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अहिंसा की विजय 'हिंसा की रोकथाम' के नारों से नहीं होती। जीवन में हिंसा का आमूलचूल मिटाव करने से ही अहिंसा की विजय संभावित है। सम्राट अशोक कलिंग युद्ध में अपनी विजय के बाद तंबुओं में विजय का उत्सव मना रहा था। रात का घुप्प अंधेरा था, लेकिन अशोक के शामियानों में रोशनी जगमगा रही थी। तभी एक सेवक सम्राट अशोक के तंबू में प्रविष्ट हुआ
और कहा कि कोई बौद्ध भिक्षु आपसे इसी समय मिलना चाहता है। सम्राट ने अनुमति दे दी। भिक्षु ने कहा, 'सम्राट, आज विजय का उत्सव मनाया जा रहा है, लेकिन इस समारोह का उचित स्थान यह तंबू नहीं है। आप मेरे साथ चलिए, मैं आपको वहां ले चलता हूं, जहां विजय का असली उत्सव मनाया जाना चाहिए।' सम्राट अशोक भिक्षु के साथ चल दिए। भिक्षु सम्राट को कलिंग की रणभूमि में ले आया। युद्ध के प्रांगण में सम्राट को खड़ा करके भिक्षु ने कहा, 'सम्राट, तुम किसका विजय-उत्सव मना रहे हो? क्या इन अबलाओं के सिंदूर उजड़ जाने का, क्या इन बहनों का अपने भाइयों से सदा-सदा बिछुड़ जाने का, क्या इन माताओं की गोद सूनी हो जाने का? तुमने निर्दोष लोगों का क़त्ल करके उचित नहीं किया है।' भिक्षु की बात सम्राट सिर झुकाए सुनता रहा। भिक्षु ने कहा, 'सम्राट, यह सारी मानवता तुम्हें अपने शीश पर बैठाए रखना चहती है। यह तभी संभव है, जब तुम हिंसा न करो, अहिंसा की प्रतिमूर्ति बनो।' तब एक ऐसे सम्राट का जन्म हुआ, जिससे अहिंसा गौरवान्वित हुई। तब धरती पर वह अशोक प्रकट हुआ, जिसने शांति और अहिंसा के लिए अपनी सारी शक्ति, सारी संपदा का उपयोग किया। सम्राट अशोक अभय और अहिंसा का सम्राट कहलाया।
एक ओर है संत गर्दभिल्ल, तो दूसरी ओर है भिक्षु बोधिसत्व, एक तरफ़ है सम्राट संजय, तो दूसरी तरफ़ है सम्राट अशोक । सम्राट संजय ने जहां सदा-सदा के लिए शिकार को वर्जित कराया और समस्त निरीह प्राणियों के लिए अभयदान की घोषणा करवाई, वहीं सम्राट
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