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उधेड़बुन ही चिंता है। ठाली या निकम्मा बैठा आदमी चिंता ही करेगा। दुखों से मुक्त रहना चाहते हो, तो स्वयं को सदा व्यस्त रखो।
कहते हैं कि चर्चिल को अठारह घंटे काम करना पड़ता था। किसी ने पूछा, 'इतनी जिम्मेदारियों से क्या आपको चिंता नहीं होती?' चर्चिल ने जवाब दिया, 'मेरे पास इतना समय ही कहां है कि मैं चिंता करूं?'
व्यस्तता चिंता से मुक्त होने का पहला मंत्र है। ठाली बैठा आदमी सौ तरह की चिंताएं पालता है। कभी धन के बारे में, कभी पत्नी के बारे में, कभी बच्चों के बारे में, कभी दोस्त-दुश्मन के बारे में। आदमी चाहे-अनचाहे अपने साथ इन चिंताओं को ढोता रहता है। वह अगर अपने वर्तमान की चिंता करे, तो शायद कुछ बात भी बने, मगर वह या तो अतीत के बारे में सोचता है या भविष्य के विषय में। जो व्यक्ति भूतकाल के बारे में सोचता है, वह भूत ही हो जाता है। जो बीत चुका, सो बीत चुका। बीता हुआ समय और बीती हुई बातें लौटकर नहीं आने वाली हैं। रूठा हुआ देवता एक बार आपके प्रसाद चढ़ाने से प्रसन्न हो सकता है, मगर बीता हुआ वक्त आदमी की ज़िंदगी में कभी लौटकर नहीं आता। बीत गई, सो बात गई, तक़दीर का शिकवा कौन करे? जो तीर कमान से निकल चुका, उस तीर का पीछा कौन करे?
जब तक तीर तुम्हारी कमान में है, तब तक तुम उसके बारे में सोचो, विचारो, शायद बात बन जाए, लेकिन जो तीर कमान से छूट गया है, जो बात ज़बान से निकल गई है, जो घटना घट चुकी है, उसके बारे में क्या सोचना? पुराना हो जाने पर तो हम दीवार से कलेंडर तक उतार देते हैं, फिर किसी बात का दामन क्यों थामे बैठे रहें ? पर ऐसा ही होता है। कोई महानुभाव जब घर पर मिलने के लिए आता है, आधे घंटे तक आपस में बतियाते हैं और जब वह चला जाता है, तो हम बैठे-बैठे उसके बारे में सोचते हैं। आदमी गया, बात ख़त्म हो गई। तुम उस आदमी के जाने के बाद उसके बारे में बैठे-बैठे सोचते रहते हो, यही तो चिंता है। तुम तो आईना बनो, एक दर्पण बनो कि कोई आया और तुम बोल उठे। वह हटा, आईना साफ़। आईना पहले भी साफ था, बाद में भी साफ़ रहा।
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