जीता है या समाज से हटकर, महत्त्व इस बात का है कि वह सबके बीच जीते हुए सबके दिलों में अपना कितना मोहब्बत-भरा स्थान बना पाता है। समाज के बीच जीना आदमी का सौभाग्य है, लेकिन आदमी के दिल में अपनी जगह बना लेना उसकी अपनी विशेषता है। कुछ फूल कागज़ के होते हैं, जिन्हें गुलदस्तों में सजाया जाता है और कुछ फूल ऐसे होते हैं, जिनकी सुवास और प्राणवत्ता के कारण हम उन्हें अपने गले का हार बनाते हैं, अपने शीश पर अंगीकार करते हैं। ओ आजकल के दोस्तो, ये काग़ज़ के फूल हैं। हैं देखने में खुशनुमा, पर सूंघने में धूल हैं। जिस फूल में खुशबू है, वह फूल गले का हार है। जिस फूल में खुशबू नहीं, वह फूल ही बेकार है। जिस फूल में अपनी कोई सुवास और सौरभ नहीं, उस फूल को फूल कैसे कहा जाए? आदमी की प्राणवत्ता और जीवंतता समाज के 37 For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस बीच तभी सिद्ध होती है, जब तुम जिस रास्ते से गुज़र जाओ, रास्ते से तुम्हारे साथ दस हाथ और खड़े हो जाएं; तुम्हारा गुज़रना भी हर गली-मोहल्ले को तरंगित और आंदोलित कर दे । आदमी, आदमी के दिल में कितनी जगह बना पाया, यही मूल्यवान है I आदमी के धन की कीमत उसके परिवार के लिए होती है, दूसरों के लिए तो मूल्य तुम्हारे बर्ताव का है । कपूर अगर जल भी जाता है, तो अपनी पहचान, अपनी मौजूदगी का एहसास छोड़ जाता है । तुम जिए या मर गए, तुम्हारी चिता जली कि तुम चैतन्य रहे। मुद्दे की बात यह है कि चिता पर जलने के बाद भी तुम अपनी सुवास दुनिया में छोड़ जाओ । आखिर मनुष्य का विमल यश ही एकमात्र अमर होता है । एक बहुत प्यारा प्रसंग है जगडू शाह के जीवन का। जगडू शाह एक बहुत बड़ा दानवीर और साहूकार हुआ। उसने अपनी ज़िंदगी में केवल राष्ट्र के लिए ही अपनी संपदा को समर्पित नहीं किया, वरन मंदिरों के लिए भी, और तो और मस्जिद के लिए भी उसने अपनी थाती और संपदा का उपयोग किया। कहते हैं कि किसी समय जगडू शाह का व्यापार ठेठ ईरान के दुरमुज बंदरगाह से होता था । उसी बंदरगाह से नुरुद्दीन का भी व्यापार होता था। दोनों के वहां सौ-सौ जहाज खड़े रहते थे। एक बार की बात है, वहां नीलम का एक पत्थर बिक्री के लिए आया। उस पत्थर को जगडू शाह के मुनीम ने लेना चाहा, लेकिन नुरुद्दीन के आदमियों ने यह कहकर वह पत्थर अपने हाथों में ले लिया कि इस तट पर पहला हक नुरुद्दीन का है, क्योंकि वह यहां का मूल निवासी है, जबकि जगडू शाह तो परदेसी है । बात के बढ़ते कितना वक्त लगता है ! बात भी ऐसी अड़ गई कि मुनीम ने कहा कि पहले मैंने पत्थर को देखा और जगडू शाह का नाम मैंने इस पर स्थापित कर दिया, यह पत्थर जगडू शाह के पास ही रहेगा। ईरान के बादशाह के अनुयायियों ने उस पत्थर को नीलाम करना चाहा, तो नुरुद्दीन ने उसकी बोली लगाई। पत्थर तो इतना कीमती नहीं रहा, मगर बात जब नाक की हो, तो फिर कम-ज्यादा 38 For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का ख्याल नहीं रहता। उसने कहा, 'एक हज़ार दीनार।' जगडू शाह के आदमियों ने कहा, 'दो हज़ार दीनार।' उसने कहा, 'पांच हज़ार दीनार।' उधर से आवाज़ आई, 'पच्चीस हज़ार दीनार।' बात बढ़ती ही चली गई। नुरुद्दीन ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया। उसने कहा, 'पचास हज़ार दीनार। जगड़ शाह के आदमी को लगा कि पैसा तो ऐसे ही आएगा और जाएगा, किंतु जगडू शाह का नाम नीचा नहीं होना चाहिए। उसने सीधे सवा लाख दीनार बोल दिए। एक मामूली नीले-से पत्थर के लिए सवा लाख दीनार। पत्थर बिक गया। पत्थर जगड़ शाह के पास भद्रावती लाया गया। जब जगड़ शाह को सारी बात पता चली, तो उसने अपने मुनीम का कंधा थपथपाया और कहा, 'तुमने ईरान में अपने मालिक का नाम रखा, उसके लिए तुम्हे साधुवाद है। इसका उपयोग पूजाआराधना या किसी-न-किसी इबादत के लिए ही किया जाएगा।' उसने कहा, 'मंदिरों के शिल्पियों को यहां आमंत्रित किया जाए।' तब मंदिर के शिल्पियों को वहां आहूत किया गया। उसने शिल्पियों से कहा, 'मुझे अपनी ओर से एक मस्जिद का निर्माण करवाना है।' जगड़ शाह की बात सुनकर लोग इस बात के लिए भौंचक्के हो उठे। शिल्पियों ने कहा, 'मालिक, कोई चूक तो नहीं हुई है। आप भूल से मंदिर के बजाय मस्जिद बोल चुके हैं।' जगडू शाह ने कहा, 'नहीं, जिस नुरुद्दीन ने एक पत्थर को खरीदने के लिए पचास हज़ार की बोली चढ़ा दी, वह उसका उपयोग किसी मस्जिद के निर्माण के लिए ही करता। इस कारण इसका उपयोग किसी-न-किसी मस्जिद के निर्माण में ही होगा। कहते हैं कि भद्रावती नगर के बाहर समुद्र तट पर आज भी वह भव्य मस्जिद खड़ी है। जब वह मस्जिद बनकर तैयार हुई, तो उसका उद्घाटन करवाने के लिए, पहली नमाज़ अदा करवाने के लिए नुरुद्दीन को आमंत्रित किया गया और तब नुरुद्दीन ने पहली नमाज अदा की। 39 For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुरुद्दीन ने कहा, 'जगडू शाह तूने अपने त्याग से सारी इसलाम कौम में वह जगह बनाई है, जिसे बनाने में हज़ारों-हज़ार वर्ष लग जाया करते हैं। वह नीला पत्थर उस मस्जिद के प्रवेश-द्वार पर जड़ा गया। हिन्दुस्तान में यही ऐसी मस्जिद है, जो हिन्दू लोगों द्वारा मुसलमानों के लिए बनाई गई थी। जगड़ शाह मस्जिद बनाकर अमर हो गए। आदमी, आदमी के साथ जी कर आदमी के लिए सदा-सदा अमर हो जाया करता है। बातें बहुत छोटी-छोटी होती हैं, इतनी छोटी कि जैसे बादल से बरसी हुई कोई बूंद हो, जैसे नदिया की कोई धार हो, जैसे बरगद का कोई बीज हो; जैसे कला के नायाब नमूने के लिए छोटी-सी कोई कल्पना हो। आदमी उन छोटी-छोटी बातों को जीकर ही सच्चा आदमी बनता है और आदमी, आदमी के दिल में अपनी जगह बनाता है। स्वभाव हो सौम्य हम औरों के दिलों में अपनी जगह कैसे बनाएं, इस संदर्भ में कुछ बेहतरीन चरण लें। हम जो पहला चरण लेंगे, वह है, स्वभाव में सौम्यता हो। स्वर्ग उन्हीं के लिए होता है, जो अपने घमंड और गुस्से को काबू में रखते हैं तथा जो पलती करने वालों को माफ़ कर दिया करते हैं। जो दयालु और क्षमाशील होते हैं, उनसे केवल आदमी ही प्यार नहीं करता, भगवान भी प्यार किया करता है। जिस आदमी के स्वभाव में सरलता और सौम्यता है, चित्त में एक सदाबहार शांति है, वह साधारण आदमी नहीं होता, बल्कि धरती के लिए देवदूत के समान होता है। वह आदमी औरों के दिलों में अपनी जगह बना ही लेता है, जिसका स्वभाव बड़ा सौम्य है, सरल है, कोमल है। हम ज़रा अपने स्वभाव को देखें कि वह सौम्य है या क्रूर, क्रोधित है या शांत, विनम्र है या घमंडी। कहीं ऐसा तो नहीं है कि ज्यों-ज्यों हमारे पास पैसा बढ़ता है, शिक्षा और ज्ञान बढ़ता है, समाज में मान-प्रतिष्ठा बढ़ती है, त्यों-त्यों हमारा घमंड भी बढ़ता चला जाता है। याद रखें, घमंडी का सिर हमेशा नीचा ही होता है। जिंदगी-भर भले ही हम दंभ पाले रहें, लेकिन मौत के आगे तो सिकंदर भी परास्त हो जाया करता है। एक पेड़ खजूर का होता है, जो इतना ऊंचा उठता 40 For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि उसके फल हर किसी की पहुंच के बाहर हो जाते हैं। दूसरा पेड़ आम का होता है, जिसके फल आदमी की पहुंच के भीतर होते हैं। जब उस पेड़ के फल पकते हैं, तो पेड़ झुक जाता है। ज्ञानी की पहचान यह नहीं है कि वह घमंडी हो, वरन जो झुकना जानता है, वही ज्ञानी है। पैसे वाला वह नहीं है, जो पैसे को पाकर समाज को कुछ न समझे, पैसे वाला वह है, जो औरों के बीच में जाकर अपने आपको उनके आगे और अधिक विनम्र कर लेता है। वह व्यक्ति संपत्ति वाला नहीं है, जो किसी मंदिर में प्रतिष्ठा करवाने के लिए खुद बोली लगाए और अपने हाथों से भगवान की मूर्ति चढ़ाए। वह आदमी असली नगरसेठ कहलाता है, जो बोली स्वयं लगा लेता है, लेकिन मूर्ति किसी और के हाथों से विराजमान करवाता है। क्रोध और अहंकार : स्वभाव के दुर्गुण जो जितना झुकता है, समाज उसको उतना ही माथे पर बिठाता है और जो जितना अकड़ रखता है, वह समाज की नज़र में उतनी ही नफ़रत का पात्र बनता है। आदमी के स्वभाव के दुर्गुण दो हैं, एक है घमंड और दूसरा है गुस्सा, एक है अहंकार और दूसरा है क्रोध। जिसका स्वभाव सौम्य हो चुका है, उस व्यक्ति को तो अगर गाली भी दी जाती है, तो जवाब में बुद्ध जैसे लोग यही तो कहते हैं, 'धन्यवाद, तुम मुझे ज़रा एक बात बताओ कि अगर कोई आदमी तुम्हारे घर मेहमान बनकर आए, तुम उसे भोजन परोसना चाहो और वह यदि भोजन स्वीकार न करे, तो वह भोजन किसके पास रहेगा? इसी तरह मैं भी तुम्हारी गालियों को स्वीकार नहीं करता। अब बताओ, तुम्हारी गालियों का क्या हश्र होगा? गाली तो तब गाली बनती है, जब हम गाली को स्वीकार करते हैं। गाली को स्वीकार ही न किया, उस पर ध्यान ही न दिया, तो गाली वहीं पर खत्म हो गई। आग तब आग बनेगी, जब उस आग को और ईंधन दिया जाएगा। आग तालाब में जाकर गिरेगी, तो बुझ जाएगी। हमारा स्वभाव अगर सौम्य हो चुका है, तो हम अपने आप में सागर हो गए।' अगर हम गाली को स्वीकार कर बैठे, तो स्वयं उलझ गए, फंस गए। इससे हमारा ध्यान उलझा, मन-हृदय उलझा। ध्यान रखें, पल-भर A1 For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का क्रोध आदमी का सारा भविष्य बिगाड़ सकता है। आदमी आठ प्रहर में जितना भोजन करता है, उसकी सारी ऊर्जा एक बार के क्रोध से नष्ट हो जाती है। जिस तरह कोई आदमी कहता है कि उसने भोग का उपयोग किया, तो ऐसा करने से उसके शरीर का बल क्षीण हुआ, तो गुस्सा करने वाले व्यक्ति का बल भी ठीक उसी क़द्र नष्ट हो जाता है। बस, तरीका बदल जाता है, उत्तेजना तो वहीं-की-वहीं है। एक ही उपाय है कि आदमी सौम्य स्वभाव का स्वामी बने। उसके स्वभाव में हर क्षण सौम्यता हो । स्वभाव में सरलता, कोमलता, मृदुता श्रेष्ठ व्यक्तित्व के चरण हैं। वाणी हो मधुर स्वभाव में सौम्यता लाने वाला दूसरा सूत्र है, वाणी में मधुरता हो, ताकि आदमी औरों के दिलों में सहजता से अपनी जगह बना सके। मधुर वाणी शीतल पानी की तरह होती है, वहीं कटु वाणी गर्म पानी की तरह। पानी गर्म हो, तो हाथ जल जाता है, वाणी गर्म हो, तो हृदय ही झुलस जाता है। अगर आदमी कटुता और चिड़चिड़ेपन के साथ बोलता है, तो कौन आदमी उससे बात करना चाहेगा? मूल्य इस बात का उतना नहीं है कि आप क्या बोलें, बल्कि इसका मूल्य अधिक है कि आप किस तरीके से बोलें, कितनी मिठास के साथ हमने वाणी का उपयोग किया? व्यक्तियों की कुलीनता उस समय पता नहीं कहां चली जाती है, जब वे बात-बेबात गालियों का उपयोग करते हैं। गाली उनके लिए तकिया-कलाम बन जाती है। वे होली के दिनों में भी गालियों का इतना प्रयोग नहीं करते, जितना आम दिनों में। __कहते हैं पहले लोग मिठाई बहुत खाते थे। माना वे मिठाई खाते थे, पर वे वापस मिठास का उपयोग भी करते थे। आपको डायबिटीज क्यों है? इसलिए कि मीठा तो खाते हो, पर वापस मिठास व्यक्त नहीं करते। तुम स्वभाव में मिठास ले आओ, जीवन की हर तरंग में माधुर्य का संचार कर दो, विश्वास रखो, तुम्हारी समस्या हल हो जाएगी। 42 For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो आदमी अपनी जुबान पर नियंत्रण नहीं रख पाता, उससे यह उम्मीद नहीं रखी जा सकती कि वह किसी चींटी को भी बचा पाएगा। जिस आदमी के पास भाषा-समिति का उपयोग नहीं, क्या वह एषणा समिति का उपयोग कर पाएगा? बोलो, मगर प्यार से बोलो। बेमतलब कुछ भी मत बोलो। कोई सलाह मांगे, तो दो, वरना मौन रहो। कम बोलना चाहिए, जैसे कि कोई आदमी तार देता है, बिल्कुल नपे-तुले शब्द हों। अगर व्यक्ति संतुलित शब्दों में अगले तक अपनी बात पहुंचाएगा, तो उसकी ऊर्जा बची रहेगी। एक आदमी दिन में चार बार रोटी खाकर जितनी ऊर्जा बनाता है, तो वह केवल एक बार में ही पर्याप्त हो जाएगी, क्योंकि आदमी में ऊर्जा को खर्च करने के लिए जो रास्ते होते हैं, उन पर उसने अपना संयम ले लिया, अपना अंकुश लगा लिया। प्यार से बोलो, मिठास से बोलो। एक बार एक महानुभाव कन्हैयालाल सेठिया, बड़े चर्चित कवि हैं, हम सब लोगों के पास बैठे हुए थे। उन्होंने कहा, 'संत आदमी कितना संत होता है, यह तो हम नहीं कह सकते, मगर आपका बड़ा भाई पक्का संत है।' मैंने पूछा, 'कैसे?' वे बोले, 'कल मैंने इस आदमी को फोन पर सौ गालियां दी होंगी, मगर वह मेरी अंतिम टिप्पणी पर भी शांत रहे और आखिर में बोले, 'हां, साहब'।' ___ जिस आदमी का स्वभाव इतना सौम्य और मधुर है, जिसकी वाणी में जैसे मिश्री घुली हुई है कि जो सौवीं गाली के जवाब में भी 'हां, साहब' कहता है, वह व्यक्ति सचमुच संत ही है। संत का अर्थ होता है शांत होना। जो आदमी शांत है, वह संत है। हमारी वाणी में ऐसी मधुरता होनी चाहिए। वाणी का मिठास, आह, इससे बेहतरीन पुष्पहार क्या होगा! किसी भी बुद्धिमान-समझदार व्यक्ति की यह सबसे प्रभावशाली निशानी है। व्यवहार हो शालीन मैं तीसरा सूत्र देना चाहूंगा; व्यवहार में शालीनता। यह कोई सामान्य बात नहीं है कि आप किस तरह से उठ रहे हैं, किस तरह से बैठ रहे हैं, किस तरह से सो रहे हैं। आपका चलना, सोना, बैठना भी 43 For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरों को प्रभावित करता है । आपका व्यवहार, आपकी पहचान का आधार है । शालीनता का मंत्र इसलिए है कि आदमी सलीके के साथ देखे, फिर बैठे। ऐसा न हो कि वह आए और धड़ाम से बैठ जाए। बैठना है, तो शालीनता के साथ बैठो। खाना है, तो सलीके से खाओ। ऐसा न हो कि खाते समय आपके सारे दांत दिखें। किसी के प्रति अगर आंख उठाकर देखना भी है, तो इतने प्यार से देखा जाए कि उसमें सौम्यता झलके । ऐसा न हो कि दृष्टि से लोफ़र लगो । क्या आपने कभी सोचा है कि 'लुच्चा' शब्द कहां से आया है? लोचन से ही लुच्चा बना है | जो लोचन को कहीं पर भी गाड़कर देखता है, वही लुच्चा है । देखना है, तो प्यार से देखो, तरीके से देखो । 1 घर में कोई आता है, तो सलीके के साथ बात करो, बच्चों को शालीनता सिखाओ। मैं एक घर में आहार के लिए गया था कि इतने में एक बच्ची आई और मम्मी से कहने लगी, 'मम्मी, मैं जहां भी जाती हूं, छोटा भैया वहीं आकर खड़ा हो जाता है । यह भी कोई तरीका है ? वह यह बोलकर अपनी कार से रवाना हो गई। बच्चों को शालीनता सिखानी चाहिए कि जब चार लोग हमारे सामने बैठे हों, तो हम किस तरह से पेश आएं । 1 एक छोटा-सा प्रसंग है । हम सूरत में थे । कोई आवश्यक बैठक आहूत थी, जिसमें दो ऐसे आदमियों को आमंत्रित किया गया था, जिनमें से एक लखपति था, तो दूसरा अरबपति । एक हवाई जहाज़ से पहले आ गए। वह हमारे पास बैठे थे, नाम था, मोहन चंद ढड्ढा । दूसरे व्यक्ति ट्रेन से आए। वह दरवाजे तक पहुंचे होंगे कि श्री ढड्ढा उनके सम्मान में खड़े होकर दरवाज़े तक गए और उन्होंने उनके हाथ का सूटकेस खुद लेना चाहा। एक साठ वर्षीय अरबपति का पैंतीस वर्षीय लखपति के प्रति ऐसा व्यवहार देखकर मैं अभिभूत हो गया । इसे ही कुलीनता कहते हैं कि उस आदमी ने अपना पैसा, अपनी उम्र और प्रतिष्ठा को एक किनारे रखा और आए हुए व्यक्ति को खड़े होकर सम्मान दिया । सचमुच, ऐसा करके उन्होंने औरों के दिलों में अपना आदरपूर्ण स्थान बनाया । 44 For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब राम के सामने रावण का शव लाकर रखा गया, तो विभीषण, मंदोदरी सभी यही सोच रहे थे कि श्री राम इसके भी इतने टुकड़े करवाएंगे कि शायद उससे ज्यादा टुकड़े न हो सकें और उन टुकड़ों को कुत्तों-गीदड़ों के आगे फेंक देंगे, क्योंकि उसने राम की पत्नी पर गलत नज़र डाली थी, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। श्री राम खड़े हुए, उस शव को देखकर सामने गए, करबद्ध हुए और अपने शरीर का उत्तरीय उतारकर रावण पर डाल दिया। इसे कहते हैं शालीनता और मर्यादा। मंदोदरी और विभीषण की आंखों से आंसू बह निकले। ऐसा हो आदमी का बर्ताव । मैं श्री राम की शालीनता और मर्यादाओं का कायल हूं। सार बात समझ लें सलीके का मज़ाक़ अच्छा, क़रीने की हंसी अच्छी, अजी जो दिल को भा जाए, वही बस दिल्लगी अच्छी। रिश्तों में हो अपनापन अगला सूत्र है : रिश्तों में आत्मीयता हो । आदमी बड़े प्यार से जिए, यह मानकर कि जीवन अपने आप में प्रकृति की अनुपम सौगात है। रिश्ता बनाना सरल होता है, परंतु निभाना बड़ा कठिन है। रिश्ते भले ही कम बनाओ, कोई चिंता नहीं, लेकिन जितने रिश्ते बनाए हैं, उन्हें निभाओ। वक्त-बेवक़्त में काम आओ। यह बेवक्त ही आत्मीयता की कसौटी होता है। रिश्तों में आत्मीयता होना चाहिए, केवल औपचारिकता नहीं, टी.वी. वाली मुस्कान नहीं। अगर आप किसी आत्मीय जन के अस्वस्थ होने पर अस्पताल जाते हैं, तो ऐसा न हो कि आपने कुशल-क्षेम पूछा और पांच मिनट में लौट आए। इससे तो अच्छा होता कि आप वहां जाते ही नहीं। वहां गए हो, तो तीन-चार घंटे बैठो, इस दौरान जो भी सेवा बनती है, आप सेवा करें। चाहे उसको निवृत्त के लिए जाना हो या उसकी करवट बदलवानी हो, बिना किसी शर्म के आप उसकी सहायता करें। सुख-शांति पूछने से सुख-शांति नहीं होगी। सुख-शांति आपके सहयोगी बनने से ही आएगी। किसी रोगी से सुख-चैन पूछने की बजाय मालूम करें कि उसे किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है। अगर उसकी स्थिति वाकई ठीक 45 For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है, तो उसके तकिए के नीचे पांच सौ रुपयों के नोटों का एक लिफ़ाफ़ा गुपचुप रखकर रवाना हो जाएं। आदमी से अपने रिश्तों को केवल औपचारिकता न बनाएं, वरन आत्मीयता को वास्तविक तौर पर निभाने की कोशिश करें । अगर किसी की बेटी का विवाह हो रहा है और लगता है कि वह विवाह का खर्च उठा पाने में समर्थ नहीं है, तो आपने परिचय के नाते, रिश्ते के नाते या इंसानियत के नाते दस-बीस हज़ार का गहना बनवाकर उसे दे दिया, तो इससे आपको कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा, मगर वह व्यक्ति ज़िंदगी-भर के लिए आपका एहसानमंद हो जाएगा, ज़िंदगी-भर आपको याद करेगा। इस तरह से आदमी, आदमी के दिल में अपनी जगह बना लेता है । इबादत हो इंसानियत की पंचम सूत्र यह है कि आदमी केवल अपने रिश्तेदारों के प्रति ही आत्मीयता न रखे, वरन हर आदमी के काम आए । आदमी का आदमी के लिए काम आना ही आदमियत की आराधना है, इंसानियत की बात है । कल की ही बात थी कि एक महानुभाव हमारे पास आए और बोले, 'क्षमा करें, आने में देरी हो गई ।' हमने कारण पूछा, तो उन्होंने बताया, 'रास्ते में एक आदमी दुर्घटना का शिकार होकर खून से लथपथ पड़ा था, भीड़ लगी हुई थी भी उसे देखने खड़ा हो गया। वह तड़प रहा था, लेकिन उसे अस्पताल ले जाने वाला कोई न था ।' उस महानुभाव की बात सुनकर मैंने कहा, 'जब उस घायल को कोई भी अस्पताल ले जाने वाला नहीं था, तो आप उसे ले जा सकते 1 थे । संभव है कि कल हम भी दुर्घटनाग्रस्त हो जाएं और लोग हमारा भी तमाशा देखें ।' हर घायल के प्रति, हर ज़रूरतमंद के प्रति आदमी की सहानुभूति होना ही चाहिए। वे ही हमारी सहानुभूति के असली पात्र हैं। उसने कहा, 'आपकी बात सर - आंखों पर, इसीलिए आने में देर हुई ।' साधुवाद, तुम्हारी सहानुभूति किसी पुण्यात्मा के प्रति ही नहीं, बल्कि किसी पापी के प्रति भी होनी चाहिए, क्योंकि वह समाज के 46 For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा उपेक्षित है। मंदिर भी केवल पुण्यात्माओं के लिए ही नहीं होते, वरन पापियों के लिए भी होते हैं, ताकि वे वहां जाकर अपने पापों को समर्पित कर सकें, पापों का प्रक्षालन कर सकें । पुण्यात्माओं को तो अपने पुण्यों का फल भोगने के लिए हज़ार-हज़ार जगह हैं, लेकिन पाप से घिरे लोगों के प्रायश्चित के लिए तो वही एक शरणगाह है । आदमी के मन में पापियों के लिए सहानुभूति हो । जीसस कहा करते थे कि मैं इस धरती पर पुण्यात्माओं के लिए नहीं आया, वरन पापियों को उनके पापों का प्रायश्चित कराने के लिए आया हूं । मेरी ज़रूरत ज्ञानियों को नहीं, अज्ञानियों को है, रईसों को नहीं, उन निर्धनों और असहायों को है, जिनकी सहायता के लिए और कोई आगे नहीं आता। आदमी, आदमी के काम आए और जाने कि इंसानियत का क्या मूल्य है, क्या अर्थ है ? वह जाने कि आख़िर मानव-धर्म क्या है ? आदमी, आदमी के काम आए, औरों के दिलों में जगह बनाए । साकार हो सेवा की भावना बात उन दिनों की है, जब टेरेसा ने अपने सेवा के संकल्प को भारत में क्रियान्वित करना शुरू ही किया था। शुरुआती दौर में उनका बहुत विरोध हुआ, पर वह सेवा में लगी रहीं। काली माता के मंदिर का पुजारी, जो टेरेसा का कट्टर विरोधी था, हैज़े का शिकार हो गया । वह मंदिर के बाहर पड़ा तड़प रहा था, तभी टेरेसा की नन आईं और पुजारी को स्ट्रेचर पर डालकर अस्पताल ले गईं । बंगाली टेरेसा का विरोध करते हुए उस गृह - चिकित्सालय के बाहर नारेबाजी कर रहे थे । इंस्पेक्टर, जिसने टेरेसा को कलकत्ता से निकालने का बीड़ा उठा रखा था, उसने जब टेरेसा को पुजारी की जिस क़द्र सेवा और उसके स्वास्थ्य के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते देखा, तो उसकी आंखें भर आईं। उसने तब भीड़ से कहा, 'टेरेसा हमारे लिए एक प्रेरणा है, आदमी होकर आदमी के काम आने की ' जिस दिन भारतीय नारियां इस क़द्र सेवा के लिए आगे बढ़ आएंगी, यह सारा देश टेरेसाओं 1 भरा होगा। क्या हममें से कोई टेरेसा बनने को तैयार है ? आदर्शों की ऊंची बात करने वाले क्या सच्चाई की दहलीज पर क़दम रखना चाहेंगे? 47 For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होना होता है जिनको अमर, वे लोग तो मरते ही आए। औरों के लिए जीवन अपना, बलिदान वो करते ही आए।। धरती को दिए जिसने बादल, वो सागर कभी न रीता है। मिलता है जहां का प्यार उसे, औरों के जो आंसू पीता है।। क्या मार सकेगी मौत उसे, औरों के लिए जो जीता है? मिलता है जहां का प्यार उसे, औरों के जो आंसू पीता है।। जिसने विष पिया बना शंकर, जिसने विष पिया बनी मीरा। जो छेदा गया बना मोती, जो काटा गया बना हीरा।। वो नर है जो है राम, वो नारी है जो सीता है। मिलता है जहां का प्यार उसे, औरों के जो आंसू पीता है।। जिस सागर ने धरती को बादल दिए हैं, वह कभी नहीं सूखता, जिस तरुवर ने लोगों को मीठे फल दिए हैं, वह कभी वंचित नहीं, जो सरोवर प्यासे कंठों की प्यास बुझाता है, वह कभी भी रीता नहीं रहता। जो औरों के लिए विष को भी अंगीकार करता है, वही शंकर कहलाता है। जीना उसी आदमी का जीना है, जो आदमी होकर आदमी के काम आए। 48 For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रियाओं से परहेज रखें यह सारा जगत हमारा अपना ही आईना है। आईने में वैसी ही छवि उभरकर आती है, जैसा हमारा रूप-रंग-आकार होता है। क्रिया प्रतिक्रिया के अनुरूप ही होती है। कोई भी प्रतिक्रिया किसी भी क्रिया के विपरीत नहीं होती। यह सारा जगत ध्वनि और प्रतिध्वनि के नियम के आधार पर चलता है, कर्म और कर्म-परिणति के नियम के आधार पर संचालित होता है। यही जीवन और जगत का नियम है। क्रिया मधुर हो, मधुर प्रतिक्रिया के लिए जो व्यक्ति चाहता है कि उसके जीवन में प्रतिक्रियाएं मधुर हों, उसे अपने जीवन में मधुर क्रियाओं का ही बीजारोपण करना होगा। दूसरों के द्वारा गीतों की सौपात पाने के लिए हमें गालियों से परहेज रखना होगा। यह जीवन-जगत की व्यवस्था है कि अगर तुम अपनी ओर से गीत गुनगुनाओगे, तो तुम्हें औरों द्वारा गीत ही लौटकर मिलेंगे। वहीं अगर गालियों की बौछार करोगे, तो औरों द्वारा गालियों के कैक्टस ही तुम्हें भेंट में मिलेंगे। धरती पर आज तक किसी को कांटों के बदले फूल नहीं मिले और किसी को फूलों के बदले कांटे नहीं मिले हैं। महान लोग औरों द्वारा कांटे बोए जाने के बावजूद उन्हें अपनी ओर से फूल ही लौटाते रहे। राम के भीतर तो राम के दर्शन हर कोई कर लेता है, मगर असली भक्त तो वही है, जो रावण में भी राम की छवि निहार ले। यह जगत ध्वनि और प्रतिध्वनि के नियम से चलता है। जैसे जंगल में जाकर आप 'हो' की आवाज़ करें, तो सभी दिशाओं से उससे 49 For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार गुना 'हो' की ध्वनि लौटकर आएगी। ऐसे ही अगर अपने द्वारा औरों के प्रति प्रेम के गीतों को बुलंद करोगे, तो तुम पर प्रेम की ही बौछारें होंगी। अगर दूसरों से हमारा अच्छा और भला किया कहोगे कि मैं तुमसे नफ़रत करता हुआ कभी व्यर्थ नहीं जाने वाला। हूं, तो यह जगत तुम पर चारों तरफ़ चाहे हमारे विचार हों या व्यवहार, से नफ़रत के शोले बरसाना शुरू कर काम हो या निर्माण, वे आज देगा। वहीं अगर तुम अपनी ओर से औरों के प्रति प्यार करने के भाव नहीं तो कल तेज़ी से लौट आने वाले हैं। मुखरित करोगे, तो ताज्जुब करोगे -जिएं, तो ऐसे जिएं कि हर काइ तुमस प्यार करने का लालायित नज़र आएगा। अगर कोई व्यक्ति आपसे गाली-गलौज कर रहा है, तो उसे बेवकूफ न समझें। दरअसल किसी के द्वारा मिलने वाली गालियां पूर्व में हमारी ओर से दी गई गालियों का प्रत्यावर्तन ही है। तुम अपनी ओर से जैसी सौयात दोगे, वैसी ही तुम बदले में पाओगे। पात्र बदल जाते हैं, निमित्त और चेहरे बदल जाते हैं, मगर कुदरत हिसाब बकाया नहीं रखती, वह सूद समेत लौटाती है। अगर आज आपने गुलाबचंद को गाली दी है, तो हो सकता है कि वह आपको गुलाबचंद के मुंह से गाली न निकलवाए, गुमानमल द्वारा गाली लौटा दे। जैसा तुम बोओगे, वैसा ही काटने को मिलेगा। धर्मशास्त्रों में लिखे हुए कर्म के सिद्धांत का इतना-सा ही रहस्य है। मूल्य है स्वयं की दृष्टि का दुनिया वैसी नहीं दिखती, जैसा कि हम उसे देखना चाहते हैं। दुनिया हमेशा वैसी ही दिखाई देती है, जैसे कि आप स्वयं होते हैं। एक बुद्धिमान व्यक्ति किसी गांव के बाहर रहा करता था। उधर से गुजरने वाले राहगीर उस गांव के बारे में उसी से सवाल-जवाब किया करते थे। ऐसे ही एक राहगीर उधर से गुज़रा। उसने रुककर बुद्धिमान व्यक्ति से बातचीत करनी चाही। उसने प्रश्न किया, 'महानुभाव, क्या तुम मुझे यह बताना चाहोगे कि इस गांव के लोग कैसे हैं? दरअसल मैं दूसरे गांव में बसने की सोच रहा हूं।' 50 For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब बुद्धिमान व्यक्ति ने पूछा, 'मैं तुम्हें तुम्हारे सवाल का जवाब दूं, उससे पहले मैं यह जानना चाहूंगा कि तुम जिस गांव को छोड़ना चाहते हो, उस गांव के लोग कैसे हैं?' उस राहगीर ने कहा, 'जिस गांव में मैं रहता था, उसकी तो पूछो ही मत । वहां के लोग बड़े रूखे, निर्दय और बेहूदे हैं । इसी कारण तो मैं वह जगह छोड़ना चाहता हूं ।' बुद्धिमान आदमी ने कहा, 'तब तो यह स्थान भी तुम्हारे रहने योग्य नहीं है, क्योंकि यहां के लोग भी वैसे ही बदमिज़ाज हैं ।' कुछ दिनों के बाद एक और राहगीर उधर से गुज़रा। उसने भी वही प्रश्न बुद्धिमान व्यक्ति से किया, 'श्रीमान, मैं इस गांव के लोगों के बारे में आपकी राय जानना चाहता हूं । मैं अपनी मौजूदा जगह छोड़कर कहीं और बसना चाहता हूं ।' बुद्धिमान ने वही प्रश्न किया, 'मैं तुम्हें तुम्हारे सवाल का जवाब दूं, उससे पहले मुझे ज़रा यह बताओ कि जिस गांव को तुम छोड़ना चाहते हो, उस गांव के लोग कैसे हैं?' उस आदमी ने कहा, 'श्रीमान उस गांव के लोग बड़े दयालु, एक-दूसरे के सुख-दुख में सहायक और सरलमन हैं ।' बुद्धिमान व्यक्ति ने कहा, 'महाशय इस गांव के लोग भी वैसे ही दयालु, हमदर्द और उदार हैं। आप यहां बड़े प्रेम से निवास करें ।' किसी की गाली इसलिए अंगारा बन रही है, क्योंकि तुम सरोवर न हो पाए । - चलें, फिर एक बार बुद्धिमान व्यक्ति का पुत्र दोनों राहगीरों की बातचीत का साक्षी था । उसे अपने पिता के व्यवहार पर विस्मय हुआ । उसने अपने पिता से पूछा, 'आपके सामने अलग-अलग राहगीरों द्वारा एक ही प्रश्न पूछा गया, मगर आपने दोनों को अलग-अलग जवाब दिया, ऐसा क्यों ?' पिता ने कहा, 'बेटा, आज तुम जीवन और जगत का यह विज्ञान समझ ही लो कि दुनिया वैसी नहीं दिखती, जैसा कि तुम उसे देखना चाहते हो । दुनिया वैसी ही नज़र आती है, जैसे कि तुम स्वयं होते हो । अगर तुम अपने गांव को रूखा, निर्दय और बेहूदा कहते हो, तो निश्चय ही तुममें भी उतनी ही निर्दयता, उतना ही रूखापन, उतनी ही बेहूदगी होगी । अगर हम अपनी ओर से गांव को बड़ा दयालु और शालीन तथा सलीक़े वाला समझते हैं तो हम भी वैसे ही होंगे ।' 51 For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकल्प हो सद्व्यवहार का तुम जैसे होते हो, वैसा ही तुम्हारे लिए जगत बन जाता है । प्रसन्न हृदय से अगर जगत को देखो, तो सारा जगत मुस्कराता हुआ दिखाई देगा और अगर रोते हुए चेहरे के साथ जगत को देखो, तो सारा जगत रुंआसा, आंसू ढलकाता नज़र आएगा। यह तुम्हारी क्रिया की प्रतिक्रिया, छाया की प्रतिच्छाया, ध्वनि की प्रतिध्वनि है । अगर चाहते हो कि औरों द्वारा हमारे प्रति सद्व्यवहार हो, तो अपनी ओर से दृढ़प्रतिज्ञ बनो कि मैं अपनी ओर से किसी के प्रति दुर्व्यवहार नहीं करूंगा। अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारे पिता अपना सारा प्यार तुम पर उंडेल दें, तो तुम भी अपना सारा सम्मान, संपूर्ण श्रद्धा उनके चरणों में समर्पित कर दो। हम याद करें उस दृश्य को जब महावीर के कानों में कीलें ठोकी गईं थीं। वे कीलें अकारण नहीं ठोकी गई थीं । यह महावीर की क्रिया की प्रतिक्रिया थी । महावीर ने अपने पूर्व जन्म में अपने ही अंगरक्षक के कानों में खौलता हुआ शीशा डलवा दिया था। इस जन्म में रूप बदल गया, वेश बदल गया, लेकिन कर्म-बंधन नहीं बदले । आज अगर कोई तुम्हारी निंदा कर रहा है, तो बड़े धीरज से उसे पचा लो, क्योंकि तुमने कभी किसी की निंदा की होगी। आज हमें लगता है कि हमारे घर में किसी छोटे बच्चे की मौत हो गई है, तो हम यही मानकर चलें कि हमने भी कभी किसी छोटे बच्चे की मौत का निमित्त अपने द्वारा खड़ा किया होगा । यह आसमान हमें इसीलिए गोल दिखाई देता है कि हमें लौटाया जा सके वह सब कुछ, जो हमने अपनी ओर से ब्रह्मांड की ओर फेंका है। क्या आपने कभी इस बात पर गौर किया है कि बड़े-बड़े मंदिरों के गुंबद गोल क्यों होते हैं? इसके पीछे वैज्ञानिक तथ्य है । गुंबद गोल का कारण यह है कि हम जो मंत्रोच्चार करें, वे ही मंत्र पर लौटकर बरसें और हमारे वायुमंडल को, हमारे रोम-रोम को, हमारे चित्त और हृदय के परमाणुओं को निर्मल करें। साथ ही कोई भी मंत्र व्यर्थ न चला जाए। अपने जीवन में जिन महानुभावों को यह अपेक्षा हो कि औरों से माधुर्य पाएं, सौम्यता पाएं, तो उन्हें चाहिए कि वे औरों के साथ शालीनता से पेश आएं। कोई और व्यक्ति आपके साथ 52 For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्व्यवहार करे, गाली-गलौज करे, तब भी आपका फ़र्ज़ बनता है कि आप शांत-संयत रहें, प्रतिक्रिया व्यक्त न करें। कुलीन और संस्कारित व्यक्ति को निम्नस्तरीय व्यवहार शोभा नहीं देता। आदमी जब उठता है, बैठता है, तो उसकी कुलीनता झलकनी चाहिए। कुलीनता का अर्थ यह नहीं है कि तुम किस सलीके से बोलते हो, किस सलीके से बैठते हो, किस सलीके से भोजन करते हो? आपके खाना खाने का तरीका बता देता है कि आपका स्तर क्या है? हम अपने व्यवहार के प्रति सजग रहें, जागरूक रहें। हमारी जागरूकता हमें व्यर्थ की प्रतिक्रियाओं में उलझने से बचाएगी। संतान ही नहीं, संस्कार भी एक पिता अगर घर में बैठकर गाली-गलौज करता है, शराब और तंबाकू का सेवन करता है, तो मानकर चलें कि उसका बेटा भी ऐसा ही सीखेगा। एक पिता वह होता है, जो संतान को जन्म-भर देता है। एक पिता वह होता है, जो अपनी संतति को संपत्ति देता है और एक पिता वह होता है, जो अपनी संतति को संस्कार देता है। अगर तुम झूठ बोलोगे, तो मानकर चलो कि वही संस्कार तुम्हारी संतान में आएंगे और तुम्हारा बेटा भी झूठ ही बोलेगा। स्वयं का चरित्र सम्यक, उज्ज्वल रखकर हम अपनी आगे की पीढ़ियों में सम्यक संस्कारों का संचार कर सकते हैं। ___हम अपने जीवन को बड़ी सहजता, मधुरता और प्रसन्नता से जिएं, इतनी सहजता के साथ कि जीवन हमारे लिए ईश्वर का वरदान बन जाए। केवल क्रिया-प्रतिक्रिया के दौर से गुज़रते रहें, तो ध्यान रखो, जगत की व्यवस्थाएं कुछ इतनी विचित्र हैं कि यहां क्रिया की प्रतिक्रिया कभी भी उतनी नहीं होती, जितनी तुमने क्रिया की है, बल्कि उससे कई गुना अधिक लौटकर आती है, जैसे चार बीज बोओ, तो चालीस फल उग आते हैं, ऐसी ही गालियों की खेती है, जहां चार गालियों के बदले चालीस गालियां ही सुनने को मिलती हैं। आपने वह प्रसंग सुना ही होगा कि सम्राट अकबर किसी जंगल से गुज़र रहे थे। गर्मी की तपिश के कारण अपना कोट उतारकर बीरबल के कंधे पर रख दिया। अकबर के पुत्र को भी गर्मी लग रही थी, उसने 53 For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी पिता का अनुसरण किया और अपना कोट उतारकर बीरबल के कंधे पर रख दिया । अकबर को मज़ाक सूझा। उसने कहा, 'क्यों भाई बीरबल, एक गधे जितना भार तो हो ही गया होगा ।' बीरबल ने कहा, 'माफ़ करें हुजूर, एक का नहीं, दो का कहिए ।' यह प्रतिक्रिया है । जगत वही लौटाता है, जो तुम उसे सौंपते हो । अगर किसी को गधा कहा, तो मानकर चलो कि वह भी तुम्हें गधे से बढ़कर नाम देगा । गणित में तो शायद एक और एक दो होते हैं, लेकिन गालियों का गणित कुछ और ही है, जहां एक और एक ग्यारह होते हैं, वे पल-भर में एक ग्यारह भी हो सकते हैं । इसलिए मेरे प्रिय आत्मन जीवन में अपनी ओर से सदा वे ही बीज बोएं, जिन्हें काटते वक्त हमें खेद, कटुता और वितृष्णा का आभास न हो । सहानुभूति हो, सहिष्णुता भी हमारे प्रति कौन कैसा व्यवहार करता है, इस बात को कभी मूल्य मत दो। मूल्य सदा इस बात को दिया जाना चाहिए कि हम अपनी ओर से औरों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं? कौन हमें गालियां निकालता है, मतलब इसका नहीं है, वरन मतलब इस बात का है कि हम अपनी ओर से गालियां निकालते हैं या गीत गुनगुनाते हैं । महत्त्व हमारा अपना है । कुछ लोगों को देखकर आश्चर्य होता है कि अमुक व्यक्ति उनके सामने आया, उसने सामने वाले की खूब निंदा की, खूब बदनामी की, मगर वह उसके साथ उसी प्रेम, उसी सम्मान - भावना से पेश आ रहा है। यही तो उस व्यक्ति की सहिष्णुता है, इसी में उसकी सामयिक भावना है कि जब कोई कैसा भी व्यवहार करे, तो व्यक्ति सहनशील बना रहे, प्रतिक्रियाओं के द्वंद्व से मुक्त रहे । घर क्यों टूटते हैं? एक मां-बाप का खून आखिर क्यों बंट जाता है ? एक ही धर्म के अनुयायियों के बीच दरारें क्यों हैं? इन समस्याओं प्रतिक्रिया है । तुम्हारे भीतर मधुरता और सहनशीलता नहीं है, जिसके कारण समाज आपस में टूट जाता है, लोग आपस में बंट जाते हैं । कोई अगर पूछे कि घर और परिवार का पुण्य क्या है, तो मैं कहूंगा कि एक मां-बाप के अगर पांच संतानें हैं और वे सभी एक 54 For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ, एक ही छत के नीचे बैठकर खाना खाते हैं। इससे बढ़कर परिवार के लिए और पुण्य क्या हो सकता है? जिस परिवार के चार बेटे अलग-अलग घर बसा लें, तो मां-बाप के लिए इससे बढ़कर त्रासदी और क्या हो सकती है? यह धर्म-संघ का पुण्य है कि जहां वह एकछत्र, एक मंच पर खड़ा होता है। यह धर्म-संघ के लिए पापोदय है कि जहां संघ एक तीर्थंकर, एक ईश्वर, एक धर्म का अनुयायी होने के बावजूद अपने आपको खेमों में बांट लेता है। नतीजतन एक धर्म का वही हश्र होता है, जैसे किसी मानचित्र के चार टुकड़े कर दिए जाएं और उन्हें चारों दिशाओं में फेंक दिया जाए। तोड़ें नहीं, जोड़ें रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। टूटे से फिर ना जुरे, जुरे गांठ पड़ जाय।। प्रेम-भाव को तो हम और प्रगाढ़ करें। तोड़ें नहीं, जोड़ें। कभी-कभी लगता है कि खत्म हो गया है वह प्रेम, जिसको लेकर धर्मों का जन्म हुआ। इंसानियत, एकता, भाईचारा, विश्व-मैत्री का संदेश केवल प्रार्थनाओं और बैनरों पर टंगने और लिखने भर तक के लिए रह गया है, आम जीवन में इसका कोई उपयोग नहीं रहा है। धर्म उसका होता है, जो इसको जीता है, प्रेम करता है। ईसाई वह व्यक्ति नहीं होता, जो गिरजाघर में जाकर ईसा मसीह की प्रार्थना करता है, वरन वह है, जो ईसा के प्रेम को अपने जीवन में जीता है। वह व्यक्ति हिन्दू नहीं होता, जो राम की पूजा करता है, वरन वह व्यक्ति हिन्दू है, जो राम की मर्यादाओं को अपने जीवन में उतार लेता है। महापुरुषों का स्मरण, पूजा, प्रार्थना खूब हो गई। मात्र इससे व्यक्ति का कल्याण नहीं होने वाला है। उनके गुणों को अपने जीवन में जीने से कुछ काम बनेगा। माना कि हम आसमान के चांद-तारों को छू नहीं सकते, उन्हें पा नहीं सकते, मगर उनकी रोशनी में अपने रास्तों की तलाश तो कर ही सकते हैं। माना हम राम, कृष्ण, महावीर नहीं हो सकते, मगर उन जैसा होने का प्रयास तो कर ही सकते हैं, उनकी प्रेरणाओं को हम अपने जीवन का अंग तो बना ही सकते हैं। 55 For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बचें प्रतिक्रियाओं से प्रतिक्रियाओं से परहेज़ रखो। जिसको जब जो करना है, उसकी माया वह जाने, तू तो अपनी सोच। तू तेरी संभाल, छोड़ सभी जंजाल। तू अगर औरों की सोचेगा, तो अपने आपको डुबो बैठेगा। सब तिरें, सब पार लगें, यह अच्छी बात है, मगर तुम डूबे रहो, यह कौन-सी बात हुई? सारे लोग मुस्कराएं, यह अच्छी बात है, मगर तुम्हारे चेहरे पर मायूसी, रुंआसापन रहे, तो दुखद है। तुम तो इस बात पर ध्यान दो कि तुम मुस्करा रहे हो या नहीं, तुम्हारे चित्त में प्रसन्नता उभर रही है या नहीं। अपनी ओर से जितनी कम प्रतिक्रियाएं करोगे, उतनी ही अधिक सुख-शांति के स्वामी बनोगे। चित्त में शांति कोई ढिंढोरा पीटने से नहीं आती। वह तो अपने आपको प्रतिक्रियाओं की उठा-पटक से मुक्त रखने से ही आएगी। मैंने एक संकल्प लिया था कि सूर्यास्त से सूर्योदय तक चाहे जैसी परिस्थिति आए, चाहे जैसा वातावरण बन जाए, मैं हर हालत में मौन रहूंगा। मैं जानता हूं कि मेरे मौन ने मुझे कितना सुकून, माधुर्य, अंतरात्मा का आनंद दिया है। अपने मौन के दौरान मैंने सदा यह बोध बनाए रखा कि चाहे जलजला आए या कयामत, मैं हर स्थिति में शांत और मौन रहूंगा। परिणामतः किसी भी तरह की प्रतिक्रिया मेरे चित्त में नहीं होती। मैं सहज ही शांत हूं, सुखी हूं। ___ मैंने मौन रहकर जाना है कि जो व्यक्ति अपने आपको प्रतिक्रियाओं से बचाकर रखता है, वह कितना सुखी है। उसके जीवन में सदा गुलाब के फूलों की सुवास रहती है। जो व्यक्ति अपने आप में हर प्रतिक्रिया के बदले में सकारात्मक और तटस्थ रहता है, उसकी मुस्कान में भी चांद-तारों का सौंदर्य और फूलों की सुगंध रहती है। आप अगर चाहते हैं कि हकीक़त में अपने मन में सामयिक और गीता के समत्वयोग को अपने जीवन में उतार लें, तो सीधा-सा सूत्र होगा : अपने आपको प्रतिक्रियाओं से मुक्त और निरपेक्ष रखें। दमन नहीं, सुधार हो डांट-डपटकर किसी को नहीं सुधारा जा सकता, न पिता अपने पुत्र को इस तरह सुधार सकता है, न सासें बहुओं को। अगर बेटे द्वारा 56 For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कांच का गिलास टूट जाए, तो आग-बबूला होने की आवश्यकता नहीं है । आज क्रोध किया, गालियां निकालीं, तो संभव है, कल आपका बेटा भी क्रोध करेगा, संभव है कि वह आपके ख़िलाफ़ कोई विद्रोह कर दे। जब आपके पैर से फूलों का गुलदस्ता टूटा था, तब आपका बेटा शांत रहा था, आपकी मान-मर्यादा की रक्षा की थी, फिर आप क्यों इतने उतावले हैं ? याद रखें, किसी स्प्रिंग को जितना दबाओगे, स्प्रिंग उतनी ही बलवती होगी, वह उतने ही जोर से उछलेगी। थोड़ा धीरज रखो और बेटे को अवसर दो कि उसे अपनी ग़लती का एहसास हो, अपराध-बोध हो । तब वह मन ही मन कह उठेगा, 'सॉरी, यह गलती फिर नहीं होगी ।' किसी की चार गालियां किसी और को नहीं सुधार सकतीं, वरन स्वयं में जगने वाला अपराध-बोध ही व्यक्ति को सुधारता है । तब आइंदा उसके पांव से कांच का गिलास नहीं टूटेगा । होने वाली गलती के बोध का मौक़ा दो । हां, अगर लगे कि दसों बार अवसर दिया, फिर भी वही गलती हो रही है, तो तुम्हें डांट-डपट का अधिकार है । पिता पुत्र से प्यार भी करे, मगर उतना भी नहीं कि कल इसके दुष्परिणाम उसे ही भोगने पड़ें । 1 1 मुझमें सामयिक और समता कैसे आई, कैसे मैं क्रोध और प्रतिक्रियाओं से विरत हुआ, इसके पीछे एक प्रेरणा रही । सारे लोग जानते हैं कि भगवान कृष्ण के समक्ष शिशुपाल की मां ने आकर कहा था, 'भविष्यवाणी हुई है कि तुम शिशुपाल का वध करोगे । कृष्ण, मैं तुमसे आज यह वरदान चाहती हूं कि तुम शिशुपाल का वध नहीं करोगे ।' कृष्ण ने कहा, 'बहिन, मैं ऐसा तो कोई वचन नहीं दे सकता हूं। हां, इस बात के लिए ज़रूर आश्वस्त कर सकता हूं कि मैं उसकी निन्यानवे गलतियों को माफ़ कर दूंगा ।' शिशुपाल की माता ने कृष्ण को धन्यवाद देते हुए कहा, 'इतना भी बहुत है । निन्यानवे गलतियां तो बहुत होती हैं, मैं अपने बेटे को सदा सजग रखूंगी कि तुम कभी भी कृष्ण के प्रति कोई गलती मत कर बैठना ।' लेकिन शिशुपाल एक पर एक गलती करता चला गया, प्रत्येक गलती को दोहराता चला गया । जिस दिन निन्यानवे गलतियां पूरी हुईं कि सौवीं गलती पर सुदर्शन चक्र चल पड़ा। मैं इस घटना 57 For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से मुदित हो उठा। मुझे एक नया बोध मिल गया कि अगर कृष्ण किसी की निन्यानवे पलतियों को माफ़ कर सकते हैं, तो हम किसी की नौ गलतियों को तो माफ़ कर ही सकते हैं। जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में संकल्प ले लिया, वह बोध पा लिया कि मैं किसी की नौ गलतियों को ज़रूर माफ़ करूंगा, तो वह न कभी क्रोध की ज्वालाओं में झुलसेगा, न कभी प्रतिक्रियाओं में उलझेगा। वह अपने जीवन में चित्त की शांति का स्वामी बना रहेगा, सदा शांत और सौम्य बना रहेगा। कमी न देखें दूसरों की अगर आप चाहते हैं कि प्रतिक्रियाओं से बचे रहें, तो सदा इस बात का बोध रखें कि आप अपनी ओर से कभी किसी की कमी न निकालें, न ही किसी की कमी का उसे बोध कराएं। दुनिया में कोई विरला ही होगा, जो अपनी कमियों और पलतियों के बारे में जानना चाहता हो। अगर आपने किसी की पलतियां निकालनी शुरू की, तो बदले में वह आपकी ऐसी-ऐसी पलतियां निकालना शुरू करेगा कि आपके लिए उन्हें पचाना कठिन होगा। ध्यान रखें कि कोई भी व्यक्ति अपने आप में पूर्ण नहीं होता, कमियां हर किसी में होती हैं। अगर कमियों की तरफ़ ध्यान दोगे, तो तुम किसी व्यक्ति का उपयोग नहीं कर पाओगे। अगर गुणों की तरफ़ ध्यान दोगे, तो तुम गए-गुज़रे आदमी में भी गुण खोज ही निकालोगे, उनका भी उपयोग कर ही लोगे। कुदरत हर इनसान में कुछ खास कमियां, तो कुछ ख़ास गुण देकर भेजती है। गुण इसलिए कि उस गुण के बलबूते पर आदमी अपना जीवन जी सके और कमियां इसलिए कि व्यक्ति अपने पुरुषार्थ द्वारा उन कमियों को जीत सके। अपनी कमियों को हमें जीतना होता है और अपनी ख़ासियत को हमें जीना होता है। कभी भी किसी की निंदा और आलोचना न करें। अपने मुंह से किसी भी तरह का कोई शब्द निकले, तो पहले सोचें कि मैं कहूं या न कहूं। कहने के बाद केवल पछतावे के अलावा कुछ नहीं होता। वाणी का उपयोग इस तरह करो कि तुम्हारी वाणी औरों को दिया जाने वाला फूलों का गुलदस्ता बन जाए। जन्मदिन तो कभी-कभी 58 For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता है और तभी तुम किसी को फूलों का गुलदस्ता दे सकते हो, पर अपनी मधुर और सौम्य वाणी का गुलदस्ता रोज़ ही हर किसी को दे सकते हो। कभी भी किसी की आलोचना मत करो। माना कि किसी व्यक्ति के जीवन में कमियां होंगी, कुछ ख़ामियां होंगी, पर अगर हमने उसकी खामियों को गिनना-गिनाना शुरू कर दिया, तो उसके जीवन का कचरा हमारे जीवन में आते देर नहीं लगेगी। जो व्यक्ति किसी की निंदा नहीं करता, उसे किसी तीर्थ की ज़रूरत नहीं रहती। वह घर बैठे गंगा-स्नान कर लेता है। उसके लिए कठौती में ही गंगा है, क्योंकि मन निर्मल है, मन चंगा है। ___ हम स्वयं तो किसी की निंदा न ही करें, पर अगर कोई और व्यक्ति हमारी आलोचना करे, तो विचलित न हों। यह पड़ताल करें कि जो कहा जा रहा है, क्या उसमें कोई सच्चाई भी है? अगर सच है, तो स्वयं को सुधारें। अगर पलत है, तो चिंता किस बात की! सांच को कैसी आंच! भला, जब हम अपनी झूठी तारीफ़ भी प्रेम से सुन सकते हैं, तो अपनी सच्ची आलोचना को सुनने से क्यों कतराना? शांति से आलोचनाओं का भी सामना करना आना चाहिए। बिना मांगे सलाह कैसी ध्यान रखें, कभी भी किसी को बिन मांगे सलाह न दें। सीख उसी को दी जाए, जो सीख का सम्मान करता हो। कहा भी गया है कि बंदर को कभी सीख न दी जाए, क्योंकि उससे बया का घर ही तहस-नहस होता है। ‘सीख ताको दीजिए, जाको सीख सुहाय। सीख न दीजे बानरा, बया को घर जाय।' कहते हैं, एक बार किसी चौराहे पर दो युवक आपस में गुत्थम-गुत्था हो रहे थे। एक ने कहा, 'अब ज्यादा बकवास की, तो मैं तेरी बत्तीसी तोड़ दूंगा। दूसरे ने कहा, 'जा, तू क्या मेरी बत्तीसी तोड़ेगा, अगर मेरा घूसा पड़ गया, तो तेरे चौंसठ दांत तोड़ दूंगा।' एक आदमी उन दोनों की बगल में खड़ा उनकी तू-तू मैं-मैं सुन रहा था। उससे न रहा गया। उसने कहा, 'श्रीमान, ज़रा रुकिए। आपने कहा कि मैंने पूंसा मारा तो तेरे बत्तीस दांत टूट जाएंगे, यह बात तो समझ में आई, मगर यह बात समझ में नहीं आई कि दूसरे सज्जन 59 For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के घूसे से चौंसठ दांत कैसे टूटेंगे? दांत तो आख़िर बत्तीस ही होते हैं। उसने कहा, 'मुझे पता था कि तू ज़रूर बीच में बोलेगा, इसलिए मैंने तेरे बत्तीस दांत भी इसके साथ जोड़ लिए थे।' किन्हीं दो के बीच तीसरे का प्रवेश सदा ही घातक होता है। बस, अपना प्रयास यही हो कि तू तेरी संभाल, छोड़ शेष जंजाल। तू तेरे में मस्त रहना सीख। जिंदगी में चाहे जितनी विपरीत परिस्थिति आ जाए, मगर हर हाल में तुम अपने आपको सकारात्मक बनाए रखो। ज़िंदगी में प्रतिक्रियाओं से बचाए रखने के लिए यह अमृत मंत्र है। ___ मैंने अपनी जिंदगी में कभी भी अपनी मां के चेहरे पर गुस्सा नहीं देखा। हम पांच भाई थे, पांचों की उम्र लगभग बराबर थी। इसलिए मां को तंग किया करते थे, लेकिन उसके चेहरे पर गुस्से की हलकी लकीर भी नहीं देखी। हमें याद नहीं कि हमारी मां ने कभी हमें डांटा हो। आज वह मां साध्वी-जीवन में है, लेकिन उनका कहा टालने का साहस आज उसकी किसी भी संतान में नहीं है। उनके संस्कार हर संतान का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। ___ एक बार मैंने अपनी मां से पूछा कि मां, मैंने तुम्हारे चेहरे पर कभी शिकन तक नहीं देखी। इसका कारण क्या है ? पता चला कि अगर बड़े लोग मां को डांट देते, तो वे सोचा करतीं कि ठीक है, बड़े हैं। बड़े नहीं कहेंगे, तो कौन कहेगा? विपरीत परिस्थितियां आईं, मगर फिर भी सकारात्मक और जब कोई छोटे बच्चे गलती कर जाते, तो वे उन्हें डांटती नहीं थीं। सोचती थीं कि बच्चे हैं, बच्चों से गलती नहीं होगी, तो किससे होगी? निरपेक्ष रहें परिस्थितियों से छोटों के प्रति दया और करुणा, बड़ों के प्रति चित्त में समता और सम्मान, यही है सदाबहार शांति और सौम्यता का मंत्र । व्यक्ति का सकारात्मक रूप यही है कि व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में सदा शांत रहे, सौम्य रहे, प्रसन्न रहे, वह हर हाल में मस्त बना रहे। जो व्यक्ति अपने जीवन में प्रतिक्रियाओं से परहेज़ रखता है, वह चौबीसों घंटे सामयिक में है, समत्व में है। तब उसके चित्त में सदाबहार शांति और आनंद उसके भीतर बना हुआ रहता है। 60 For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन में इतना बोध काफ़ी है कि मैं प्रसन्न रहूंगा, ऐसी ही क्रियाएं करूंगा जिनकी प्रतिक्रियाएं सदा मधुर रहें, अगर किसी और के द्वारा गलत विचार, ग़लत टिप्पणी, कुव्यवहार हो भी जाए, तो यह मानकर शांत रहूंगा कि जरूर अतीत में मैंने ऐसे बीजों का वपन किया होगा, तभी तो ऐसी प्रतिध्वनियां लौटकर आती हैं । भविष्य मेरा स्वर्णिम और मधुरिम है, क्योंकि वर्तमान में ऐसे ही बीज बोता हूं, ऐसे बीज - वपन और सिंचन के लिए सजग रहता हूं, जिनसे सुंदर फूल खिलते हैं, छांहदार पत्ते लगते हैं, रस भीने फल निपजते हैं। हां, यह जीवन-दृष्टि ही वर्तमान को शांत और शालीन बनाती है और यही भविष्य के धरातल पर सुंदर इंद्रधनुष साकार करती है । 61 For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भय का भूत भगाएं याज अपनी बात एक प्राचीन घटना से प्रारंभ करूंगा। सम्राट संजय हरिणों का शिकार खेलने के लिए अपने नगर से रवाना हुए। कापिल्य नरेश कितनी भी सुरक्षा क्यों ने सारे जंगल को छान मारा, मगर न हो, भय में व्यक्ति उन्हें शिकार नसीब न हुआ। उनका स्वयं को असुरक्षित ही घोड़ा सरपट दौड़ता रहा। अचानक समझता है। उन्होंने केशर-उद्यान में प्रवेश किया -सत्यम् शिवम् सुंदरम् | कि उनकी नज़र हरिणों के एक झुंड पर पड़ी। घोड़े के टापों की आवाज़ सुनकर हरिणों में भगदड़ मच गई। वे भाग खड़े हुए। एक गर्भवती हिरनी तेज़ी से भागने में असमर्थ थी। वह पूरी कुलांचें नहीं भर पा रही थी। सम्राट संजय ने अपना तीर-कमान उठा लिया। तीर उसके हाथ से छूट पड़ा और सीधा गर्भवती हिरनी के पेट में जा धंसा। वह दर्द से कराह उठी, फिर भी दौड़ती रही। हिरनी आगे-आगे, सम्राट का घोड़ा पीछे-पीछे। अचानक हिरनी एक पेड़ की छांव में पहुंची और वहां साधनारत संत गर्दभिल्ल के चरणों में जा गिरी। संत के चरणों में घायल हिरनी ने अंतिम सांसें लीं। संत की आंखें खुलीं, तो अपने सामने एक मृत हिरनी को पाया। तभी देखा कि कोई शिकारी सम्राट, इसी हिरनी का पीछा करता हुआ इसी ओर चला आया है। सम्राट ने भी अपने सामने एक संत, एक मुनि को पाया। सम्राट के क़दम रुक गए। वह चौंका, 'ओह, मेरे द्वारा तो महान अनर्थ हो गया। मैंने मुनि की हिरनी की हत्या कर डाली। अब मुझे निश्चय ही मुनि के अभिशाप 62 For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पात्र बनना पड़ेगा। संत का शाप कभी निष्फल नहीं जाता और आज मुझे यह शाप देकर ही रहेंगे।' संत गर्दभिल्ल की दया-भरी दृष्टि हिरनी पर पड़ी। सारे संसार से निर्लिप्त और अनासक्त होने के बावजूद किसी को अपने पांवों में गिरकर प्राणों की आहुति देते हुए देखकर संत की आंखें भर आईं। संत के हृदय से उमड़े उन आसुओं ने हिरनी के मस्तक का अभिषेक किया। सम्राट | | भय का कोई रास्ता संजय मुनि के पांवों में गिर पड़ा, | मुक्ति की ओर नहीं ले 'मुझसे जो अपराध हुआ है, उसके जा सकता है। भय मनुष्य लिए सम्राट अपना मुकुट आपके के लिए आत्मघातक है। चरणों में रखकर माफ़ी चाहता है। ___ -ध्यान का विज्ञान क्षमा करें मुनिवर, क्षमा करें। सम्राट की याचना सुनकर संत ने जो शब्द कहे, वे आज भी सामयिक व प्रासंगिक हैं। वे शब्द विश्व-शांति और प्रेम का आधार बन सकते हैं। संत ने कहा, 'ओ पार्थिव, अगर तू किसी से अभय चाहता है, तो तू स्वयं अभयदाता बन। इस अनित्य जीव-लोक में तू क्यों हिंसा में आसक्त हुआ चला जा रहा है? चार दिन का जीना तेरा है और चार दिन किसी अन्य का। इस चार दिन के जीवन में तू क्यों अपने आपको हिंसा, परिग्रह और वैमनस्य में झोंक रहा है? अगर तू अपने लिए अभयदान चाहता है, तो तू भी इन सारे निरीह प्राणियों का अभयदाता बन।' अहिंसा अभय की नींव हिंसा भय को जन्म देती है और अहिंसा अभय को। अहिंसा अभय की नींव है और अभय अहिंसा की अभिव्यक्ति। जो भयभीत है, उसकी अहिंसा कायरता है। जो निर्भय है, उसकी अहिंसा आत्मगौरव है। यदि कोई भयवश ईश्वर को शीश नवाता है, तो उसकी आस्थाएं कभी भी खंडित हो सकती हैं। जो भय के कारण पाप से डरता है, उसके पुण्य में भी पाप छिपा रहता है। डरपोक लोगों को जीने का हक नहीं है। उन्हें लोग जीने भी नहीं दे सकते। भय का भूत भागे, तो ही सच्चाई का सूर्योदय संभव हो सकेगा। 63 For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की विजय 'हिंसा की रोकथाम' के नारों से नहीं होती। जीवन में हिंसा का आमूलचूल मिटाव करने से ही अहिंसा की विजय संभावित है। सम्राट अशोक कलिंग युद्ध में अपनी विजय के बाद तंबुओं में विजय का उत्सव मना रहा था। रात का घुप्प अंधेरा था, लेकिन अशोक के शामियानों में रोशनी जगमगा रही थी। तभी एक सेवक सम्राट अशोक के तंबू में प्रविष्ट हुआ और कहा कि कोई बौद्ध भिक्षु आपसे इसी समय मिलना चाहता है। सम्राट ने अनुमति दे दी। भिक्षु ने कहा, 'सम्राट, आज विजय का उत्सव मनाया जा रहा है, लेकिन इस समारोह का उचित स्थान यह तंबू नहीं है। आप मेरे साथ चलिए, मैं आपको वहां ले चलता हूं, जहां विजय का असली उत्सव मनाया जाना चाहिए।' सम्राट अशोक भिक्षु के साथ चल दिए। भिक्षु सम्राट को कलिंग की रणभूमि में ले आया। युद्ध के प्रांगण में सम्राट को खड़ा करके भिक्षु ने कहा, 'सम्राट, तुम किसका विजय-उत्सव मना रहे हो? क्या इन अबलाओं के सिंदूर उजड़ जाने का, क्या इन बहनों का अपने भाइयों से सदा-सदा बिछुड़ जाने का, क्या इन माताओं की गोद सूनी हो जाने का? तुमने निर्दोष लोगों का क़त्ल करके उचित नहीं किया है।' भिक्षु की बात सम्राट सिर झुकाए सुनता रहा। भिक्षु ने कहा, 'सम्राट, यह सारी मानवता तुम्हें अपने शीश पर बैठाए रखना चहती है। यह तभी संभव है, जब तुम हिंसा न करो, अहिंसा की प्रतिमूर्ति बनो।' तब एक ऐसे सम्राट का जन्म हुआ, जिससे अहिंसा गौरवान्वित हुई। तब धरती पर वह अशोक प्रकट हुआ, जिसने शांति और अहिंसा के लिए अपनी सारी शक्ति, सारी संपदा का उपयोग किया। सम्राट अशोक अभय और अहिंसा का सम्राट कहलाया। एक ओर है संत गर्दभिल्ल, तो दूसरी ओर है भिक्षु बोधिसत्व, एक तरफ़ है सम्राट संजय, तो दूसरी तरफ़ है सम्राट अशोक । सम्राट संजय ने जहां सदा-सदा के लिए शिकार को वर्जित कराया और समस्त निरीह प्राणियों के लिए अभयदान की घोषणा करवाई, वहीं सम्राट 64 For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक ने संपूर्ण साम्राज्य में अयुद्ध की घोषण करवाई। एक ओर अहिंसा है और दूसरी ओर अभय। अहिंसा और अभय दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, एक-दूसरे के पर्याय हैं। अहिंसा और अभय वीरों का आभूषण अहिंसा और अभय भगोड़ों या पलायनवादियों का काम नहीं है। यह तो वीरों का आभूषण है। वह आदमी अपने जीवन में धर्म को नहीं जी पाता, जिसके लिए 'अहिंसा परमो धर्मः' नहीं है। वह आदमी साधना को नहीं जी पाता, जिसके जीवन में अभय दशा उन्नत नहीं हुई है। साधना के द्वार पर तो यक्ष, किन्नर, देव, दानव और न जाने क्या-क्या, किन-किन के घोर परिषह, घोर उपद्रव आते हैं। भगवान महावीर पर केवल एक रात में बीस-बीस घोर उपसर्ग, घोर परिषह हुए थे। ___ हम ज़रा अपनी साधना को, अपनी जीवन-शैली को, अपनी अहिंसा को कुछ ईमानदारी के साथ परखें। हमें पता चलेगा कि क्या हम किसी देव-दानव के दिए जाने वाले परिषद में कामयाब हो सकते हैं? एक चूहे से, एक छिपकली से भय पाने वाला आदमी क्या किसी यक्ष, किन्नर, देव, दानव, भूत-प्रेत के उपद्रव को सहन कर पाएगा? व्यक्ति जब लॉयन्स क्लब का सदस्य बनता है, तो लॉयन कहलाता है। सदस्य बनकर उसे स्वयं में छिपे हुए सिंहत्व को, पुरुषत्व को सार्थक करना होता है; मगर वह दीवार पर चलती हुई एक छिपकली से घबरा जाता है। वह आदमी 'शेर की संतान' कहलाने का अधिकारी नहीं है, जो एक छोटे-से कीड़े से घबरा जाए। साधना का सोपान अभय बहुत वर्षों पहले हमें हम्पी की कंदराओं में रहने का सौभाग्य मिला। वहां एक बहुत बड़े साधक हुए योगिराज सहजानंदघन । वे अपने पूर्व नाम से भद्रमुनि कहलाते थे। अब तो हम्पी में देशी-विदेशी पर्यटक दिन-रात पड़े ही रहते हैं, लेकिन मैं तो बात कर रहा हूं पच्चीस-तीस साल पहले की। उस समय वे साधक अकेले ही वहां की कंदराओं में रहते थे। कोई भूला-भटका दर्शनार्थी ही उनके पास पहुंचता था। 65 For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब दस साल पहले हम हम्पी में थे, तो मैंने अपनी आंखों से वहां पर शेर, बाघ, सांप-बिच्छू देखे थे। ज़रा कल्पना कीजिए आज से पच्चीस-तीस साल पहले उस साधक ने कंदराओं में कैसे साधना की होगी? ऐसी निर्भय दशा के, निर्भय चित्त के स्वामी को शायद ही मैंने देखा हो। मैं योगी सहजानंदघन की निर्भय चेतना से सहज ही प्रेरित-प्रभावित हुआ। मैं योगिराज शांतिविजय महाराज की भी निर्भय-दशा का अनुमोदन करूंगा। मुझे उनकी गुफाओं में भी जाने और रहने का अवसर मिला। व्यक्ति कोई भी क्यों न हो, ऐसे अभय चेतनाशील पुरुष ही सफलताओं की मीनारों को छू सकते हैं। तेनसिंह और हिलेरी जैसे लोग, जिन्होंने एवरेस्ट की चढ़ाई की, मार्ग में सफेद भालू मिले, पर जिनके चित्त से भय भाग गया, अभय हो गया; भला सांप, बिच्छू, भालू उनके भय का निमित्त कैसे बनेंगे! __ व्यक्ति जानवरों से भयभीत रहता है, पर मैंने नहीं सुना कि आज तक किसी शांत बैठे हुए इनसान को किसी भी सांप ने काटा हो। कोई भी सांप इनसान को तभी काटता है, जब इनसान का पांव सर्प पर पड़ जाए और सर्प भयभीत हो जाए। मैंने कई-कई बार अपने पास से सर्प को गुजरते हुए देखा है। जैसे ही पाया कि कोई सांप गुज़र रहा है, जहां थे, वहीं खड़े हो गए। सर्प आया और पास से गुज़र गया, आगे बढ़ गया। ज्यों ही आप सर्प से भयभीत होंगे. सर्प चौंक उठेगा और डस लेगा, कुत्ते से भयभीत होंगे, तो वह पीछे दौड़ेगा, काट खाएगा। भूत : भय का पिछलग्गू कहते हैं कि स्वामी विवेकानंद बहुत डरा करते थे, जल्दी भयभीत हो जाते थे। एक बार वे किसी जंगल से गुज़र रहे थे। चलते-चलते काफ़ी थक चुके थे, इसलिए एक पेड़ के नीचे पहुंचे विश्राम करने के लिए, मगर जैसे ही वहां बैठने लगे कि तभी देखा कि उस पेड़ के ऊपर आठ-दस बंदर बैठे हैं। जैसे वह बैठे कि ऊपर से एक बंदर नीचे आता दिखाई दिया। वह घबराए और वहां से दौड़ पड़े। 66 For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी विवेकानंद के दिल की धड़कन बढ़ गई। जैसे ही वे दौड़े कि सारे बंदर नीचे उतर आए और उनके पीछे हो लिए। विवेकानंद आगे-आगे, बंदर पीछे-पीछे। दौड़ते-दौड़ते वह थककर चूर हो गए। अब उनसे दौड़ पाना कठिन था। वह वहीं खड़े हो गए। उनके खड़े होते ही बंदर जहां थे, वहीं रुक गए। वह चौंके, सूत्र उनके हाथ लगा, मेरे रुकने से बंदर भी रुक गए। अगर मैं क़दम इनकी तरफ बढ़ाऊं, तो क्या ये भी एक कदम पीछे चले जाएंगे? उन्होंने साहस करके एक क़दम बंदरों की तरफ़ बढ़ाया, बंदर पीछे हट गए। बस, जीवन में अभय दशा को लाने का सूत्र मिल गया कि तुम भय से भागो मत। भय अपने आप ही भाग जाएगा। तुम अभय हो जाओ। कहते हैं कि तब विवेकानंद बड़े आराम से चलकर उस वृक्ष के पास लौटे। बंदर धीरे-धीरे वृक्ष पर चढ़ गए। विवेकानंद आराम से उस वृक्ष के नीचे सोए, चैन की नींद ली। भय के भूत उतने ही सवार होंगे, जितने कि आप उन भूतों से घबराएंगे। जितने हम निर्भय होते चले जाएंगे, भय के भूत हमसे उतने ही भागते चले जाएंगे। कोई कहता है कि अमुक मकान में मत जाना, उसमें भूत रहते हैं। कोई कहता है कि रात को सोए-सोए ही मुझे भूत दिखाई देता है। कोई कहता है कि मैंने देखा, अपने मोहल्ले में दूर एक सफेद-सा भूत हिल रहा था। उनसे पूछा जाए कि भूत हिल रहा था या किसी आदमी की धोती हिल रही थी? दूर से भूत दिखाई देते हैं, लेकिन जैसे ही उसके पास जाओ, यथार्थ सामने आ जाता है, कथित भूत भाग जाता है। भय : मन का संवेग आदमी सदैव भय से ग्रस्त रहता है। आखिर वे मूलस्रोत, मूल कारण क्या हैं, जिनके चलते आदमी भय की जकड़ में आता है? फ्रायड को पढ़ो या दूसरे मनोवैज्ञानिकों को, वे कहते हैं कि मनुष्य जब से जन्म लेता है, भय की दशा उसके चित्त में सदा-सदा रहती है। मनुष्य अपने साथ मूलतः तीन संवेगों को लेकर जन्म लेता है : पहला है प्रेम, दूसरा है भय और तीसरा है क्रोध । मनुष्य के संपूर्ण जीवन में ये तीन संवेग काम करते हैं। 67 For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपने पाया होगा कि जैसे ही बच्चा रोता है, मां उसे छाती से लगाती है। प्रेम का संवेग उठा, उसकी पूर्ति हुई, बच्चा शांत हो गया। बच्चा सोया हुआ था कि तभी आपके हाथ से गिलास छूट गया, ज़ोर की आवाज़ हुई, बच्चा चौंक उठा, रो पड़ा। यह मनुष्य के भय का संवेग हुआ। आपने बच्चे के हाथ से उसका खिलौना छीन लिया, अब देखो बच्चा किस तरह से हाथ-पांव पटकता है, किस तरह से छाती पीटता है। यह हुआ उसके क्रोध का संवेग। मनुष्य जन्म के साथ ही प्रेम, भय और क्रोध को लेकर आता है। हमारे अपने ही चित्त में प्रेम है, भय है और इसी में क्रोध है। भय से शक्ति का क्षय भय मनुष्य का सबसे बड़ा घातक शत्रु है। विश्वास और विकास दोनों ही इससे कुंठित हो जाते हैं। भय मानसिक कमजोरी है। मन दुर्बल हो जाए, तो शरीर भी दुर्बल हो जाता है। निर्भय मन स्वस्थ शरीर का आधार बनता है। रोग कटते हैं मनोबल और आत्मविश्वास के बूते पर। इसलिए भय से मुक्त होना स्वस्थ जीवन का सरलतम मंत्र है। जो किसी भी परिस्थिति में नहीं घबराते, वे भूत-बंगले से भी नहीं घबराते। जो भयभीत हैं, वे अपने आस-पास हवा से हिल जाने वाले पत्तों से भी घबरा जाते हैं। इतना ही नहीं, तुम जैसे ही घबराते हो, तुम्हारी शक्ति का क्षय होना शुरू हो जाता है। तुम्हारा पाचन-तंत्र, हृदय-तंत्र भी असुंतलित हो उठते हैं। इसीलिए तो कहते हैं, मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। अब तक जो भी हारे हैं, कमजोर मन के कारण हारे हैं और जो भी जीते हैं, वे अपने मनोबल के कारण जीते हैं। कमजोर शरीर और बलवान मन तो चल जाएगा, पर बलवान शरीर और कमजोर मन कभी भी कारगर नहीं हो पाएंगे। निर्भयता की बीन बजाएं अगर डरना है तो अपयश से डरो, पाप से डरो, और किसी से डरने की ज़रूरत नहीं। जब तक भय निकट न आया हो, तब तक ही उससे डरना चाहिए, पर आ जाने के बाद तो निःशंक होकर उस पर प्रहार कर देना चाहिए। तुम न मित्र से घबराओ, न परिवार से, न शत्रु 68 For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से घबराओ, न भूत से। घबराना तुम्हारे स्वभाव में ही न हो। जहां बराए, समझो लक्ष्य की नाव वहीं डूब गई। त्यागें हृदय की नपुंसकता भय से मुक्ति पाने के लिए पहले वे कारण तलाशने होंगे, जिनसे मनुष्य भयग्रस्त होता है। जहां तक मैं मनुष्य के मन को पढ़ पाया हूं, उसके मुताबिक मनुष्य की पहली जो स्थिति बनती है कि जिसके कारण आदमी भयग्रस्त होता है, वह है मनुष्य की पौरुषहीनता, सत्त्वहीनता, मनुष्य के मन में पलने वाली नपुंसकता। स्वयं में अगर कायरता या नपुंसकता आ जाती है, तो आदमी भयग्रस्त रहता है। शक्तिहीन होने के विचार मात्र से व्यक्ति भयग्रस्त हो जाता है। जब महाभारत का संग्राम छिड़ने को था, तो अर्जुन जैसा सामर्थ्यवान व्यक्ति भी अपने शस्त्रों को नीचे गिरा बैठा। कृष्ण ने क्या किया? केवल अर्जुन के चित्त में आ चुकी कायरता, नपुंसकता को दूर किया और गीता के रूप में एक महान संदेश दिया। ___ मुझ पर गीता का प्रभाव रहा है। मेरे हृदय में अभय का दीप जलाने में उसने मदद की है। ऐसा हुआ भी। बहुत वर्ष पहले की बात है। हम कच्चे रास्ते से माऊंट आबू पर चढ़ रहे थे, यात्रा चल रही थी। न जाने क्यों मुझे यह एहसास हो रहा था कि कुछ अनिष्ट होने वाला है। मैं निरंतर सचेत, सजग रहा। मैंने सभी को रोक लिया और निवेदन किया कि वापस सब लोग नीचे उतर जाएं, क्योंकि मुझे कुछ अनहोनी-सी स्थिति लग रही है। काफ़ी चढ़ाई चढ़ चुके थे, पर मेरे निवेदन पर सभी जन नीचे उतर आए। तीन दिन बाद वापस चढ़ना शुरू किया। कोई छः से सात किलोमीटर की यात्रा पूरी की होगी कि अचानक तेज सनसनाहट के साथ हवा आई और उस तेज़ हवा के साथ एक भयंकर मूठ आकर मुझ पर गिरी। मैं वहीं धड़ाम से गिर पड़ा। मुंह से खून की उलटी होने लगी। मैंने अपनी परा शक्ति का स्मरण किया। न जाने कहां से जलती हुई आग मेरे हाथों में आई और मैंने उस आग से मूठ की काट की। सारा रास्ता जैसे-तैसे कर पार हो गया, लेकिन फिर तो मेरी हालत यह हो गई कि मुझे लगा कि दिन हो या रात, कभी 69 For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 भी, किसी भी क्षण, कुछ भी हो सकता है । अपनी सारी योग-शक्तियां लगाने के बावजूद मुझे लगा कि मेरे साथ कुछ ऐसा हो रहा है, जिसे मैं जीत नहीं पा रहा हूं । मेरे चित्त में भय की ग्रंथि बन चुकी थी । बाद में तो स्थिति यह हो गई कि अगर मैं जंगल से गुज़रता और तेज़ हवा भी चल पड़ती, तो मुझे लगता कुछ-न-कुछ गड़बड़ी है । मेरे लिए अब बड़ा मुश्किल हो गया । इसी तरह पांच-छः महीने ते कि तभी संयोग से मुझे एक ऐसी पुस्तक मिली कि मेरे मन का कायाकल्प हो गया । यह किताब थी 'श्रीमद्भगवद्गीता' । मैंने उसे खोला, दृष्टि दूसरे अध्याय के एक श्लोक पर जा टिकी । उस श्लोक ने मेरे चित्त की अभय-दशा को जाग्रत कर दिया, मेरी अंतरात्मा में पुरुषत्व को जगा दिया। मेरे मन में घर कर चुकी नपुंसकता दूर हो गई । मैंने स्वयं यह संकल्प लिया, खड़ा हुआ और कहा कि देखता हूं, अब कौन-सी ताकत है, जो मुझसे बढ़कर निकल सके। गीता का वह श्लोक मेरे जीवन के पुरुषार्थ को जगाने का परम आधार बना । वह सूत्र था - क्लैव्यं मा स्म गमः पार्थ, नैतत्त्वय्युपपद्यते । क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं, त्यक्त्वोतिष्ठा परंतपः ।। कृष्ण ने कहा, 'ओ मेरे पार्थ, अपने हृदय की तुच्छ दुर्बलता का त्याग कर। क्यों तू अपने आपको नपुंसक बना रहा है ? खड़ा हो और देख, तुझे युद्ध के लिए पुकारा जा रहा है । तू अपने कर्तव्य के लिए सन्नद्ध हो जा । जाग्रत हो और अभय - दशा को प्राप्त कर । मैं तेरे साथ हूं।' 1 पौरुष जगाएं, भय भगाएं गीता के इस श्लोक पर मुझ पर बड़ा उपकार रहा। इसी से उऋण होने के लिए ही मैंने दो वर्ष पूर्व श्रीमद्भगवद्गीता पर विशेष प्रवचन भी दिए। अगर व्यक्ति पुरुषत्वहीन हो जाए, पौरुष शिथिल पड़ जाए, तो उसके चित्त में भय की ग्रंथि बन जाती है। एक बार भय की ग्रंथि निर्मित हो जाए तो आदमी छोटा-सा निमित्त पाकर भी घबरा 70 For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है। तब आदमी निरंतर भय का ही चिंतन करता है। वह इहलोक और परलोक के भय से ग्रस्त रहता है, वह मृत्यु और वेदना के भय से ग्रस्त रहता है। इसने मुझे ऐसा कह दिया, यह मुझे ऐसा कह देगा, आदमी इन्हीं कल्पनाओं में विचरण कर भयग्रस्त होता रहता है। भय, डर, खौफ़ को दूर करने के लिए हम अपने सोए पौरुष को जगाएं। जीवन में महाभारत का वातावरण बनना स्वाभाविक है, मनुष्य के रूप में किसी भी अर्जुन का विचलित होना भी नैसर्गिक है। हार उसी समय हमारे हाथ में चली आती है, जैसे ही हम किसी भी शंका-आशंका से घिर जाते हैं। वहीं जैसे ही सामना करने का साहस लौट आता है, जीत बिन मांगे ही झोली में चली आती है। भय मात्र मन की दुर्बलता है। हम जीवन में साहस, शौर्य, ऊर्जा, उत्साह का संचार करें, सचमुच अगले ही पल आप बहादुर और शक्तिवान बन चुके होंगे। निरपेक्ष रहें निंदा के भय से आदमी को एक और जो सबसे बड़ा भय सताता है, वह है निंदा का भय, लोक-लाज का भय । वह डरता है कि समाज में उसकी निंदा न हो जाए, अगर मैंने ऐसा कर लिया, तो लोग क्या कहेंगे? इसीलिए तो आदमी पाप हमेशा छिपकर करता है और पुण्य हमेशा खुलकर। वह सोचता है कि खुलेआम पुण्य करने से उसकी स्तुति होगी, अभिनंदन होगा। पाप छिपकर करता है कि कहीं कोई देख न ले, जबकि मैं यह कहना चाहूंगा कि आदमी एक दफा पाप भले ही सरेआम कर ले, पर पुण्य सदैव छिपाकर करे। किए हुए पाप को सरेआम स्वीकार कर लिया, तो पाप का प्रायश्चित हो गया। छिपकर करने से पाप दोगुना हो जाएगा। ज़हर चाहे छिपकर पियो या सबके सामने, वह अपना असर तो दिखाएगा ही। अच्छा होगा कि आदमी पुण्य छिपकर करे, ताकि पुण्य का स्तुतिगान न हो, वह हमारा कीर्तिमान न बने वरन पुण्य भी हमारे जीवन के उद्धार का आधार बन जाए। इसी तरह दान देना हो, तो इस हाथ से दो और उस हाथ को पता भी न चले। किसी की सेवा करो तो इस हाथ से करो, उस हाथ को पता न चले। अभी दो दिन 71 For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले की बात है । निराश्रित बच्चों के लिए विद्यालय चलाने वाले एक सज्जन आए और कहा कि पंद्रह अगस्त का दिन आ रहा है । हम चाहते हैं कि उस दिन यहां वालों की ओर से सभी बच्चों के लिए यूनीफॉर्म की व्यवस्था हो इसलिए चंदा-चिट्ठा लिखवा दिया जाए । मैंने कहा, इसके लिए चंदे - चिट्ठे की क्या ज़रूरत? आप जाइए, व्यवस्था हो जाएगी और व्यवस्था करवा दी गई । ऐसा पुण्य करो कि किसी को पता भी न चले, तो उसमें तो मज़ा है । सहजता से लें हर टिप्पणी आदमी भयभीत है, निंदा के भय से, आलोचना - टिप्पणी के भय से | लोक- -लाज व्यक्ति को हर गलत कार्य करने से रोकता है। एक बहुत प्यारी - सी घटना कहना चाहूंगा, एक ऐसी घटना, जिसे सारे संसार को सुनाया जाना चाहिए। वह घटना है संत हाकुइन के जीवन की। कहते हैं कि संत हाकुइन अपनी छोटी-सी झोंपड़ी बनाकर किसी गांव में रहा करते थे। उनके पड़ोस में और भी मकान थे । एक बार एक कुंआरी युवती गर्भवती हो गई । उस युवती के माता-पिता ने उसे बहुत लताड़ा, मारा-पीटा और पूछा कि तेरी कोख में किसका पाप है? युवती से और कोई नाम लेते न सूझा। उसने झट से संत हाकुइन का नाम ले लिया । युवती के माता-पिता और परिजन संत हाकुइन के पास पहुंचे और जाकर अपनी बेटी की सारी बात कही। तब संत हाकुइन ने जो शब्द कहे, वे ध्यान देने योग्य हैं। संत हाकुइन ने कहा, 'ओह, तो ऐसी बात है (इट्स दैट सो)!' जब नौ माह पूरे हुए, तो प्रसव हुआ। वह संतान नियम के अनुसार संत हाकुइन को लाकर सौंप दी गई, 'तुम्हारी संतान है, तुम्ही संभालो ।' संत ने बड़े प्रेम-भाव के साथ उसे स्वीकार कर लिया। बच्चे के लालन-पालन के लिए दूध आदि की जो व्यवस्था होनी चाहिए थी, वह व्यवस्था संत जुटा लेते। बच्चे का पालन-पोषण होने लगा । 72 For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चा चार-पांच वर्ष का हो गया। एक दिन युवती की तबीयत बिगड़ने लगी, वह मरणासन्न स्थिति में पहुंच गई। उसने अपने घर के सारे सदस्यों को बुलाया और कहा, 'मैं निरंतर इसलिए रुग्ण होती जा रही हूं कि मैंने एक पवित्र आत्मा पर झूठा आरोप लगाया है।' घर वाले उसकी बात सुनकर आश्चर्यचकित थे, 'क्या कहती हो तुम?' युवती ने कहा, 'हाकुइन के पास जो बच्चा है, वह हाकुइन का नहीं है। मैंने अपने प्रेमी को निंदा और अपयश से बचाने के लिए संत हाकुइन का नाम ले लिया था, लेकिन वह संत इतना महान है कि उसने अपने पर लगाए गए इस आरोप का, इस झूठे लांछन को भी सह लिया, स्वीकार कर लिया। मैं मृत्यु से पहले इसका प्रायश्चित करना चाहती हूं।' युवती के परिजन फिर संत हाकुइन के पास पहुंचे, ये सारी बात बताई, सारा यथार्थ सुनाया। संत मुस्कराए और कहा, 'ओह, तो ऐसी बात है (इट्स दैट सो)! तुम अब क्या चाहते हो?' वे बोले, 'हम चाहते हैं कि बालक को वापस ले जाएं।' संत ने कहा, 'ओह, तो ऐसी बात है। ठीक है, ले जाओ।' यह जीवन की साधना की परम स्थिति है', जहां अगर इलज़ाम भी लगा, तब भी आनंद, इलज़ाम वापस ले लिया गया, तो भी आनंद, ओह, तो ऐसी बात है। जहां दोनों स्थितियों में समान आनंद का भाव बन रहा है, वहीं तो आदमी अभय-दशा में जीता है। जो आदमी यह सोचता है कि लोग क्या कहेंगे, समाज क्या कहेगा, वह आदमी अपने जीवन में समता और सामयिक को नहीं जी सकता। एक बहुत बड़े संत हुए, स्वामी आनंद, जिन्होंने हिन्दुस्तान में सबसे पहले 'नारी-निकेतन' खोला, जहां उपेक्षित, लांछित, विधवा और निराश्रित महिलाओं को आश्रय दिया जाता था। एक बार एक नारी उनके पास आई और कहा, “एक युवक के साथ मेरे प्रेम-संबंध थे। वह युवक मुझे छोड़कर भाग गया है। उसकी संतान मेरे पेट में है। मेरे पीछे और छः बहनें हैं। अगर उस युवक ने मुझे स्वीकार नहीं किया, तो मेरी उन बहनों 73 For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की सगाई और शादी नहीं हो पाएगी। मेरा तो जो होगा, सो होगा, पर मेरी बदनामी मेरी बहनों की जिंदगी तबाह कर देगी।' युवती की बात सुनकर स्वामी आनंद ने पूछा, 'तुम अब क्या चाहती हो?' युवती का उत्तर था, 'मैं चाहती हूं कि कोई भी युवक मुझसे विवाह कर ले।' स्वामी आनंद ने अपने कई शिष्यों को समझाया, मगर कोई भी तैयार न हुआ। आखिर पूरे समाज में बात फैल गई। बात कचहरी और पुलिस तक पहुंची। तारीख आ गई और स्वामी आनंद उस युवती को आश्वासन दे चुके थे कि तुम्हारी लाज किसी तरह मैं बचाऊंगा, तुम कोर्ट में पहुंच जाना। अगले दिन कोर्ट में दोनों आमने-सामने थे। युवती ने कार्यवाही से पहले पूछा, 'महोदय, क्या कोई तैयार हुआ?' स्वामी आनंद के चेहरे पर उदासी छा गई। उन्होंने कहा, 'मैं क्षमा चाहता हूं। कोई भी तैयार न हुआ।' स्वामी आनंद की बात सुनकर युवती चिंतित हो गई। स्वामी आनंद ने कहा, 'तुम मुझसे अब क्या चाहती हो?' वह बोली, 'मैं इतना ही चाहती हूं कि कोई भले ही जिंदगी-भर मेरे साथ न रहे, मगर कोर्ट में इतना भर कह दे कि मैं इसका पति हूं। इससे समाज में मेरी अपकीर्ति होने से बच जाएगी।' स्वामी आनंद ने कुछ सोचा और कहा, 'जा तू कोर्ट के भीतर, तेरी यह व्यवस्था हो जाएगी। तब उस भरी मजलिस में स्वामी आनंद ने घोषणा की कि 'मैं इसका पति हूं।' यह बात सर्वत्र पहुंचा दी जाए। सारी सभा सन्न रह गई। युवती की आंखों से आंसू झरने लगे, उसकी लाज बच गई थी। क्या स्वामी आनंद इतने महान थे? इतना बड़ा लांछन अपने पर ले लिया! युवती कोर्ट से बाहर आई, तो स्वामी आनंद उसके पांवों में गिरकर प्रणाम करके कहने लगे, 'मां, अब तू हमेशा प्रसन्न रहना। मुझे खुशी है कि लोग भले ही मुझे निंदित करें, अपमानित करें, लेकिन मैंने एक अबला की आबरू को बचा लिया। बस, स्वामी आनंद को इतने से ही संतुष्टि और तृप्ति है। बाकी तो संत की क्या निंदा, क्या यश-अपयश? 74 For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति जगाएं आत्मविश्वास की आदमी न तो निंदा के भय से घबराए, न ही अपयश के भय से, न ही इहलोक के भय से और न ही परलोक के भय से। जो चलेगा, वही गिरेगा। जो चलने से ही कतराएगा, मात्र अड़ियल टटू बना रहेगा। तुम साहस बटोरो और कर्तव्य-पथ की ओर निःशंक होकर बढ़ चलो। भय से आदमी मुक्त रहे, इसके लिए पहला सूत्र होगा, आदमी सदा आत्मविश्वास से भरा हुआ रहे। आदमी यह ठान ले कि दुनिया में सर्वश्रेष्ठ प्राणी मैं स्वयं हूं, मेरा मस्तिष्क, मेरा हृदय, मेरा शरीर अपने आप में परमात्मा की सबसे बड़ी सौगात है। आदमी को सदा आत्मविश्वास से भरा हुआ रहना चाहिए। भला हम किस बात से भयभीत हैं? होनी को टाला नहीं जा सकता और अनहोनी से तू क्यों घबराता है? नेपोलियन बोनापार्ट जब पर्वतों को लांघ रहा था, तो एक बुढ़िया ने कहा था, 'नेपोलियन, तुम वापस चले जाओ, क्योंकि इस पर्वत को कोई नहीं लांघ पाया है। पर्वत के बाद फिर उफनती नदी है। उसे भी न लांघा जा सकेगा। यह संभव ही नहीं है।' तब नेपोलियन ने कहा था, 'मां, नेपोलियन के लिए असंभव जैसा कोई भी शब्द नहीं है। ऐसा कौन-सा कठिन काम है, जिसे इनसान करना चाहे और पूरा न कर सके?' बुढ़िया ने कहा, 'जिस आदमी के पास इतना परम आत्मविश्वास है कि दुनिया में असंभव जैसा कोई शब्द नहीं, जा तू जीतेगा, यह आल्पस तो क्या, कोई भी ऐसा पर्वत नहीं है, जिसको आत्मविश्वास से न हटाया जा सके। हातिमताई इतना अधिक मानसिक शक्ति और आत्मविश्वास का स्वामी बन गया था कि उस जैसे लोगों के सामने से तो पहाड़ खुद ही हट जाया करते थे। संभव है, भौतिक शक्ति भले ही सीमित हो, पर जिसके पास मन की शक्ति है, संकल्प-शक्ति है, मनोबल है, प्रकृति उसके प्रभाव को सौ गुना बढ़ा देती है। आत्मविश्वास जाग्रत हो, आदमी सत्यनिष्ठ बने, अपने ईमान पर अडिग रहे । जो झूठा होता है, वह डरता है। जो आदमी सत्यनिष्ठ 75 For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहे. वह किसी से क्यों भय खाएगा? जीवन में सदा सजगता रहे, ईमान रहे, निर्भयता रहे, इन सबके लिए आधार-सूत्र है, आदमी स्वयं को सदा आत्मविश्वास से भरा हुआ पाए। प्रकृति की व्यवस्थाओं को स्वीकार करो। जो होनी है, उसको भी स्वीकार करो। जीवन तो किसी बाजीगर का सौदा है। यह रिस्क तो उठानी ही पड़ती है। जो यह जानकर कि मधुमक्खियों के डंक हैं, शहद के छत्ते के पास नहीं जाता, वह शहद पाने के योग्य नहीं होता। तुम भयभीत मत होओ। अपना मनोबल जाग्रत करो। सृष्टि को तुम्हारी ज़रूरत है। तुम सृष्टि की आवश्यकता हो। अगर आवश्यक न होते, तो सृष्टि तुम्हें स्वीकार ही न करती। तुम धरती के लिए उपयोगी हो। अपनी उपयोगिता सिद्ध करो। बांधे बिखरे सुरों को जहां अभय-दशा है, वहीं अहिंसा की दशा है। जहां अभय और अहिंसा दोनों हैं, वहां साधना और सफलता स्वयं ही अपना परिणाम देने के लिए तत्पर रहती हैं। दो ही आधार हैं, अभय और अहिंसा। दोनों एक-दूसरे के पूरक और पर्याय बनकर ही दुनिया में फिर से किसी संजय, किसी अशोक को जन्म देते हैं। हम अपने जीवन की अभय और आत्मविश्वास से आपूरित करें। व्यर्थ कोई भाग जीवन का नहीं है, व्यर्थ कोई राग जीवन का नहीं है। बांध दो सबको सुरीली तान में तुम, बांध दो बिखरे सुरों को गान में तुम।। जीवन को हम सुरीली तान से भरें। अपने बिखरे स्वरों को गीतों में बांधे। जीवन संगीत और सौंदर्य से भरा जा सकता है। बस, आत्मविश्वास चाहिए, अभय-दशा चाहिए। ध्यान रखो, मौत जीवन में एक बार ही आती है, दो बार नहीं और वह भी उसी दिन, जिस दिन आनी है। फिर भय किस बात का, चिंता किस बात की! सदा मस्त रहो, निर्भय और आत्मविश्वास के स्वामी बनो। For Personla Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वस्थ सोच के स्वामी बनें स्वास्थ्य बेशकीमती दौलत है । स्वस्थ जीवन का स्वामी होने के लिए जितना शरीर का स्वस्थ होना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी मनो-मस्तिष्क का स्वास्थ्य है । स्वस्थ शरीर ही स्वस्थ मन का आधार बनता है और स्वस्थ मन ही स्वस्थ शरीर का निमित्त । शारीरिक स्वास्थ्य की उपलब्धि के लिए दुनिया-भर में कई-कई चिकित्सक हैं, कई-कई चिकित्सालय हैं । सात्विक और संतुलित आहार, व्यायाम, स्वच्छ जलवायु, शरीर के स्वास्थ्य को उपलब्ध करने के ये सहज सोपान हैं । संपूर्ण स्वास्थ्य की दृष्टि से शरीर के साथ मन और मस्तिष्क का स्वास्थ्य भी उतना ही ज़रूरी है । तुम अगर बुरा नहीं सोचते हो, तो निश्चित मानकर चलो कि तुम न बुरा देखोगे, न बोलोगे, न सुनोगे । 1 अगर हम शरीर की दृष्टि से देखें, तो इनसान शरीर से बहुत ही निर्बल और असहाय नज़र आता है । वह न तो किसी चिड़िया की तरह आसमान में उड़ सकता है, न ही किसी मगरमच्छ या मछली की तरह पानी में तैर सकता है और न ही किसी तितली या भौंरे की तरह फूलों पर मंडरा सकता है । मनुष्य के पास न तो बाज़ - सी दृष्टि है और न बाघ - सी ताकत, न ही चीते की फुर्ती ही है। इनसान की हैसियत इतनी-सी होती है कि एक छोटा-सा मच्छर, एक छोटा-सा बिच्छू भी डंक मार दे, तो वह तिलमिला उठता है, उसकी काया उसी समय धराशायी हो जाती है । - न जन्म, न मृत्यु इनसान अपने शरीर की दृष्टि से बहुत ज़्यादा समर्थ-संपन्न और सक्षम नहीं होता, मगर कुदरत ने मनुष्य को एक बहुत बड़ी अकूत 77 For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपदा दी है, जिसके आगे पृथ्वी-भर की सारी संपदाएं तुच्छ और नगण्य हैं, वह है, सोचने की क्षमता। अगर मनुष्य के जीवन से सोचने की क्षमता को अलग कर दिया जाए, तो शायद मनुष्य पशुतुल्य ही होगा और किसी जानवर को सोचने की क्षमता प्रदान कर दी जाए, तो उसकी स्थिति मनुष्य के समकक्ष होगी। सोच ही मनुष्य है मनुष्य के पास विचार-शक्ति ऐसी अनुपम सौगात है कि जिसके चलते वह धरती के सारे पशुओं और पक्षियों के बीच अपने आप में सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति बन सकता है। आप | सोच में अगर सत्य हो, | ज़रा ऐसे इनसान की कल्पना करें कि शिवत्व हो, सौंदर्य हो, जिसके पास सोचने की क्षमता नहीं है। तो तुम्हारी सोच तुम्हारे आप ताज्जुब करेंगे, तब हर मनुष्य, चाहे लिए अंतर का सुवास वह बालक हो या प्रौढ़, वन-मानुष का बन सकता है, प्रकाश हो | चेहरा लिए हुए होगा। कोई व्यक्ति इसीलिए सकता है। जड़-बुद्धि कहलाता है, क्योंकि उसका -न जन्म, न मृत्यु | मस्तिष्क विकसित नहीं हुआ है। मस्तिष्क की अपरिपक्वता व्यक्ति को पूरे शरीर से अपंग भी बना देती है। जीवन-विज्ञान कहता है कि जिस व्यक्ति का मस्तिष्क विकसित हो चुका है, वह भले ही किसी हेलन केलर की तरह अंधा-बधिर या मूक हो, लेकिन ऐसा सृजन कर सकता है, जो अविस्मरणीय हो, अनुकरणीय हो। ___सोच ही मनुष्य है। सोच को अगर किसी भी जंतु के साथ जोड़ दिया जाए, तो वह भी मनुष्य हो जाएगा। इनसान के पास जीवन की ऐसी अनुपम सौपात है, फिर भी कोई इनसान अपनी सोच को स्वस्थ रखने के लिए सचेष्ट नहीं है। अगर शरीर जुकाम या बुखार से ग्रस्त हो जाए, तो हम तुरंत डॉक्टर की तलाश करते हैं, मगर अपनी विकृत, अपरिष्कृत सोच को संस्कारित करने के लिए, उसको स्वस्थ बनाने के लिए भला कितना उपाय कर पाते हैं। जीवन में पाई जाने वाली किसी भी सफलता का अगर वास्तविक रूप से किसी को श्रेय दिया जाना चाहिए, तो वह व्यक्ति की अपनी सोच और कार्य-शैली है। 78 For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति चेहरे की सुंदरता और स्मार्टनेस पर ही अपना अधिक ध्यान देता है, लेकिन किसी का भी ध्यान मन की खूबसूरती और स्वास्थ्य पर नहीं जाता, जब कि चेहरे का सौंदर्य पंद्रह प्रतिशत ही जीवन की किसी सफलता में आधारभूत बनता है, जबकि सोच और जीवन-शैली का योगदान पचासी प्रतिशत है। व्यक्ति की जैसी सोच होगी, वैसे ही उसके विचार और वचन होंगे। जैसे उसके विचार होंगे, वैसे ही उसके कर्म होंगे, जैसे कर्म होंगे, वैसा ही उसका चरित्र बनेगा। जो व्यक्ति अपने चरित्र को निर्मल रखना चाहता है, अपनी आदतों और कर्मों को सुधारना चाहता है, वह अपना ध्यान जड़ों की ओर आकर्षित करे । जब तक वह जड़ों तक नहीं पहुंचेगा, वह शरीर से स्वस्थ रहकर भी मन से हमेशा रुग्ण बना रहेगा। जिस दिन तुम अपने मन से स्वस्थ हो गए, तुम्हारा शरीर अपने आप स्वास्थ्य के सोपानों को पार करने लग जाएगा। बेहतर फलों के लिए बुवाई मनुष्य का मस्तिष्क एक बगीचे की तरह होता है, जिसमें अगर अच्छे बीज बोओ, तो अच्छे फल और फूल लगेंगे और बीज केक्टस और कांटों के होंगे, तो वे केक्टस और कांटे ही पैदा करेंगे। अगर बगीचे में कुछ भी न बोया गया, तो निश्चित है कि घास-फूस तो उग ही आएगी। इनसान को दो तरफ़ा प्रयास करने होंगे, पहला, अच्छे बीज मस्तिष्क के बगीचे में बोए जाएं और दूसरा, जो अवांछित खरपतवार, घास-फूस उग आई है, उसे उखाड़ फेंकें। ऐसा नहीं कि केवल प्रेम और सम्मान के ही बीज बोने हैं, वरन क्रोध और बैर की जो अनचाही झाड़ियां उग आई हैं, उन्हें भी समूल नष्ट करना होगा। व्यक्ति माली की तरह मस्तिष्क के बगीचे की निराई-गुड़ाई का पूरा-पूरा ख्याल रखे, वरना जंगली घासें ऐसी जड़ें जमा लेंगी कि उन्हें निर्मूल करना मुश्किल होगा। आप यहां आए हैं, तो संभव है कि ऐसी कुछ बातें मिल जाएं जो काम की हों। जो भी 'सार-सार' मिले, उसे ग्रहण कर लें और थोथा उड़ा दें। हर स्वीकार्य सोच और विचार को ग्रहण कर लें और शेष को एक तरफ़ कर दें। जैसा बीज बोओगे, वैसा ही फल पाओगे। आम के बीज बोओगे, तो आम के फल मिलेंगे और बबूल के बीज बोओगे, तो बबूल के 79 For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल ही मिलेंगे। जैसा आप सोचेंगे, वैसा ही आपके जीवन में घटित होगा। आज व्यक्ति जैसा है, वह अतीत में सोचे गए विचारों का परिणाम है और भविष्य में व्यक्ति वर्तमान विचारों का परिणाम होगा। आज अगर हमारे जीवन में आक्रोश, स्वार्थ, छीना-झपटी, छल-प्रपंच है, तो ज़रूर हमने अतीत में ऐसे बीज बोए होंगे। कोई भी दूसरा आदमी अगर हमारे साथ बुरा व्यवहार करता है, तो यह हमारे द्वारा अतीत में किए गए दुर्व्यवहार का ही प्रतिफल है। आप किसी विवाह-उत्सव में गए और आपने वहां इक्यावन रुपए का लिफ़ाफ़ा थमाया, तो बदले में आप भी इक्यावन रुपए ही पाएंगे, एक सौ एक नहीं। यही जगत की कर्म-प्रकृति है। जगत प्रतिध्वनि मात्र यह जगत एक प्रतिध्वनि है, यहां आप जो चिल्लाओगे, वही लौटकर आप पर बरसेगा। अगर हमने किसी को गालियां दी हैं, तो मानकर चलो कि आज नहीं तो कल वे गालियां लौटकर आएंगी, फिर उनसे भय कैसा! अगर उनसे बचना चाहते हो, तो पहले से ही सावधानी बरतो और मुंह से गाली मत निकालो। गीत के बदले में गीत और गालियों के बदले में गालियां ही मिलती हैं। आप किसी तलैया में पत्थर फेंककर देखो, तो पाओगे कि एक तरंग पैदा हुई। वह तरंग किनारे पर पहुंचती है, लेकिन वहीं खत्म नहीं होती, अपितु वहां से लौटकर वहीं आती है, जहां से उसका उद्भव हुआ था, ठीक उसी स्थान तक जहां पत्थर गिरा था। यही जीवन का विज्ञान है कि हम जो अपनी ओर से औरों के साथ पलत व्यवहार करते हैं, बुरा आचरण करते हैं, छल-प्रपंच करते हैं, वह जाता है और किनारे से लौटकर पुनः-पुनः आता है। अभी तो आप बड़े खुश होते हैं कि आपने दूध में मिलावट कर दुनिया को ठगा, मगर वही मिलावट आपके आंखों के तारे के बीमार पड़ने पर इंजेक्शन में मिलावट के रूप में लौटती है। तब आप हक्के-बक्के रह जाते हैं। आपको अपने किए पर पछतावा होता है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। काश, पहले संभल जाते! दुर्व्यवहार के बदले में दुर्व्यवहार ही लौटकर आता है। आज आपने 80 For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी पड़ोसी के साथ दुर्व्यवहार किया, तो उस दुर्व्यवहार की तरंग ब्रह्मांड तक पहुंचेगी और आपके अधिकारी को प्रभावित करेगी, फिर आपका अधिकारी आपके साथ दुर्व्यवहार करेगा। यह जगत लौटाता है। अपने तरीके से लौटाता है। आप चलते वक्त अगर किसी चींटी को बचाते हैं, तो ऐसा करके आपने चींटी को ही नहीं, अपने आपको भी बचाया है, क्योंकि यह चींटी कोई और नहीं, संभव है हमारे अपने दिवंगत दादा जी ही इस रूप में हों। बच सको, तो इस तरह तुम पाप से बच जाओ। यह जगत की अनूठी व्यवस्था है। जो व्यक्ति आज किसी बकरे को काटता है, तो वह यह मानकर चले कि अगले जन्म में वह भी बकरा बन सकता है, वह भी हलाल हो सकता है। आज तुम गर्व करते हो कि एक ही झटके में मैंने हलाल किया, वैसे ही तुम्हें काटते वक्त भी कोई ऐसा ही गर्व करेगा। जिस दिन जीवन का यह विज्ञान समझ में आ जाएगा कि यह जगत वही लौटाता है, जो तुमने दिया है, तो फिर तुम हर बुराई से बचने का प्रयत्न करोगे, तुम्हारा हर कृत्य सुकृत्य होगा, हर प्रयास सद्प्रयास होगा। लाइफ इज एन इको, जीवन और जगत मात्र एक-दूसरे की प्रतिध्वनि हैं, अनुगूंज हैं। यह जगत कैसे लौटाता है, इसे एक मनोवैज्ञानिक घटना से समझें। कहते हैं, एक बार मां-बेटे के बीच झगड़ा हो गया। बेटा चार-पांच साल का था। गुस्से में आकर कहीं चला गया। वह पहुंचा बीच जंगल में और जोर-जोर से रोने लगा। चिल्लाने लगा, 'आई हेट यू, मम्मी, आई हेट यू। जैसे ही बच्चे के मुंह से शब्द निकले, वह बच्चा चौंक पड़ा। जंगल उसकी ही आवाज़ को प्रतिध्वनित कर रहा था। बच्चा घबराया कि इस जंगल में कोई और भी बच्चा रहता है, जो उससे नफ़रत करता है। बच्चे मां से भले ही कितने ही रूठ जाएं, लेकिन डर के क्षणों में वे उसी मां से जा लिपटते हैं। वह बच्चा भी मां की गोद में जा दुबका और उसने सारा वृत्तांत कह सुनाया। मां ने कहा, 'तुम एक काम करो, वापस जंगल में जाओ और वहां बड़े प्यार से, मुस्कान के साथ कहो, 'हां-हां मैं तुमसे प्यार करता हूं, आई लव यू। 81 For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चा फिर जंगल में गया। वह अभी भी घबरा रहा था, फिर भी उसने साहस बटोरकर कहा, 'हां, मैं तुमसे प्यार करता हूं, आई लव यू।' जंगल उसी आवाज़ को लौटाने लगा, 'हां, मैं तुमसे प्यार करता हूं, आई लव यू।' जीवन का यह विज्ञान जीवन को एक अनुगूंज साबित करता है। जीवन में वही लौटकर आता है, जो तुमने किया है, कहा है। इसलिए अगर यह कहें कि 'आई हेट यू', तो सारा बह्मांड तुम्हारे प्रति घृणा और क्रोध से भर जाएगा और अगर कहो, 'आई लव यू', तो सारा ब्रह्मांड तुम्हें प्रेम की सौगातों से भर देगा। अगर चाहते हो कि मुझे औरों से हमेशा प्रेम, शांति और सौम्यता मिले, तो अपनी ओर से भी ऐसा ही सोचो, ऐसे ही विचार रखो, ऐसी ही वाणी का प्रयोग करो, ऐसा ही चरित्र रखो। विज्ञान का यह प्रयोग करके देखें कि जब हम अपने चित्त में हिंसा का भाव लेकर किसी फूल के पास जाएंगे, तो वह फूल भी कंपित होने लग जाएगा। फोटोग्राफी की ताज़ा खोजें यही कहती हैं कि अगर प्रसन्न भाव को लेकर आप फूल के पास गए, तो मुरझाया हुआ फूल भी खिल उठेगा। यही प्रयोग इनसान के साथ भी किया जा सकता है। अगर आप प्रेम की भावना को लेकर किसी के घर पहुंचे हैं, तो आपकी ख़ातिरदारी का रूप ही कुछ और होगा। घर का वातावरण सोच पर प्रभावी सोच को हम कैसे बदलें, स्वस्थ सोच के स्वामी कैसे बनें? इस मुद्दे पर आने से पहले हम इस बात पर गौर करें कि आखिर वे कौन से कारण होते हैं, जिनके चलते हमारी सोच प्रभावित होती है? हमारी सोच सर्वप्रथम हमारे घर के वातावरण से प्रभावित होती है। आदमी के घर का जैसा वातावरण होगा, वैसी ही आदमी की सोच और विचारधारा रूप-आकार ले लेती है। अगर घर का वातावरण प्रेम पूरित है, तो आदमी के विचार भी वैसे ही प्रेममय होंगे और अगर घर का वातावरण कलहपूर्ण है, तो व्यक्ति के सोच-विचार भी वैसे ही होंगे। अगर घर में मियां-बीवी झगड़ते हैं, तो उसका असर बच्चों पर भी पड़ेगा, वे भी वैसा ही सीखेंगे। पति-पत्नी में प्रेम-अपनत्व 82 For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, तो बच्चे भी प्रेम की भाषा सीखेंगे । व्यक्ति चाहता है कि बच्चे संस्कारित हों, आज्ञाकारी हों, विनम्र हों, तो वह घर का वातावरण वैसा ही संस्कारवान बनाए । एक व्यक्ति को चोरी के अपराध में न्यायाधीश द्वारा सजा सुनाई जा रही थी । न्यायाधीश ने कहा, 'तुम्हारी चोरी सिद्ध होती है और तुम्हें छः माह की सजा मुकर्रर की जाती है ।' उस व्यक्ति ने कहा, 'ठहरो जज साहब, मुझे दंड देने से पहले मैं चाहता हूं कि मेरी मां को भी सजा मिले, मेरे पिता को भी सजा मिले ।' जज ने पूछा, 'उन्हें किस अपराध में सजा दी जाए ?” व्यक्ति ने कहा, 'मुझे जो सजा मिली है, उसके असली हकदार तो वे ही हैं। उन्हीं के कारण मुझमें अपराध की प्रवृत्ति पनपी । अगर वे पहले दौर में ही मेरी अपराधी प्रवृत्तियों पर अकुंश लगा देते, तो यह नौबत ही नहीं आती ।' इसके विपरीत, एक बार एक बच्ची से उसके अध्यापक ने पूछा, 'बिटिया, आखिर ऐसी क्या बात है कि तुम सबके साथ इतनी शालीनता से, इतनी मधुरता से पेश आती हो ? यह सीख तुमको किससे मिली?' बच्ची ने कहा, 'सर, इसमें नई बात कौन-सी है ? मेरे घर में सारे ही लोग एक-दूसरे से इसी तरह पेश आते हैं ।' अध्यापक कह उठा, 'धन्य है तुम्हारे परिवारजनों को कि जहां घर का वातावरण ही इतना शालीन है ।' आप यदि घर में 'तुम - तुम' कहोगे तो आपका बच्चा भी दूसरों को 'तुम' कहेगा । आजकल एक फैशन-सा चल पड़ा है कि पति हमेशा अपनी पत्नी को 'तुम' कहता है और पत्नियां भी कहां पीछे हैं, वे भी अपने पति को बेधड़क 'तुम' कहती हैं । अगर आप किसी को 'तुम' कहते हो, तो 'तुम' कहना अपने आप में दूसरे को अपमानित करना हो गया। पति-पत्नी आपस में 'तुम' कहने की बात तो छोड़ें, अपने बच्चों को भी 'तुम' न कहें। अगर आप ऐसा करते हैं, तो आपका बच्चा ज़िंदगी में किसी को 'तुम' नहीं कह पाएगा। आपके घर का वातावरण ही आपके बच्चे में वांछित संस्कारों का बीज बो सकता है । 83 For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगति का असर सोच पर मनुष्य के मस्तिष्क को प्रभावित करने वाला दूसरा तत्त्व है, संगति, सोहबत । इससे बहुत फ़र्क पड़ता है कि व्यक्ति किन लोगों के साथ जीता है, उठता-बैठता है। कौन व्यक्ति कैसा है, अगर यह पहचानना हो, तो उसके दोस्तों की जांच-पड़ताल करो। जैसे दोस्त होंगे, वैसा ही व्यक्ति का व्यक्तित्व बनता चला जाएगा। अच्छे लोगों के बीच अगर बुरा आदमी भी बैठेगा, तो वह भी ज़रूर अच्छा बन जाएगा और बुरे लोगों के बीच अगर अच्छा आदमी भी बैठ गया, तो उसे बुरा होने से कोई रोक नहीं सकता।काला और गोरा आदमी पास-पास बैठेंगे, तो रंग भले ही न बदले, लेकिन एक-दूसरे के गुण-अवगुण जरूर प्रभावित होंगे। ___ अगर गंगा का पानी नाली में बहा दें, तो गंगा का पानी भी गंदा हो जाता है और नाली का पानी ले जाकर गंगा में मिला दें, तो नाली का पानी भी गंगोदक बन जाएगा। अगर शराब की दुकान पर खड़े होकर दूध भी पीओगे तो लोग आपको शराबी ही समझेंगे। जैसी संगति और सोहबत मिलती है, आदमी का जीवन वैसा ही बनता चला जाता है। अगर बादल से पानी की बूंद टपकती है, तो जमीन पर गिरते ही वह मिट्टी में मिल जाती है, अपना अस्तित्व खो देती है। पानी की वही बूंद अगर केले के पेड़ के गर्भ में जाकर गिर जाए, तो कपूर का रूप धारण कर लेती है। वही बूंद गर्म तवे पर जा गिरे, तो भस्म हो जाती है। वही बूंद अगर सर्प के मुंह में जा गिरे, तो ज़हर बन जाती है। वही बंद सीप में गिर जाए, तो मोती बन जाती है। यही संगति का असर है। इसलिए ज़िंदगी में अकेले रहना कोई पाप नहीं है, मगर पलत आदतों से जुड़े व्यक्ति से मैत्री करना पाप का निमित्त ज़रूर बन सकती है। मित्र बनाएं, तो कृष्ण जैसे व्यक्ति को बनाएं कि सुदामा निहाल हो जाए। अगर शकुनि जैसे लोगों को मित्र बनाओगे, तो अपना भी तहस-नहस और अन्य लोगों का भी बुरा करोगे। शिक्षा : विचारधारा की आधारशिला हमारी सोच और विचारधारा को जो तीसरा तत्त्व प्रभावित करता है, वह है हमारी शिक्षा। हम कैसी शिक्षा ग्रहण करते हैं, हमारी शिक्षा 84 For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का स्तर क्या है, इसका हमारे जीवन पर बहुत बड़ा असर पड़ता है। अगर शिक्षा का स्तर निम्न है, तो सोच का स्तर भी निम्न होगा और यदि शिक्षा का स्तर उच्च है, तो सोच का स्तर भी उच्च होगा। वही शिक्षा शिक्षा है, जो जीने की कला सिखाए, जीने की अंतर्दृष्टि प्रदान करे। अगर आप हिटलर, चंगेज खां, तैमूर लंग का जीवन-चरित्र पढ़ते हैं, तो मैं नहीं जानता कि ऐसे दुःस्वप्नों को पढ़कर आप अपने जीवन में कौन-सी प्रेरणा ग्रहण करेंगे। पढ़ना है, तो सम्राट अशोक का जीवन-चरित्र पढ़ें, मैक्समूलर, शेक्सपीयर, रवीन्द्रनाथ टैगोर, गांधी की रचनाओं को पढ़ें। ऐसे रचनात्मक लोगों के सकारात्मक संदर्भो को पढ़ें, तो हमारी सोच और शिक्षा का स्तर सुधरेगा। अगर अश्लील साहित्य को पढ़ोगे, तो आपके जीवन में अश्लीलता आएगी और सौम्य-भद्र साहित्य पढ़ोगे, तो आपके जीवन में वैसी ही सौम्यता और शालीनता आएगी। अगर आप अपने घर में एक ऐसी पत्रिका ला रहे हैं, जिसका मुखपृष्ठ ही भद्दा-बेहूदा है, तो ध्यान रखें, उस मुखपृष्ठ को देखकर आपके छोटे बेटे के मन में भी मां-बहन के प्रति विकृत भाव ही जगेंगे। टी.वी. देखें, तो इस बात का पूरा विवेक रखा जाना चाहिए कि कौन-सा कार्यक्रम सब लोगों के बीच बैठकर देखने लायक है। ऐसा न हो कि टी.वी. में बलात्कार का दृश्य चल रहा है और देवर-भाभी सभी एक साथ बैठे उसे देख रहे हैं। टी.वी. की अच्छी शिक्षाओं को ग्रहण करें, अच्छे कार्यक्रम, अच्छे धारावाहिक देखें। आप सोचें कि आप अपने घर में कैसा वातावरण बनाना चाहते हैं, कैसी शिक्षाएं देना चाहते हैं। मुझे याद है, एक महानुभाव हमारे पास पहुंचे। वे हमारे पास बैठे कुछ चर्चा कर रहे थे कि बाहर से उनकी कार के टेप रिकॉर्डर से आवाज़ आई। एक बेहूदा गाना चल रहा था। महानुभाव ने कहा कि बच्चों ने चालू कर दिया होगा। मैंने कहा, 'क्या आप ऐसी कैसेट चलाते हैं? संगीत सुनना गलत नहीं है, मगर वह संगीत सुना जाए, जो जीवन को सुख-सुकून दे। यह संगीत आपके बच्चों को कौन-से संस्कार दे रहा है? ऐसा संगीत दूषित और प्रदूषित सोच देने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता, फिर चाहे आप 85 For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्हें मेयो कॉलेज में पढ़ाएं या दून के विद्यालय में, इनका नज़रिया सदा विकृत और दूषित ही बना रहेगा। मेरी बात सुनकर उन महोदय ने कहा, 'साहब, यह कैसेट मेरा नहीं, ड्राइवर का है।' मैंने कहा, 'ज़रा तुम यह सोचो कि तुम्हारे ड्राइवर और तुम्हारे स्तर में फ़र्क ही क्या रहा? क्या तुम दोनों का स्तर समान समझते हो? ड्राइवर ने वह कैसेट चलाई, लेकिन वह कैसेट ड्राइवर की कार में नहीं, तुम्हारी कार में चल रही है, संस्कार तुम्हारे घर के दूषित हो रहे हैं।' मेरी बात सुनकर उनका लज्जित होना स्वाभाविक था। सही है, शिक्षा तो वह हो, जिससे हमें जीने की कला आत्मसात हो, जीने की शैली मिले और हमारे जीवन का स्तर ऊंचा उठे। सोच हो सत्यम् शिवम् सुंदरम् व्यक्ति की जैसी सोच और उसके विचार होंगे, उसका व्यक्तित्व वैसा ही निर्मित होगा। अगर आप अपनी ओर से सत्य के बारे में सोचेंगे, तो आपके जीवन में सत्य उतरेगा, अगर आप शिवम के बारे में सोचेंगे, तो आपके जीवन में शिवम् घटित होगा और यदि सौंदर्य के बारे में चिंतन करेंगे, तो हमारे जीवन में सौंदर्य अवतरित होगा। सत्य के बारे में सोचने वाले व्यक्ति के जीवन में असत्य रह ही नहीं जाता और शिवम् के बारे में चिंतन करने वाले व्यक्ति द्वारा खून की होली नहीं खेली जा सकती। जो व्यक्ति शिवम् और सौंदर्य के बारे में चिंतन करेगा, वह व्यक्ति कभी भी किसी पर पलत नज़र नहीं डालेगा, क्योंकि वह जानता है कि पलत नज़र डालना भी अपने आप में एक कुकृत्य है। सौंदर्य के नाम पर हमने केवल लिपस्टिक और पाउडर पर ही ध्यान दिया है। हमने कभी भीतर के सौंदर्य पर ध्यान ही नहीं दिया। व्यक्ति अगर भीतर के सौंदर्य के बारे में सोचता है, उस पर विचार करता है, तो उसका जीवन अपने आप सुंदर होता चला जाएगा। क्या आपने गांधी को पारंपरिक सौंदर्य के पैमाने पर परख कर देखा है? गांधी उस दृष्टि से बिल्कुल सुंदर नहीं थे, फिर भी उस आदमी के चित्त में, उसके मानस में चलने वाले सत्यम्-शिवम् सुंदरम् के चिंतन ने उन्हें सत्यमय-शिवमय-सौंदर्यमय बना दिया था। 86 For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांधी जब लंदन पहुंचे, तो वहां सभी सूट-बूट-टाई में थे, मगर वे उसी धोती में थे, वही अंगोछा कंधे पर डाले हुए, वही साधारण चप्पलें पैरों में पहने हुए। महारानी अगवानी के लिए खड़ी थीं। हज़ारों पैंट-कोट वालों के बीच उस अधनंगे फ़क़ीर का भी अपना क्या सौंदर्य था! उसकी खूबसूरती के आगे तो सभी का सौंदर्य फीका पड़ रहा था। ऐसा ही सौंदर्य निर्वस्त्र महावीर का और गेरुआ पहने बुद्ध का था। आदमी के जीवन में चलने वाला सत्य, शिव और सौंदर्य का सतत चिंतन उसे सुंदर करता चला जाता है। आप किसी बूढ़े आदमी को देखो, तो शायद देखने की इच्छा नहीं होगी, मगर गांधी, अरविंद, टैगोर, महादेवी, नेहरू अपनी सोच और चिंतन के चलते इतने सुंदर होते चले गए कि उस पूरी शताब्दी में ऐसे सुंदर पुरुष शायद ही हुए हों। गांधी के विचार सौंदर्य को अभिव्यक्ति करने वाला एक और प्रसंग है। कहते हैं, गांधी सुबह के नाश्ते में रोजाना दस खजूर खाया करते थे। खजूर रात में ही भिगो दिए जाते थे, ताकि वे नरम हो जाएं। खजूर भिगोने का दायित्व वल्लभ भाई पटेल को सौंपा हुआ था। एक दिन वल्लभ भाई ने सोचा कि इतनी बड़ी काया और केवल दस खजूर! क्यों न आज पंद्रह खजूर भिगो दिए जाएं। यही सोचते हुए उन्होंने उस रात पंद्रह खजूर भिगो दिए। गांधी अगले दिन सुबह नाश्ता करने लगे। वे सारे खजूर खा गए, फिर उन्होंने कहा, 'क्या बात है भाई पटेल, आज खजूर ज़्यादा लग रहे हैं, ज़्यादा भिगोए थे क्या?' वल्लभ भाई ने कहा, 'बापू, अब आपसे क्या छिपाना? मैंने सोचा कि ये क्या रोज-रोज दस खजूर खाना। दस और पंद्रह में क्या फर्क पड़ता है, इसलिए मैंने आज दस के बजाए पंद्रह खजूर भिगो दिए।' वल्लभ भाई की बात सुनकर गांधी ने कहा, 'क्यों भाई, मैंने तो आपको केवल दस खजूर ही कहा था।' पटेल ने कहा, 'दस और पंद्रह में क्या फ़र्क पड़ता है?' गांधीजी एक मिनट चुप रहे, फिर कहा, 'भाई पटेल, कल से तुम केवल पांच खजूर ही भिगोना।' पटेल ने सोचा कि यहां तो लेने के देने ही पड़ 87 For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गए। मैंने तो तय किया था कि पंद्रह खजूर भिगोऊं । उन्होंने कहा, 'ऐसी भी क्या बात हो गई? क्या मेरी बात इतनी बुरी लग गई ?” गांधी ने मुस्कराकर कहा, 'नहीं पटेल, ऐसी बात नहीं है । बात दरअसल यह है कि तुम्हारी बात ने मुझे जीवन का सूत्र दे दिया । तुमने कहा कि दस और पंद्रह में क्या फ़र्क पड़ता है? तभी मेरे मस्तिष्क ने कहा कि जब दस और पंद्रह में कोई फ़र्क नहीं पड़ता, तो पांच और दस में कौन-सा फ़र्क पड़ेगा ?” जो आदमी अपने जीवन में निरंतर अपरिग्रह पर सोचता रहा हो, चिंतन करता रहा हो, वही व्यक्ति उदार निर्णय कर सकता है। बाक़ी तो हर आदमी दस के बजाए पंद्रह ही खाना चाहेगा । जो व्यक्ति निरंतर अपरिग्रह पर सोच रहा हो, वही कहेगा कि जब दस और पंद्रह में कोई फ़र्क नहीं पड़ता, तो दस और पांच में क्या फ़र्क पड़ता है ? 1 इस घटना का अपना सौंदर्य है । आखिर इस तरह की बात वही कह सकता है, जो व्यक्ति निरंतर अपरिग्रह और अनासक्ति के बारे में चिंतन-मनन करता रहा हो । संदर्भ चाहे सत्य का हो, चाहे शांति का, कल्याण का हो या सौंदर्य का, जीवन में सदा वही सब कुछ मुखरित होता है, जो कि हमारे सोच और स्वभाव में रहा है । स्वस्थ सोच के सार्थक सूत्र जीवन को सहज सुकून देने के लिए जिस पहले बिंदु की आवश्यकता होती है, वह है हमारे सोच का, हमारे विचारों का सकारात्मक होना, संतुलित होना, समग्र होना । नकारात्मकताओं को हर हाल में नकारा जाना चाहिए और सकारात्मकताओं को हर हाल में स्वीकारा जाना चाहिए। ‘नेगेटिविटी’ हर हाल में दुखदायी होती है, मनोबल को कमजोर करती है, उत्साह और उमंग को ठंडा करती है । हम निराशा के बजाए मन में आशा का संचार करें, घुटन के बजाए उत्साह और उमंग को अंतरमन में प्राण-प्रतिष्ठित करें । सोच के प्रति सम्यक जागरूक न रह पाने के कारण ही हम बहुधा अंतरद्वंद्व से घिर जाया करते हैं, तनाव के तिलिस्म में उलझ जाया करते हैं, क्रोध और अहंकार के विनाशकारी बीजों को बो बैठते हैं । 1 88 For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि हम मन की हवाई कल्पनाओं में उड़ते रहने के बजाए अपनी सोच को सच्चाई का सामीप्य दे सकें, तो मन की उधेड़बुन को शांत करने में बहुत बड़ी मदद मिल सकती है। कोई भी व्यक्ति अगर अपनी सोच और दृष्टि को उदात्त और सौम्य बनाने में सफल हो जाता है, तो इससे बढ़कर जीवन की और कोई सफलता नहीं हो सकती। अगर आप बदल सकते हैं, तो अपनी सोच को बदलें । ऐसे लोगों के संपर्क में आएं, जिन्होंने बुलंदियों को छुआ है। अपनी उस दृष्टि को बदल डालें, जो औरों में कमियां ढूंढ़ा करती है। विनोबा ने लोगों को गुणग्राही होने का अनुरोध किया था। यानी सीधी-सी बात है कि अगर तुम अपने जीवन से अपने अवगुणों को हटाना चाहते हो, तो औरों के गुणों का सम्मान करना सीखो। अपने स्वभाव को बदलने का यह कितना सरल मंत्र हुआ। अगर जीवन में कभी नाकामयाब भी हो जाएं, तो चिंतित न हों। अपनी नाकामयाबी का कारण तलाशें, उसे दूर करें और दोगुनी ऊर्जा और उत्साह के साथ फिर से काम में लग जाएं। आपके मन की यह विधायकता एक-न-एक दिन आपको ज़रूर सफल करेगी। विश्वास रखें आप हर कार्य को कर पाने में समर्थ हैं। बस, आवश्यकता है अपने विचारों को उस सफलता की सुवास से भर देने की। ___ हमेशा अच्छी किताबें पढ़ें। ऐसे निमित्तों से स्वयं को बचाकर रखें, जिनका हमारे जीवन पर पलत प्रभाव पड़ता हो। कभी भी किसी के लिए बुरा न सोचें, गाली-गलौज न करें। औरों का सम्मान पाने के लिए उनके प्रति सम्मान भरा बरताव करें, फिर चाहे कोई हमारा कर्मचारी ही क्यों न हो। ___ आओ, हम अपने जीवन और चिंतन को मंगलमय बनाने के लिए अपने हर दिन की शुरुआत मंगलमय तरीके से करें, सबके आदर-अभिवादन के साथ, हार्दिकता और मन की मुस्कान के साथ। जैसे सूरज उगने पर गुलाब की कलियां और पंखुरियां आह्वाद से भर उठती हैं, हमारा मानस भी ऐसे ही आझाद से, ऐसी ही खिलावट से आपूरित हो, हरा-भरा हो। 89 For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-दृष्टि सकारात्मक बनाएं बड़ी प्यारी घटना है। बाल मेले में एक आदमी गुब्बारे बेच रहा था। गुब्बारे हीलियम गैस से भरे हुए होते हैं। स्वाभाविक था, आकाश में ऊंचे उठते हुए गुब्बारों को देखकर बच्चे उसकी ओर आकर्षित हों। वह बच्चों को गुब्बारे बेचता भी और बच्चों को अपनी दुकान की ओर आकर्षित करने के लिए जब-तब दो-पांच गुब्बारे आकाश की ओर भी उड़ा देता। ये उड़ते हुए गुब्बारे ही उसका विज्ञापन होते। एक बालक आकाश में ऊंचे उठते हुए, गुब्बारों को देखकर चमत्कृत हो उठा। उसने आश्चर्य-भरे स्वर में पूछा, 'अंकल, आपके गुब्बारों में क्या काले रंग का गुब्बारा भी उड़ सकता है?' उस आदमी ने बालक को एक ही नज़र में देखा। वह प्रश्न का कारण समझ गया। उसने बच्चे से जीवन का रहस्य उद्घाटित करते हुए कहा, 'बेटे, गुब्बारा अपने रंग के कारण नहीं उड़ता। गुब्बारे के भीतर जो विश्वास और शक्ति भरी हुई है, उसी की बदौलत वह ऊपर उठता है।' उस आदमी का यह अनुभव क्या हमारे लिए प्रेरक नहीं है? मनुष्य के विकास में भी न तो उसका गोरा रंग सहायक होता है और न ही उसका काला रंग बाधक है। मनुष्य का विकास उसके स्वयं में निहित गुणवत्ता के कारण ही संभावित होता है। जाति, कुल, देश और धर्म, ये सब व्यक्ति की कुछ व्यावहारिक व्यवस्थाओं के चरण हैं। व्यक्ति का विकास तो उसकी अपनी सोच, जीवन-दृष्टि और जीवन शैली से ही प्रभावित होता है। जीवन के गुब्बारे में दी गई हवाई फूंकों से बात न बनेगी, व्यक्ति को अपने विश्वासों, मान्यताओं और 90 For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दष्टिकोणों में परिवर्तन लाना होगा, उन्हें | सकारात्मक दृष्टि स्वर्ग सकारात्मक बनाना होगा। जैसे हीलियम | है, नकारात्मक दृष्टि गैस भरने से गुब्बारा पूरी तरह ऊर्जस्वित नरक। और प्राणवंत हो जाता है, ऐसी ही प्राणवत्ता -चरैवेति का संचार हमें अपने जीवन में करना होगा। बेहतर हो जीवन-दृष्टि क्या हम इस बात पर गौर करेंगे कि हमारा सोच और दृष्टिकोण कैसा है? निम्न स्तर के दृष्टिकोण को अपनाकर जहां हम जीवन का स्तर भी गिरा बैठेंगे, वहीं अपनी मानसिकता को बेहतर बनाकर जीवन को उसकी गरिमा और यशस्विता प्रदान कर सकेंगे। हम अपनी जीवन-दृष्टि को बेहतर बनाकर अपने संपूर्ण जीवन का श्रेय साध सकते हैं। आदमी की सोच और शैली बेहतर हो, तो न केवल वह व्यक्ति महान है, अपितु हर किसी के लिए वह विश्व के उपवन में खिला हुआ एक सुंदर-सुवासित पुष्प है। हीरे की कणि है सकारात्मकता मनुष्य से बढ़कर भला और क्या पूंजी हो सकती है ! जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाकर हम जीवन की पूंजी को और अधिक बढ़ा सकते हैं। पड़ा-पड़ा पत्ता सड़ जाता है और खड़ा-खड़ा घोड़ा अड़ जाता है। नकारात्मकता आदमी के दुखों की धुरी है। हम जीवन के प्रति एकमात्र सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाकर जीवन के हर दुख, तनाव और हानि से उबर सकते हैं। नकारात्मकता वह हथौड़ा है, जो हर किसी के शांति के शीशे को तोड़-फोड़ डालता है। सकारात्मकता हीरे की वह कणि है, जो शीशे के अनपेक्षित भाग को हटा देती है और शेष भाग को उपयोगी बना देती है। नकारात्मकता विष है, तनाव और चिंता को बढ़ाने वाली प्रदूषित वायु है। सकारात्मकता सुबह की सैर है, यानी एक हवा-सौ दवा। जीवन में वंशानुगत रूप से मिलने वाले रोग और विकार इस कद्र आत्मसात हो चुके होते हैं कि उन्हें हटाना, उनसे मुक्त होना 91 For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति के लिए असाध्य कार्य बन जाता है, पर यदि कैसा भी विकार क्यों न हो या कलुषित वातावरण क्यों न हो अथवा हानि-लाभ की उठा-पटक क्यों न हो, जीवन के प्रति सकारात्मक नज़रिया अपनाकर वह न केवल विपरीत परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकता है, वरन अपने प्रति अनुरूप और अनुकूल वातावरण भी तैयार कर सकता है । हमारी मुश्किल यह है कि हम अपनी सोच और दृष्टि को बेहतर बनाने के लिए कोशिश नहीं करते। हम केवल चेहरे को सुंदर बनाने में, चालू स्तर की मैग्ज़ीन पढ़ने में या दुकानदारी में अपना सारा समय व्यय कर डालते हैं । जीवन को कैसे बेहतर बनाया जाए, इसके प्रति न तो हम जागरूक रहते हैं, न ही ईमानदारी से इसके लिए कोशिश कर पाते हैं। 1 1 भीतर का सौंदर्य 1 जीवन में किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए दस से बीस फ़ीसदी भाग हमारे शारीरिक सौष्ठव और सौंदर्य पर जाता होगा, पर अस्सी से नब्बे प्रतिशत असर तो हमारे अपने नज़रिए और दृष्टिकोण पर जाता है । हमारी मुश्किल यह है कि हम स्मार्टनेस पर स्वयं की समग्रता केंद्रित कर देते हैं। अपनी सोच और शैली को बेहतर बनाने के लिए तो हम अपनी समग्रता का दसवां भाग भी केंद्रित नहीं कर पाते । जीवन के लिए यह सौदा बड़ा नुकसानदेह है । जिससे हमें नब्बे प्रतिशत लाभ होता है, उस पर हम ध्यान नहीं देते और जिससे दस प्रतिशत लाभ होता है, हम उतने से लाभ के लिए स्वयं की नब्बे प्रतिशत ताक़त को झोंक देते हैं । सकारात्मक सोच और आत्मविश्वास से पर्वतों को भी हटाया जा सकता है 1 - चलें, फिर एक बार हम एक छोटा-सा उदाहरण लें विश्व सुंदरी प्रतियोगिता का । सुंदरियां तो हज़ारों-लाखों होती हैं, पर क्या आपको पता है कि उन हज़ारों-लाखों में से किसी एक का चयन कैसे किया जाता है ? हर सुंदरी की सोच, शैली और जीवन-दृष्टि के आधार पर। यह तो सर्वविदित है कि दक्षिण अफ्रीका के लोग काले होते हैं और शायद कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता होगा कि उसकी पत्नी काली हो । यह भी हम सभी जानते हैं कि विश्व सुंदरियों की शृंखला में दक्षिण अफ्रीका 92 For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की महिला भी विश्व सुंदरी का खिताब जीत चुकी है। सीधी-सी बात है कि गुब्बारा अपने काले रंग के कारण नहीं, वरन उसके भीतर जो कुछ है, उसी के बल पर वह ऊपर उठता है । वातावरण का प्रभाव व्यक्ति के नज़रिए और रवैये पर सबसे ज़्यादा प्रभाव वातावरण का पड़ता है । गुरु विश्वामित्र का निमित्त पाकर कोई पुरुष राम, लक्ष्मण और भरत हुए, वहीं मंथरा के साथ रहकर कोई राजरानी भी कैकेयी हो जाती है । एक त्याग और बलिदान का आदर्श बन जाता है, तो दूसरा मात्र स्वार्थ पूर्ति का । । जब हम वातावरण की बात कर रहे हैं, तो हमें ध्यान देना होगा कि हमारे घर का वातावरण कैसा है, विद्यालय और मित्र-मंडली का वातावरण कैसा है । जिस मोहल्ले में हम रहते हैं, उसका और समाज का वातावरण कैसा है । हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि कैसी है, हमें इन बातों पर गौर करना होगा । हमें इस बात पर गौर करना होगा कि हमारी शिक्षा-दीक्षा कैसी हुई; वह जीवन में कितनी आत्मसात हुई, हमारी शिक्षा हमारे लिए रोज़ी-रोटी का आधार बनी या उसने हमें आनंदमय जीवन जीने की कला भी सिखाई ? किसी बेहतर शिक्षक और शिक्षण संस्थान में अध्ययन कर हम अपनी और अपनी भावी पीढ़ी की स्थिति को सृदृढ़ और सकारात्मक बना सकते हैं। मैं अपने जीवन से जुड़ी हुई एक ऐसी घटना का जिक्र करूंगा, जिसमें एक शिक्षक ने मेरी जीवन - दृष्टि ही बदल डाली । आपबीती बात तब की है, जब मैं नौवीं - दसवीं की पढ़ाई कर रहा था । संयोग की बात कि परीक्षा में मेरी सप्लीमेंटरी आ गई । क्लास टीचर सभी छात्रों को उनके प्रमाण-पत्र दे रहे थे। जब मेरा नंबर आया, तो न जाने क्यों उन्होंने ख़ासतौर से मेरी मार्कशीट पर नज़र डाली। वह चौंके और उन्होंने एक नज़र से मुझे देखा । मैं संदिग्ध हो उठा, कुछ भयभीत भी। उन्होंने मुझे मार्कशीट नदी । यह कहते हुए मार्कशीट अपने पास रख ली कि ज़रा रुको, मुझसे मिलकर जाना ।' 93 For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब सभी सहपाठी अपनी-अपनी मार्कशीट लेकर क्लास से चले गए, तो पीछे केवल हम दो ही बचे, एक मैं और दूसरे टीचर । उन्होंने मुझसे बमुश्किल दो-चार पंक्तियां कही होंगी, लेकिन उनकी पंक्तियों ने मेरा नज़रिया बदल दिया, मेरी दिशा बदल डाली। उन्होंने कहा, 'क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारी सप्लीमेंटरी आई है? चूंकि तुम्हारा बड़ा भाई मेरा अज़ीज़ मित्र है, इसलिए मैं तुम्हें कहना चाहता हूं कि तुम्हारा भाई हमारे साथ इसलिए चाय-नाश्ता नहीं करता कि अगर वह अपनी मौज-मस्ती में पैसा खर्च कर देगा, तो तुम शेष चार भाइयों की स्कूल की फीस कैसे जमा करवा पाएगा? तुम्हारा जो भाई अपना मन और पेट मसोसकर भी तुम्हारी फीस जमा करवाता है, क्या तुम उसे इसके बदले में यह परिणाम देते हो?" उस क्लास टीचर द्वारा कही गई वे पंक्तियां मेरे जीवन - परिवर्तन की प्रथम आधारशिला बनीं। शायद उस टीचर का नाम था, श्री हरिश्चंद्र पांडे, जिन्होंने न केवल मुझे अपने भाई के ऋण का अहसास करवाया, अपितु शिक्षा के प्रति मुझे बहुत गंभीर बना दिया और तब से प्रथम श्रेणी से कम अंकों से उत्तीर्ण होना मेरे लिए चुल्लू भर पानी में डूबने जैसा होता । मैं शिक्षा के प्रति सकारात्मक हुआ। मां सरस्वती ने मुझे अपनी शिक्षा का पात्र बनाया । व्यक्ति यदि अपने जीवन-जगत में घटित होने वाली घटना से भी कुछ सीखना चाहे, तो सीखने को काफ़ी - कुछ है । सिर के बाल उम्र से नहीं, अनुभव से पके होने चाहिए । मनुष्य आयु से वृद्ध नहीं होता । वह तब वृद्ध हो जाता है, जब उसके विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है । किसी वृद्ध जापानी को उसकी पचहत्तर वर्ष की आयु में चीनी भाषा सीखते हुए देखकर किसी ने कहा, 'अरे भलेमानुष, तुम इस बुढ़ापे में चीनी भाषा सीखकर उसका क्या उपयोग करोगे ? तुम तो मृत्यु की डगर पर खड़े हो । पीला पड़ चुका पत्ता कब झड़ जाए, पता थोड़े ही है ।' उस वृद्ध ने प्रश्नकर्ता को घूरते हुए देखा और कहा, 'आर यू इंडियन ?' प्रश्नकर्ता चौंका । उसने 94 For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा, 'निश्चय ही मैं भारतीय हूं, पर मेरे भारतीय होने का इस प्रश्न के साथ क्या संबंध?' वृद्ध ने मुस्कराते हुए कहा, 'भारतीय हमेशा अपने लिए मृत्यु को देखता है और जापानी हमेशा जीवन को। जो सवाल तुमने मुझे आज पूछा है, वह मुझसे तब भी किया गया था, जब मैं साठ वर्ष का था। मैंने इस दौरान सात नई भाषाएं सीखी हैं और पूरे विश्व का दो बार भ्रमण किया है।' आंखों में बसे जीवन का सपना जिनकी आंखों में मृत्यु की छाया है, उनका नज़रिया नकारात्मक है। जिनकी आंखों में सदा जीवन का सपना है, वे सकारात्मक दृष्टि के स्वामी हैं। दृष्टि के नकारात्मक होते ही मन में उदासी और निराशा घर कर लेती है, व्यक्ति की चिंतन-शक्ति चिंता का बाना पहन लेती है, बुद्धि की उच्च क्षमता होने के बावजूद जीवन में मानसिक रोग प्रवेश कर जाते हैं। हम यदि अपने नज़रिए को बदलने में सफल हो जाते हैं, तो जीवन की शेष सफलताएं अपने-आप आत्मसात हो जाती हैं। गत सप्ताह ही तमिलनाडु के कारागार से एक ऐसा कैदी छूटा, जो कैद हुआ था, तब तो किसी हत्या का अभियुक्त था और जब जेल से छूटा, तो सीधा विश्वविद्यालय का प्रोफेसर बना। उसे अपने किए का प्रायश्चित हुआ। उसने कारागार में रहकर ही सारी शिक्षा ग्रहण की। मीडिया ने उसकी विश्वविद्यालय में नियुक्ति की जानकारी दी। इसे कहते हैं जीवन को बदलना, जीवन का रूपांतरण करना। स्वयं की जीवन-दृष्टि को सकारात्मक बनाने के लिए हम सबसे पहले अपनी सोच और मानसिकता को सकारात्मक बनाएं। हम न केवल अपनी सोच को अच्छा बनाएं, बल्कि हर किसी में अच्छाई ही तलाशें। औरों में अच्छाइयां देखना अच्छे व्यक्ति का काम है, जबकि किसी में बुराई देखना स्वयं ही बदसूरत काम है। किसी में अच्छाई देखकर हम उसका उपयोग कर सकेंगे, बुराई पर ध्यान देने से हम उसके द्वारा मिलने वाले लाभों से वंचित रह जाएंगे। आखिर दुनिया में ऐसा कौन है, जो पूर्ण हो? कमियां तो हर किसी में रहती हैं। औरों में कमियां देखना क्या कमीनापन नहीं है? गिलास को आधा खाली 95 For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखकर यह मत कहो कि गिलास आधा खाली है। तुम्हारी दृष्टि उसके भरे हुए तत्त्व को मूल्य दे कि 'अजी साहब, गिलास तो आधा भरा हुआ है।' गुलाब के पौधे पर नज़र पड़े, तो यह न कहें कि गुलाब में कांटे हैं। हमारी दृष्टि गुलाब पर केंद्रित हो। हमारी भाषा हो, 'कांटों में भी गुलाब है।' यही व्यक्ति की सकारात्मकता है। होंठों पर रहें आशा के गीत हम अपने आप पर आत्मविश्वास रखें। जब काले रंग का गुब्बारा भी आकाश को चूम सकता है, तो हम निराशा के दलदल में क्यों धंसे रहें? व्यक्ति आशा के गीत गुनगुनाए, विश्वास के वैभव का स्वामी बने। आत्मविश्वास की बदौलत तो बड़े-से-बड़े पर्वत भी लांघे जा सकते हैं, फिर जीवन की अन्य बाधाओं की तो बिसात ही क्या? रास्ते पर पड़ी हुई चट्टान हमें यही तो कहती है, 'तुम आगे बढ़ो, चट्टानों की चिंता छोड़ो।' आगे बढ़ने का जोश हो, तो चट्टानें स्वत: पीछे छूट जाया करती हैं। हम स्वयं में घमंड और अभिमान को स्थान न दें, तो सरलता सदा जीवन की शोभा बनती है। व्यक्ति चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो, पर जो बुरे वक़्त में हमारे काम आया, उसे सदा याद रखें और उसके प्रति आभार से भरे हुए रहें। हमारी ओर से सबकी भलाई का ही प्रयास हो, पर नेकी कर कुएं में डाल । भलाई करें और भूल जाएं। अपनी की हुई भलाई के अहसान का कभी किसी को अहसास न करवाएं। जिसका हमने भला किया है और वह हमारा बुरा कर बैठा हो, तो खेद न लाएं। जिसके पास जो होता है, वह वही देता है। तुम्हारे पास भलाइयों का भंडार था, तुमने भलाई की। उसकी ओर से बदले में बुराइयां लौटें, तो उसके प्रति दया-भाव लाते हुए मात्र मुस्करा दीजिए। जीवन में आने वाली हर विपरीतता पर जो मुस्कान और माधुर्य से भरा हुआ रहता है, वह जीवन और जगत के मंदिर का अखंड दीप है, जिसकी रोशनी से उसका परिसर तो रोशन होता ही है, उसके प्रकाश को देखकर मंदिर के देवता भी मुदित होते हैं। 96 For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मविश्वास जगाएं, सफलता पाएं टर इनसान का अपने जीवन में ऊंचा सपना होता है, सपने को पूरा करने की गहरी तमन्ना होती है। केवल ऊंचे सपनों को देख लेने भर से जीवन में ऊंची सफलताएं नहीं मिला करतीं। जीवन में अपनाए जाने वाले बुनियादी उसूलों के परिणामस्वरूप ही व्यक्ति अपने मूल्यवान लक्ष्य की प्राप्ति करता है। जीवन में जिस भी व्यक्ति ने सफलता अर्जित की है, वह भली-भांति जानता है कि उसकी सफलता न तो जमीन को फोड़कर निकली है और न ही किसी आसमान से टपक कर। सफलता न तो किसी जादुई छड़ी का परिणाम है और न ही किसी अलाद्दीन के चिराग का फल। जो कुछ मिला है, वह उसके अपने रचनात्मक दृष्टिकोण, इच्छा शक्ति, उन्नत लक्ष्य और कड़ी मेहनत का परिणाम है। __ अपने जीवन में अपनाए जाने वाले बुनियादी उसूलों के चलते ही व्यक्ति अपने जीवन में कामयाब हुआ करता है। यदि कोई विद्यार्थी परीक्षा में अनुत्तीर्ण हुआ है, तो उसका जवाबदेह भी वह स्वयं है और यदि कोई व्यवसायी अपने व्यवसाय क्षेत्र में सफल हुआ है, तो उसकी सफलता का आधार-स्तंभ भी वह स्वयं ही है। यदि मनुष्य अपने मनोमस्तिष्क का निरंतर इस्तेमाल करता रहे, अपने लिए सकारात्मक सोच और बेहतर नज़रिए को अपनाता रहे, तो आदमी के लिए कामयाबी की मीनारें स्थापित होती रहती हैं। हर सांझ सूरज ढलता है और हर सुबह सूरज प्रेरणा का प्रकाश लेकर इनसानियत के सामने आता है। सांझ को ढला सूरज सुबह 97 For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर से उग कर संदेश देता है- आओ, हम फिर से प्रयत्न करें। उत्साह और पुरुषार्थ की प्रबल मनोदशा के साथ जीवन को सार्थक आयाम प्रदान करें। जिन लोगों के नज़रिए में जीवन का मूल्य है, वे लोग ही जीवन का उपयोग कर सकते हैं। जो लोग केवल मौत को ही महत्व देते रहते हैं, वे केवल संसार से अनासक्ति की बात भर करते रहेंगे, पर संसार में आकर अपने जीवन में विकास और खिलावट के मापदंडों को कतई नहीं छू पाएंगे। जो महानुभाव जीवन को मूल्य देंगे, वे जीवन को परिणाम भी देना चाहेंगे। जो व्यक्ति मृत्यु के बारे में ही चिंतन करता रहेगा, वह अपने जीवन को जीते जी ही मौत में ढाल बैठेगा। हम लोगों को याद होगा, जहां धर्म स्थानों पर लटके हुए चित्र यह संदेश देते हैं कि एक आदमी लटका हुआ है किसी पेड़ की डाली पर। डाली को चूहा काट रहा है। हाथी अपनी ताकत लगा कर पेड़ को उखाड़ना चाहता है। जहां आदमी लटका हुआ है, उसके नीचे कुआं है। उस कुएं के भीतर सांप, अजगर मौत का मुंह खोले खड़े हैं। पेड़ की डाल पर मधुमक्खियों के शहद का छत्ता है और आदमी उस छत्ते से टपकने वाली एक-एक बूंद का आनंद लेना चाहता है। नकारात्मक सोच के लोग आदमी को यह प्रेरणा देना चाहेंगे कि मौत तुम्हारे सामने खड़ी है और एक तू है, जो शहद की बूंद को पाने के लिए लालायित है। अरे! अपनी मुक्ति का इंतजाम कर। सकारात्मक सोच का व्यक्ति यह सलाह देगा कि मौत तो निश्चित तौर पर आएगी, लेकिन तुम जिंदगी के अंतिम क्षण तक भी जीवन से अगर एक बूंद शहद भी मिल सकती हो, तो जरूर ले लेना। मौत तो केवल हमारी जिंदगी को मटियामेट करके चली जाएगी। जिंदगी में मृत्यु का मूल्य केवल एक क्षण जितना होता है, पर जिंदगी में जिंदगी का मूल्य जिंदगी जितना होता है। मौत क्षणभंगुर होती है, जीवन क्षणभंगुर नहीं होता। मौत पल में आती है और पल में खत्म करके चली जाती है, लेकिन जिंदगी को वर्षों-वर्ष जीना होता है। जिंदगी से कुछ हासिल करना होता है, फिर चाहे हम अस्सी वर्ष के बूढ़े भी क्यों न हो चुके हों। 98 For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर हम बीस साल के हैं, तो सोचें कि हमने जीवन का क्या परिणाम पाया? अगर मैं चालीस साल का इनसान हूं, तो मुझे ठंडे दिमाग से यह बात अवश्य चिंतन करना चाहिए कि मैंने अपने जीवन का क्या परिणाम उपलब्ध किया और अगर आप अस्सी वर्ष के व्यक्ति हैं, तो मैं आपसे भी इस बात के लिए आगाह करूंगा कि सोचिए, आपकी हथेली में जीवन का कौनसा उपसंहार समाया है । अब तक धर्म-पीठ पर बैठ कर संतजनों ने मानवता को यही संदेश दिया होगा कि मौत तुम्हारे करीब खड़ी है, कुछ तो जागो । मैं आपको सचेत करूंगा कि जिंदगी अभी और बची है, कुछ तो जागो । जो व्यक्ति जिंदगी को जिंदगी का परिणाम दे देता है, वही मौत को भी मौत का परिणाम दे सकता है । जो भला जिंदगी को ही परिणाम न दे पाया, वह मौत से गुजर कर मौत को क्या परिणाम दे पाएगा? मुक्ति भी अगर साधना हो तो ध्यान रखें, मृत्यु किसी को मुक्ति नहीं देती । जीवन जीने की बेहतरीन शैली ही आदमी के लिए मुक्ति का भी इंतजाम करती है 1 I इस बात की फिक्र मत करो कि तुम्हारी उम्र क्या है ? फिक्र इस बात की करो कि तुम अपने शेष जीवन को कैसा, कितना सार्थक परिणाम दे सकते हो ? क्यों न धरती का हर इनसान जीवन को मूल्य देने के लिए तत्पर हो । सोचो, सोच-सोचकर, सोचो कि क्या हम अपने जीवन को कोई सार्थक परिणाम दे सकते हैं? मृत्यु के बारे में नहीं, जीवन के बारे में सोचो। वह व्यक्ति ही जीवन में आत्मविश्वास का संवाहक हो सकता है, जिस व्यक्ति को इस बात का विश्वास हो चुका है कि वह इस पृथ्वी-ग्रह की आवश्यकता है । हम कोई दलदल में पैदा हुए कीड़े नहीं हैं । प्रकृति ने न जाने हमारे लिए कितने सारे इंतजाम किए होंगे, तब हम सब लोग पैदा होकर आए हैं। जैसे ही व्यक्ति को अपनी स्वयं की, अपने जीवन की अनिवार्यता समझ में आएगी, हमारा हमारे परिवार के लिए भी मूल्य हो जाएगा, समाज के लिए भी, सारे पृथ्वी- ग्रह के लिए भी मूल्य हो जाएगा। हम अपना मूल्य समझने लग जाएंगे। हमारी मानसिकता, हमारी विचारशक्ति मजबूत हो जाएगी । प्रकृति ने अगर तुम्हें जन्म दिया है, तो इसलिए कि प्रकृति ने पृथ्वी के लिए तुम्हें आवश्यक समझा । तुम भले ही 99 For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुलाब को महत्व देते रहो, पर प्रकृति के लिए तो कांटों का भी महत्व . है। अगर कांटे न होते, तो फूल की रक्षा कौन करता? कांटे तो फूल के लिए आत्मरक्षा कवच का काम करते हैं। प्रकृति ने हमें जन्म दिया है, निश्चय ही पृथ्वी के लिए हमारी आवश्यकता है। जैसे ही आपको अपनी आवश्यकता समझ में आएगी, आप अपने जीवन और व्यक्तित्व को बेहतर और सफल बनाने के लिए संकल्पशील हो जाओगे। जीवन की यह समझ आपके विचार और मन दोनों को प्रेरित-प्रभावित-आंदोलित करेगी। जैसे मनष्य के विचार होते हैं, वैसा ही मनुष्य का व्यक्तित्व होता है। कमजोर विचार के आदमी कमजोर व्यक्तित्व के मालिक होते हैं और मजबूत विचारों के लोग सुदृढ़ व्यक्तित्व के महल खड़े कर लिया करते हैं। अच्छे विचारों का स्वामी होना किसी भी धार्मिक होने से ज्यादा श्रेष्ठ होता है और एक बेहतर व्यक्तित्व का निर्माण कर लेना जीवन की सबसे बेहतरीन कमाई हुआ करती है। आदमी के जैसे विचार और जैसा मन होगा, आदमी का जीवन भी वैसा ही बनता चला जाएगा। हममें से हर किसी को चाहिए कि हम अपनी मानसिक शक्ति को पहचानें, अपनी विचार-शक्ति का उपयोग करें। जीवन के प्रति सकारात्मक नज़रिया अपनाएं। आखिर जैसा हमारा नज़रिया होगा, नज़ारा भी वैसा ही होगा। आज की समस्या समाज में समाई हुई नहीं है, वरन् मनुष्य के मन में पलने वाली निराशा, चिंता और उत्साहहीनता में है। अपनी निष्क्रियता में व्यक्ति की समस्याएं छिपी हुई हैं। कोई व्यक्ति अगर तनावग्रस्त है, अगर नाकामयाब है, अगर हीनता की ग्रंथि से ग्रस्त है, तो मैं कहना चाहूंगा कि वह अपने मन को ठीक तरीके से समझा न पाया। लोग यह कहेंगे कि तुम मन को स्थिर करो अथवा तुम कहोगे कि मेरा मन स्थिर नहीं होता। मैं कहूंगा कि इसलिए नहीं होता, क्योंकि तुम न तो मन को समझ पाए हो और न ही मन को ढंग से समझा पाए हो। __ पुरानी कहावत है- मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। वह व्यक्ति परास्त नहीं हुआ है, जो हार चुका है। वह व्यक्ति ही 100 For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हारा है, जिसका मन टूट चुका है। मन डूबा तो नाव डूबी। मन में अगर लगता है कि तुम हार सकते हो, तो तुम्हारी यह मानसिकता ही तुम्हारे हार का कारण बनती है। मन के अगर जीतने की मनोदशा है, तो तुम हर हालत में जीतोगे। जीतने की कला जरूर तुम्हारी मदद करती है, किंतु तुम्हारी मनोदशा उसमें शक्तिदायक औषधि का संबल प्रदान करती है। वह व्यक्ति बूढ़ा है, जिस व्यक्ति का मन बूढ़ा हो चुका है। जो बूढ़ा होकर भी अपने मन को मजबूत रखता है, वह अभी भी मानो बचपन में है और अगर कोई बचपन में रहकर भी अपने मन को शिथिल कर चुका है, वह किशोर होकर भी बूढ़ा है। जीवन का मूल्यांकन आयु के द्वारा करने वाले दकियानूसी विचार के होते हैं। मन की मजबूती और मन की कमजोरी के आधार पर जीवन का मूल्यांकन करने वाले लोग ही स्वस्थ मनीषा के स्वामी हैं। अपने मन को कमजोर मत होने दो। अगर तन में रोग आ जाए, तब भी मन को मजबूत रखो। मन की मजबूती में ही रोगों से लड़ने की ताकत होती है। ___ परिस्थितियों का सामना करना सीखो। जीवन में विश्वास रखो कि मृत्यु केवल एक बार आती है और वक्त से पहले मृत्यु कभी भी नहीं आया करती। जिस क्षण हम भयभीत हो जाते हैं, उसी क्षण हमारा शरीर और हमारा मन ऐसे हो जाता है, जैसे किसी आदमी को दस्त लग रही हो। मन मजबूत रहा, तो सामने वाले आदमी के हाथ में लाठी होगी, पर अपने मजबूत मन के चलते पास में पड़े हुए ईंट और पत्थर को भी शस्त्र बना लोगे और उन लाठियों का सामना कर जाओगे। मन ही अगर कमजोर हो गया, हमारा अपने आप पर रहने वाला भरोसा और यकीन ही अगर मिट चुका है, तो भले ही तुम्हारे हाथ में लाठी होगी तब भी तुम मात खा बैठोगे। ___ अगर दो पहलवान आपस में कुश्ती लड़ते हैं, तो आपने सोचा कि एक पहलवान जीतता है और एक पहलवान हारता है। हारने वाला इसलिए नहीं हारता कि उसे जीतने की कला नहीं आती। इसलिए भी नहीं हारता कि उसके पुठे कमजोर होंगे। इसलिए भी नहीं हारता कि उसे लड़ना नहीं आता। वह अगर हारता है, तो केवल इसलिए कि उसका आत्मविश्वास, उसका मनोबल कमजोर पड़ चुका है। 101 For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आखिर टाटा कोई आकाश से टपके हुए देवता नहीं हैं, बिडला जमीन फोड़कर पैदा होने वाली शक्ति नहीं हैं। अम्बानी किसी और देश से आई हुई ताकत नहीं हैं। हममें से ही जिन्होंने अपनी सोच को सकारात्मक बनाया, नज़रिए को बेहतर बनाया, उन्नत लक्ष्य निर्धारित किया, लक्ष्य को पूरा करने की योजनाएं तैयार की, जो अपने पूरे विश्वास के साथ अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए प्रयत्नशील हो गए, उन्हीं लोगों में से कोई टाटा, बिड़ला या अम्बानी बनते हैं। जो लोग अपना भरोसा न रख पाए, कमजोर मन से अपना जीवन जीते रहे, वे लोग ही समाज के पास जाकर भीख मांगने को तैयार हो सकते हैं। यह समाज तो सहयोग दे देगा। मानवता के प्रति, समाज के प्रति भावना रखने वाले लोग अवश्य मदद दे देंगे। लेकिन उस इनसान से ज्यादा हारा हुआ और कोई नहीं होगा, जो भीख मांगने के लिए अपना हाथ किसी के सामने फैला दे। हम अपने पुरुषार्थ को नपुंसक क्यों करते हैं। हम ऐसे पुरुषार्थ के मालिक बनें, जो पुरुषार्थ विधाता की विडंबना को भी स्वीकार करता जाए और यह कहे कि बेटियां तुम देते जाओगे, तब भी मैं अपने पुरुषार्थ से इतना धन अर्जित करता जाऊंगा कि बेटियों के भाग्य से मेरा भाग्य सवाया हो जाएगा। ईश्वर ने इनसान को गरीब के रूप में पैदा नहीं किया है। हर व्यक्ति अमीर है। हर व्यक्ति करोड़पति है। ज़रा मूल्य आंकिए अपने स्वयं का। आपकी एक टांग की आप कितनी कीमत समझते हैं। दो कौड़ी? अगर लोग कहते हैं यह शरीर अनित्य है, यह शरीर मरण र्मा है, इस शरीर का कोई मूल्य नहीं है। मैं आपसे आपका पांव मांगता हूं। एक लाख रुपए मिल जाएंगे, क्या आप अपनी एक टांग किसी को दे देंगे। मैं आपसे आपकी एक आंख मांगता हूं, क्या आप अपनी एक आंख किसी को दे देंगे? वे आपको पांच लाख रुपए देने को तैयार हो जाएंगे। क्या आप अपना गुर्दा किसी को दे देंगे, क्योंकि जरूरतमंद लोग आपके एक गुर्दे की कीमत पांच-सात लाख रुपए दे देंगे। क्या आप अपना हार्ट किसी को दे सकते हैं? उस हार्ट के बदले कोई भी इनसान दस लाख रुपए की कीमत चुकाने को तैयार हो सकता है। पर हम कतई नहीं बेचेंगे। 102 For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुदरत हर इनसान को अधिसंपन्न करके भेजती है, फिर अपने आप को दीन-हीन, गरीब क्यों समझते हो ? हर आदमी के पास ईश्वर सामर्थ्य देकर भेजता है तुम्हारी कमजोरी यह है कि तुम अपने सामर्थ्य का उपयोग नहीं करते । कमाने वाले लोग रद्दी बेचकर और रद्दी खरीद कर भी करोड़पति हो जाते हैं । यह मत समझना कि जिस व्यक्ति का ज्वैलरी का धंधा है, वह समाज में ज्यादा आदरणीय होता है । तुम रद्दी को बेच और खरीद कर भी करोड़पति हो सकते हो । किसी के सामने जाकर भीख मांगने से तो अच्छा है कि तुम चौराहे पर जाकर जूस निकाल कर बेचने का धंधा कर लो । इस बात का मूल्य बाद में आंका जाएगा कि तुमने झूठ या सच किस तरीके से पैसा कमाया। मैं पूछना चाहूंगा कि अगर झूठ बोलना पाप है, तो भीख मांगना कौनसा पुण्य है । अपने सोए हुए पुरुषार्थ को जगाएं । अपना स्वयं का मूल्य समझें, तब पता चलेगा कि व्यक्ति का स्वयं का विश्वास किस तरह से उभर कर आता है । जीवन में आत्मविश्वास से बढ़कर न तो कोई मित्र होता है, न कोई शक्ति होती है और न ही प्रगति की कोई सीढ़ी होती है । जिंदगी की हर संकट की बेला में अगर कोई मददगार होता है, तो उसका अपने आप पर रहने वाला भरोसा ही होता है । संकट की घड़ी में तुम अगर हनुमान को याद करो, तो संभव है कि हनुमान आ पाएं कि न आ पाएं, लेकिन संकट की घड़ी में अपने आत्मविश्वास को याद करो, तो तुम स्वयं हनुमान हो जाओगे । तुम्हारे स्वयं के भीतर सौ-सौ व्यक्तियों की शक्ति उभर कर आ जाएगी । 1 मैंने आत्मविश्वास से सहयोग लिया है और इसीलिए मैं जानता हूं कि जिंदगी में अगर किसी भी इनसान के लिए विश्वास की कोई पहली सीढ़ी होती है, तो वह व्यक्ति का अपने आप पर रहने वाला यकीन ही है । जिसका अपने आप पर यकीन नहीं, उसका जीवन हसीन नहीं । आत्मविश्वास को मैं सफल व्यक्तित्व की निशानी मानता हूं। मेरे जीवन का अगर कोई पहला मित्र है, तो वह आत्मविश्वास ही है। मेरे दूसरे मित्र का नाम सकारात्मक सोच है और तीसरे मित्र का नाम बेहतर नज़रिया है। संकट की हर घड़ी में आत्मविश्वास के मित्र ने ही सहारा दिया है । आप अपने व्यक्तित्व का पहला पायदान 103 For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मविश्वास को ही बना लें। आत्मविश्वास की सीढ़ी से ही सफलता की मंजिल पाई जा सकती है। यह आत्मविश्वास की ही शक्ति है कि जिसकी बदौलत कभी कोलंबस भारत की खोज के लिए निकला था। यह आत्मविश्वास का ही परिणाम है कि कभी पियरे ने उत्तरी ध्रुव की खोज की थी। यह आत्मविश्वास का ही परिणाम है कि मात्र सोलह वर्ष की उम्र में शिवाजी ने अपनी जिंदगी का पहला किला फतह कर लिया था। आत्मविश्वास की बदौलत ही कभी नेपोलियन जैसे लोग सारे विश्व पर विजय प्राप्त करने के लिए तत्पर हो गए। आप शायद नहीं जानते कि अमेरिका का जो सबसे मशहूर शहर है वाशिंगटन, वह किस व्यक्ति के नाम से जुड़ा है? वाशिंगटन अमेरिका का वह सेनापति है, जिसने मात्र उन्नीस वर्ष की आयु में सेनापति का पद ले लिया था और जब इक्कीस साल की उम्र में उस व्यक्ति की मौत हुई थी, तब तक वह विश्व के आधे हिस्से पर विजय प्राप्त कर चुका था। यह आत्मविश्वास की ताकत है कि जिसके चलते व्यक्ति किसी भी बड़ी-से-बड़ी सेना का मुकाबला करने को तत्पर हो जाता है। हां, अगर कोई व्यक्ति विकलांग भी है, अगर किसी व्यक्ति का हाथ कट चुका है, अगर किसी व्यक्ति के पांव पंगु हैं, तब भी चिंता न करें, क्योंकि विकलांग लोगों को अपना विकास करने का अधिकार है। अगर कभी जिंदगी में आंख खो जाए, तब भी चिंता न करें। आंख खो जाए तो चलेगा, पर अपना विश्वास, अपना भरोसा, अपने आपसे कभी भी नहीं खोना चाहिए। रवीन्द्र जैन से कौन आदमी परिचित न होगा। लेकिन नेत्रहीन होने के बावजूद इस व्यक्ति ने संगीत के क्षेत्र में वे मील के पत्थर स्थापित किए हैं कि आज सारा विश्व इस व्यक्ति से प्रेरित है। जन्म से जो व्यक्ति गूंगा, बहरा और अंधा रहा हो, क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि वह व्यक्ति सारे संसार का एक आदर्श विचारक कहलाएगा। हां, उस गूंगी, बहरी और अंधी महिला का नाम था हेलन केलर, जिसे जब-तब मैं भी पढ़ लेता हूं। जिस चन्द्रप्रभ को दुनिया पढ़ती होगी, लेकिन वह इस भावदशा के साथ उस महिला को पढ़ लेना पसंद करता है कि अहो! जिस व्यक्ति ने अपनी इन बाहरी आंखों से दुनिया को न देखा, इन बाहरी कानों से दुनिया को न सुना, इस 104 For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहरी मुंह से दुनिया के लिए अपना उद्बोधन न दिया, उसने अपने जीवन की गहराई में क्या देखा और जाना होगा। नेत्रहीन लोग भी देख सकते हैं। आंख वाले दुनिया को जितनी रंगीन देख सकते होंगे, उससे कहीं ज्यादा इंद्रधनुषी रंगों के साथ कोई नेत्रहीन व्यक्ति दुनिया को देख सकता है। और वह देखेगा अपने भीतर की आंख से, अंतरमन की आंख से। हिंदू लोग हर सुबह जिनके भजन बड़े भाव से गुनगुनाते हैं, कभी सोचा कि उस सूरदास के पास आंखें नहीं थीं। हम आंख वाले को भूल जाते हैं, लेकिन एक नेत्रहीन व्यक्ति के भजनों को बड़े भाव के साथ गुनगुना लेते हैं। विकलांगता एक दोष जरूर है, लेकिन प्रकृति के द्वारा दिए जाने वाले अभिशाप के बावजूद अगर व्यक्ति अपना यकीन न खोए, तो कोई अभाव अभाव नहीं होता। हर अभाव हमारे स्वभाव में बदल जाता है। मैं उल्लेख करना चाहूंगा एक ऐसे हिंदुस्तानी व्यक्ति का जिसके हाथ विकलांग थे, नाम है डॉक्टर रघुवंश सहाय, जिस व्यक्ति के दोनों हाथ विकलांग थे लेकिन इसके बावजूद उसने अपने पांव की अंगुलियों का उपयोग करते हुए कई किताबें लिखीं। संसार को संगीत के बेहतरीन एलबम देने वाला बीथोवन, यह जानकर आश्चर्य करेंगे कि वह बहरा था। फ्रेंकलिन अमेरिका के वे राष्ट्रपति हुए, जो पांवों से चल नहीं सकते थे। कृपा करके अपने तन की विकलांगता का असर अपने मन पर मत होने दीजिए। मन पूर्ण रहे! मन विकलांग न हो, मन पंगु न हो, इस बात के लिए सजगता जरूरी है। ____ आदमी अगर अपनी जिंदगी में कुछ करना चाहे और वह न कर पाए, यह कैसे संभव हो सकता है। अगर सफल न हुए तो इसके जवाबदेह स्वयं हम हैं। कोई अगर सफल हुआ तो उसका जवाबदेह भी वह स्वयं है। हम अपने सोए हुए विश्वास को जगाएं, अपने मनोबल को मजबूत करें। आत्मविश्वास का ही यह परिणाम होता है कि व्यक्ति के भीतर उत्साह और ऊर्जा का संचार होता है। उत्साहपूर्वक अगर झाड़ लगाओ, तो वह झाड़ लगाना भी किसी मंदिर की सफाई करना हो जाता है और बिना उत्साह, उमंग के अगर मंदिर भी चले जाओ, तब भी वह व्यर्थ ही साबित होता है। उत्साह के साथ किया गया 105 For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम आदमी के लिए सुख का द्वार बन जाता है और अनुत्साह-बेमन से किया गया काम आदमी के लिए बंधन की बेड़ी बन जाता है। भला जब आदमी अपने प्रयास से किसी कार्य को और अधिक बेहतर तरीके से कर सकता है, तो फिर बोझिल मन से क्यों करे? हम अपने हर कार्य को इतनी निष्ठा, इतने विश्वास और इतनी पूर्णता के साथ संपादित करें कि अगर घर में झाडू भी लगाए, तो इतने बेहतर तरीके से कि अगर उधर से देवता भी गुज़र जाएं, तो हमारी स्वच्छता देखकर पीठ थपथपाए। हम झाड़-पोंछा लगाएं कि जैसे मंदिर में बैठकर भगवान का भजन कर रहे हों। हम एक बार बुहारी चलाएं एक बार भगवान का सुमिरन करें, एक फिर बुहारी चलाएं, फिर प्रभु का सुमिरन करें। हर बुहारी के साथ सुमिरन। लोगों को लगेगा आप बुहारी चला रहे हैं, मगर आपके मन से कोई पूछे, तो पता चलेगा आप माला जप रहे हैं। अंतरर्मन में आप उत्साह का संचार कीजिए। आत्मविश्वास के चलते हमारे भीतर आत्म-निर्णय करने की क्षमता आएगी। हमको हर छोटी-छोटी बात में सलाह लेने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। व्यक्ति अगर अपनी जिंदगी में आस्तिक होना चाहता है, तो मैं कहूंगा कि तुम सबसे पहले अपनी बुद्धि के प्रति आस्तिक बनो । यह प्रकृति और परमात्मा की तुम्हें अनुपम सौगात है। तुम अपनी बुद्धि पर विश्वास रखो कि तुम्हें गलत सलाह नहीं देगी। मन-मन करते रहते हो ना, इसीलिए कहते हैं कि मारवाड़ मनसूबे डूबी। मन-मन करते रहते हो इसलिए एक निर्णय नहीं हो पाता। अपना निर्णय जो आपकी शांति-सौम्य बुद्धि ने दिया, वह सही है। उस पर दृढ़ रहो, अडिग रहो। अगर गलत होगा, तो गलत परिणाम भी मिल जाएगा। आगे से अपनी बुद्धि पर भरोसा नहीं करेंगे। और अगर हमारा निर्णय सही है, तो भी पता चल जाएगा। सलाह तो सबकी ले लो। हर्जा कुछ नहीं है। हिंदुस्तान में लोग किसी को देते भी हैं तो सलाह ही एक दूसरे को देते हैं। सलाह एक ऐसी चीज है जिसको हर आदमी दूसरे को देना चाहता है, लेकिन यह एक ऐसी चीज है, जिसे कोई भी आदमी दूसरे से लेना नहीं चाहता। 106 For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोग सलाह लेते नहीं हैं, देते हैं । अभी मेरे सिर पर फोड़ा हो गया है । आपको पता है अब तक मुझे कितनी सलाह मिल चुकी है ? लगभग डेढ़ हजार । जिसकी भी इस पर नज़र पड़ती है अपनी बेशकीमती सलाह अवश्य दे देता है । हर आदमी दूसरे को सलाह दे रहा है। अरे भाई, जरा उसको भी तो अपनी सलाह को जी लेने दो। उसमें धैर्य होगा, सहनशीलता होगी, परिपक्वता होगी । शरीर जो अपना रासायनिक परिवर्तन कर रहा है, धैर्यपूर्वक उसे भी तो अवसर दो । मैं कहना चाहता हूं कि हर व्यक्ति के भीतर परिस्थितियों का सामना करने की क्षमता है । बस, जरूरत है केवल उस समझ और धैर्य की, जो आपको आपकी क्षमता की पहचान करवाए। 1 आत्मविश्वास हमें हमारे लक्ष्य निर्धारण में भी सहायता देता है । हर व्यक्ति का अपने जीवन का उन्नत लक्ष्य होना चाहिए। यदि आप अपने पूरे जीवन का लक्ष्य निर्धारित न भी कर पाएं, तब भी अपने हर नए वर्ष का लक्ष्य निर्धारित करें । यदि हर वर्ष का लक्ष्य निर्धारित न हो सके, तो आप अपने हर महीने का लक्ष्य निर्धारित करें। संभव है महीने का लक्ष्य भी निर्धारित न हो पाए, तो आप अपने हर सप्ताह का लक्ष्य निर्धारित करें। यदि सप्ताह भी ज्यादा लगे, तो आप अपने हर दिन का लक्ष्य बनाएं। न केवल लक्ष्य बनाएं वरन् उसे पूरा करने के लिए पूरी मेहनत भी करें । हमारा आत्मविश्वास हमें हमारे निर्णय करने की क्षमता प्रदान करता है । अपने जीवन में तत्काल निर्णय करने की क्षमता केवल उन्हीं लोगों में हुआ करती है, जिनका अपनी सोच, दिमाग और अपनी क्षमता पर विश्वास होता है । इंटरव्यू में उपस्थित हुए एक युवक से यह पूछा गया कि 'तुमने अपने जूते दरवाजे के दाईं ओर खोले हैं या बाईं ओर ? जवाब मिला, 'बाईं ओर । पूछा गया, 'तुम्हारी कमीज पर बटन कितने हैं' तत्काल जवाब मिला, 'करीब पांच-छः' । कंपनी के मालिक ने पूछा, 'जरा यह बताओ यदि तुम्हारी कमीज का ऊपर का बटन टूट जाए, तो तुम क्या करोगे?' युवक का जवाब था, 'नीचे का बटन निकाल कर ऊपर लगवा दूंगा।' मालिक ने पूछा, 'अगर एक बटन और टूट जाए तो ?' 107 For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवक ने कहा, 'मैं नीचे का एक और बटन निकाल कर ऊपर लगवा दूंगा और कमीज के निचले हिस्से को पेंट के भीतर डाल लूंगा।' मालिक ने तत्काल पूछा, 'अगर एक और बटन टूट जाए तो?' युवक ने बिना किसी झिझक के तत्काल जवाब दिया, 'सर, ऐसी स्थिति में मैं सारे बटन बदल लेना पसंद करूंगा।' कंपनी मालिक ने युवक को देखा। उसकी आंखों में नज़र आ रहे आत्मविश्वास को निहारा। मालिक ने मुस्कराते हुए कहा, 'कल से तुम अपनी सर्विस ज्वाइन कर लो।' बातचीत तो साधारण-सी थी, लेकिन किसी भी आदमी की पहचान महज़ उसकी डिग्री से नहीं, वरन् उसके विश्वास और उसकी प्रस्तुति से हुआ करती है। आप अपनी मानसिक शक्ति को पहचानिए। यदि आपको लगता है कि आपके भीतर सफलता प्राप्त करने की तमन्ना है, पर उसे प्राप्त करने के लिए जो विश्वास और हिम्मत चाहिए, तो मैं कहूंगा कि आप आत्मविश्वास प्राप्त करने के बुनियादी उसूलों को अपनाएं, तो आपके जीवन में ओजस्विता का संचार होगा। आपका आभामंडल आपकी सफलता में मददगार बनेगा। प्रश्न है, क्या करें हम आत्मविश्वास के लिए? मैं इस संदर्भ में छोटे-छोटे पांच-सात सूत्र दूंगा, जिन्हें आप अपने जेहन में इस तरह उतर जाने दें कि आपके जीवन में कोई चमत्कार साबित कर सके। आत्मविश्वास जाग्रत करने का पहला मूल मंत्र है कि आप अपनी हीनभावना पर विजय प्राप्त करें। अपनी योग्यताओं पर विश्वास करें। अपनी क्षमताओं पर भरोसा करें। अपने बारे में आपके मन में जो गलत धारणाएं बन चुकी हैं, उन्हें निकाल फेंकिए। बड़े-बुजुर्गों को चाहिए कि वे अपने बच्चों को इस तरह का कोई शब्द न कहें, जिससे उनके मन में हीनभावना घर कर जाए। आप नहीं जानते कि मज़ाक में ही सही, आपके द्वारा कहे गए शब्द आपके बच्चे के मन को दुष्प्रभावित कर डालते हैं। अकसर हर पिता अपने बच्चे से कहा करता है कि तुझमें अक्ल नहीं है। तू पूरा लल्लू है। अथवा कहेंगे 'मुझे पहले से पता था कि तू ऐसा ही करेगा, नालायक कहीं का' अथवा कहेंगे कि 'तू निरा भोंदू है, तू कुछ कर सके ऐसी उम्मीद ही नहीं की जा सकती। ये 108 For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब वे शब्द हैं, जो आपकी ओर से मजाक या गुस्से में कहे गए होंगे, लेकिन यही शब्द बच्चे के विश्वास को कुंठित कर डालते हैं। हम ऐसे शब्द न कहें कि जिनसे बच्चे का मन टूट जाए। गलती भला किससे नहीं होती। दुनिया में आखिर पूर्ण कोई नहीं है। तुम्हारी समझदारी इसी में है कि तुम ऐसे शब्द कहो कि उसे उसकी गलती का एहसास अवश्य करवाए, पर उसे ऐसा भी प्रोत्साहन मिले कि जिससे वह उस गलती को दोबारा न दोहराए। न तो अपने आपको जाति से हीन मानें, न ही गरीब होने के कारण अपने आपको तुच्छ समझें और न ही विकलांग या कुरूप होने के कारण अपने आपको अयोग्य मानें। देश के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री गरीब घर में पैदा हुए थे। अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन भी जन्म से गरीब थे। भारत के यशस्वी और लोकप्रिय राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम इमली के बीजों को पंसारी की दुकान पर बेचा करते और पैसों से अपनी पाठ्य पुस्तकें खरीद कर पढ़ा करते। जिस व्यक्ति का राजनीति से जीवन भर कोई संबंध ही न रहा हो, आज वह व्यक्ति भारत का सरताज बना हुआ है। आखिर क्यों, और कैसे, नई पीढ़ी के लोग इस बिंदु पर सोचें और मनन करें। ___ यदि कोई आपको कालू और भोंदू कह कर आपकी उपेक्षा करता है, आप घबराइए मत। आप उसे अपने लिए चुनौती मानें। जो लोग अपने जीवन में चुनौतियों को स्वीकार करते हैं, वही लोग जीवन की ऊंचाइयों का स्पर्श किया करते हैं। आत्मविश्वास जाग्रत करने का दूसरा सूत्र ही यह है कि अपने जीवन में चुनौतियों को स्वीकार करना सीखिए। आइए, हम महाकवि कालिदास के जीवन से कुछ प्रेरणा लें। __ कालिदास अपने जीवन में भेड़-बकरियों को चराने वाले चरवाहा थे। एक दफा वे पेड़ की उस टहनी को काट रहे थे, जिस पर वे स्वयं बैठे थे। तभी उधर से एक ऐसे पंडित गुजरे, जो अपनी पुत्री से नाराज थे। उस व्यक्ति ने सोचा हुआ था कि मैं अपनी विदुषी बेटी का विवाह ऐसे किसी बुद्धू आदमी के साथ करूंगा कि मेरी बेटी 109 For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन भर याद करेगी। उस पंडित को लगा कि यह कालिदास बिल्कुल सही बुद्ध है। उसने अपनी बेटी का कालिदास से ब्याह कर दिया। कालिदास की पत्नी को जब कालिदास की निरक्षरता का अहसास हुआ, तो उसने अपने पति को यह लताड़ लगाते हुए कहा कि मुझे अपना चेहरा उस दिन दिखाना, जिस दिन तुम मेरे बराबर के ज्ञानी हो जाओ। कहते हैं कालिदास के लिए वे शब्द किसी चुनौती का काम कर गए। उनकी रूह कांप उठी, उन्होंने विद्यादायिनी मां सरस्वती की आराधना की, मन लगाकर अध्ययन किया और 'अभिज्ञान शाकुन्तलम' जैसे नाटक तथा 'मेघदूत' जैसे अमर काव्यों की रचना करके संसार में अमर हो गए। चुनौतियां आदमी के सोए हुए विश्वास और पौरुष को जगाती हैं। स्वयं मैं अपने ही जीवन की बात बताऊं, तो एक समय वह था जब मैं अपने जीवन का पहला प्रवचन देने के लिए खड़ा हुआ, तो कुछ लोगों ने यह कहते हुए मुंह के सामने से माइक हटा दिया कि यह बालक क्या बोलेगा। एक घड़ी वह थी, एक घड़ी यह है। मैंने संकल्प कर लिया था कि मुझे जिस क्षेत्र में चुनौती मिली है, मैं उस क्षेत्र में उस ऊंचाई का स्पर्श करूंगा कि जिसके सामने सारे शिखर बौने नज़र आएं। आत्मविश्वास जाग्रत करने का तीसरा बुनियादी मंत्र है- संकल्प कीजिए 'पुरुषार्थ जगाइए'। ध्यान रखिए, दुनिया में मुफ्त में कुछ नहीं मिलता। न चींटी को कण मिलता है, न हाथी को मण। कण पाने के लिए भी चींटी को कड़ी मेहनत करनी पड़ती है और मण पाने के लिए हाथी को सौ मण की मेहनत करनी पड़ती है। बेरोजगारी इसलिए नहीं है कि सरकार के पास देने के लिए नौकरी नहीं है। बेरोजगारी इसलिए है कि हम खुद काम करना नहीं चाहते। निकम्मापन ही बेरोजगारी को बढ़ावा देता है। आप अपनी इच्छा शक्ति को जागृत कीजिए और अपने भविष्य को अपने लिए चुनौती मानते हुए इस तरह प्रयत्नशील हो जाइए कि आने वाला कल आप पर गौरव कर सके। महान वह नहीं है जो महान कुल में पैदा हो, महान वह है जो महान कार्य करे। 110 For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं जानता हूं एक ऐसे युवक को जिसने दो कौड़ी के बटन से अपना व्यवसाय करना शुरू किया, लेकिन अपनी कड़ी मेहनत और आत्मविश्वास के चलते वह आज एक अधिसंपन्न व्यक्ति बन चुका है। जिस निरमा सर्फ का आज इतना प्रचार है, मैंने उसी व्यक्ति को हाथ ठेले पर अहमदाबाद की गलियों में सर्फ बेचते हुए देखा है। धीरूभाई अम्बानी से आज हर युवक अपने लिए प्रेरणा लेता है और अपने जीवन की कामयाबियों के लिए उन्हें अपना आदर्श मानता है। महाभारत का वह प्रसंग हम सभी लोग अपने लिए प्रेरणास्पद माने कि जहां अर्जुन गुरुकुल में अर्द्धरात्रि में अपने भाई को ढूंढने के लिए निकलते हैं । अर्जुन को पता होता है कि भीम भुक्खड़ प्रकृति का है, वह भोजन प्रिय है, सो वह सीधे उसे रसोईघर में ढूंढने पहुंच जाता है। अर्जुन यह देखकर आश्चर्य चकित हो जाता है कि जिस घुप्प अंधेरे में हाथ-को-हाथ दिखाई नहीं देता, उस अंधेरे में भीम बड़ी सहजता से भोजन कर रहा है। अर्जुन ने पूछा, 'तुम्हारे हाथ का कौर सीधा मुंह में जाता है या नाक में?' भीम का जवाब होता है, 'सीधा मुंह में।' अर्जुन पूछता है, 'आखिर इसका कारण क्या है कि चूक नहीं होती?' भीम ने कहा, 'रोज खाते-खाते अभ्यास हो गया है। यह सब कुछ निरंतर अभ्यास का ही परिणाम है।' अर्जुन को यह बात लग जाती है- “निरंतर अभ्यास!" तब अर्जुन अंधेरे में ही तीर चलाकर लक्ष्य-संधान करना शुरू कर देता है। अंधेरे की बिसात ही क्या, जो अर्जुन के लक्ष्य-संधान को रोक सके। बस, चाहिए निरंतर अभ्यास, प्रयत्न और पुरुषार्थ। ____ आत्मविश्वास जाग्रत करने के लिए अपने डर और दब्बू पन का त्याग करें। जीवन में डरने जैसी कोई चीज नहीं होती। याद रखें, मौत कभी दो बार नहीं आती, साथ ही यह भी कि वक्त से पहले कभी मौत नहीं आती। ईश्वर पर विश्वास रखें। वह सदा हमारे साथ होता है। जो लोग डंक के डर से मधुमक्खी के छत्ते के पास जाने से कतराते हैं, वे शहद पाने के कभी भी हकदार नहीं होते हैं। अंतिम बात जो कि आत्मविश्वास जगाने का सबसे कामयाब सूत्र है, वह यह कि अपने तन-मन में उत्साह और उमंग का संचार कीजिए। सुबह जैसे ही आपकी आंख खुले, कृपया एक मिनट तक बिस्तर पर 111 For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैठे-बैठे ही इतने तबीयत से मुस्कराइए कि आपका तन-मन उत्साह की बरखा से भीग उठे, आपकी रोमराजि खिल उठे। उत्साह-भाव से किया गया हर काम आदमी के लिए सुख का सेतु बन जाता है और निराश मन से किया गया काम कारागार की बेड़ी हो जाया करता है। अपनी जेब में हमेशा ऐसा सिक्का रखिए, जिसके दोनों तरफ खुशी ही खुशी हो। सिक्का चित्त पड़े तो भी खुश और पट पड़े तो भी खुश ही। चित्त की प्रसन्नता और उमंगता कम नहीं होनी चाहिए। उतार-चढ़ाव भला किसके जीवन में नहीं आते, पर सफल वे ही लोग होते हैं, जो हर परिस्थिति में गुलाब के फूल की तरह अपने आपको खिला हुआ रखते हैं। दिन में भी जब-तब अपने आप में उत्साह-भाव का संचार करते रहिए। चाहे सुबह हो या सांझ, सूरज उगे या ढले, पर उत्साह, उमंग और हमारी ऊर्जा बरकरार रहे। ज़रा प्यार से मुस्कराइए। हां, ऐसे ही। केवल अभी ही नहीं, हमेशा। जिंदगी में सदा मुस्कराते रहो, फासले कम करो, दिल मिलाते चलो। दर्द कैसा भी हो, आंखें नम न करो, रात काली सही, कोई गम न करो। इक सितारा बनो, जगमगाते रहो, फासले कम करो, दिल मिलाते चलो ॥ बांटना है, अगर बांट लो हर खुशी, गम न ज़ाहिर करो तुम किसी से कभी। दिल की गहराई में गम छिपाते रहो, फासले कम करो, दिल मिलाते चलो ॥ अश्क अनमोल है, खो न देना कहीं. इसकी हर बूंद है मोतियों की कड़ी। इसको हर आंख से तुम चुराते रहो, फासले कम करो, दिल मिलाते चलो ॥ फासले कम करो, दिल मिलाते चलो, फासले कम करो, दिल मिलाते चलो ॥ 112 For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय ललितप्रभ सागर चिंता, क्रोध और तनाव-मुक्ति के सरल उपाय -महोपाध्याय ललितप्रभ सागर चिंता, क्रोध और तनाव-मुक्ति के सरल उपाय प्रस्तुत पुस्तक 'चिंता, क्रोध और तनाव-मुक्ति के सरल उपाय' में मन की उलझनों को परत-दर-परत उघाड़ा गया है। इसमें तनाव, चिंता, क्रोध, अहंकार, प्रतिशोध और अवसाद जैसे मन के रोगों को न केवल पकड़ने की कोशिश की गई है, अपितु यह किताब उन रोगों का निदान भी करती है। इस किताब का हर पन्ना तनाव, घुटन और अवसाद से उबरने के लिए किसी टॉनिक का काम करता है। मधुर जीवन के लिए आवश्यक है कि हमारा मनोमस्तिष्क मधुर हो और मनुष्य ढोंग से जीने के बजाय ढंग से जीना सीख जाए। जीवन में तनाव और चिंता की चिता जला देनी चाहिए। ये हमारे शांति, सुख और सफलता के शत्रु हैं। आकार: 5.5" x 8.5"• पृष्ठ : 144 मूल्य : 100/- • डाकखर्च : 25/ For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरपूर जीवन जीने के momments * m ooreonseqeoVAINiswakotionosonk Naat शाश्वात नाराम भरपूर जीवन जीने के शाश्वत नियम -प्रेमकुमार शर्मा मपिया. दामोडीको स्थियों और महावों के र कथा एवं whim के पदस्थ शुभा मनीषियों, दार्शनिकों, तपस्वियों और महापुरुषों के अमर कथन एवं धर्मग्रंथों के उद्धरण। वर्तमान समय और समाज बहुत तेजी से बदल रहा है। सूचना, तकनीक और बाजार व्यवस्था ने मनुष्य की सम्पूर्ण जीवन शैली ही बदल दी है। चारों तरफ भाग-दौड़, होड़, प्रतिस्पर्धा और किसी भी तरह आगे बढ़ने और ऊंचा उठने की बेचैनी फैली हुई है। परिस्थितियां इतनी जटिल और उलझन-भरी हैं कि सहज, सरल और शान्तिपूर्ण जीवन जीने की तलाश निरंतर बनी रहती है। आज का आदमी इसी उधेड़-बुन में लगा है और चाहता है कि किसी भी तरह कुछ ऐसा किया जाए कि जीवन में सम्पूर्णता चली आए। इसी दृष्टि से यह पुस्तक तैयार की गई है। इसमें 25 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय जीवन के किसी-न-किसी पहलू से सम्बद्ध है और सभी अध्यायों में कुल मिलाकर 666 उद्धरण दिए गए हैं। ये महापुरुषों, मनीषियों, दार्शनिकों, विद्वानों और विचारकों के अमर वचन हैं। इसी के साथ महान् ग्रंथों से कालजयी सूक्तियां भी ली गई हैं। ये हर समय, काल, देश और दिशा में सदा-सदा से प्रचलित दिशा-निर्देश हैं, इसीलिए इन्हें शाश्वत नियम कहा गया है। * क्षमा व दया का भाव रखें * सोच-समझकर काम करें * कर्त्तव्य को कैसे पहचानें * विपत्ति काल में क्या करें * कटु न बोलें * सोच-समझकर बोलें * सुख-सुविधाओं का उपयोग कैसे करें * मित्रता किससे करें * किनसे संबंध रखें * लालच, क्रोध, ईर्ष्या और अहंकार का त्याग करें * पारिवारिक सम्बंधों में आपका व्यवहार कैसा हो * माता-पिता का संतान के प्रति कर्त्तव्य * संतान का उनके प्रति कर्त्तव्य इसी तरह के जीवन के अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों को पुस्तक में ढेरों शाश्वत नियमों के साथ दिया गया है, जिन्हें आत्मसात करके और बताए गए रास्तों पर चल कर हर कोई निश्चय ही भरपूर जीवन जी सकेगा। आकार : 5.5" x 8.5" • पृष्ठ : 144 मूल्य : 100/- • डाकखर्च : 25/ For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिाएँ तो श्री चन्द्रप्रभ जिएं तो ऐसे जिएँ - श्री चन्द्रप्रभ प्रतीक हासिकोमा लेकिन विवार तीवोamera Swome an aftestants. नही ngressme-mहै। पस्कम स्वस्थ और मधुर जीवन जीने का पहला और आखिरी मंत्र हैः सकारात्मक सोच। यह एक अकेला ऐसा मंत्र है, जिससे न केवल व्यक्तिगत और समाज की, वरन् समग्र विश्व की समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। यह सर्वकल्याण कारी महामंत्र है। कोई अगर पूछे कि मानसिक शांति और तनाव-मुक्ति की कीमिया दवा क्या है? तो सीधा-सा जवाब होगा-सकारात्मक सोच। मैंने अनगिनत लोगों पर इस मंत्र का उपयोग किया है और आज तक यह मंत्र कभी निष्फल नहीं हुआ। सकारात्मक सोच का अभाव ही मनुष्य की निष्फलता का मूल कारण है। मेरी शांति, संतुष्टि, तृप्ति और प्रगति का अगर कोई प्रथम पहलू है, तो वह सकारात्मक सोच ही है। सकारात्मक सोच ही मनुष्य का पहला धर्म हो और यही उसकी आराधना का बीज-मंत्र। सकारात्मक सोच का स्वामी सदा धार्मिक ही होता है। सकारात्मकता से बढ़कर कोई पुण्य नहीं और नकारात्मकता से बढ़कर कोई पाप नहीं; सकारात्मकता से बढ़कर कोई धर्म नहीं और नकारात्मकता से बढ़कर कोई विधर्म नहीं। - श्री चन्द्रप्रभ आकार: 5.5" x 8.5"• पृष्ठ : 136 मूल्य : 100/- • डाकखर्च : 25/ For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपका सफलता आपके हाथ आपकी सफलता आपके हाथ -संजीव मनोहर साहिल सफलता मिली की बपौतीही आप भी सफल बन सकते है mmen - Rana पर सफलता प्राप्त करने के लिए ज़बर्दस्त सतत प्रयत्न करो। प्रयत्नशील आत्मा कहती है कि मैं समुद्र पी जाऊंगी, मेरी इच्छा से पर्वत के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे। इस प्रकार की शक्ति एवं इच्छा रखो, कड़ा परिश्रम करो, तुम अपने उद्देश्य को निश्चित पा जाओगे। __ -स्वामी विवेकानंद आज की अर्थ-प्रधान व्यवस्था में यानी कारपोरेट कल्चर में चारों तरफ़ होड़ मची है। हर कोई सफल होना, उन्नति करना चाहता है, ताकि भीड़ में अपनी अलग पहचान बना सके। सफलता कभी खरीदी या कमाई नहीं जा सकती, बल्कि निरंतर बिना थके परिश्रम करके अर्जित की जाती है। सफल व्यक्ति ठोस धरातल पर सतर खड़ा होता है, मील के पत्थर की तरह, जिसे अपनी जगह से हिलाया नहीं जा सकता। वह अपने समय का प्रकाश स्तंभ और कीर्ति स्तंभ एक साथ होता है। ज़माना उससे रोशनी पाता है और उसके व्यक्तित्व की महिमा सब जानतेसुनते हैं। तो फिर इसके लिए कौन से प्रयत्न करें और अपने आपको कैसा बनाएं?... आइए, इसके लिए आज से ही शुरू हो जाएं। तलाशें अपने भीतर की तमाम कमियां और कमजोरियां। उन्हें एक-एक कर निकाल फेंकें। आप ऊर्जावान और सक्षम बनते चले जाएंगे। आप में दृढ़ संकल्प और आत्मविश्वास पैदा होता जाएगा। फिर आप चुनौतियों से मुकाबला करने के लिए हरदम तत्पर रहेंगे। ऐसे में अपना रास्ता आपको स्वयं मिलता जाएगा। आप सावधानी के साथ उस पर चलेंगे और मंजिल पर पहुंच जाएंगे। यही तो है सफलता का वह विज्ञान, जिसे आप ढूंढ़ रहे थे। मिला है, तो व्यवहार में लाएं, अपने को सफल बनाएं। आकार: 5.5" x 8.5"• पृष्ठ : 144 मूल्य : 80/- • डाकखर्च : 25/ For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव और दूरदर्शिता अनभव दूरदर्शिता -रोमी ‘उपमाश्री' शुक्र वाशाला के सहारे ही आप विधाम पशिलशिकोहीअनुकुल बलाकर सपाला की सजी उपल्या व्यक्ति को जीवन में कटु अनुभवों से गुजरने के कारण बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। गलत व्यक्ति से मिलने पर, किसी के दुर्व्यवहार से, अनेक तरह के दबावों और तनावों से, दुखों और विपत्तियों से दो-चार होने पर तथा शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति सजग न रहने से जो नुकसान होते हैं, उनकी भरपाई इन्हीं के बीच से हो जाती है और हमारे अनुभव अधिक गहन तथा व्यापक बनते चले जाते हैं। इसी प्रकार दूसरों के अनुभवों से, पुस्तकें पढ़ने से, भाषण व प्रवचन सुनने से हमें कुछ खर्च नहीं करना पड़ता, बल्कि हमारे अनुभव अधिक गहन और व्यापक बन जाते हैं और यही प्रक्रिया हमें दूरदर्शी बनाती है। * अनुभवी व्यक्ति अलग से ही पहचाने जाते हैं। दूरदर्शिता उनके व्यक्तित्व से झलकती है। वे हमेशा दृष्टांत बन जाया करते हैं तथा जल्दी निराश नहीं होते। उनमें दृढ़ता, साहस और आत्मविश्वास होता है। वे परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करते हैं। अनुभव विवेक को समृद्ध करते हैं और दूरदर्शिता सफलता को नए आयाम देती है। दोनों के संयोग से व्यक्ति में पूर्णता आती है। अनुभवों से सीखिए और अपने को दूरदर्शी बनाइए, फिर देखिए कि आपकी जिंदगी के रास्ते कितनी जल्दी आसान हो जाते हैं। * 'चलते-चलते' के अंतर्गत सभी विचार-बिंदु याद करें, उन पर अमल करें और अपने आपको क्षमतावान बनाएं। * इसमें दिए गए साक्षात्कार, भेटवार्ताएं और काउंसलिंग अधिक उपयोगी और प्रेरक हैं। अनेक जांच-टेस्ट भी इसमें हैं, जो अपने आपको जांचने के लिए हैं। अतः अच्छी तरह जांचें और स्वयं में सुधार लाएं। आकार : 5.5" x 8.5" • पृष्ठ : 128 मूल्य : 60/- • डाकखर्च : 25/ For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेंग्वेज बॉडी लैंग्वेज़ दह भापा -सत्यनारायण जांगिड़ सो Rai जीमा 44144किमी *Raat HARE A.RERARMA hsakasaram मिनी Hase. MarwaMEE Sxianam जब किसी भी स्त्री या पुरुष की भाव-भंगिमाएं चेतन मस्तिष्क द्वारा संचालित नहीं होतीं और उसे स्वयं आभास भी नहीं होता कि शरीर के अंग स्वतः ही हाव-भाव प्रदर्शित कर रहे हैं, तब हम उसकी इसी देह भाषा को पढ़कर उसके मनोभावों और व्यक्तित्व को जान सकते हैं। यह पुस्तक आपको इसी भाषा को विस्तार से सिखाने का व्यावहारिक उपक्रम है। इस मनोवैज्ञानिक विद्या को सीखकर आप किसी की भी चरित्रगत विशेषताओं, उसके व्यवहार और व्यक्तित्व तथा प्रोफेशन में उसकी दक्षता एवं विशेषज्ञता का पता लगा सकते हैं। आधुनिक जीवन शैली तथा उद्योग एवं व्यवसाय में देह भाषा को पढ़ने की कला सफलता और उन्नति के लिए एक कारगर औज़ार है। इस पुस्तक में आप पाएंगे* हाथों और कलाई की चेष्टाएं * विभिन्न अंगों के स्पर्श संकेत • पैरों की चेष्टाओं से प्रकट मनोभाव * हाथ मिलाने से व्यक्ति की परख * चेहरे और हाथों के संयुक्त संकेत * बैठने के ढंग से आभास * आंखों और होंठों की भाषा * झूठ बोलने को दर्शाती मुद्राएं * मन के भेद खोलते धूम्रपान के ढंग * प्रेम निमंत्रण के हाव-भाव * भोजन के समय की मुद्राएं * अस्वाभाविक चेष्टाओं के राज़ * लिखने के ढंग से व्यक्तित्व की परख * और भी बहुत से संकेत, चेष्टाएं और मुद्राएं, जो ढेरों रेखाचित्रों के माध्यम से निश्चय ही आपको देह भाषा का विशेषज्ञ बना देंगी। आकार: 5.5" x 8.5" • पृष्ठ : 144 मूल्य : 100/- • डाकखर्च : 25/ For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन के हारे हार मन के जीते "जीत तक महल मन के हारे हार मन के जीते जीत अस्थिर और चंचल मन को काबू में करके आप सुख, शांति और सफलता अवश्य प्राप्त कर सकते हैं। मन बड़ा चंचल होता है। इसे जीतना बड़ा कठिन है। जिसने इसे जीत लिया, वह जीवन हो या व्यवसाय, दोनों में ही विजेता है। - एक कथन - उमेश कुमरावत सभी इंद्रियों पर मन का काबू होता है। मन के अस्थिर और चंचल होने पर ये इंद्रियां बेकाबू हो जाती हैं, जिससे व्यक्ति अपना संतुलन खो देता है, फिर तो जीवन का कुछ भी सहज नहीं रह पाता, सब कुछ बिखर जाता है । प्रकृति ने मन को सर्वोपरि स्थान दिया है । अतः जिसने मन को जीत लिया, वह कहीं भी, कभी भी हताश नहीं होता । मन ही एक ऐसा संवेग है, जो व्यक्ति को ऊर्जा प्रदान करता है और इसी से उसका शरीर संचालित होता है, ताकि वह जीवन और जगत के समूचे कार्य-व्यापार कर पाए। इसीलिए अध्यात्म में भी और मनोविज्ञान में भी मन को ही साधने और उसे स्वस्थ बनाने पर बल दिया गया है। तभी तो कहा है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा । आपने यदि मन को जीत लिया, तो यह तय है कि आप दुनिया की हर कठिनाई, हर संकट को आसानी से जीत लेंगे और अपने लिए सुख के सामान जुटा लेंगे। इसी से आपकी सकारात्मक सोच विकसित होगी, रचनात्मक समझ आपको मार्ग दिखाएगी और हर क्षेत्र में आप परस्पर सहअस्तित्व के साथ आगे बढ़ सकेंगे और फिर पाएंगे कि कामयाबी आपके चरण चूम रही है । यदि आपके जीवन में अभाव है, क्षमताओं में कमी है, रुचियों में खलल पड़ रहा है, आप बेचैन हैं, जिससे योग्यताओं पर असर पड़ रहा है, जीवनचर्या में व्यवधान और विसंगति है, तो अपने आपको संभालें, मन को मज़बूत बनाएं, फिर फैसले करें। तब निश्चय ही सफल होंगे और यह मानी हुई बात है कि सफल व्यक्ति ही सदा सुखी रहते हैं । आकार : 5.5 " x 8.5" • पृष्ठ: 128 मूल्य : 80/- • डाकखर्च : 25/ For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्य बनाएँ सफलता पाएँ लक्ष्य पूरा करने के लिए अपनी समस्त शक्तियों द्वारा परिश्रम करना पुरुषार्थ है। महावीर और बुद्ध, राम और रहीम, मीरा और मंसूर जैसे अवतार पुरुषों का भी एक लक्ष्य था, उसी तरह आइंस्टीन और एडीसन, शेक्सपीयर और मैक्समूलर, नोबल और नेलसन ने भी अपने जीवन में महान लक्ष्य बनाए और संपूर्ण पुरुषार्थ के साथ उसे प्राप्त करने में जुट गए। उन्होंने हर हाल में सफलता प्राप्त की और वे शिखर-पुरुष बन गए। वास्तव में यह पुस्तक लक्ष्य यानी मंज़िल के निकट से निकटतर ले जाने के तमाम रास्ते बताती है और रास्तों में आने वाली सभी कठिनाइयों को दूर करने के तरीके भी बताती है / यह एक ऐसी मार्गदर्शिका, ऐसी सहयात्री है, जो आपकी उंगली पकड़ कर सफलता की ओर ले जाती है। ___पुस्तक में लक्ष्य-प्राप्ति के कुछ सहायक चरण भी बताए गए हैं। पहले चरण में मन के बोझ को उतार फेंकने की सलाह दी गई है, यानी हर तरह के दबाव और तनाव से मुक्त हो जाएँ। दूसरे चरण में दूसरों के दिलों पर राज करने और तीसरे चरण में प्रतिक्रियाओं से परहेज करने का मशवरा दिया गया है, जिससे आप में शांति, उत्साह और आनंद बरकरार रह सके। चौथे चरण में कहा गया है कि भय का भूत शरीर और मन को खा जाता है और निष्क्रिय बना देता है। अत: इससे पीछा छुड़ाना अनिवार्य है। अगले पाँचवेंऔर छठे चरण में स्वस्थ सोच को अपनाने और जीवन-दृष्टिको सकारात्मक बनाने का परामर्श है / आत्मविश्वास को जीवन का सहकारी मित्र बनाने की प्रेरणा देते हुए श्री चन्द्रप्रभ ने हमें यही संदेश दिया है कि जो इन चरणों से गुजर गया, मानो वह अपना लक्ष्य पा गया। 9059 D ISBN978-81-223-0920-1 Rs 100/ पुस्तक महल दिल्ली * मुंबई * बेंगलुरू * पटना * हैदराबाद www.pustakmahal.com 9788122||309201|| For Personal & Private Use Only