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जाता है। तब आदमी निरंतर भय का ही चिंतन करता है। वह इहलोक और परलोक के भय से ग्रस्त रहता है, वह मृत्यु और वेदना के भय से ग्रस्त रहता है। इसने मुझे ऐसा कह दिया, यह मुझे ऐसा कह देगा, आदमी इन्हीं कल्पनाओं में विचरण कर भयग्रस्त होता रहता है।
भय, डर, खौफ़ को दूर करने के लिए हम अपने सोए पौरुष को जगाएं। जीवन में महाभारत का वातावरण बनना स्वाभाविक है, मनुष्य के रूप में किसी भी अर्जुन का विचलित होना भी नैसर्गिक है। हार उसी समय हमारे हाथ में चली आती है, जैसे ही हम किसी भी शंका-आशंका से घिर जाते हैं। वहीं जैसे ही सामना करने का साहस लौट आता है, जीत बिन मांगे ही झोली में चली आती है। भय मात्र मन की दुर्बलता है। हम जीवन में साहस, शौर्य, ऊर्जा, उत्साह का संचार करें, सचमुच अगले ही पल आप बहादुर और शक्तिवान बन चुके होंगे। निरपेक्ष रहें निंदा के भय से आदमी को एक और जो सबसे बड़ा भय सताता है, वह है निंदा का भय, लोक-लाज का भय । वह डरता है कि समाज में उसकी निंदा न हो जाए, अगर मैंने ऐसा कर लिया, तो लोग क्या कहेंगे? इसीलिए तो आदमी पाप हमेशा छिपकर करता है और पुण्य हमेशा खुलकर। वह सोचता है कि खुलेआम पुण्य करने से उसकी स्तुति होगी, अभिनंदन होगा। पाप छिपकर करता है कि कहीं कोई देख न ले, जबकि मैं यह कहना चाहूंगा कि आदमी एक दफा पाप भले ही सरेआम कर ले, पर पुण्य सदैव छिपाकर करे। किए हुए पाप को सरेआम स्वीकार कर लिया, तो पाप का प्रायश्चित हो गया। छिपकर करने से पाप दोगुना हो जाएगा। ज़हर चाहे छिपकर पियो या सबके सामने, वह अपना असर तो दिखाएगा ही।
अच्छा होगा कि आदमी पुण्य छिपकर करे, ताकि पुण्य का स्तुतिगान न हो, वह हमारा कीर्तिमान न बने वरन पुण्य भी हमारे जीवन के उद्धार का आधार बन जाए। इसी तरह दान देना हो, तो इस हाथ से दो और उस हाथ को पता भी न चले। किसी की सेवा करो तो इस हाथ से करो, उस हाथ को पता न चले। अभी दो दिन
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