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आपने पाया होगा कि जैसे ही बच्चा रोता है, मां उसे छाती से लगाती है। प्रेम का संवेग उठा, उसकी पूर्ति हुई, बच्चा शांत हो गया। बच्चा सोया हुआ था कि तभी आपके हाथ से गिलास छूट गया, ज़ोर की आवाज़ हुई, बच्चा चौंक उठा, रो पड़ा। यह मनुष्य के भय का संवेग हुआ। आपने बच्चे के हाथ से उसका खिलौना छीन लिया, अब देखो बच्चा किस तरह से हाथ-पांव पटकता है, किस तरह से छाती पीटता है। यह हुआ उसके क्रोध का संवेग। मनुष्य जन्म के साथ ही प्रेम, भय और क्रोध को लेकर आता है। हमारे अपने ही चित्त में प्रेम है, भय है और इसी में क्रोध है। भय से शक्ति का क्षय भय मनुष्य का सबसे बड़ा घातक शत्रु है। विश्वास और विकास दोनों ही इससे कुंठित हो जाते हैं। भय मानसिक कमजोरी है। मन दुर्बल हो जाए, तो शरीर भी दुर्बल हो जाता है। निर्भय मन स्वस्थ शरीर का आधार बनता है। रोग कटते हैं मनोबल और आत्मविश्वास के बूते पर। इसलिए भय से मुक्त होना स्वस्थ जीवन का सरलतम मंत्र है। जो किसी भी परिस्थिति में नहीं घबराते, वे भूत-बंगले से भी नहीं घबराते। जो भयभीत हैं, वे अपने आस-पास हवा से हिल जाने वाले पत्तों से भी घबरा जाते हैं। इतना ही नहीं, तुम जैसे ही घबराते हो, तुम्हारी शक्ति का क्षय होना शुरू हो जाता है। तुम्हारा पाचन-तंत्र, हृदय-तंत्र भी असुंतलित हो उठते हैं। इसीलिए तो कहते हैं, मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। अब तक जो भी हारे हैं, कमजोर मन के कारण हारे हैं और जो भी जीते हैं, वे अपने मनोबल के कारण जीते हैं। कमजोर शरीर और बलवान मन तो चल जाएगा, पर बलवान शरीर और कमजोर मन कभी भी कारगर नहीं हो पाएंगे।
निर्भयता की बीन बजाएं अगर डरना है तो अपयश से डरो, पाप से डरो, और किसी से डरने की ज़रूरत नहीं। जब तक भय निकट न आया हो, तब तक ही उससे डरना चाहिए, पर आ जाने के बाद तो निःशंक होकर उस पर प्रहार कर देना चाहिए। तुम न मित्र से घबराओ, न परिवार से, न शत्रु
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