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अभिधान राजेन्द्र कोष में,
सूक्ति-सुधारस
द्वितीय खण्ड
अ. रा. कोष
अ. रा. कोष
अ.रा. कोष
अ. रा. कोष
अ. रा. कोष
अ. रा. कोष
अ. रा. कोष
डॉ. प्रियदर्शनाश्री डॉ. सुदर्शनाश्री
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'विश्वपूज्य श्री' : जीवन-रेखा जन्म : ई. सन् 3 दिसम्बर 1827 पौष शक्ला सप्तमी राजस्थान की वीरभूमि एवं प्रकृति की सुरम्यस्थली भरतपुर में
जन्म-नाम : रत्नराज। माता-पिता : केशर देवी, पारख गौत्रीय श्री ऋषभदासजी दीक्षा : ई. सन् 1845 में श्रीमद् प्रमोदसूरिजीम. सा. की तारक निश्रा में झीलों की नगरी उदयपुर में।
अध्ययन : गुरु-चरणों में रहकर विनयपूर्वक श्रुताराधन ! व्याकरण, न्याय, दर्शन, काव्य, कोष, साहित्यादि का गहन अध्ययन एवं 45 जैनागमों का सटीक गंभीर अनुशीलन !
आचार्यपद : ई. सन् 1868 में आहोर (राज.)। क्रियोद्धार : ई. सन् 1869, वैशाख शुक्ला दसमी को जावरा (म. प्र.) तीर्थोद्धार : श्री भाण्डवपुर, कोरयाजी, स्वर्णगिरि जालोर एवं तालनपुर। नूतनतीर्थ-स्थापना : श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, जिला-धार (म. प्र.)। ध्यान-साधना के मुख्य केन्द्र : स्वर्णगिरि, चामुण्डवन व मांगीतुंगीपहाड़।
साहित्य-सर्जन : अभिधान राजेन्द्र कोष, पाइयसद्दम्बुहि, कल्पसूदार्थ प्रबोधिनी, सिद्धहैम प्राकृत टीकादि 61 ग्रन्थ ।।
विश्वपूज्य उपाधिः उनके महत्तम ग्रंथराज अभिधान राजेन्द्र कोष के कारण 'विश्वपूज्य' के पद पर प्रतिष्ठित हुए। दिवंगत : राजगढ़ जि. धार (म.प्र.) 21 दिसंबर 1906 ।।
समाधि-स्थल : उनका भव्यतम कलात्मक समाधिमंदिर मोहनखेड़ा (राजगढ़ म.प्र.) तीर्थ में देव-विमान के समान शोभायमान है। प्रति वर्ष लाखों श्रद्धालु गुरु-भक्त वहाँ दर्शनार्थ जाते हैं । मेला पौष-शुक्ला सप्तमी को प्रतिवर्ष लगता है। इस चमत्कारिक मंदिरजी में मेले के दिन अमी-केसर झरता है । लन्दन में जैन मंदिर में उनकी नव-निर्मित प्रतिमा लेटेस्टर में प्रतिष्ठित हैं । विश्वपूज्य प्रेम और करुणा के रूप में सबके हृदय-मंदिर में विराजमान हैं। विश्वपूज्य ने शिक्षा और समाजोत्थान के लिए सरस्वती-मंदिर, सांस्कृतिक उत्थान के लिए संस्कृति केन्द्र-मंदिर एवं ग्राम-ग्राम, नगर-नगर पैदल विहार कर अहिंसात्मक-क्रान्ति और नैतिक जीवन जीने के लिए मानवमात्र को अभिप्रेरित किया। विश्वपृज्य का जीवन ज्योतिर्मय था । उनका संदेश था - 'जीओ और जीने दो'- क्योंकि सभी प्राणी मैत्री के सूत्र में बंधे हुए हैं। 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' की निर्मल गंग-धारा प्रवाहित कर उन्होंने न केवल भारतीय संस्कृति की गरिमा बढ़ाई, अपितु विश्व-मानस को भगवान महावीर के अहिंसा
और प्रेम का अमृत पिलाया। उनकी रचनाएँ लोक-मंगल की अम हैं। उनका अभिधान राजेन्द्र को वि.आ....चे पणि उल हैं।
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82888888888888888888 विश्वपूज्य प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि शताब्दि-दशाब्दि
महोत्सव के उपलक्ष्य में द्वितीय खण्ड
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अभिधान राजेन्द्र कोष में, antra-मधास
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28805389893828
द्वितीय खण्ड
BYRONGRY BIRYDSREPUDERURYSTYRERUBrak
दिव्याशीष प्रदाता : परम पूज्य, परम कृपालु, विश्वपूज्य प्रभुश्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.
HASRANASANASANASASAURURURSASRSASRSASR
.
आशीषप्रदाता : राष्ट्रसन्त वर्तमानाचार्यदेवेश श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी म. सा.
प्रेरिका : प. पू. वयोवृद्धा सरलस्वभाविनी साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. सा.
लेखिका : साध्वी डॉ. प्रियदर्शनाश्री,
(एम. ए. पीएच-डी.) साध्वी डॉ. सुदर्शनाश्री,
(एम. ए. पीएच-डी.) SRIRSASRSASRSASRURSASA
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सुकृत सहयोगी मदनगंज-किशनगढ़ निवासी शाह श्री बुद्धसिंहजी श्री सुमेरसिंहजी, श्री पुखराजजी, श्री महावीरसिंहजी बेटा पोता धर्मेन्द्रकुमार महेन्द्रकुमार कर्नावट परिवार की तरफ से श्री पुरवराजजी कर्नाटक की धर्मपत्नी स्वर्गीया ।
श्रीमती छोटकुंवर एवं सुपुत्र स्वर्गीय श्री नरेन्द्रकुमार की पुण्य स्मृति में
प्राप्ति स्थान
श्री मदनराजजी जैन द्वारा - शा. देवीचन्दजी छगनलालजी
आधुनिक वस्त्र विक्रेता सदर बाजार, भीनमाल-३४३०२९ फोन : (०२९६९) २०१३२
प्रथम आवृत्ति वीर सम्वत् : २५२५
राजेन्द्र सम्वत् : ९२ विक्रम सम्वत् : २०५५ ईस्वी सन् : १९९८ मूल्य : ५०-०० प्रतियाँ : २०००
अक्षराङ्कन
लेखित १०, रूपमाधुरी सोसायटी, माणेकबाग, अहमदाबाद-१५
मुद्रण
सर्वोदय ओफसेट प्रेमदरवाजा बहार, अहमदाबाद.
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अनुक्रम
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83१. समर्पण - साध्वी प्रिय-सुदर्शनाश्री
२. शुभाकांक्षा - प.पू.राष्ट्रसन्त । श्रीमद्जयन्तसेनसूरीश्वरजी म.सा. ३. मंगलकामना - प.पू.राष्ट्रसन्त
श्रीमद्पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. ४. रस-पूर्ति - प.पू.मुनिप्रवर श्री जयानन्दविजयजी म.सा. ९ ५. पुरोवाक् - साध्वीद्वय डॉ. प्रिय-सुदर्शनाश्री ६. आभार - साध्वीद्वय डॉ. प्रिय-सुदर्शनाश्री ७. सुकृत सहयोगी -
श्रीमान् बुद्धसिंहजी पुखराजजी कर्णावट ८. आमुख - डॉ. जवाहरचन्द्र पटनी ९. मन्तव्य - डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी ___(पद्मविभूषण, पूर्वभारतीय राजदूत-ब्रिटेन) १०. दो शब्द - पं. दलसुखभाई मालवणिया
११. 'सूक्ति-सुधारस': मेरी दृष्टि में - डॉ. नेमीचंद जैन । १२. मन्तव्य - डॉ. सागरमल जैन
१३. मन्तव्य - पं. गोविन्दराम व्यास FEAT१४. मन्तव्य - पं. जयनंदन झा व्याकरण साहित्याचार्य कि १५. मन्तव्य - पं. हीरालाल शास्त्री एम.ए. १६. मन्तव्य - डॉ. अखिलेशकुमार राय
मन्तव्य - डॉ. अमृतलाल गाँधी १८. मन्तव्य - भागचन्द जैन कवाड, प्राध्यापक (अंग्रेजी) ३७
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Ccccccccccc: 88 १९. दर्पण
२०. 'विश्वपूज्य': जीवन-दर्शन २१. 'सूक्ति-सुधारस' (द्वितीय खण्ड) २२. प्रथम परिशिष्ट – (अकारादि अनुक्रमणिका) २३. द्वितीय परिशिष्ट - (विषयानुक्रमणिका) २४. तृतीय परिशिष्ट ___(अभिधान राजेन्द्रः पृष्ठ संख्या अनुक्रमणिका) २५. चतुर्थ परिशिष्ट - जैन एवं जैनेतर ग्रन्थः
गाथा/श्लोकादि अनुक्रमणिका २६. पंचम परिशिष्ट a ('सूक्ति-सुधारस' में प्रयुक्त संदर्भ-ग्रन्थ सूची)
२७. विश्वपूज्य प्रणीत सम्पूर्ण वाङ्मय २८. लेखिका द्वय की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ
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विश्वपूज्य प्रातःस्मरणीय प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.
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पू. राष्ट्रसन्त आचार्य श्रीमद्
विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी
म. सा.
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परम पूज्या सरलस्वभाविनी साध्वीरत्ना
श्री महाप्रभाश्रीजी म. सा.
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समर्पण
रवि-प्रभा सम है मुखश्री, चन्द्र सम अति प्रशान्त । तिमिर में भटके जनके, दीप उज्जवल कान्त ॥ १ ॥ लघुता में प्रभुता भरी, विश्व-पूज्य मुनीन्द्र । करुणा सागर आप थे, यति के बने यतीन्द्र ॥ २ ॥ लोक-मंगली थे कमल, योगीश्वर गुरुराज । सुमन-माल सुन्दर सजी, करे समर्पण आज ॥ ३ ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष, रचना रची ललाम । नित चरणों में आपके, विधियुत् करें प्रणाम ॥ ४ ॥ काव्य-शिल्प समझें नहीं, फिर भी किया प्रयास । गुरु-कृपा से यह बने, जन-मन का विश्वास ॥ ५ ॥ प्रियदर्शना की दर्शना, सुदर्शना भी साथ । राज रहे राजेन्द्र का, चरण झुकाते माथ ॥ ६ ।।
- श्री राजेन्द्रगुणगीतवेणु - श्री राजेन्द्रपदपद्मरेणु साध्वी प्रियदर्शनाश्री साध्वी सुदर्शनाश्री
ला
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| शुभाकाक्षा ।
विश्वविश्रुत है श्री अभिधान राजेन्द्र कोष । विश्व की आश्चर्यकारक घटना है ।
साधन दुर्लभ समय में इतना सारा संगठन, संकलन अपने आप में एक अलौकिक सा प्रतीत होता है। रचनाकार निर्माता ने वर्षों तक इस कोष प्रणयन का चिन किया, मनोयोगपूर्वक मनन किया, पश्चात् इस भगीरथ कार्य को संपादित करने का समायोजन किया ।
महामंत्र नवकार की अगाध शक्ति ! कौन कह सकता है शब्दों में उसकी शक्ति को । उस महामंत्र में उनकी थी परम श्रद्धा सह अनुरक्ति एवं सम्पूर्ण समर्पण के साथ उनकी थी परम भक्ति!
इस त्रिवेणी संगम से संकल्प साकार हुआ एवं शुभारंभ भी हो गया । १४ वर्षों की सतत साधना के बाद निर्मित हुआ यह अभिधान राजेन्द्र कोष ।
इसमें समाया है सम्पूर्ण जैन वाङ्मय या यों कहें कि जैन वाङ्मय का प्रतिनिधित्व करता है यह कोष । अंगोपांग से लेकर मूल, प्रकीर्णक, छेद ग्रन्थों के सन्दर्भो से समलंकृत है यह विराट्काय ग्रन्थ ।
इस बृहद् विश्वकोष के निर्माता हैं परम योगीन्द्र सरस्वती पुत्र, समर्थ शासनप्रभावक , सत्क्रिया पालक, शिथिलाचार उन्मूलक, शुद्धसनातन सन्मार्ग प्रदर्शक जैनाचार्य विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराजा ! __ सागर में रत्नों की न्यूनता नहीं । 'जिन खोजा तिन पाइयाँ' यह कोष भी सागर है जो गहरा है, अथाह है और अपार है। यह ज्ञान सिंधु नाना प्रकार की सूक्ति रत्नों का भंडार है। - इस ग्रन्थराज ने जिज्ञासुओं की जिज्ञासा शान्त की । मनीषियों की मनीषा में अभिवृद्धि की।
इस महासागर में मुक्ताओं की कमी नहीं । सूक्तियों की श्रेणिबद्ध पंक्तियाँ प्रतीत होती हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2.6
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प्रस्तुत पुस्तक है जन-जन के सम्मुख 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्तिसुधारस' (१ से ७ खण्ड) ।
मेरी आज्ञानुवर्तिनी विदुषी सुसाध्वी श्री डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं सुसाध्वीश्री डॉ. सुदर्शनाश्रीजी ने अपनी गुरुभक्ति को प्रदर्शित किया है इस 'सूक्ति-सुधारस' को आलेखित करके । गुरुदेव के प्रति संपूर्ण समर्पित उनके भाव ने ही यह अनूठा उपहार पाठकों के सम्मुख रखने को प्रोत्साहित किया है उनको ।
यह 'सूक्ति-सुधारस' (१ से ७ खण्ड) जिज्ञास जनों के लिए अत्यन्त ही सुन्दर है । 'गागर में सागर है' । गुरुदेव की अमर कृति कालजयी कृति है, जो उनकी उत्कृष्ट त्याग भावना की सतत अप्रमत्त स्थिति को उजागर करनेवाली कृति है । निरन्तर ज्ञान-ध्यान में लीन रहकर तपोधनी गुरुदेवश्री 'महतो महियान्' पद पर प्रतिष्ठित हो गए हैं, उन्हें कषायों पर विजयश्री प्राप्त करने में बड़ी सफलता मिली और वे बीसवीं शताब्दि के सदा के लिए संस्मरणीय परमश्रेष्ठ पुरुष बन गए हैं।
प्रस्तुत कृति की लेखिका डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी अभिनन्दन की पात्रा हैं, जो अहर्निश 'अभिधान राजेन्द्र कोष' के गहरे सागरमें गोते लगाती रहती हैं। 'जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पेठ' की उक्ति के अनुसार श्रम, समय, मन-मस्तिष्क सभी को सार्थक किया है श्रमणी द्वयने ।
मेरी ओर से हार्दिक अभिनंदन के साथ खूब-खूब बधाई इस कृति की लेखिका साध्वीद्वय को । वृद्धि हो उनकी इस प्रवृत्ति में, यही आकांक्षा ।
- विजय जयन्तसेन सूरि
राजेन्द्र सूरि जैन ज्ञानमंदिर अहमदाबाद दि. २९-४-९८ अक्षय तृतीया
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2.7
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| मंगल कामना
विदुषी डॉ. साध्वीश्री प्रिय-सुदर्शनाश्रीजीम. आदि अनुवंदना सुखसाता ।
आपके द्वारा प्रेषित 'विश्वपूज्य' (श्रीमद् राजेन्द्रसूरिः जीवन-सौरभ), 'अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस' (1 से 7 खण्ड) एवं 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका' की पाण्डुलिपियाँ मिली हैं । पुस्तकें सुंदर हैं । आपकी श्रृत भक्ति अनुमोदनीय है । आपका यह लेखनश्रम अनेक व्यक्तियों के लिये चित्त के विश्राम का कारण बनेगा, ऐसा मैं मानता हूँ । आगमिक साहित्य के चिंतन स्वाध्याय में आपका साहित्य मददगार बनेगा।
उत्तरोत्तर साहित्य क्षेत्र में आपका योगदान मिलता रहे, यही मंगल कामना करता हूँ।
उदयपुर
14.5-98
पद्मसागरसूरि श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
कोबा-382009 (गुज.)
_ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-208
अभिधान
पारस . खण्ड-2.8
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रस-पूर्ति
जिनशासन में स्वाध्याय का महत्त्व सर्वाधिक है । जैसे देह प्राणों पर आधारित है वैसे ही जिनशासन स्वाध्याय पर । आचार - प्रधान ग्रन्थों में साधु के लिए पन्द्रह घंटे स्वाध्याय का विधान है । निद्रा, आहार, विहार एवं निहार का जो समय है वह भी स्वाध्याय की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए है अर्थात् जीवन पूर्ण रूप से स्वाध्यायमय ही होना चाहिए ऐसा जिनशासन का उद्घोष है । वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा इन पाँच प्रभेदों से स्वाध्याय के स्वरूप को दर्शाया गया है, इनका क्रम व्यवस्थित एवं व्यावहारिक है ।
-
श्रमण जीवन एवं स्वाध्याय ये दोनों दूध में शक्कर की मीठास के समान . एकमेक हैं। वास्तविक श्रमण का जीवन स्वाध्यायमय ही होता है । क्षमाश्रमण का अर्थ है 'क्षमा के लिए श्रम रत' और क्षमा की उपलब्धि स्वाध्याय से ही प्राप्त होती है । स्वाध्याय हीन श्रमण क्षमाश्रमण हो ही नहीं सकता । श्रमण वर्ग आज स्वाध्याय रत हैं और उसके प्रतिफल रूप में अनेक साधु-साध्वी आगमज्ञ बने हैं ।
प्रातः स्मरणीय विश्व पूज्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा ने अभिधान राजेन्द्र कोष के सप्त भागों का निर्माण कर स्वाध्याय का सुफल विश्व को भेंट किया है ।
उन सात भागों का मनन चिन्तन कर विदुषी साध्वीरत्नाश्री महाप्रभाश्रीजीम. की विनयरत्ना साध्वीजी श्री डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. श्री सुदर्शनाश्रीजी ने अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस" को सात खण्डों में निर्मित किया हैं जो आगमों के अनेक रहस्यों के मर्म से ओतप्रोत हैं ।
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साध्वी द्वय सतत स्वाध्याय मग्ना हैं, इन्हें अध्ययन एवं अध्यापन का इतना रस है कि कभी-कभी आहार की भी आवश्यकता नहीं रहती । अध्ययनअध्यापन का रस ऐसा है कि जो आहार के रस की भी पूर्ति कर देता है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-209
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'सूक्ति सुधारस' (१ से ७ खण्ड) के माध्यम से इन्होंने प्रवचनसेवा, दादागुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा के वचनों की सेवा, तथा संघ-सेवा का अनुपम कार्य किया है।
'सूक्ति सुधारस' में क्या है ? यह तो यह पुस्तक स्वयं दर्शा रही है। पाठक गण इसमें दर्शित पथ पर चलना प्रारंभ करेंगे तो कषाय परिणति का ह्रास होकर गुणश्रेणी पर आरोहण कर अति शीघ्र मुक्ति सुख के उपभोक्ता बनेंगे; यह निस्संदेह सत्य है।
___ साध्वी द्वय द्वारा लिखित ये 'सात खण्ड भव्यात्मा के मिथ्यात्वमल को दूर करने में एवं सम्यग्दर्शन प्राप्त करवाने में सहायक बनें, यही अंतराभिलाषा.
भीनमाल वि. संवत् २०५५, वैशाख वदि १०
मुनि जयानंद
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2010
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लगभग दस वर्ष पूर्व जालोर - स्वर्णगिरितीर्थ - विश्वपूज्य की साधना स्थली पर हमनें 36 दिवसीय अखण्ड मौनपूर्वक आयम्बिल व जप के साथ आराधना की थी, उस समय हमारे हृदय-मन्दिर में विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी गुरुदेव श्री की भव्यतम प्रतिमा प्रतिष्ठित हुई, जिसके दर्शन कर एक चलचित्र की तरह हमारे नयन-पट पर गुरुवर की सौम्य, प्रशान्त, करुणाई और कोमल भावमुद्रा सहित मधुर मुस्कान अंकित हो गई । फिर हमें उनके एक के बाद एक अभिधान राजेन्द्र कोष के सप्त भाग दिखाई दिए और उन ग्रन्थों के पास एक दिव्य महर्षि की नयन रम्य छवि जगमगाने लगी। उनके नयन खुले और उन्होंने आशीर्वाद मुद्रा में हमें संकेत दिए ! और हम चित्र लिखितसी रह गईं । तत्पश्चात् आँखें खोली तो न तो वहाँ गुरुदेव थे और न उनका कोष । तभी से हम दोनों ने दृढ़ संकल्प किया कि हम विश्वपूज्य एवं उनके द्वारा निर्मित कोष पर कार्य करेंगी और जो कुछ भी मधु-सञ्चय होगा, वह जनता-जनार्दन को देंगी ! विश्वपूज्य का सौरभ सर्वत्र फैलाएंगी। उनका वरदान हमारे समस्त ग्रन्थ-प्रणयन की आत्मा है ।।
16 जून, सन् 1989 के शुभ दिन 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में, 'सूक्तिसुधारस' के लेखन -कार्य का शुभारम्भ किया ।
वस्तुतः इस ग्रन्थ-प्रणयन की प्रेरणा हमें विश्वपूज्य गुरुदेवश्री की असीम कृपा-वृष्टि, दिव्याशीर्वाद, करुणा और प्रेम से ही मिली है। ___'सूक्ति' शब्द सु + उक्ति इन दो शब्दों से निष्पन्न है । सु अर्थात् श्रेष्ठ
और उक्ति का अर्थ है कथन । सूक्ति अर्थात् सुकथन । सुकथन जीवन को सुसंस्कृत एवं मानवीय गुणों से अलंकृत करने के लिए उपयोगी है । सैकड़ों दलीलें एक तरफ और एक चुटैल सुभाषित एक तरफ । सुत्तनिपात में कहा
'विश्चात सारानि सुभासितानि' सुभाषित ज्ञान के सार होते हैं । दार्शनिकों, मनीषियों, संतों, कवियों तथा साहित्यकारों ने अपने सद्ग्रन्थों में मानव को जो हितोपदेश दिया है तथा सुत्तनिपात - 2216
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2011
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महर्षि-ज्ञानीजन अपने प्रवचनों के द्वारा जो सुवचनामृत पिलाते हैं - वह संजीवनी औषधितुल्य है।
निःसंदेह सुभाषित, सुकथन या सूक्तियाँ उत्प्रेरक, मार्मिक, हृदयस्पर्शी, संक्षिप्त, सारगर्भित अनुभूत और कालजयी होती हैं । इसीकारण सुकथनों । सूक्तियों का विद्युत्-सा चमत्कारी प्रभाव होता है । सूक्तियों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए महषि वशिष्ठ ने योगवाशिष्ठ में कहा है - "महान् व्यक्तियों की सूक्तियाँ अपूर्व आनन्द देनेवाली, उत्कृष्टतर पद पर पहुँचानेवाली और मोह को पूर्णतया दूर करनेवाली होती हैं।"1 यही बात शब्दान्तर में आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में कही है – “मनुष्य के अन्तर्हृदय को जगाने के लिए, सत्यासत्य के निर्णय के लिए, लोक-कल्याण के लिए, विश्व-शान्ति और सम्यक् तत्त्व का बोध देने के लिए सत्पुरुषों की सूक्ति का प्रवर्तन होता है ।" 2।
सुवचनों, सुकथनों को धरती का अमृतरस कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। कालजयी सूक्तियाँ वास्तव में अमृतरस के समान चिरकाल से प्रतिष्ठित रही हैं और अमृत के सदृश ही उन्होंने संजीवनी का कार्य भी किया है । इस संजीवनी रस के सेवन मात्र से मृतवत् मूर्ख प्राणी, जिन्हें हम असल में मरे हुए कहते हैं, जीवित हो जाते हैं, प्राणवान् दिखाई देने लगते हैं। मनीषियों का कथन हैं कि जिसके पास ज्ञान है, वही जीवित है, जो अज्ञानी है वह तो मरा हुआ ही होता है। इन मृत प्राणियों को जीवित करने का अमृत महान् ग्रन्थ अभिधान-राजेन्द्र कोष में प्राप्त होगा । शिवलीलार्णव में कहा है - "जिस प्रकार बालू में पड़ा पानी वहीं सूख जाता है, उसीप्रकार संगीत भी केवल कान तक पहुँचकर सूख जाता है, किन्तु कवि की सूक्ति में ही ऐसी शक्ति है, कि वह सुगन्धयुक्त अमृत के समान हृदय के अन्तस्तल तक पहुंचकर मन को सदैव आह्लादित करती रहती है । 3 इसीलिए 'सुभाषितों का रस अन्य रसों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है ।' 4 अमृतरस छलकाती ये सूक्तियाँ
1.
अपूर्वाह्लाद दायिन्य: उच्चस्तर पदाश्रयाः । अतिमोहापहारिण्यः सूक्तयो हि महियसाम् ।।
योगवाशिष्ठ 5/4/5 प्रबोधाय विवेकाय, हिताय प्रशमाय च । सम्यक् तत्त्वोपदेशाय, सतां सूक्ति प्रवर्तते ॥
ज्ञानार्णव कर्णगतं शुष्यति कर्ण एव, संगीतकं सैकत वारिरीत्या । आनन्दयत्यन्तरतुप्रविष्य, सूक्ति कवे रेव सुधा सगन्धा ।। - शिवलीलार्णव नूनं सुभाषित रसोन्यः रसातिशायी – योग वाशिष्ठ 54/5
3.
4.
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2012
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अन्तस्तल को स्पर्श करती हुई प्रतीत होती है । वस्तुत: जीवन को सुरभित व सुशोभित करनेवाला सुभाषित एक अनमोल रत्न है ।
सुभाषित में जो माधुर्य रस होता है, उसका वर्णन करते हुए कहा है - "सुभाषित का रस इतना मधुर [मीठ] है कि उसके आगे द्राक्षा म्लानमुखी हो गई । मिश्री सूखकर पत्थर जैसी किरकिरी हो गई और सुधा भयभीत होकर स्वर्ग में चली गई ।" 1
अभिधान राजेन्द्र कोष की ये सूक्तियाँ अनुभव के 'सार' जैसी, समुद्र-मन्थन के 'अमृत' जैसी, दघि-मन्धन के 'मक्खन' जैसी और मनीषियों के आनन्ददायक 'साक्षात्कार' जैसी "लेखन में छोटे लगे, घाव करे गम्भीर" की उक्ति को चरितार्थ करती हैं । इनका प्रभाव गहन हैं । ये अन्तर ज्योति जगाती हैं।
वास्तव में, अभिधान राजेन्द्र कोष एक ऐसी अमरकृति है, जो देशविदेश में लोकप्रियता प्राप्त कर चुकी है। यह एक ऐसा विराट् शब्द-कोष है, जिसमें परम मधुर अर्धमागधी भाषा, इक्षुरस के समान पुष्टिकारक प्राकृतभाषा और अमृतवर्षिणी संस्कृत भाषा के शब्दों का सरस व सरल निरुपण हुआ है।
. विश्वपूज्य परमाराध्यपाद मंगलमूर्ति गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्र-सूरीश्वरजी महाराजा साहेब पुरातन ऋषि परम्परा के महामुनीश्वर थे, जिनका तपोबल एवं ज्ञान-साधना अनुपम, अद्वितीय थी। इस प्रज्ञामहर्षि ने सन् 1890 में इस कोष का श्रीगणेश किया तथा सात भागों में 14 वर्षों तक अपूर्व स्वाध्याय, चिन्तन एवं साधना से सन् 1903 में परिपूर्ण किया । लोक-मङ्गल का यह कोष सुधासिन्धु है।
इस कोष में सूक्तियों का निरुपण-कौशल पण्डितों, दार्शनिकों और साधारण जनता-जनार्दन के लिए समान उपयोगी है। .
इस कोष की महनीयता को दर्शाना सूर्य को दीपक दिखाना है ।
हमने अभिधान राजेन्द्र कोष की लगभग 2700 सूक्तियों का हिन्दी सरलार्थ प्रस्तुत कृति 'सूक्ति सुधारस' के सात खण्डों में किया है । ... 'सूक्ति सुधारस' अर्थात् अभिधान राजेन्द्र-कोष-सिन्धु के मन्थन से निःसृत अमृत-रस से गूंथा गया शाश्वत सत्य का वह भव्य गुलदस्ता है, जिसमें 2667 सुकथनों/सूक्तियों की मुस्कराती कलियाँ खिली हुई हैं।
ऐसे विशाल और विराट कोष-सिन्धु की सूक्ति रूपी मणि-रत्नों को 1. द्राक्षाम्लानमुखी जाता, शर्करा चाश्मतां गता,
सुभाषित रसस्याग्रे, सुधा भीता दिवंगता ॥ ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2013
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खोजना कुशल गोताखोर से सम्भव है। हम निपट अज्ञानी हैं - न तो साहित्यविभूषा को जानती हैं, न दर्शन की गरिमा को समझती हैं और न व्याकरण की बारीकी समझती हैं, फिर भी हमने इस कोष के सात भागों की सूक्तियों को सात खण्डों में व्याख्यायित करने की बालचेष्टा की है। यह भी विश्वपूज्य के प्रति हमारी अखण्ड भक्ति के कारण । हमारा बाल प्रयास केवल ऐसा ही है -
वक्तुं गुणान् गुण समुद्र ! शशाङ्ककान्तान् । कस्ते क्षमः सुरगुरु प्रतिमोऽपि बुद्ध्या कल्पान्त काल पवनोद्धत नक्र चक्रं ।
को वा तरीतुमलमम्बुनिधि भुजाभ्याम् ॥ हमने अपनी भुजाओं से कोष रूपी विशाल समुद्र को तैरने का प्रयास केवल विश्व-विभु परम कृपालु गुरुदेवश्री के प्रति हमारी अखण्ड श्रद्धा और प.पू. परमाराध्यपाद प्रशान्तमूर्ति कविरत्न आचार्य देवेश श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. तत्पट्टालंकार प. पूज्यपाद साहित्यमनीषी राष्ट्रसन्त श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराजा साहेब की असीमकृपा तथा परम पूज्या परमोपकारिणी गुरुवर्या श्री हेतश्रीजी म.सा. एवं परम पूज्या सरलस्वभाविनी स्नेह-वात्सल्यमयी साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. सा. [हमारी सांसारिक पूज्या दादीजी] की प्रीति से किया है। जो कुछ भी इसमें हैं, वह इन्हीं पञ्चमूर्ति का प्रसाद है।
हम प्रणत हैं उन पंचमूर्ति के चरण कमलों में, जिनके स्नेह-वात्सल्य व आशीर्वचन से प्रस्तुत ग्रन्थ साकार हो सका है। ___ हमारी जीवन-क्यारी को सदा सींचनेवाली परम श्रद्धेया [हमारी संसारपक्षीय दादीजी] पूज्यवर्या श्री के अनन्य उपकारों को शब्दों के दायरे में बाँधने में हम असमर्थ हैं । उनके द्वारा प्राप्त अमित वात्सल्य व सहयोग से ही हमें सतत ज्ञान-ध्यान, पठन-पाठन, लेखन व स्वाध्यायादि करने में हरतरह की सुविधा रही है। आपके इन अनन्त उपकारों से हम कभी भी उऋण नहीं हो सकतीं।
हमारे पास इन गुरुजनों के प्रति आभार प्रदर्शन करने के लिए न तो शब्द है, न कौशल है, न कला है और न ही अलंकार ! फिर भी हम इनकी करुणा, कृपा और वात्सल्य का अमृतपान कर प्रस्तुत ग्रंथ के आलेखन में सक्षम बन सकी हैं।
हम उनके पद-पद्मों में अनन्यभावेन समर्पित हैं, नतमस्तक हैं ।
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अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2014
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इसमें जो कुछ भी श्रेष्ठ और मौलिक है, उस गुरु-सत्ता के शुभाशीष का ही यह शुभ फल है।
विश्वपूज्य प्रभु श्रीमद् राजेन्द्रसूरि शताब्दि-दशाब्दि महोत्सव के उपलक्ष्य में अभिधान राजेन्द्र कोष के सुगन्धित सुमनों से श्रद्धा-भक्ति के स्वर्णिम धागे से गूंथी यह द्वितीय सुमनमाला उन्हें पहना रही हैं, विश्वपूज्य प्रभु हमारी इस नन्हीं माला को स्वीकार करें । ___ हमें विश्वास है यह श्रद्धा-भक्ति-सुमन जन-जीवन को धर्म, नीतिदर्शन-ज्ञान-आचार, राष्ट्रधर्म, आरोग्य, उपदेश, विनय-विवेक, नम्रता, तपसंयम, सन्तोष-सदाचार, क्षमा, दया, करुणा, अहिंसा-सत्य आदि की सौरभ से महकाता रहेगा और हमारे तथा जन-जन के आस्था के केन्द्र विश्वपूज्य की यशः सुरभि समस्त जगत् में फैलाता रहेगा। ___ इस ग्रन्थ में त्रुटियाँ होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि हर मानव कृति में कुछ न कुछ त्रुटियाँ रह ही जाती हैं । इसीलिए लेनिन ने ठीक ही कहा है : त्रुटियाँ तो केवल उसी से नहीं होगी जो कभी कोई काम करे ही नहीं।
गच्छतः स्खलनं क्वापि, भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति दुर्जनास्तत्र, समादधति सज्जनाः ॥
- श्री राजेन्द्रगुणगीतवेणु
- श्री राजेन्द्रपदपद्मरेणु डॉ. प्रियदर्शनाश्री, एम. ए., पीएच.-डी. डॉ. सुदर्शनाश्री, एम. ए., पीएच.-डी.
संभात एलेन कोष में, भूति अ
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 15
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| आभार
हम परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यदेव श्रीमद् जयन्तसेन सूरीश्वरजी म. सा. "मधुकर", परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यदेव श्रीमद् पद्मसागर सूरीश्वरजी म. सा. एवं प. पू. मुनिप्रवर श्री जयानन्द विजयजी म. सा. के चरण कमलों में वंदना करती हैं, जिन्होंने असीम कृपा करके अपने मन्तव्य लिखकर हमें अनुगृहीत किया है। हमें उनकी शुभप्रेरणा व शुभाशीष सदा मिलती रहें, यही करबद्ध प्रार्थना है।
- इसके साथ ही हमारी सुविनीत गुरुबहनें सुसाध्वीजी श्री आत्मदर्शनाश्रीजी, श्रीसम्यग्दर्शनाश्रीजी (सांसारिक सहोदरबहनें), श्री चारूदर्शनाश्रीजी एवं श्री प्रीतिदर्शनाश्रीजी (एम.ए.) की शुभकामना का सम्बल भी इस ग्रन्थ के प्रणयन में साथ रहा है । अत: उनके प्रति भी हृदय से आभारी हैं ।
हम पद्म विभूषण, पूर्व भारतीय राजदूत ब्रिटेन, विश्वविख्यात विधिवेत्ता एवं महान् साहित्यकार माननीय डॉ. श्रीमान् लक्ष्मीमल्लजी सिंघवी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करती हैं, जिन्होंने अति भव्य मन्तव्य लिखकर हमें प्रेरित किया है। तदर्थ हम उनके प्रति हृदय से अत्यन्त आभारी हैं।
इस अवसर पर हिन्दी-अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध मनीषी सरलमना माननीय डो. श्री जवाहरचन्द्रजी पटनी का योगदान भी जीवन में कभी नहीं भुलाया जा सकता है। पिछले दो वर्षों से सतत उनकी यही प्रेरणा रही कि आप शीघ्रातिशीघ्र 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' [1 से 7 खण्ड], 'अभिधान राजेन्द्र कोष में जैनदर्शन वाटिका', 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, कथा-कुसुम' और 'विश्वपूज्य' (श्रीमद राजेन्द्रसूरिः जीवन-सौरभ) आदि ग्रन्थों को सम्पन्न करें। उनकी सक्रिय प्रेरणा, सफल निर्देशन, सतत प्रोत्साहन व आत्मीयतापूर्ण सहयोगसुझाव के कारण ही ये ग्रन्थ [1 से 10 खण्ड] यथासमय पूर्ण हो सके हैं। पटनी सा0 ने अपने अमूल्य क्षणों का सदुपयोग प्रस्तुत ग्रन्थ के अवलोकन में किया। हमने यह अनुभव किया कि देहयष्टि वार्धक्य के कारण कृश होती है, परन्तु आत्मा अजर अमर है। गीता में कहा है:
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ॥ कर्मयोगी का यही अमर स्वरूप है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2016
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हम साध्वीद्वय उनके प्रति हृदय से कृतज्ञा हैं। इतना ही नहीं, अपितु प्रस्तुत ग्रन्थों के अनुरूप अपना आमुख लिखने का कष्ट किया तदर्थ भी हम आभारी हैं। । उनके इस प्रयास के लिए हम धन्यवाद या कृतज्ञता ज्ञापन कर उनके अमूल्य श्रम का अवमूल्यन नहीं करना चाहतीं। बस, इतना ही कहेंगी कि इस सम्पूर्ण कार्य के निमित्त उन्हें ज्ञान के इस अथाह सागर में बार-बार डुबकियाँ लगाने का जो सुअवसर प्राप्त हुआ, वह उनके लिए महान् सौभाग्य है।
तत्पश्चात् अनवरत शिक्षा के क्षेत्र में सफल मार्गदर्शन देनेवाले शिक्षा गुरुजनों के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापन करना हमारा परम कर्तव्य है। बी. ए. [प्रथम खण्ड] से लेकर आजतक हमारे शोध निर्देशक माननीय डॉ. श्री अखिलेशकुमारजी राय सा. द्वारा सफल निर्देशन, सतत प्रोत्साहन एवं निरन्तर प्रेरणा को विस्मृत नहीं किया जा सकता, जिसके परिणाम स्वरूप अध्ययन के क्षेत्र में हम प्रगतिपथ पर अग्रसर हुईं। इसी कड़ी में श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान वाराणसी के निदेशक माननीय डॉ. श्री सागरमलजी जैन के द्वारा प्राप्त सहयोग को भी जीवन में कभी भी भुलाया नहीं जा सकता, क्योंकि पार्श्वनाथ विद्याश्रम के परिसर में सालभर रहकर हम साध्वी द्वय ने 'आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन' और 'आनन्दघन का रहस्यवाद' - इन दोनों शोधप्रबन्ध-ग्रन्थों को पूर्ण किया था, जो पीएच.डी. की उपाधि के लिए अवधेश प्रतापसिंह विश्वविद्यालय रीवा (म.प्र) ने स्वीकृत किये । इन दोनों शोधप्रबन्ध ग्रन्थों को पूर्ण करने में डॉ. जैन सा. का अमूल्य योगदान रहा है। इतना ही नहीं, प्रस्तुत ग्रन्थों के अनुरूप मन्तव्य लिखने का कष्ट किया । तदर्थ भी हम आभारी हैं।
इनके अतिरिक्त विश्रुत पण्डितवर्य माननीय श्रीमान् दलसुख भाई मालवणियाजी, विद्वद्वर्य डॉ. श्री नेमीचन्दजी जैन, शास्त्रसिद्धान्त रहस्यविद् ? पण्डितवर्य श्री गोविन्दरामजी व्यास, विद्वद्वर्य पं. श्री जयनन्दनजी झा, पण्डितवर्य श्री हीरालालजी शास्त्री एम.ए., हिन्दी अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध मनीषी श्री भागचन्दजी जैन, एवं डॉ. श्री अमृतलालजी गाँधी ने भी मन्तव्य लिखकर स्नेहपूर्ण उदारता दिखाई, तदर्थ हम उन सबके प्रति भी हृदय से अत्यन्त आभारी हैं।
अन्त में उन सभी का आभार मानती हैं जिनका हमें प्रत्यक्ष व परोक्ष सहकार / सहयोग मिला है ।
यह कृति केवल हमारी बालचेष्टा है, अत: सुविज्ञ, उदारमना सज्जन हमारी त्रुटियों के लिए क्षमा करें । पौष शुक्ला सप्तमी
- डॉ. प्रियदर्शनाश्री 5 जनवरी, 1998
- डॉ. सुदर्शनाश्री अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 17
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सुकृत सहयोगी
श्रुतज्ञानप्रेमी श्रेष्ठिवर्य
श्रीमान् बुद्धसिंहजी पुखराजजी कर्नावट
परम गुरुभक्त, धर्मानुरागी श्रेष्ठिवर्य श्रावकरत्न मदनगंज- किशनगढ़ निवासी पुखराजजी कर्नावट धर्म एवं समाज की सेवा में अनुपम रूचि रखते हैं । उनकी श्रद्धा-भक्ति प्रशंसनीय हैं। वे शुभ कार्यों में लक्ष्मी का सदुपयोग करते रहते हैं ।
श्रुतज्ञान के प्रति उनका यह अनुराग अनुमोदनीय है । वे स्वयं सात्त्विक जीवन युक्त हैं । उनकी मान्यता है कि सुसंस्कृत जीवन ही मनुष्य भव की सार्थकता है । वे केवल धर्म कार्यों में ही रुचि नहीं लेते, अपितु समय-समय पर तन-मन-धन को भी अर्पण करते रहते हैं ।
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वे 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' (द्वितीय खण्ड) का प्रकाशन भी करवा रहे हैं। उनकी इस शुभ भावना के लिए सरल स्वभाविनी वात्सल्यमूर्ति परम पूज्या साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. सा. (पू. दादाजी म. सा.) आशीष देती हैं तथा हम उनको धन्यवाद देती हैं । वे भविष्य में भी ऐसे सुकृत कार्यों में सदा योगदान देते रहेंगे, यही हमें आशा हैं ।
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डो. प्रियदर्शनाश्री डो. सुदर्शनाश्री
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 18
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आमुख
I
। उनके जीवन-दर्शन से । उनके प्रति मेरी श्रद्धा
विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी विरले सन्त थे यह ज्ञात होता है कि वे लोक मंगल के क्षीर-सागर भक्ति तब विशेष बढ़ी, जब मैंने कलिकाल कल्पतरू श्री वल्लभसूरिजी पर 'कलिकाल कल्पतरू' महाग्रन्थ का प्रणयन किया, जो पीएच. डी. उपाधि के लिए जोधपुर विश्वविद्यालय ने स्वीकृत किया । विश्वपूज्य प्रणीत 'अभिधान राजेन्द्र कोष' से मुझे बहुत सहायता मिली । उनके पुनीत पद-पद्मों में कोटिशः वन्दन !
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डॉ. जवाहरचन्द्र पटनी,
एम. ए. (हिन्दी-अंग्रेजी), पीएच. डी., बी.टी.
फिर पूज्या डॉ. साध्वी द्वय श्री प्रियदर्शनाश्रीजी म. एवं डॉ. श्री सुदर्शनाश्रीजी म. के ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका', 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' [1 से 7 खण्ड], 'विश्वपूज्य' [ श्रीमद् राजेन्द्रसूरि : जीवन-सौरभ), 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, कथा- कुसुम', 'सुगन्धित सुमन', 'जीवन की मुस्कान' एवं 'जिन खोजा तिन पाइयाँ' आदि ग्रन्थों का अवलोकन किया । विदुषी साध्वी द्वय ने विश्वपूज्य की तपश्चर्या, कर्मठता एवं कोमलता का जो वर्णन किया है, उससे मैं अभिभूत हो गया और मेरे सम्मुख इस भोगवादी आधुनिक युग में पुरातन ऋषि- महर्षि का विराट् और 'विनम्र करुणार्द्र तथा सरल, लोक-मंगल का साक्षात् रूप दिखाई दिया ।
श्री विश्वपूज्य इतने दृढ़ थे कि भयंकर झंझावातों और संघर्षों में भी अडिग रहे । सर्वज्ञ वीतराग प्रभु के परमपुनीत स्मरण से वे अपनी नन्हीं देहकिश्ती को उफनते समुद्र में निर्भय चलाते रहें । स्मरण हो आता है, परम गीतार्थ महान् आचार्य मानतुंगसूरिजी रचित महाकाव्य भक्तामर का यह अमर श्लोक
'अम्भो निधौ क्षुभित भीषण नक्र चक्र, पाठीन पीठ भय दोल्बण वाडवाग्नौ ।
रङ्गत्तरंग शिखर स्थित यान पात्रा स्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ॥ '
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 19
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हे स्वामिन् ! क्षुब्ध बने हुए भयंकर मगरमच्छों के समूह और पाठीन तथा पीठ जाति के मत्स्य व भयंकर वडवानल अग्नि जिसमें है, ऐसे समुद्र में जिनके जहाज लहरों के अग्रभाग पर स्थित हैं; ऐसे जहाजवाले लोग आपका मात्र स्मरण करने से ही भयरहित होकर निर्विघ्नरूप से इच्छित स्थान पर पहुँचते हैं।
विदुषी डॉ. साध्वी द्वय ने विश्वपूज्य के विराट और कोमल जीवन का यथार्थ वर्णन किया है । उससे यह सहज प्रतीति होती है कि विश्वपूज्य कर्मयोगी महर्षि थे, जिन्होंने उस युग में व्याप्त भ्रष्टाचार और आडम्बर को मिटाने के लिए ग्राम-ग्राम, नगर-नगर, वन-उपवन में पैदल विहार किया । व्यसनमुक्त समाज के निर्माण में अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया ।
विदुषी लेखिकाओंने यह बताया है कि इस महर्षि ने व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत करने हेतु सदाचार-सुचरित्र पर बल दिया तथा सत्साहित्य द्वारा भारतीय गौरवशालिनी संस्कृति को अपनाने के लिए अभिप्रेरित किया ।
इस महर्षि ने हिन्दी में भक्तिरस-पूर्ण स्तवन, पद एवं सज्झायादि गीत लिखे हैं। जो सर्वजनहिताय, स्वान्तः सुखाय और भक्तिरस प्रधान हैं । इनकी समस्त कृतियाँ लोकमंगल की अमृत गगरियाँ हैं ।।
गीतों में शास्त्रीय संगीत एवं पूजा-गीतों की लावणियाँ हैं जिनमें माधुर्य भरपूर हैं । विश्वपूज्य ने रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा एवं दृष्टान्त आदि अलंकारों का अपने काव्य में प्रयोग किया है, जो अप्रयास है। ऐसा लगता है कि कविता उनकी हृदय वीणा पर सहज ही झंकृत होती थी। उन्होंने यद्यपि स्वान्तः सुखाय गीत रचना की है, परन्तु इनमें लोकमाङ्गल्य का अमृत स्रवित होता है।
उनके तपोमय जीवन में प्रेम और वात्सल्य की अमी-वृष्टि होती है ।
विश्वपूज्य अर्धमागधी, प्राकृत एवं संस्कृत भाषाओं के अद्वितीय महापण्डित थे। उनकी अमरकृति - ‘अभिधान राजेन्द्र कोष' में इन तीन भाषाओं के शब्दों की सारगर्भित और वैज्ञानिक व्याख्याएँ हैं । यह केवल पण्डितवरों का ही चिन्तामणि रत्न नहीं है, अपितु जनसाधारण को भी इस अमृत-सरोवर का अमृत-पान करके परम तृप्ति का अनुभव होता है । उदाहरण के लिए - जैनधर्म में 'नीवि' और 'गहुँली' शब्द प्रचलित हैं । इन शब्दों की व्याख्या मुझे कहीं भी नहीं मिली । इन शब्दों का समाधान इस कोष में है। 'नीवि' अर्थात् नियमपालन करते हुए विधिपूर्वक आहार लेना । गहुँली गुरु-भगवंतों के शुभागमन पर मार्ग में अक्षत का स्वस्तिक करके उनकी वधामणी करते हैं और गुरुवर के प्रवचन के पश्चात् गीत द्वारा गहुँली गीत गाया जाता है ।
__ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 20
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इनकी व्युत्पत्ति-व्याख्या 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में मिलीं । पुरातनकाल में गेहूँ का स्वस्तिक करके गुरुजनों का सत्कार किया जाता था। कालान्तर में अक्षत-चावल का प्रचलन हो गया । यह शब्द योगरूढ़ हो गया, इसलिए गुरु भगवंतों के सम्मान में गाया जानेवाला गीत भी गहुँली हो गया। स्वर्ण मोहरों या रत्नों से गहुँली क्यों न हो, वह गहुँली ही कही जाती है । भाषा विज्ञान की दृष्टि से अनेक शब्द जिनवाणी की गंगोत्री में लुढ़क-लुढ़क कर, घिसघिस कर शालिग्राम बन जाते हैं । विश्वपूज्य ने प्रत्येक शब्द के उद्गम-स्रोत की गहन व्याख्या की है। अत: यह कोष वैज्ञानिक है, साहित्यकारों एवं कवियों के लिए रसात्मक है तथा जनसाधारण के लिए शिव-प्रसाद है।
जब कोष की बात आती है तो हमारा मस्तक हिमगिरि के समान विराट गुरुवर के चरण-कमलों में श्रद्धावनत हो जाता है। षष्टिपूति के तीन वर्ष बाद 63 वर्ष की वृद्धावस्था में विश्वपूज्य ने 'अभिधान राजेन्द्र कोष' का श्रीगणेश किया और 14 वर्ष के अनवरत परिश्रम व लगन से 76 वर्ष की आयु में इसे परिसम्पन्न किया ।
इनके इस महत्दान का मूल्याङ्कन करते हुए मुझे महर्षि दधीचि की पौराणिक कथा का स्मरण हो आता है, जिसमें इन्द्र ने देवासुर संग्राम में देवों की हार और असुरों की जय से निराश होकर इस महर्षि से अस्थिदान की प्रार्थना की थी। सत् विजयाकांक्षा की मंगल-भावना से इस महर्षि ने अनशन तप से देह सुखाकर अस्थिदान इन्द्र को दिया था, जिससे वज्रायुध बना । इन्द्र ने वज्रायुध से असुरों को पराजित किया । इसप्रकार सत् की विजय और असत् की पराजय हुई । 'सत्यमेव जयते' का उद्घोष हुआ ।
सचमुच यह कोष वज्रायुध के समान सत्य की रक्षा करनेवाला और असत्य का विध्वंस करनेवाला है ।
विदुषी साध्वी द्वय ने इस महाग्रन्थ का मन्थन करके जो अमृत प्राप्त किया है, वह जनता-जनार्दन को समर्पित कर दिया है।
सारांश में - यह ग्रन्थ 'सत्यं-शिवं-सुंदरम्' की परमोज्ज्वल ज्योति सब युगों में जगमगाता रहेगा - यावत्चन्द्रदिवाकरौ ।
इस कोष की लोकप्रियता इतनी है कि साण्डेराव ग्राम (जिला-पालीराजस्थान) के लघु पुस्तकालय में भी इसके नवीन संस्करण के सातों भाग विद्यमान हैं। यही नहीं, भारत के समस्त विश्वविद्यालयों, श्रेष्ठ महाविद्यालयों तथा पाश्चात्त्य देशों के विद्या-संस्थानों में ये उपलब्ध हैं । इनके बिना विश्वविद्यालय और शोध-संस्थान रिक्त लगते हैं। ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 .21 )
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विदुषी साध्वी द्वय नि:संदेह यशोपात्रा हैं, क्योंकि उन्होंने विश्वपूज्य के पाण्डित्य को ही अपने ग्रन्थों में नहीं दर्शाया है; अपितु इनके लोक-माङ्गल्य का भी प्रशस्त वर्णन किया है ।
ये महान् कर्मयोगी पत्थरों में फूल खिलाते हुए, मरूभूमि में गंगा-जमुना की पावन धाराएँ प्रवाहित करते हुए, बिखरे हुए समाज को कलह के काँटों से बाहर निकाल कर प्रेम-सूत्र में बाँधते हुए, पीड़ित प्राणियों की वेदना मिटाते हुए, पर्यावरण - शुद्धि के लिए आत्म-जागृति का पाञ्चजन्य शंख बजाते हुए 80 वर्ष की आयु में प्रभु शरण में कल्पपुष्प के समान समपित हो गए ।
श्री वाल्मीकि ने रामायण में यह बताया है कि भगवान् राम ने 14 वर्षों के वनवास काल में अछूतों का उद्धार किया, दुःखी-पीड़ित प्राणियों को जीवन-दान दिया, असुर प्रवृत्ति का नाश किया और प्राणि-मैत्री की रसवन्ती गंगधारा प्रवाहित की । इस कालजयी युगवीर आचार्य ने इसीलिए 14 वर्ष कोष की रचना में लगाये होंगे। 14 वर्ष शुभ काल है - मंगल विधायक है । महर्षियों के रहस्य को महर्षि ही जानते हैं।
लाखों-करोड़ों मनुष्यों का प्रकाश-दीप बुझ गया, परन्तु वह बुझा नहीं है। वह समस्त जगत् के जन-मानसों में करूणा और प्रेम के रूप में प्रदीप्त
विदुषी साध्वी द्वय के ग्रन्थों को पढ़कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि विश्वपूज्य केवल त्रिस्तुतिक आम्नाय के ही जैनाचार्य नहीं थे, अपितु समस्त जैन समाज के गौरव किरीट थे, वे हिन्दुओं के सन्त थे, मुसलमानों के फकीर और ईसाइयों के पादरी । वे जगद्गुरु थे। विश्वपूज्य थे और हैं।
विदुषी डॉ. साध्वी द्वय की भाषा-शैली वसन्त की परिमल के समान मनोहारिणी है । भावों को कल्पना और अलंकारों से इक्षुरस के समान मधुर बना दिया है। समरसता ऐसी है जैसे - सुरसरि का प्रवाह ।।
दर्शन की गम्भीरता भी सहज और सरल भाषा-शैली से सरस बन गयी है।
इन विदुषी साध्वियों के मंगल-प्रसाद से समाज सुसंस्कारों के प्रशस्तपथ पर अग्रसर होगा । भविष्य में भी ये साध्वियाँ तृष्णा तृषित आधुनिक युग को अपने जीवन-दर्शन एवं सत्साहित्य के सुगन्धित सुमनों से महकाती रहेंगी ! यही शुभेच्छा !
पूज्या साध्वीजी द्वय को विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. की पावन प्रेरणा प्राप्त हुई, इससे इन्होंने इन अभिनव ग्रन्थों का प्रणयन किया ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 22
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यह सच है कि रवि-रश्मियों के प्रताप से सरोवर में सरोज सहज ही प्रस्फुटित होते हैं । वासन्ती पवन के हलके से स्पर्श से सुमन सौरभ सहज ही प्रसृत होते हैं। ऐसी ही विश्वपूज्य के वात्सल्य की परिमल इनके ग्रन्थों को सुरभित कर रही हैं । उनकी कृपा इनके ग्रन्थों की आत्मा है ।।
जिन्हें महाज्ञानी साहित्यमनीषी राष्ट्रसन्त प. पू. आचार्यदेवेश श्रीमदजयन्तसेनसूरीश्वरजी म. सा. का आर्शीवाद और परम पूज्या जीवन निर्मात्री (सांसारिक दादीजी) साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. का अमित वात्सल्य प्राप्त हों, उनके लिए ऐसे ग्रन्थों का प्रणयन सहज और सुगम क्यों न होगा ? निश्चय ही।
वात्सल्य भाव से मुझे आमुख लिखने का आदेश दिया पूज्या साध्वी द्वय ने । उसके लिए आभारी हूँ, यद्यपि मैं इसके योग्य किञ्चित् भी नहीं हूँ। इति शुभम् !
पौष शुक्ला सप्तमी 5 जनवरी, 1998
कालन्द्री जिला-सिरोही (राज.)
पूर्वप्राचार्य श्री पार्श्वनाथ उम्मेद कॉलेज,
फालना (राज.)
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 23
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मन्तव्य
- डो. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी
(पद्म विभूषण, पूर्व भारतीय राजदूत-ब्रिटेन) आदरणीया डॉ. प्रियदर्शनाजी एवं डॉ. सुदर्शनाजी साध्वीद्वय ने “विश्वपूज्य' (श्रीमद् राजेन्द्रसूरि : जीवन-सौरभ)', "अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्तिसुधारस" (1 से 7 खण्ड), एवं अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका" की रचना में जैन परम्परा की यशोगाथा की अमृतमय प्रशस्ति की है। ये ग्रंथ विदुषी साध्वी-द्वय की श्रद्धा, निष्ठा, शोध एवं दृष्टि सम्पन्नता के परिचायक एवं प्रमाण हैं । एक प्रकार से इस ग्रंथत्रयी में जैन-परम्परा की आधारभूत रत्नत्रयी का प्रोज्ज्वल प्रतिबिम्ब है। युगपुरुष, प्रज्ञामहषि, मनीषी आचार्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी के व्यक्तित्व और कृतित्व के विराट् क्षितिज और धरातल की विहंगम छवि प्रस्तुत करते हुए साध्वी-द्वय ने इतिहास के एक शलाकापुरुष की यश-प्रतिमा की संरचना की है, उनकी अप्रतिम उपलब्धियों के ज्योतिर्मय अध्याय को प्रदीप्त और रेखांकित किया है । इन ग्रंथों की शैली साहित्यिक है, विवेचन विश्लेषणात्मक है, संप्रेषण रस-सम्पन्न एवं मनोहारी है और रेखांकन कलात्मक
___पुण्य श्लोक प्रात:स्मरणीय आचार्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी अपने जन्म के नाम के अनुसार ही वास्तव में 'रत्नराज' थे । अपने समय में वे जैनपरम्परा में ही नहीं बल्कि भारतीय विद्या के विश्रुत विद्वान् एवं विद्वत्ता के शिरोमणि थे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में सागर की गहराई और पर्वत की ऊँचाई विद्यमान थी। इसीलिए उनको विश्वपूज्य के अलंकरण से विभूषित करते हुए वह अलंकरण ही अलंकृत हुआ । भारतीय वाङ्मय में "अभिधान राजेन्द्र कोष" एक अद्वितीय, विलक्षण और विराट् कीर्तिमान है जिसमें संस्कृत, प्राकृत एवं अर्धमागधी की त्रिवेणी भाषाओं और उन भाषाओं में प्राप्त विविध परम्पराओं की सूक्तियों की सरल और सांगोपांग व्याख्याएँ हैं, शब्दों का विवेचन और दार्शनिक संदर्भो की अक्षय सम्पदा है। लगभग ६० हजार शब्दों की व्याख्याओं एवं साढ़े चार लाख श्लोकों के ऐश्वर्य से महिमामंडित यह ग्रंथ जैन परम्परा एवं समग्र भारतीय विद्या का अपूर्व भंडार है । साध्वीद्वय डॉ. प्रियदर्शनाश्री एवं डॉ. सुदर्शनाश्री की यह प्रस्तुति एक ऐसा साहसिक सारस्वत
( : अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 24
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प्रयास है जिसकी सराहना और प्रशस्ति में जितना कहा जाय वह स्वल्प ही होगा, अपर्याप्त ही माना जायगा । उनके पूर्वप्रकाशित ग्रंथ "आनंदघन का रहस्यवाद" एवं आचारांग सूत्र का नीतिशास्त्रीय अध्ययन" प्रत्यूष की तरह इन विदुषी साध्वियों की प्रतिभा की पूर्व सूचना दे रहे थे । विश्व पूज्य की अमर स्मृति में साधना के ये नव दिव्य पुष्प अरुणोदय की रश्मियों की तरह हैं ।
24-4-1998
4F, White House,
10, Bhagwandas Road, New Delhi-110001
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-225
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- पं. दलसुख मालवणिया पूज्या डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी साध्वीद्वयने "अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका" एवं "अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्तिसुधारस" (1 से 7 खण्ड), आदि ग्रन्थ लिखकर तैयार किए हैं, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं गौरवमयी रचनाएँ हैं । उनका यह अथक प्रयास स्तुत्य है । साध्वीद्वय का यह कार्य उपयोगी तो है ही, तदुपरान्त जिज्ञासुजनों के लिए भी उपकारक हो, वैसा है।
__इसप्रकार जैनदर्शन की सरल और संक्षिप्त जानकारी अन्यत्र दुर्लभ है। जिज्ञासु पाठकों को जैनधर्म के सद् आचार-विचार, तप-संयम, विनय-विवेक विषयक आवश्यक ज्ञान प्राप्त हो जाय, वैसी कृतियाँ हैं ।
पूज्या साध्वीद्वय द्वारा लिखित इन कृतियों के माध्यम से मानव-समाज को जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी एक दिशा, एक नई चेतना प्राप्त होगी ।
ऐसे उत्तम कार्य के लिए साध्वीद्वय का जितना उपकार माना जाय, वह स्वल्प ही होगा।
दिनांक : 30-4-98 माधुरी-8, आपेरा सोसायटी, पालड़ी, अहमदाबाद-380007
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 26
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| सूक्ति-सुधारसः मेरी दृष्टि में
- डॉ. नेमीचन्द जैन
संपादक "तीर्थंकर" 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' के एक से सात खण्ड तक में, मैं गोते लगा सका हूँ। आनन्दित हूँ । रस-विभोर हूँ। कवि बिहारी के दोहे की एक पंक्ति बार-बार आँखों के सामने आ-जा रही है : "बूड़े अनबूड़े, तिरे जे बूड़े सब अंग" | जो डूबे नहीं, वे डूब गये हैं और जो डूब सके हैं सिर-से-पैर तक वे तिर गये हैं । अध्यात्म, विशेषतः श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी के 'अभिधान राजेन्द्र कोष' का यही आलम है । डूबिये, तिर जाएँगे; सतह पर रहिये, डूब जाएंगे।
वस्तुतः 'अभिधान राजेन्द्र कोष' का एक-एक वर्ण बहुमुखीता का धनी है। यह अप्रतिम कृति 'विश्वपूज्य' का 'विश्वकोश' (एन्सायक्लोपीडिया) है। जैसे-जैसे हम इसके तलातल का आलोड़न करते हैं, वैसे-वैसे जीवन की दिव्य छबियाँ थिरकती-ठुमकती हमारे सामने आ खड़ी होती हैं। हमारा जीवन सर्वोत्तम से संवाद बनने लगता है। ___'अभिधान राजेन्द्र' में संयोगतः सम्मिलित सूक्तियाँ ऐसी सूक्तियाँ हैं, जिनमें श्रीमद की मनीषा-स्वाति ने दुर्लभ/दीप्तिमन्त मुक्ताओं को जन्म दिया है। ये सूक्तियाँ लोक-जीवन को माँजने और उसे स्वच्छ-स्वस्थ दिशा-दृष्टि देने में अद्वितीय हैं । मुझे विश्वास है कि साध्वीद्वय का यह प्रथम पुरुषार्थ उन तमाम सूक्तियों को, जो 'अभिधान राजेन्द्र' में प्रसंगतः समाविष्ट हैं, प्रस्तुत करने में सफल होगा। मेरे विनम्र मत में यदि इनमें से कुछेक सूक्तियों का मन्दिरों, देवालयों, स्वाध्याय-कक्षों, स्कूल-कॉलेजों की भित्तियों पर अंकन होता है तो इससे हमारी धार्मिक असंगतियों को तो एक निर्मल कायाकल्प मिलेगा ही, राष्ट्रीय चरित्र को भी नैतिक उठान मिलेगा। मैं न सिर्फ २६६७ सूक्तियों के ७ बृहत् खण्डों की प्रतीक्षा करूँगा, अपितु चाहूँगा कि इन सप्त सिन्धुओं के सावधान परिमन्थन से कोई ‘राजेन्द्र सूक्ति नवनीत' जैसी लघुपुस्तिका सूरज की पहली किरण देखे । ताकि संतप्त मानवता के घावों पर चन्दन-लेप संभव हो । 27-04-1998 65, पत्रकार कालोनी, कनाड़िया मार्ग, इन्दौर (म.प्र.)-452001
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अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 27
आभधान
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डॉ. सागरमल जैन
पूर्व निर्देशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' (१ से ७ खण्ड). नामक इस कृति का प्रणयन पूज्या साध्वीश्री डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी ने किया है । वस्तुतः यह कृति अभिधानराजेन्द्रकोष में आई हुई महत्त्वपूर्ण सूक्तियों का अनूठा आलेखन हैं। लगभग एक शताब्दि पूर्व ईस्वीसन् १८९० आश्विन शुक्ला दूज के दिन शुभ लग्न में इस कोष ग्रन्थ का प्रणयन प्रारम्भ हुआ और पूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी के अथक प्रयासों से लगभग १४ वर्ष में यह पूर्ण हुआ फिर इसके प्रकाशन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई जो पुनः १७ वर्षो में पूर्ण हुई। जैनधर्म सम्बन्धी विश्वकोषों में यह कोष ग्रन्थ आज भी सर्वोपरि स्थान रखता है । प्रस्तुत कोष में जैन धर्म, दर्शन, संस्कृति और साहित्य से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण शब्दों का अकारादि क्रम से विस्तारपूर्वक विवेचन उपलब्ध होता है। इस विवेचना में लगभग शताधिक ग्रन्थों से सन्दर्भ चुने गये हैं । प्रस्तुत कृति में साध्वी द्वय ने इसी कोषग्रन्थ को आधार बनाकर सूक्तियों का आलेखन किया हैं। उन्होंने अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रत्येक खण्ड को आधार मानकर इस 'सूक्ति-सुधारस' को भी सात खण्डों में ही विभाजित किया हैं । इसके प्रथम खण्ड में अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रथम भाग से सूक्तियों का आलेखन किया है । यही क्रम आगे के खण्डों में भी अपनाया गया हैं । 'सूक्ति-सुधारस' के प्रत्येक खण्ड का आधार अभिधान राजेन्द्र कोष का प्रत्येक भाग ही रहा हैं। अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रत्येक भाग को आधार बनाकर सूक्तियों का संकलन करने के कारण सूक्तियों को न तो अकारादिक्रम से प्रस्तुत किया गया है और न उन्हें विषय के आधार पर ही वर्गीकृत किया गया हैं, किन्तु पाठकों की सुविधा के लिए परिशिष्ट में अकारादिक्रम से एवं विषयानुक्रम से शब्द सूचियाँ दे दी गई हैं, इससे जो पाठक अकारादि क्रम से अथवा विषयानुक्रम से इन्हें जानना चाहे उन्हें भी सुविधा हो सकेगी। इन परिशिष्टों के माध्यम से प्रस्तुत कृति अकारादिक्रम अथवा विषयानुक्रम की कमी की पूर्ति कर देती है । प्रस्तुतकृति में प्रत्येक
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सूक्ति के अन्त में अभिधान राजेन्द्र कोष के सन्दर्भ के साथ-साथ उस मूल ग्रन्थ का भी सन्दर्भ दे दिया गया है, जिससे ये सूक्तियाँ अभिधान राजेन्द्र कोष में अवतरित की गई। मूलग्रन्थों के सन्दर्भ होने से यह कृति शोध-छात्रों के लिए भी उपयोगी बन गई हैं ।
वस्तुतः सूक्तियाँ अतिसंक्षेप में हमारे आध्यात्मिक एवं सामाजिक जीवन मूल्योंको उजागर कर व्यक्ति को सम्यक्जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं । अत: ये सूक्तियाँ जन साधारण और विद्वत् वर्ग सभी के लिए उपयोगी हैं। आबालवृद्ध उनसे लाभ उठा सकते हैं। साध्वीद्वय ने परिश्रमपूर्वक जो इन सूक्तियों का संकलन किया है वह अभिधान राजेन्द्र कोष रूपी महासागर से रत्नों के चयन के जैसा हैं । प्रस्तुत कृति में प्रत्येक सूक्ति के अन्त में उसका हिन्दी भाषा में अर्थ भी दे दिया गया है, जिसके कारण प्राकृत और संस्कृत से अनभिज्ञ सामान्य व्यक्ति भी इस कृति का लाभ उठा सकता हैं । इन सूक्तियों के आलेखन में लेखिका-द्वय ने न केवल जैनग्रन्थों में उपलब्ध सूक्तियों का संकलन/संयोजन किया है, अपितु वेद, उपनिषद, गीता, महाभारत, पंचतन्त्र, हितोपदेश आदि की भी अभिधान राजेन्द्र कोष में गृहीत सूक्तियों का संकलन कर अपनी उदारहृदयता का परिचय दिया है। निश्चय ही इस महनीय श्रम के लिए साध्वी-द्वय-पूज्या डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी साधुवाद की पात्रा हैं । अन्त में मैं यही आशा करता हूँ कि जन सामान्य इस 'सूक्तिसुधारस' में अवगाहन कर इसमें उपलब्ध सुधारस का आस्वादन करता हुआ अपने जीवन को सफल करेगा और इसी रूप में साध्वी द्वय का यह श्रम भी सफल होगा।
दिनांक 31-6-1998 पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान वाराणसी (उ.प्र.)
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विद्याव्रती शास्त्र सिद्धान्त रहस्य विद् ?
- पं. गोविन्दराम व्यास उक्तियाँ और सूक्त-सूक्तियाँ वाङ्मय वारिधि की विवेक वीचियाँ हैं। विद्या संस्कार विमर्शिता विगत की विवेचनाएँ हैं । विद्धित-वाङ्मय की वैभवी विचारणाएँ हैं । सार्वभौम सत्य की स्तुतियाँ हैं । प्रत्येक पल की परमार्शदायिनी-पारदर्शिनी प्रज्ञा पारमिताएँ हैं । समाज, संस्कृति और साहित्य की सरसता की छवियाँ हैं । क्रान्तदर्शी कोविदों की पारदर्शिनी परिभाषाएँ हैं। मनीषियों की मनीषा की महत्त्व प्रतिपादिनी पीपासाएँ हैं । क्रूर-काल के कौतुकों में भी आयुष्मती होकर अनागत का अवबोध देती रही हैं। ऐसी सूक्तियों को सश्रद्ध नमन करता हुआ वाग्देवता का विद्या-प्रिय विप्र होकर वाङ् मयी पूजा में प्रयोगवान् बन रहा हूँ।
श्रमण-संस्कृति की स्वाध्याय में स्वात्म-निष्ठा निराली रही है । आचार्य हरिभद्र, अभय, मलय जैसे मूर्धन्य महामतिमान, सिद्धसेन जैसे शिरोमणि, सक्षम, श्रद्धालु जिनभद्र जैसे - क्षमाश्रमणों का जीवन वाङ्मयी वरिवस्या का विशेष अंग रहा है। __ स्वाध्याय का शोभनीय आचार अद्यावधि-हमारे यहाँ अक्षुण्ण पाया जाता है। इसीलिए स्वाध्याय एवं प्रवचन में अप्रमत्त रहने का समादश शास्त्रकारों ने स्वीकार किया है।
वस्तुतः नैतिक मूल्यों के जागरण के लिए, आध्यात्मिक चेतना के ऊर्वीकरण के लिए एवं शाश्वत मूल्यों के प्रतिष्ठापन के लिए आर्याप्रवरा द्वय द्वारा रचित प्रस्तुत ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका' एक उपादेय महत्त्वपूर्ण गौरवमयी रचना है।
आत्म-अभ्युदयशीला, स्वाध्याय-परायणा, सतत अनुशीलन उज्ज्वला आर्या डॉ. श्री प्रियदर्शनाजी एवं डॉ. श्री सुदर्शनाजी की शास्त्रीय-साधना सराहनीया है। इन्होंने अपने आम्नाय के आद्य-पुरुष की प्रतिभा का परिचय प्राप्त करने का प्रयास कर अपनी चारित्र-सम्पदा को वाङ् मयी साधना में
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समर्पिता करती हुई 'विश्वपूज्य' (श्रीमद् राजेन्द्रसूरि : जीवन-सौरभ') का रहस्योद्घाटन किया है।
विदुषी श्रमणी द्वय ने प्रस्तुत कृति 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्तिसुधारस' (1 से 7 खण्ड) को कोषों के कारागारों से मुक्तकर जीवन की वाणी में विशद करने का विश्वास उपजाया है। अत: आर्या युगल, इसप्रकार की वाङ्मयी-भारती भक्ति में भूषिता रहें एवं आत्मतोष में तोषिता होकर सारस्वत इतिहास की असामान्या विदुषी बनकर वाङ्मय के प्रांगण की प्रोन्नता भूमिका निभाती रहें । यही मेरा आत्मीय अमोघ आशीर्वाद है। ____ इनका विद्या-विवेकयोग, श्रुतों की समाराधना में अच्युत रहे, अपनी निरहंकारिता को अतीव निर्मला बनाता रहे और उत्तरोत्तर समुत्साह-समुन्नत होकर स्वान्तः सुख को समुल्लसित रचता रहे । यही सदाशया शोभना शुभाकांक्षा है।
चैत्रसुदी 5 बुध 1 अप्रैल, 98
हरजी
जिला - जालोर (राज.)
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पं. जयनंदन झा, व्याकरण साहित्याचार्य, साहित्य रत्न एवं शिक्षाशास्त्री
मनुष्य विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है । वह अपने उदात्त मानवीय गुणों के कारण सारे जीवों में उत्तरोत्तर चिन्तनशील होता हुआ विकास की प्रक्रिया में अनवरत प्रवर्धमान रहा है। उसने पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति ही जीवन का परम ध्येय माना है, पर ज्ञानीजन ने इस संसार को ही परम ध्येय न मानकर अध्यात्म ज्ञान को ही सर्वोपरि स्थान दिया है। अतः जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति में धर्म, अर्थ और काम को केवल साधन मात्र माना है ।
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इसलिये अध्यात्म चिन्तन में भारत विश्वमंच पर अति श्रद्धा के साथ प्रशंसित रहा है । इसकी धर्म सहिष्णुता अनोखी एवं मानवमात्र के लिये अनुकरणीय रही है । यहाँ वैष्णव, जैन तथा बौद्ध धर्माचार्यों ने मिलकर धर्म की तीन पवित्र नदियों का संगम "त्रिवेणी" पवित्र तीर्थ स्थापित किया है जहाँ सारे धर्माचार्य अपने-अपने चिन्तन से सामान्य मानव को भी मिल-बैठकर धर्मचर्चा के लिये विवश कर देते हैं। इस क्षेत्र में किस धर्म का कितना योगदान रहा है, यह निर्णय करना अल्प बुद्धि साध्य नहीं है ।
पर, इतना निर्विवाद है कि जैन मनीषी और सन्त अपनी-अपनी विशिष्ट विशेषताओं के लिये आत्मोत्कर्ष के क्षेत्र में तपे हुए मणि के समान सहस्रसूर्य- किरण के कीर्तिस्तम्भ से भारतीय दर्शन को प्रोद्भासित कर रहे हैं, जो काल की सीमा से रहित है। जैनधर्म व दर्शन शाश्वत एवं चिरन्तन है, जो विविध आयामों से इसके अनेकान्तवाद को परिभाषित एवं पुष्ट कर रहे हैं । ज्ञान और तप तो इसकी अक्षय निधि है ।
से
जैन धर्म में भी मन्दिर मार्गी - त्रिस्तुतिक परम्परा के सर्वोत्कृष्ट साधक जैनधर्माचार्य " श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. अपनी तप:साधना और ज्ञानमीमांसा परमपूत होने के कारण सार्वकालिक सार्वजनीन वन्द्य एवं प्रातः स्मरणीय भी हैं जिनका सम्पूर्ण जीवन सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय समर्पित रहा । इनका सम्पूर्ण जीवन अथाह समुद्र की भाँति है, जहाँ निरन्तर गोता लगाने
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पर केवल रत्न की ही प्राप्ति होती है, पर यह अमूल्य रत्न केवल साधक को ही मिल पाता है। साधक की साधना जब उच्च कोटि की हो जाती है तब साध्य संभव हो पाता है । राजेन्द्र कोष तो इनकी अक्षय शब्द मंजूषा है, जो शब्द यहाँ नहीं है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है।
ऐसे महान् मनीषी एवं सन्त को अक्षरशः समझाने के लिये डॉ. प्रियदर्शनाश्री जी एवं डॉ. सुदर्शनाश्री जी साध्वीद्वय ने (१) अभिधान राजेन्द्र कोष में, "सूक्ति-सुधारस" (१ से ७ खण्ड) (२) अभिधान राजेन्द्र कोष में, "जैनदर्शन वाटिका" तथा (३) 'विश्वपूज्य' (श्रीमद् राजेन्द्र सूरि : जीवनसौरभ) इन अमूल्य ग्रन्थों की रचना कर साधक की साधना को अतीव सरल बना दिया है । परम पूज्या ! साध्वीद्वय ने इन ग्रन्थों की रचना में जो अपनी बुद्धिमत्ता एवं लेखन-चातुर्य का परिचय दिया है वह स्तुत्य ही नहीं; अपितु इस भौतिकवादी युग में जन-जन के लिये अध्यात्मक्षेत्र में पाथेय भी बनेगा। मैंने इन ग्रन्थों का विहंगम अवलोकन किया है । भाषा की प्रांजलता और विषयबोध की सुगमता तो पाठक को उत्तरोत्तर अध्ययन करने में रूचि पैदा करेगी, वह सहज ही सबके लिये हृदयग्राहिणी बनेगी। यही लेखिकाद्वय की लेखनी की सार्थकता बनेगी ।
अन्त में यहाँ यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि "रघुवंश" महाकाव्य-रचना के प्रारंभ में कालिदास ने लिखा है कि "तितीपर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्" पर वही कालिदास कवि सम्राट् कहलाये । इसीतरह
आप दोनों का यह परम लोकोपकारी अथक प्रयास भौतिकवादी मानवमात्र के लिये शाश्वत शान्ति प्रदान करने में सहायक बन पायेगा । इति । शुभम् ।
25-7-98 उघ - 12 मधुबन हा. बो. बासनी, जोधपुर
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पं. हीरालाल शास्त्री
एम.ए. विदुषी साध्वीद्वय डॉ. प्रियदर्शना श्री एम. ए., पीएच. डी. एवं डॉ. सुदर्शनाश्री एम. ए. पीएच. डी. द्वारा रचित ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' (1 से 7 खण्ड) सुभाषित सूक्तियों एवं वैदुष्यपूर्ण हृदयग्राही वाक्यों के रूप में एक पीयूष सागर के समान है।
आज के गिरते नैतिक मूल्यों, भौतिकवादी दृष्टिकोण की अशान्ति एवं तनावभरे सांसारिक प्राणी के लिए तो यह एक रसायन है, जिसे पढ़कर आत्मिक शान्ति, दृढ इच्छा-शक्ति एवं नैतिक मूल्यों की चारित्रिक सुरभि अपने जीवन के उपवन में व्यक्ति एवं समष्टि की उदात्त भावनाएँ गहगहायमान हो सकेगी, यह अतिशयोक्ति नहीं, एक वास्तविकता है।
आपका प्रयास स्वान्तःसुखाय लोकहिताय है। 'सूक्ति-सुधारस' जीवन में संघर्षों के प्रति साहस से अडिग रहने की प्रेरणा देता है।
ऐसे सत्साहित्य 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' की महक से व्यक्ति को जीवंत बनाकर आध्यात्मिक शिवमार्ग का पथिक बनाते हैं ।
आपका प्रयास भगीरथ प्रयास है । भविष्य में शुभ कामनाओं के साथ ।
महावीर जन्म कल्याणक, गुरुवार दि. 9 अप्रैल, 1998 ज्योतिष-सेवा राजेन्द्रनगर जालोर (राज.)
निवृत्तमान संस्कृत व्याख्याता
राज. शिक्षा-सेवा
राजस्थान
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- डॉ. अखिलेशकुमार राय साध्वीद्वय डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी द्वारा रचित प्रस्तुत पुस्तक का मैने आद्योपान्त अवलोकन किया है । इनकी रचना 'सूक्ति-सुधारस' (1 से 7 खण्ड) में श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर जी की अमरकृति 'अभिधान राजेन्द्र कोष' के प्रत्येक भाग को आधार बनाकर कुछ प्रमुख सूक्तियों का सुंदर-सरस व सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। साध्वीद्वय का यह संकल्प है कि 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में उपलब्ध लगभग २७०० सूक्तियों का सात खण्डों में संचयन कर सर्वसाधारण के लिये सुलभ कराया जाय । इसप्रकार का अनूठा संकल्प अपने आपमें अद्वितीय कहा जा सकता है। मेरा विश्वास है कि ऐसी सूक्ति सम्पन्न रचनाओं से पाठकगण के चरित्र निर्माण की दिशा निर्धारित होगी। ___ अब सुहृद्जनों का यह पुनीत कर्तव्य है कि वे इसे अधिक से अधिक लोगों के पठनार्थ सुलभ करायें । मैं इस महत्त्वपूर्ण रचना के लिये साध्वीद्वय की सराहना करता हूँ, इन्हें साधुवाद देता हूँ और यह शुभकामना प्रकट करता हूँ कि ये 'इसप्रकार की और भी अनेक रचनायें समाज को उपलब्ध करायें।
दिनांक 9 अप्रैल, 1998
चैत्र शुक्ला त्रयोदशी 1/1 प्रोफेसर कालोनी, महाराजा कोलेज, छतरपुर (म.प्र.)
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डॉ. अमृतलाल गाँधी सेवानिवृत्त प्राध्यापक,
सम्यग्ज्ञान की आराधना में समर्पिता विदुषी साध्वीद्वय डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी म. एवं डॉ. सुदर्शना श्रीजी म. ने 'सूक्ति-सुधारस' (1 से 7 खण्ड) की 2667 सूक्तियों में अभिधान राजेन्द्र कोष के मन्थन का मक्खन सरल हिन्दी भाषा में प्रस्तुत कर जनसाधारण की सेवार्थ यह ग्रन्थ लिखकर जैन साहित्य के विपुल ज्ञान भण्डार में सराहनीय अभिवृद्धि की है। साध्वीद्वय ने कोष के सात भागों की सूक्तियों / सुकथनों की अलग-अलग सात खण्डों में व्याख्या करने का सफल सुप्रयास किया है, जिसकी मैं सराहना एवं अनुमोदना करते हुए स्वयं को भी इस पवित्र ज्ञानगंगा की पवित्र धारा में आंशिक सहभागी बनाकर सौभाग्यशाली मानता हूँ ।
वस्तुतः अभिधान राजेन्द्र कोष पयोनिधि है । पूज्या विदुषी साध्वीद्वय सूक्ति-सुधारस रचकर एक ओर कोष की विश्वविख्यात महिमा को उजागर किया है और दूसरी ओर अपने शुभ श्रम, मौलिक अनुसंधान दृष्टि, अभिनव कल्पना और हंस की तरह मुक्ताचयन की विवेकशीलता का परिचय दिया है। मैं उनको इस महान् कृति के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ ।
दिनांक : 16 अप्रैल, 1998 738, नेहरूपार्क रोड,
जोधपुर (राजस्थान)
जयनारायण व्यास विश्व विद्यालय,
जोधपुर
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2036
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-भागचन्द जैन कवाड
प्राध्यापक (अंग्रेजी) प्रस्तुत ग्रंथ "अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस" (1 से 7 खण्ड) 5 परिशिष्टों में विभक्त 2667 सूक्तियों से युक्त एक बहुमूल्य एवं अमृत कणों से परिपूर्ण ग्रन्थ है। विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ में अन्यान्य उपयोगी जीवन दर्शन से सम्बन्धित विषयों का समावेश किया गया है। उदाहरण स्वरूप जीवनोपयोगी, नैतिकता तथा आध्यात्मिक जगत् को स्पर्श करने वाले विषय यथा - 'धर्म में शीघ्रता', 'आत्मवत् चाहो', 'समाधि', "किञ्चिद् श्रेयस्कर', 'अकथा', 'क्रोध परिणाम', 'अपशब्द', सच्चा भिक्षु, धीर साधक, पुण्य कर्म, अजीर्ण, बुद्धियुक्त वाणी, बलप्रद जल, सच्चा आराधक, ज्ञान और कर्म, पूर्ण आत्मस्थ, दुर्लभ मानव-भव, मित्र-शत्रु कौन ?, कर्ताभोक्ता आत्मा, रत्नपारखी, अनुशासन, कर्म विपाक, कल्याण कामना, तेजस्वी वचन, सत्योपदेश, धर्मपात्रता, स्याद्वाद आदि ।
सर्वत्र ग्रन्थ में अमृत-कणों का कलश छलक रहा है तथा उनकी सुवास व्याप्त है जो पाठक को भाव विभोर कर देती है, वह कुछ क्षणों के लिए अतिशय आत्मिक सुख में लीन हो जाता है । विदुषी महासतियाँ द्वय डॉ. प्रियदर्शना श्री जी एवं डॉ. सुदर्शना श्री जी ने अपनी प्रखर लेखनी के द्वारा गूढ़तम विषयों को सरलतम रूप से प्रस्तुत कर पाठकों को सहज भाव से सुधा का पान कराया है। धन्य है उनकी अथक साधना लगन व परिश्रम का सुफल जो इस धरती पर सर्वत्र आलोक किरणें बिखेरेगा और धन्य एवं पुलकित हो उठेंगे हम सब ।
चैत्र शुक्ला त्रयोदशी
अग्रवाल गर्ल्स कोलेज दिनांक 9 अप्रैल 1998
मदनगंज (राज.) विजय निवास, कचहरी रोड़, किशनगढ़ शहर (राज.)
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 37
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HHHHHHrit
(दर्पण
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'अभिधान राजन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' ग्रन्थ का प्रकाशन 7 खण्डों में हुआ है। प्रथम खण्ड में 'अ' से 'ह' तक के शीर्षकों के अन्तर्गत सूक्तियाँ संजोयी गई हैं । अन्त में अकारादि अनुक्रमणिका दी गई हैं। प्रायः यही क्रम 'सूक्ति सुधारस' के सातों खण्डों में मिलेगा। शीर्षकों का अकारादि क्रम है। शीर्षक सूची विषयानुक्रम आदि हर खण्ड के अन्त में परिशिष्ट में दी गई है। पाठक के लिए परिशिष्ट में उपयोगी सामग्री संजोयी गई है। प्रत्येक खण्ड में 5 परिशिष्ट हैं । प्रथम परिशिष्ट में अकारादि अनुक्रमणिका, द्वितीय परिशिष्ट में विषयानुक्रमणिका, तृतीय परिशिष्ट में अभिधान राजेन्द्र : पृष्ठ संख्या, अनुक्रमणिका, चतुर्थ परिशिष्ट में जैन एवं जैनेतर ग्रन्थः गाथा/श्लोकादि अनुक्रमणिका और पञ्चम परिशिष्ट में 'सूक्ति-सुधारस' में प्रयुक्त सन्दर्भ-ग्रन्थ सूची दी गई है। हर खण्ड में यही क्रम मिलेगा । 'सूक्ति-सुधारस' के प्रत्येक खण्ड में सूक्ति का क्रम इसप्रकार रखा गया है कि सर्व प्रथम सूक्ति का शीर्षक एवं मूल सूक्ति दी गई है। फिर वह सूक्ति अभिधान राजेन्द्र कोष के किस भाग के किस पृष्ठ से उद्धृत है । सूक्ति-आधार ग्रन्थ कौन-सा है ? उसका नाम और वह कहाँ आयी है, वह दिया है। अन्त में सूक्ति का हिन्दी भाषा में सरलार्थ दिया गया है।
सूक्ति-सुधारस के प्रथम खण्ड में 251 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के द्वितीय खण्ड में 259 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के तृतीय खण्ड में 289 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के चतुर्थ खण्ड में 467 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के पंचम खण्ड में 471 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के षष्टम खण्ड में 607 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के सप्तम खण्ड में 323 सूक्तियाँ हैं ।
कुल मिलाकर 'सूक्ति सुधारस' के सप्त खण्डों में 2667 सूक्तियाँ हैं। इस ग्रन्थ में न केवल जैनागमों व जैन ग्रन्थों की सूक्तियाँ हैं, अपितु वेद,
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2.41
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उपनिषद, गीता, महाभारत, आयुर्वेद शास्त्र, ज्योतिष, नीतिशास्त्र, पुराण, स्मृति, पंचतन्त्र, हितोपदेश आदि ग्रन्थों की भी सूक्तियाँ हैं । 1. विश्वपूज्य प्रणीत सम्पूर्ण वाङ्मय 2. लेखिका द्वय की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ ।
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'विश्वपूज्यः' जीवन-दर्शन
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| সতন-হতনি।
. महिमामण्डित बहुरत्नावसुन्धरा से समलंकृत परम पावन भारतभूमि की वीर प्रसविनी राजस्थान की ब्रजधरा भरतपुर में सन् 1827 - 3 दिसम्बर को पौष शुक्ला सप्तमी, गुरुवार के शुभ दिन एक दिव्य नक्षत्र संतशिरोमणि विश्वपूज्य आचार्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी ने जन्म लिया, जिन्होंने अस्सी वर्ष की आयु तक लोकमाङ्गल्य की गंगधारा समस्त जगत् में प्रवाहित की। ___ उनका जीवन भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए समर्पित हुआ ।
वह युग अंग्रेजी राज्य की धूमिल घन घटाओं से आच्छादित था। पाश्चात्त्य संस्कृति की चकाचौंध ने भारत की सरल आत्मा को कुण्ठित कर दिया था । नव पीढ़ी ईसाई मिशनरियों के धर्मप्रचार से प्रभावित हो गई थी। अंग्रेजी शासन में पद-लिप्सा के कारण शिक्षित युवापीढ़ी अतिशय आकर्षित थी। __ ऐसे अन्धकारमय युग में भारतीय संस्कृति की गरिमा को अक्षुण्ण रखने के लिए जहाँ एक ओर राजा राममोहनराय ने ब्रह्मसमाज की स्थापना की, तो दूसरी ओर दयानन्द सरस्वती ने वैदिक धर्म का शंखनाद किया। उसी युग में पुनर्जागरण के लिए प्रार्थना समाज और एनी बेसेन्ट ने थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना की। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को अंग्रेजी शासन की तोपों ने कुचल दिया था। भारतीय जनता को निराशा. और उदासीनता ने घेर लिया था। ___जागृति का शंखनाद फूंकने के लिए लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने यह उद्घोषणा की - 'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।' महामना मदनमोहन मालवीय ने बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय की स्थापना की।
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श्री मोहनदास कर्मचन्द गान्धी (राष्ट्रपिता - महात्मा गाँधी) को महान् संत श्रीमद् राजचन्द्र की स्वीकृति से उनके पिताश्री कर्मचन्दजी ने इंग्लैंड में बार-एट-लॉ उपाधि हेतु भेजा । गाँधीजी ने महान् संत श्रीमद् राजचन्द्र की तीन प्रतिज्ञाएँ पालन कर भारत की गौरवशालिनी संस्कृति को उजागर किया। ये तीन प्रतिज्ञाएँ थीं - 1. मांसाहार त्याग 2. मदिरापान त्याग और 3. ब्रह्मचर्य का पालन । ये प्रतिज्ञाएँ भारतीय संस्कृति की रवि-रश्मियाँ हैं, जिनके प्रकाश से भारत जगद्गुरु के पद पर प्रतिष्ठित हैं, परन्तु आंग्ल शासन ने हमारी उज्ज्वल संस्कृति को नष्ट करने का भरसक प्रयास किया।
ऐसे समय में अनेक दिव्य एवं तेजस्वी महापुरुषों ने जन्म लिया जिनमें श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, श्री आत्मारामजी (सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्रीमद् विजयानन्द सूरिजी) एवं विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी म. आदि हैं।
श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी ने चरित्र निर्माण और संस्कृति की पुनर्स्थापना के लिए जो कार्य किया, वह र्वणाक्षरों में अङ्कित है । एक ओर उन्होंने भारतीय साहित्य के गौरवशाली, चिन्तामणि रत्न के समान 'अभिधान राजेन्द्र कोष' को सात खण्डों में रचकर भारतीय वाङ्मय को विश्व में गौरवान्वित किया, तो दूसरी और उन्होंने सरल, तपोनिष्ठ, त्याग, करुणाई और कोमल जीवन से सबको मैत्री-सूत्र में गुम्फित किया ।
विश्वपूज्य की उपाधि उनको जनता जनार्दन ने, उनके प्रति अगाध श्रद्धा-प्रीति और भक्ति से प्रदान की है, यद्यपि ये निर्मोही. अनासक्त योगी थे। न तो किसी उपाधि-पदवी के आकाङ्क्षी थे और न अपनी यशोपताका फहराने के लिए लालायित थे । ___ उनका जीवन अनन्त ज्योतिर्मय एवं करुणा रस का सुधा-सिन्धु था !
उन्होंने अपने जीवनकाल में महनीय 61 ग्रन्थों की रचना की है जिनमें काव्य, भक्ति और संस्कृति की रसवंती धाराएँ प्रवाहित हैं।
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वस्तुतः उनका मूल्यांकन करना हमारे वश की बात नहीं, फिरभी हम प्रीतिवश यह लिखती हैं कि जिस समय भारत के मनीषीसाहित्यकार एवं कवि भारतीय संस्कृति और साहित्य को पुनर्जीवित करना चाहते थे, उस समय विश्वपूज्य भी भारत के गौरव को उद्भासित करने के लिए 63 वर्ष की आयु में सन् 1890 आश्विन शुक्ला 2 को कोष के प्रणयन में जुट गए। इस कोष के सप्त खण्डों को उन्होंने सन् 1903 चैत्र शुक्ला 13 को परिसम्पन्न किया । यह शुभ दिन भगवान् महावीर का जन्म कल्याणक दिवस है । शुभारम्भ नवरात्रि में किया और समापन प्रभु के जन्म-कल्याणक के दिन वसन्त ऋतु की मनमोहक सुगन्ध बिखेरते हुए किया ।
यह उल्लेख करना समीचीन है कि उस युग में मैकाले ने अँग्रेजी भाषा और साहित्य को भारतीय विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में अनिवार्य कर दिया था और नई पीढ़ी अँग्रेजी भाषा तथा साहित्य को पढ़कर भारतीय साहित्य व संस्कृति को हेय समझने लगी थी, ऐसे पराभव युग में बालगंगाधर तिलक ने 'गीता रहस्य', जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरजी ने 'कर्मयोग', श्रीमद् आत्मारामजी ने 'जैन तत्त्वादर्श' व 'अज्ञान तिमिर भास्कर, 1 महान् मनीषी अरविन्द घोष ने 'सावित्री' महाकाव्य लिखकर पश्चिम- -जगत् को अभिभूत कर दिया ।
उस युग में प्रज्ञा महर्षि जैनाचार्य विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी गुरुदेव ने 'अभिधान राजेन्द्र कोष' की रचना की । उनके द्वारा निर्मित · यह अनमोल ग्रन्थराज एक अमरकृति है । यह एक ऐसा विशाल कार्य था, जो एक व्यक्ति की सीमा से परे की बात थी, किन्तु यह दायित्व विश्वपूज्य ने अपने कंधों पर ओढ़ा ।
भारतीय संस्कृति और साहित्य के पुनर्जागरण के युग में विश्वपूज्य ने महान् कोष को रचकर जगत् को ऐसा अमर ग्रन्थ दिया जो चिर नवीन है। यह ' एन साइक्लोपिडिया' समस्त भाषाओं की करुणार्द्र माता
1. अज्ञान तिमिर भास्कर को पढ़कर अंग्रेज विद्वान् हार्नेल इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने श्रीमद् आत्मारामजी को 'अज्ञान तिमिर भास्कर' के अलंकरण से विभूषित किया तथा उन्होंने अपने ग्रन्थ 'उपासक दशांग' के भाष्य को उन्हें समर्पित किया ।
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संस्कृत, जनमानस में गंग-धारा के समान बहनेवाली जनभाषा अर्धमागधी
और जनता-जनार्दन को प्रिय लगनेवाली प्राकृत. भाषा - इन तीनों भाषाओं के शब्दों की सुस्पष्ट, सरल और सहज व्याख्या उद्भासित करता है।
इस महाकोष का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें गीता, मनुस्मृति, ऋग्वेद, पद्मपुराण, महाभारत, उपनिषद, पातंजल योगदर्शन, चाणक्य नीति, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि ग्रन्थों की सुबोध टीकाएँ और भाष्य उपलब्ध हैं। साथ ही आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'चरक संहिता' पर भी व्याख्याएँ हैं। ___'अभिधान राजेन्द्र कोष' की प्रशंसा भारतीय एवं पाश्चात्त्य विद्वान् करते नहीं थकते । इस ग्रन्थ रत्नमाला के सात खण्ड सात अनुपम दिव्य रत्न हैं, जो अपनी प्रभा से साहित्य-जगत् को प्रदीप्त कर रहे हैं।
इस भारतीय राजर्षि की साहित्य एवं तप-साधना पुरातन ऋषि के समान थी । वे गुफाओं एवं कन्दराओं में रहकर ध्यानालीन रहते थे। उन्होंने स्वर्णगिरि, चामुण्डावन, मांगीतुंगी आदि गुफाओं के निर्जन स्थानों में तप एवं ध्यान-साधना की । ये स्थान वन्य पशुओं से भयावह थे, परन्तु इस ब्रह्मर्षि के जीवन से जो प्रेम और मैत्री की दुग्धधारा प्रवाहित होती थी, उससे हिंस्र पशु-पक्षी भी उनके पास शांत बैठते थे और भयमुक्त हो चले जाते थे ।
ऐसे महापुरुष के चरण कमलों में राजा-महाराजा, श्रीमन्त, राजपदाधिकारी नतमस्तक होते थे । वे अत्यन्त मधुर वाणी में उन्हें उपदेश देकर गर्व के शिखर से विनय-विनम्रता की भूमि पर उतार लेते थे और वे दीन-दुखियों, दरिद्रों, असहायों, अनाथों एवं निर्बलों के लिए साक्षात् भगवान् थे । ___ उन्होंने सामाजिक कुरीतियों-कुपरम्पराओं, बुराइयों को समाप्त करने के लिए तथा धार्मिक रूढ़ियों, अन्धविश्वासों, मिथ्याधारणाओं
और कुसंस्कारों को मिटने के लिए ग्राम-ग्राम, नगर-नगर पैदल विहार कर विभिन्न प्रवचनों के माध्यम से उपदेशामृत की अजस्रधारा प्रवाहित
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की । तृष्णातुर मनुष्यों को संतोषामृत पिलाया । कुसंपों के फुफकारते फणिधरों को शांत कर समाज को सुसंप का सुधा-पान कराया ।
विश्वपूज्य ने नारी - गरिमा के उत्थान के लिए भी कन्यापाठशालाएँ, दहेज उन्मूलन, वृद्ध-विवाह निषेध आदि का आजीवन प्रचार-प्रसार किया । 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' के अनुरूप सन्देश दिया अपने प्रवचनों एवं साहित्य के माध्यम से ।
गुरुदेव ने पर्यावरण- रक्षण के लिए वृक्षों के संरक्षण पर जोर दिया । उन्होंने पशु-पक्षी के जीवन को अमूल्य मानते हुए उनके प्रति प्रेमभाव रखने के लिए उपदेश दिए । पर्वतों की हरियाली, वनउपवनों की शोभा, शान्ति एवं अन्तर - सुख देनेवाली है। उनका रक्षण हमारे जीवन के लिए अत्यावश्यक है । इसप्रकार उन्होंने समस्त जीवराशि के संरक्षण के लिए उपदेश दिया ।
काव्य विभूषा : उनकी काव्य कला अनुपम है । उन्होंने शास्त्रीय राग-रागिनियों में अनेक सज्झाय व स्तवन गीत रचे हैं । उन्होंने शास्त्रीय रागों में ठुमरी, कल्याण, भैरवी, आशावरी आदि का अपने गीतों में सुरम्य प्रयोग किया है। लोकप्रिय रागिनियों में वनझारा, गरबा, ख्याल आदि प्रियंकर हैं । प्राचीन पूजा गीतों की लावनियों में 'सलूणा', 'रेखता', 'तीरथनी आशातना नवि करिए रे' आदि रागों का प्रयोग मनमोहक हैं । उन्होंने उर्दू की गजल का भी अपने गीतों में प्रयोग किया है।
चैत्यवंदन - स्तुतियों में दोहा, शिखरणी, स्रग्धरा, मालिनी, पद्धडी प्रमुख हैं । पद्धडी छन्द में रचित श्री महावीर जिन चैत्यवंदन की एक वानगी प्रस्तुत है
1
" संसार सागर तार धीर, तुम विण कोण मुझ हरत पीर । मुझ चित्त चंचल तुं निवार, हर रोग सोग भयभीत वार ॥ एक निश्छल भक्त का दैन्य निवेदन मौन - मधुर है । साथ ही अपने परम तारक परमात्मा पर अखण्ड विश्वास और श्रद्धा-भक्ति को प्रकट
है ।
1.
जिन
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भक्ति मंजूषा भाग
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चौपड़ क्रीड़ा - सज्झाय में अलौकिक निरंजन शुद्धात्म चेतन रूप प्रियतम के साथ विश्वपूज्य की शुद्धात्मा रूपी प्रिया किस प्रकार चौपड़ खेलती है ? वे कहते हैं
'रंग रसीला मारा, प्रेम पनोता मारा, सुखरा सनेही मारा साहिबा । पिउ मोरा चोपड़ इणविध खेल हो ॥
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चार चोपड़ चारों गति, पिउ मोरा चोरासी जीवा जोन हो । कोठा चोरासिये फिरे, पिउ मोरा सारी पासा वसेण हो ।। " 1 यह चौपड़ का सुन्दर रूपक है और उसके द्वारा चतुर्गति रूप संसार में चौपड़ का खेल खेला जा रहा है । साधक की शुद्धात्म - प्रिया चेतन रूप प्रियतम को चौपड़ के खेल का रहस्योद्घाटन करते हुए कहती है कि चौपड़ चार पट्टी और 84 खाने की होती है । इसीतरह चतुर्गति रूप चौपड़ में भी 84 लक्षयोनि रूप 84 घर - उत्पत्ति - स्थान होते हैं । चतुर्गति चौपड़ के खेल को जीतकर आत्मा जब विजयी बन जाती है, तब वह मोक्ष रूपी घर में प्रवेश करती है ।
अध्यात्मयोगी संत आनंदघन ने भी ऐसी ही चौपड़ खेली है "प्राणी मेरो, खेलै चतुरगति चोपर ।
नरद गंजफा कौन गिनत है, मानै न लेखे बुद्धिवर ॥ राग दोस मोह के पासे, आप वणाए हितधर । जैसा दाव परै पासे का, सारि चलावै खिलकर ॥ " 2 विश्वपूज्य का काव्य अप्रयास हृदय - वीणा पर अनुगुंजित है । 'पिउ' [ प्रियतम] शब्द कविता की अंगूठी में हीरककणी के समान मानो जड़ दिया ।
I
विश्वपूज्य की आत्मरमणता उनके पदों में दृष्टिगत होती है । वे प्रकाण्ड विद्वान् - मनीषी होते हुए भी अध्यात्म योगीराज आनन्दघन की तरह अपनी मस्त फकीरी में रमते थे । उनका यह पद मनमोहक है.
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'अवधू आतम ज्ञान में रहना, किसी कु कुछ नहीं कहना ॥' 3
2 आनन्दघन ग्रन्थावली
1. जिन भक्ति मंजूषा भाग
3. जिन भक्ति मंजूषा भाग 1
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'मौनं सर्वार्थ साधनम्' की अभिव्यंजना इसमें मुखरित हुई है। उनके पदों में व्यक्ति की चेतना को झकझोर देने का सामर्थ्य है, क्योंकि वे उनकी सहज अनुभूति से निःसृत है । विश्वपूज्य का अंतरंग व्यक्तित्व उनकी काव्य-कृतियों में व्याप्त है । उनके पदों में कबीरसा फक्कड़पन झलकता है । उनका यह पद द्रष्टव्य है - " ग्रन्थ रहित निर्ग्रन्थ कहीजे, फकीर फिकर फकनारा । ज्ञानवास में बसे संन्यासी, पंडित पाप निवारा रे
1
सद्गुरु ने बाण मारा, मिथ्या भरम विदारा रे ॥ " 1 विश्वपूज्य का व्यक्तित्व वैराग्य और अध्यात्म के रंग में रंगा था । उनकी आध्यात्मिकता अनुभवजन्य थी । उनकी दृष्टि में आत्मज्ञान ही महत्त्वपूर्ण था । 'परभावों में घूमनेवाला आत्मानन्द की अनुभूति नहीं कर सकता । उनका मत था कि जो पर पदार्थों में रमता है वह सच्चा साधक नहीं है । उनका एक पद द्रष्टव्य है -
'आतम ज्ञान रमणता संगी, जाने सब मत जंगी । पर के भाव लहे घट अंतर, देखे पक्ष दुरंगी ॥ सोग संताप रोग सब नासे, अविनासी अविकारी तेरा मेरा कछु नहीं ताने, भंगे भवभय भारी ॥ अलख अनोपम रूप निज निश्चय, ध्यान हिये बिच धरना ।
दृष्टि राग तजी निज निश्चय, अनुभव ज्ञानकुं वरना || 2 उनके पदों में प्रेम की धारा भी अबाधगति से बहती है । उन्होंने शांतिनाथ परमात्मा को प्रियतम का रूपक देकर प्रेम का रहस्योद्घाटन किया है । वे लिखते हैं
'श्री शांतिजी पिउ मोरा, शांतिसुख सिरदार हो ।
प्रेमे पाम्या प्रीतड़ी, पिउ मोरा प्रीतिनी रीति अपार हो ।
शांति सलूणी म्हारो, प्रेम नगीनो म्हारो, स्नेहसमीनो म्हारो नाहलो । पिउ पल एक प्रीति पमाड हो, प्रीत प्रभु तुम प्रेमनी,
पीउ मोरा मुज मन में नहिं माय हो ॥ " 3
1. जिन भक्ति मंजूषा भाग
2 जिन भक्ति मंजूषा भाग
1
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3.
जिन भक्ति मंजूषा भाग
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यद्यपि उनकी दृष्टि में प्रेम का अर्थ साधारण-सी भावुक स्थिति न होकर आत्मानुभवजन्य परमात्म-प्रेम है, आत्मा-परमात्मा का विशुद्ध निरूपाधिक प्रेम है । इसप्रकार, विश्वपूज्य की कृतियों में जहाँ-जहाँ प्रेम-तत्त्व का उल्लेख हुआ है, वह नर-नारी का प्रेम न होकर आत्मब्रह्म-प्रेम की विशुद्धता है।
विश्वपूज्य में धर्म सद्भाव भी भरपूर था । वे निष्पक्ष, निस्पृही मानव-मानव के बीच अभेद भाव एवं प्राणि मात्र के प्रति प्रेम-पीयूष की वर्षा करते थे । उन्होंने अरिहन्त, अल्लाह-ईश्वर, रूद्र-शिव, ब्रह्मा-विष्णु को एक ही माना है। एक पद में तो उन्होंने सर्व धर्मों में प्रचलित परमात्मा के विविध नामों का एक साथ प्रयोग कर समन्वय-दृष्टि का अच्छा परिचय दिया है। उनकी सर्व धर्मों के प्रति समादरता का निम्नांकित पद मननीय है -
'ब्रह्म एक छे लक्षण लक्षित, द्रव्य अनंत निहारा । सर्व उपाधि से वर्जित शिव ही, विष्णु ज्ञान विस्तारा रे ॥ ईश्वर सकल उपाधि निवारी, सिद्ध अचल अविकारा । शिव शक्ति जिनवाणी संभारी, रुद्र है करम संहारा रे ॥ अल्लाह आतम आपहि देखो, राम आतम रमनारा ।
कर्मजीत जिनराज प्रकासे, नयथी सकल विचारा रे ॥1 विश्वपूज्य के इस पद की तुलना संत आनंदघन के पद से की जा सकती है ।
यह सच है कि जिसे परमतत्त्व की अनुभूति हो जाती है, वह संकीर्णता के दायरे में आबद्ध नहीं रह सकता । उसके लिए रामकृष्ण, शंकर-गिरीश, भूतेश्वर, गोविन्द, विष्णु, ऋषभदेव और महादेव
1. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1 पृ.72 2 'राम कहौ रहिमान कहौ, कोउ कान्ह कहौ महादेव री।
पारसनाथ कही कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेवरी ॥ भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री। तैसे खण्ड कलपना रोपित, आप अखण्ड सरूप री ॥ निज पद रमै राम सो कहिये, रहम करे रहमान री। कर करम कान्ह सो कहिये, महादेव निरवाण री ॥ परसै रूप सो पारस कहियै, ब्रह्म चिन्है सो ब्रह्म री । इहविध साध्यो आप आनन्दघन, चेतनमय नि:कर्मरी ॥' आनंदघन ग्रन्थावली, पद ६५
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या ब्रह्म आदि में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। उसका तो अपना एक धर्म होता है और वह है - आत्म-धर्म (शुद्धात्म-धर्म) । यही बात विश्वपूज्य पर पूर्णरूपेण चरितार्थ होती है । सामान्यतया जैन परम्परा में परम तत्त्व की उपासना तीर्थंकरों के रूप में की जाती रही है; किन्तु विश्वपूज्य ने परमतत्त्व की उपासना तीर्थंकरों की स्तुति के अतिरिक्त शंकर, शंभु, भूतेश्वर, महादेव, जगकर्ता, स्वयंभू, पुरूषोत्तम, अच्युत, अचल, ब्रह्म-विष्णु-गिरीश इत्यादि के रूप में भी की है। उन्होंने निर्भीक रूप से उद्घोषणा की है - "शंकर शंभु भूतेश्वरो ललना, मही माहें हो वली किस्यो महादेव, जिनवर ए जयो ललना । जगकर्ता जिनेश्वरो ललना, स्वयंभू हो सहु सुर करे सेव, जिनवर ए जयो ललना ॥ वेद ध्वनि वनवासी ललना, चौमुखे हो चारे वेद सुचंग, जिन. । वाणी अनक्षरी दिलवसी ललना, ब्रह्माण्डे बीजो ब्रह्म विभंग, जि. ॥ पुरुषोत्तम परमातमा ललना, गोविन्द हो गिख्वो गुणवंत, जि. । अच्युत अचल छे ओपमा ललना, विष्णु हो कुण अवर कहंत, जि.॥ नाभेय रिषभ जिणंदजी ललना, निश्चय थी हो देख्यो देव दमीश । एहिज सूरिशजेन्द्र जी ललना, तेहिज हो ब्रह्मा विष्णु गिरीश, जि.॥""
वास्तव में, विश्वपूज्य ने परमात्मा के लोक प्रसिद्ध नामों का निर्देश कर समन्वय-दृष्टि से परमात्म-स्वरूप को प्रकट किया है ।
इसप्रकार कहा जा सकता है कि विश्वपूज्य ने धर्मान्धता, संकीर्णता, असहिष्णुता एवं कूपमण्डूकता से मानव-समाज को ऊपर उठाकर एकता का अमृतपान कराया । इससे उनके समय की राजनैतिक एवं धार्मिक परिस्थिति का भी परिचय मिलता है। _ 'अभिधान राजेन्द्र कोष' कथाओं का सुधासिन्धु है । कथाओं में जीवन को सुसंस्कृत, सभ्य एवं मानवीय गुण-सम्पदा से विभूषित करने का सरस शैली में अभिलेखन हुआ है। कथाएँ इक्षुरस के समान मधुर, सरस और सहज शैली में आलेखित हैं । शैली में प्रवाह हैं, प्राकृत और संस्कृत शब्दों को हीरक कणियों के समान तराश कर 1. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1 पृ. 72
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कथाओं को सुगम बना दिया है ।
उपसंहार :
विश्वपूज्य अजर-अमर है । उनका जीवन 'तप्तं तप्तं पुनरपि पुनः काञ्चन कान्त वर्णम्' की उक्ति पर खरा उतरता है । जीवन में तप की कंचनता है, कवि-सी कोमलता है । विद्वत्ता के हिमाचल में से करुणा की गंग-धारा प्रवाहित है ।
उन्होंने जगत् को 'अभिधान राजेन्द्र कोष' रूपी कल्पतरू देकर इस धरती को स्वर्ग बना दिया है, क्योंकि इस कोष में ज्ञान - भक्ति और कर्मयोग का त्रिवेणी संगम हुआ है। यह लोक माङ्गल्य से भरपूर क्षीर-सागर है। उनके द्वारा निर्मित यह कोष आज भी आकाशी ध्रुवता की भाँति टिमटिमा रहा है और हमें सतत दिशा-निर्देश दे रहा है । विश्वपूज्य के लिए अनेक अलंकार ढूँढने पर भी हमें केवल एक ही अलंकार मिलता है - वह है - अनन्वय अलंकार - अर्थात् विश्वपूज्य विश्वपूज्य ही है ।
उनका स्वर्गवास 21 दिसम्बर सन् 1906 में हुआ, परन्तु कौन कहता है कि विश्वपूज्य विलीन हो गये ? वे जन-जन के श्रद्धा केन्द्र सबके हृदय - मंदिर में विद्यमान हैं !
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अभिधान राजेन्द्र कोष में,
सूक्ति-सुधारस
(द्वितीय खण्ड)
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सूर्योदयास्त भ्रान्ति णा इच्चो उदेति ण अस्थमेति ।
- अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग-2 पृष्ठ 3]
- सूत्रकृतांग सूत्र 12 वस्तुत: सूर्य न उदय होता है, न अस्त होता है । यह सब दृष्टिभ्रम है। तप का फल तपसो निर्जराफलं दृष्टम्
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 8]
एवं [भाग 6 पृ. 337]
- प्रशमरति 73 • तप का फल निर्जरा है। 3 विनय से अक्षयसुख
विणया णाणं, णाणाउ दंसणं दंसणाहिं चरणं तु । चरणाहिं तो मोक्खो मुक्खे सुक्खं अणाबाहं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 8]
एवं [भाग 6 पृ. 337]
- धर्मरत्न प्रकरण 1 पृ. 21 विनय से ज्ञान, ज्ञान से दर्शन, दर्शन से चारित्र, चारित्र से मोक्ष होता है और मोक्ष से अव्याबाध सुख की प्राप्ति होती है।
कल्याणपात्र तस्मात् कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 8]
एवं [भाग 6 पृ. 337]
- प्रशमरति 74 विनय सब कल्याणों का मूल हैं । ज्ञान-फल ज्ञानस्य फलं विरतिः । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 57 )
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 8]
एवं [भाग 6 पृ. 337]
- प्रशमरति 72 ज्ञान का फल विरति है। सर्वकल्याण का मूलः विनय विनयफलं शुश्रूषा, शुश्रूषा फलं श्रुतज्ञानं । ज्ञानस्य फलं विरति, विरति र्फलं चास्रव निरोधः ॥ संवरफलं तपोबलमथ, तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् । तस्माक्रिया निवृत्तिः क्रिया निवृत्तेरयोगित्वम् ॥ योगनिरोधाद् भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात् कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 8]
एवं [भाग 6 पृ. 337]
- प्रशमरति प्रकरण 72-73-74 विनय का फल श्रवण, श्रवण (गुरु के समीप किया हुआ) का फल आगमज्ञान, आगमज्ञान का फल विरति (नियम), विरति का फल संवर (आस्रव निवृत्ति), संवर का फल तप: शक्ति, तप का फल निर्जरा, निर्जरा का फल क्रिया-निवृत्ति, क्रिया-निवृत्ति से योग-निरोध, योग निरोध होने से भव-परंपरा का क्षय होता है । परम्परा (जन्मादि) के क्षय से मोक्ष-प्राप्ति होती है । इसलिए सारे कल्याणों का भाजन विनय है । 7 परिग्रहजन्य दोष ण एत्थ तवो वा दमो वा णियमो वा दिस्सति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 10]
एवं [भाग 6 पृ. 730]
- आचारांग 12307 परिग्रही पुरूष में न तप होता है, न दम (इन्द्रिय-निग्रह) होता है और न नियम ही होता है। 8 जीवन-प्रिय
सव्वेसिं जीवितं पियं ।
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सभी को जीवन प्यारा है ।
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जीवन-कामना
~ सव्वे पाणा पियाउया सुहसाता दुक्ख पडिकूला अप्पियवधा पियजीविणो जीवितुकामा ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 10] आचारांग 1/23/18
सभी प्राणियों को अपना जीवन प्यारा है। सभी सुख का आस्वाद चाहते हैं । दुःख से घबराते हैं । मृत्यु सबको अप्रिय है और जीवन प्रिय । सब जीवित रहना चाहते हैं ।
10
आत्म-चिन्तन
भवकोटिभिरसुलभ, मानुष्यं प्राप्य कः प्रमादो मे । न च गतमायुर्भूयः, प्रेत्यत्यपि देवराजस्य अभिधान राजेन्द्रकोष [ भाग 2 पृ. 11] एवं [भाग 4 पृ. 2677] प्रशमरति प्रकरण
64
तिर्यञ्चगति आदि में अनन्तभव बीत गए, फिर भी अत्यन्त दुर्लभ मानवजन्म को पाने के बाद भी मेरा कैसा प्रमाद है ? इन्द्र का भी बीता आयुष्य पुनः लौटकर नहीं आता तब मनुष्य की बात ही कहाँ रही ? 11 एक दिन ऐसा आयेगा
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 10] आचारांग 1/2/3/78
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जह तुब्भे तह अम्हे, तुम्हे विय होहिहा जहा अम्हे । अप्पाहेति पडतं पंडुय पत्तं किसलयाणं ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 11] अनुयोगद्वार 121-492 (4)
पीतवर्ण (पीला) पत्ता पृथ्वी पर गिरता हुआ अपने साथी हरे पत्तों से कहता है – “मेरे साथी ! आज जैसे तुम हो, एक दिन हम भी ऐसे ही थे और आज जैसे हम हैं, एकदिन तुम्हें भी ऐसा ही होना होगा ।"
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12 पल-पल-अप्रमाद समयं गोयम ! मा पमायए। .
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 11]
- उत्तराध्ययन 10/34 एक क्षण के लिए भी प्रमाद मत करो । 13 क्षणभङ्गर जीवन
कुसग्गे जह ओसबिंदुए, थोवं चिट्ठइ लंबमाणाए । एवं मणुयाणं जीवियं, समयं गोयम मा पमायए ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 11]
एवं [भाग-4 पृ. 2569]
- उत्तराध्ययन 102 जैसे कुशा (घास) की नोंक पर हिलती हुई ओस की बूंद बहुत थोड़े समय के लिए टिक पाती है ठीक ऐसा ही मनुष्य का जीवन भी क्षणभंगुर है । अतएव हे गौतम ! क्षणभर के लिए भी प्रमाद मत कर । 14 सरलात्मा सोही उज्जुय भूयस्स ।
- अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग-2 पृ. 28]
एवं [भाग-3 पृ. 1053]
- उत्तराध्ययन 342 सरल आत्मा की विशुद्धि होती है। 15 धर्म-निवास - धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ।
- अभिधान राजेन्द्रकोष [भाग-2 पृ. 28]
एवं [भाग-3 पृ. 1053]
- उत्तराध्ययन 302 पवित्र हृदय में ही धर्म निवास करता है।
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16 मोक्ष-पथिक
से जहा वि अणगारे उज्जुकडे नियाग पडिवण्णे अमायं कुव्वमाणे वियाहिते ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 28]
- आचारांग Inan9 जो सरलतादि गुणों से युक्त है, मुक्ति-पथ का राही है और जो माया का आचरण नहीं करता है, उसे ही अणगार कहा गया है । 17 अटूट श्रद्धा
जाए सद्धाए णिक्खंतो तमेव अणुपालिया विजहित्ता विसोत्तियं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 28]
- आचारांग 143/20 जिस श्रद्धा के साथ निष्क्रमण किया है, उसी श्रद्धा के साथ विस्रोतसिका (शंका) छोड़कर उसका अनुपालन करना चाहिए। 18 कौन वीर? पणया वीरा महावीहिं।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 29]
- आचारांग 14321 वीरपुरूष महापथ के प्रति समर्पित होते हैं। 19 निर्भय साधक लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 29]
एवं [भाग-7 पृ. 893]
- आचारांग 13/4429 एवं 14321 जो साधक अतिशय ज्ञानी पुरूषों की आज्ञा से कषाय रूप लोक को जानकर विषयों का त्याग कर देता है, वह पूर्ण अभय (भयमुक्त) हो जाता है । 20 हिंसा अहितकारिणी
तं से अहियाए तं से अबोहियाए । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 61
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 30]
एवं भाग-4 पृ. 2346
- आचारांग 1Ann3 यह जीवहिंसा अहित करनेवाली है और मिथ्यात्व का कारण है। 21 आरम्भ
एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 30]
एवं [भाग-4 पृ. 234] एवं
[भाग-6 पृ. 1062]
- आचारांग IA244 यह आरम्भ (हिंसा) ही वस्तुत: ग्रन्थ = बन्धन है, यही मोह है, यही मार = मृत्यु है और यही नरक है । 22 मौत: एक झपाटा
सेणे जह वट्टयं हरे। ___ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 32]
- सूत्रकृतांग 1Ann जैसे बाज पक्षी तीतर को एक ही झपाटे में मार डालता है ठीक वैसे ही आयु क्षीण होने पर मृत्यु भी मनुष्य के प्राण हर लेती है । 23 मूढ़ मानव अट्टेसु मूढे अजरामरत्व ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 32]
- सूत्रकृतांग 10008 मूढ़ स्वयं को अजर-अमर के समान मानता हुआ आर्तध्यान सम्बन्धी कार्यों में फँसा रहता है। 24 मृत्यु कला
जं किंचुवक्कम जाणे आउखेमस्समप्पणो । तस्सेव अन्तरद्धाए, खिप्पं सिक्खिज्ज पंडिए । अभिधान राजेन्द्र में सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 62
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 33]
एवं भाग-6 पृ. 131
- आचारांग 1/8/8 संलेखनाकालीन जीवन में स्थित पंडित साधक को यदि अपने आयु-क्षेम में किञ्चित् भी विघ्न मालूम पड़े तो उसके अन्तरकाल में शीघ्र ही भक्त-परिज्ञादि का अनुष्ठान कर लेना चाहिए । 25 अतीत अनागत निश्चिन्त अवरेण पुव्वं ण सरंति एगे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 59]
- आचारांग 133M2401 कुछ साधक अतीत के भोगों की स्मृति और भविष्य के भोगों की स्मृति नहीं करते। 26 निष्काम ज्ञानी का अरइ ! के आणंदे एत्थंपि उग्गहे चरे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 60]
एवं [भाग-7 पृ. 60]
- आचारांग183424 ज्ञानी के लिए क्या अरति है, क्या आनन्द है ? वह अरति और आनन्द के इस विकल्प को ग्रहण किए बिना विचरण करें । 27 एक जाना, सब जाना एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः। सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग-2 पृ. 79]
- स्याद्वादमंजरी प.5 जिसने एक भाव को सर्वथा समझ लिया उसीने सब भावों को सर्वथा समझा है तथा जिसने सर्व भावों को सर्वथा समझ लिया उसीने एक भाव को सर्वथा समझा है। 28 आगम-चक्षु
आगम चक्खू साहू।
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माशा बम
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 90]
- प्रवचनसार 3/34 साधु-सन्त के पास आगम (तत्त्वज्ञान) रूपी आँखें होती हैं । 29 गुण: मूल्यांकन अहवा कायमणिस्सउ, सुमहल्लस्स वि उ कागणी मोल्लं । वइरस्स उ अप्पस्स वि, मोल्लं होति सयसहस्सं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 93]
- व्यवहारभाष्य 10/216 काँच के बड़े मनके का भी केवल एक काकिनी का मूल्य होता है और हीरे की बेटी-सी कणी भी लाखों के मूल्य की होती है । (रूपये का अस्सीवाँ भाग काकिणी होती हैं ।) 30 आज्ञा-धर्म आणाए मामगं धम्मं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 131]
- आचारांग 1/6/2485 आज्ञा ही मेरा धर्म है। 31 मोक्ष-मार्ग-नाशक
भट्ठायारो सूरी ! भट्ठायाराणुवेक्खओ सूरी । उम्मग्गट्ठिओ सूरी तिणिविमग्गं पणासंति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 135]
एवं 335/336
- गच्छाचारपयन्ना-28 भ्रष्टाचारी आचार्य, भ्रष्टाचारी साधुओं की उपेक्षा करनेवाला आचार्य और उन्मार्ग स्थित आचार्य - ये तीनों ही ज्ञानादि मोक्ष-मार्ग का नाश करनेवाले हैं। 32 एकान्त-अनेकान्त
एगंतो मिच्छत्तं, जिणाण आणा य होइ णेगंतो।
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 135]
- तीत्थोगाली पयन्ना-1213 वस्तुत: एकान्त में मिथ्यात्व है। जिनेश्वरों की आज्ञा अनेकान्त की है। 33 आचार्यः तीर्थंकर तित्थयर समो सूरी।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 135]
एवं [भाग 4 पृ. 2314] - महानिशीथसूत्र 5nol
- गच्छाचार पयन्ना टीका-27 आचार्य (गुरु भगवन्त) तीर्थंकर के समान होते हैं । 34 कापुरूष V आणं अइक्कमंते ते कापुरिसे न सप्पुरिसे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग-2 पृ. 135-335]
- महानिशीथ 5001 . जो तीर्थंकरों की आज्ञा का उल्लंघन करता है, वह कापुरूष है; सत्पुरुष नहीं। 35 आज्ञा आणाए च्चिय चरणं, तब्भंगे किं न भग्गं तु ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग-2 पृ. 137-138]
- बृहत्कल्पवृत्ति सभाष्य 1/3 आज्ञा-पालन में चारित्र है, आज्ञा के भंग में क्या भग्न नहीं होता ? अर्थात् सब कुछ भंग हो जाता है । 36 आज्ञोल्लंघन आणा नो खंडेज्जा, आणाभंगे कुओ सुहं ?
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग-2 पृ. 138-141] - महानिशीथ 5,120
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आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए । आज्ञा का उल्लंघन करने
पर सुख कैसे ?
37 आज्ञा खण्डित धर्म
आणा खंडणकरीय, सव्वंपि निरत्थयं तस्स । आणा रहिओ धम्मो, पलाल पुलुव्व पडिहाइ ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 141] हीरप्रश्न - प्रकाश-1
जो आज्ञा का खंडन करता है उसका सबकुछ निरर्थक हो जाता है । आज्ञारहित धर्म बिना कणवाले घास के पुले जैसा है ।
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38 समय मूल्यवान्
विहड विद्धंसह ते सरीरयं,
समयं गोयम मा पमायए ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 174]
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उत्तराध्ययन 10/27
यह तुम्हारा शरीर टूट जानेवाला है, विध्वंस हो जानेवाला है, इसलिए क्षणभर का भी प्रमाद मत करो ।
39 साधनाशील
आतंकदंसी अहियंति णच्चा ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग- 2 पृ. 174] एवं [भाग 6 पृ. 1061]
आचाराग 1/7/56
साधनाशील पुरुष हिंसा में आतंक देखता है, उसे अहितकर मानता
है । इसलिए हिंसा से निवृत्त होने में समर्थ होता है ।
1
40 आतङ्कदर्शी
आयंकदंसी न करेति पावं ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग- 2 पृ. 175] एवं [भाग 5 पृ. 1316]
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- आचारांग - 132015 जो संसार के दु:खों का ठीक तरह से दर्शन कर लेता है, वह कभी पाप-कर्म नहीं करता है। 41 मनुष्यायु-अल्प भी अप्पं च खलु आउं इहमेगेसिं माणवाणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 176]
- आचांरांग - 12/64 निश्चय ही इस संसार में कुछ मनुष्यों की आयु अल्प होती है। 42 ढलती आयु में मूढ़ .
अभिकंतं च खलु वयं संपेहाए ततो से एगया मूढभावं जणयंति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 176]
- आचारांग - 12/64 अवस्था को तेजी से जाते हुए देखकर व्यक्ति चिन्ताग्रस्त हो जाता है और फिर एकदा (जीवन के उत्तरार्द्ध में) वह मूढ़ता को प्राप्त हो जाता है । 43 आत्मगुप्त जितेन्द्रिय
कडं च कज्जमाणं च आगमेस्सं च पावगं । सव्वं तं णाणु जाणंति, आयगुत्ता जिइंदिया ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 176]
- सूत्रकृतांग - 1/821 आत्म-गुप्त (रक्षक) जितेन्द्रिय साधक किसी के द्वारा अतीत में किए हुए, भविष्य में किए जानेवाले और वर्तमान में किए जाते हुए पाप की सर्वथा मन-वचन और काया से अनुमोदना नहीं करते । 44 असत्-असत् नो य उप्पज्जए असं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 176]
- सूत्रकृतांग - IAnal अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 . 67
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असत् कभी सत् नहीं होता। 45 शरणदाता नहीं
णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा तुमं पि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए वा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग-2 पृ. 177
178-179]
- आचारांग - 120/64 हे आत्मन् ! वे तेरे स्वजन तेरी रक्षा करने में या शरण देने में समर्थ नहीं है और तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो । 46 नारी-रक्षा
पिता रक्षति कौमारे - भर्ता रक्षति यौवने । पुत्राश्च स्थाविरे भावे, न स्त्री स्वातन्त्रमर्हति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 177] - हितोपदेश - 1/21 एवं महाभारत
आदिपर्व 73/5 कुमारावस्था में पिता, जवानी में पति और बुढापे में पुत्र रक्षा करता है । स्त्री कभी स्वतन्त्रता के योग्य नहीं है । 47 धिक् धिक् जरा
गात्रं संकुचितं गतिविगलिता, दन्ताश्च नाशं गता । दृष्टि र्भश्यति रूपमेव हसते वक्त्रं च लालायते ॥ वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः पत्नी न शुश्रूयते । धिक्कष्टं जरयाऽभिभूतं पुरूषं पुत्रोऽप्यवज्ञायते ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 177]
- पंचतंत्र - 2194 शरीर सिकुड़ गया, चाल बिगड़ गई, दाँत गिर गए, दृष्टि घूमने लगी, रूप-सौन्दर्य नष्ट हो गया, मुख से लारें टपकने लगी, बन्धुजन उसकी बात नहीं सुनते, पत्नी सेवा नहीं करती और पुत्र भी अपमान करते हैं ऐसे जरा से अभिभूत पुरुष के कष्ट को धिक्कार है।
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448 तुर्यावस्था में क्या करेगा ?
प्रथमे वयसि नाधीतं, द्वितीये नार्जितं धनम् । तृतीये न तपस्तपं, चतुर्थे किं करिष्यति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 17 ] - - आचारांगसूत्रसटीक - IAn/s
जिसने प्रथम अवस्था में अध्ययन नहीं किया। दूसरी अवस्था में धनोपार्जन नहीं किया। तृतीय उम्र में तपाचरण नहीं किया तो फिर चौथी अवस्था में वह क्या करेगा ? 49 जराभिशाप से ण हासाए ण किड्डाएण रतीए ण विभूसाए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 177 ]
- आचारांग - 12/ वृद्धावस्था में मनुष्य न हँसी विनोद के योग्य रहता है, न खेलने के, न रति-सेवन के और न शृंगार के योग्य ही रहता है। 50 धर्म
जं जं करेइ तं तं न सोहए जोव्वणे अतिक्कंते । पुरिसस्स महिलियाए, एक्कं धम्मं पमुत्तूणं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 178 ]
- आचारांग सूत्र सटीक - 12/ एकमात्र धर्म को छोड़कर पुरुष और महिलाओं के लिए जवानी बीत जाने पर जो जो किया जाता है, वह सुशोभित नहीं होता। 51 पानी केरा बुल बुला वओ अच्चेति जोव्वणं च ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 178 ]
- आचारांग - 12/s आयु बीत रही है, यौवन चला जा रहा है।
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2 द्रुतगामी नइवेग समं चवलं च जीवियं, जोव्वणञ्च कुसुम समं । सोक्खं च जं अणिच्चं, तिण्णि वि तुरमाण भोज्जाइं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 178 ]
- आचारांग सूत्र सटीक - InM/ जीवन सरिता के प्रवाह के समान चपल, जवानी पुष्पवत् और जो सुख है, वह अनित्य है । ये तीनों अतितेजी से बीत जानेवाले हैं। 3 उद्बोधन
अणभिक्कंतं च वयं संपेहाए । C - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 179 ]
- आचारांग - 120/68 हे प्रबुद्ध साधक ! जो बीत गया सो बीत गया। शेष रहे जीवन को ही ध्यान में रखकर प्राप्त अवसर को परख । 5 समय पहचानो - खणं जाणाहि पंडिए !
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 179 ]
- आचारांग -120/68 हे आत्मज्ञ ! क्षण को अर्थात् समय के मूल्य को पहचानो। 5 आत्मज्ञाता अत्ताणं जो जाणति जोय लोगं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 10 ]
एवं [भाग-3 पृ. 559 ]
- सूत्रकृतांग - 1/2/20 जो आत्मा को जानता है, वही लोक को जानता है । 56 तबतक गुरूसेवा
गुरूत्वं स्वस्य नोदेति, शिक्षा सात्म्येन यावता । आत्म-तत्त्व प्रकाशेन, तावत्सेव्यो गुरूत्तमः ॥
अभिधान राजेन्द्र में सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 70
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ.180] - एवं [भाग-3 . 1171]
- ज्ञानसार - 8/5 आत्म-तत्त्व के प्रकाश से जबतक अपनी भूल को पहचान कर स्वयं में गुरूत्व न आ जाए तब तक उत्तम गुरु की सेवा करनी चाहिए । 57 अनात्म-प्रशंसा
गुणै यदि न पूर्णोऽसि कृतमात्म प्रशंसया । गुणैरेवासि पूर्णश्चेत् कृतमात्मप्रशंसया ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 181]
- ज्ञानसार 184 यदि तू गुणों से पूर्ण नहीं है तो अपनी प्रशंसा व्यर्थ है और यदि तू गुणों से पूर्ण है तब भी अपनी प्रशंसा व्यर्थ है । 58 सर्वमुक्त . सव्वत्थेसु विमुत्तो, साहू सव्वत्थ होइ अप्पवसो ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 185] - मूलाराधना - 335 एवं
गच्छाचारप्रकीर्णक - 68 जो साधु सभी वस्तुओं की आसक्ति से मुक्त होता है, वही जितेन्द्रिय तथा आत्मवशी होता है । 59 आत्मदृष्टि - - आततो बहिया पास
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 186]
- आचारांग - 13/3122 अपने समान ही बाहर में दूसरों को भी देख । 60 त्रिविध आत्मा
बाह्यात्मा चान्तरात्मा च परमात्मेति त्रयः । कायाधिष्ठायक ध्येयाः, प्रसिद्धा योगवाङ्मये ॥
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2.71
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 188]
- सिद्धसेन द्वात्रिंशत् - द्वात्रिंशिका-2017 योगवाङ्मय योग-ग्रन्थ में प्रसिद्ध आत्मा के तीन प्रकार हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । 61 चेतना-शक्ति / चित्तं तिकाल विसयं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 193]
- दशवैकालिक नियुक्ति भाष्य-19 आत्मा की चेतना शक्ति त्रिकाल है । 62 अमूर्त गुण अणिंदिय गुणं जीवं, दुज्जेयं मंस चक्खुणा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 195]
- दशवकालिक नियुक्ति भाष्य - 34 आत्मा के गुण अमूर्त है, अत: उनको चर्म चक्षुओं से देख पाना कठिन है। 63 आत्म-अपलाप जे लोगं अब्भाइक्खति से अत्ताणं अब्भाइक्खति । जे अत्ताणं अब्भाइक्खति, से लोगं अब्भाइक्खति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 195]
एवं [भाग-4 पृ. 344]
- आचारांग - 103/22 जो लोक (अन्य जीवसमूह) का अपलाप करता है, वह स्वयं अपनी आत्मा का भी अपलाप करता है । जो अपनी आत्मा का अपलाप करता है वह लोक (अन्य जीवसमूह) का भी अपलाप करता है । 64 औपपातिक-आत्मा अस्थि मे आया उववाइए से आयावादी, लोगावादी, कम्मावादी, किरियावादी।
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 205]
- आचारांग - IMAM-3 यह मेरी आत्मा औपपातिक है । कर्मानुसार पुनर्जन्म ग्रहण करती है। आत्मा के पुनर्जन्म सम्बन्धी सिद्धान्त को स्वीकार करनेवाला ही वस्तुत: आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है । 65 वीरभोग्या वीरभोग्या वसुन्धरा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 207]
- आचारांग सटीक 1AM यह वसुन्धरा (धरती) वीरों के द्वारा भोग्य है । 66 नित्यानित्यवाद
सुहदुक्ख संपओगो, न विज्जइ निच्चवाय पक्खंमि । एगंतच्छे अंमि अ,सुहदुक्ख विगप्पणमजुत्तं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 210]
___ - दशवकालिक नियुक्ति 1/60 . एकान्त नित्यवाद के अनुसार सुख-दु:ख का संयोग संगत नहीं बैठता और एकान्त अनित्यवाद के अनुसार भी सुख-दु:ख की बात उपयुक्त नहीं होती । अत: नित्यानित्यवाद ही इसका सही समाधान कर सकता है । 67 नित्यात्मा णिच्चो अविणासी सासओ जीवो । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 210]
- दशवकालिक नियुक्ति भाष्य 42 जीव (आत्मा) नित्य है; अविनाशी और शाश्वत है । 68 एकात्मा - एगे आया ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 219]
- स्थानांग - Inn एवं समवायांग 13 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 73
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स्वरूपदृष्टि से सब आत्माएँ एक (समान) हैं । 69 समता का पारगामी एस आतावादी समियाए परियाए वियाहिते ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 223]
- आचारांग - 1/5/5/171 वह आत्मवादी सत्य या समता का पारगामी होता है । 70 आत्म-प्रतीति V जेण विजाणति से आता तं पडुच्च पडिसंखाए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 223] - आचारांग - 1/5/
571 जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है । जानने की इस शक्ति से ही आत्मा की प्रतीति अर्थात् पहचान होती है । 71 ज्ञानात्मा णाणे पुण नियमं आया ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 223]
- भगवती - 12000 नियम से ज्ञान ही आत्मा है। 72 आत्म-विज्ञाता - जे आता से विण्णाता, जे विण्णाता से आता ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 223] - आचारांग - 1/5/
571 जो आत्मा है, वह विज्ञाता है । जो विज्ञाता है, वह आत्मा है । 73 अरक्षितात्मा अरक्खिओ जाइ पहं उवेई ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 231] - - दशवैकालिक चूलिका - 246 अरक्षित आत्मा जन्म-मरण के पथ की पथिक बनती है । ___ अभिधान राजेन्द्र में सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 74
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74 सुरक्षितात्मा सुरक्खिओ सव्व दुहाण मुच्चइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 231]
- दशवकालिक चूलिका - 246 सुरक्षित आत्मा सब दु:खों से मुक्त हो जाती है । 75 पाप से बचाव
अप्पा खलु सययं रक्खियव्वो । ___ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 231]
- दशवैकालिक चूलिका - 246 अपनी आत्मा को सतत पापों से बचाए रखना चाहिए। 76 निश्चय-रत्नत्रय
आया हु महं नाणे, आया मे दंसणे चरिते य । आया पच्चक्खाणे, आया मे संजमे जोगे ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 231]
- आतुरत्याख्यान - 25 आत्मा ही मेरा ज्ञान है। आत्मा ही दर्शन और चारित्र है । आत्मा ही प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संयम और योग है अर्थात् ये सब आत्म रूप ही है। 77 विवेक दुर्लभ
देहात्माद्यविवेकोऽयं, सर्वदा सुलभो भवे । भवकोट्यादि तद्भेद, - विवेकस्त्वति दुर्लभः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 232]
- ज्ञानसार 152 देह ही आत्मा है यह अविवेक तो सुलभ है, परन्तु करोड़ों जन्मों के बावजूद भी भेदज्ञान रूपी विवेक प्राप्त होना अति दुर्लभ है ।
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78 समता कुण्ड स्नान
य स्नात्वा समता कुण्डे, हित्वा कश्मलजं मलम् । पुन न याति मालिन्यं, सोऽन्तरात्मा परः शुचि ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 232]
- ज्ञानसार - 14/5 जो आत्मा समता कुण्ड में स्नान कर पाप-मल को धोकर साफ करती है, वह पुन: मलिन नहीं बनती । ऐसी अन्तरात्मा विश्व में अत्यन्त पवित्र है। 79 अविवेकी
इष्टकाद्यपि हि स्वर्णं, पीतोन्मत्तो यथेक्षते । आत्माऽभेद भ्रमस्तद्वद् देहादावविवेकिनः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 232]
- ज्ञानसार - 15/5 जैसे धतूरे का पानकर उन्मत्त जीव ईंट आदि को भी स्वर्ण मानता है वैसे ही अविवेकी पुरुष देह और आत्मा को एक मानता है । 80 लक्ष्मी-आयु-देह-नश्वर
तरङ्ग तरलां लक्ष्मी-मायुर्वायुवदस्थिरम् । अदभ्रधीरनु ध्यायेदभ्रवद् भङ्गरं वपुः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 232]
- ज्ञानसार - 143 बुद्धिमान् मनुष्य लक्ष्मी को समुद्र-तरंग की तरह चपल, आयुष्य को वायु के झोंके की तरह अस्थिर और शरीर को बादल की तरह क्षणध्वंसी मानता है। 81 अप्पा सो परमप्पा पश्यन्ति परमात्मान-मात्मन्येव हि योगिनः ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 232]
- ज्ञानसार 14/8 योगी पुरूष अपनी आत्मा में ही परमात्मा के दर्शन पाता है ।
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82 आत्मद्रष्टा से मोह-चोर दूर
य पश्येन्नित्यमात्मानमनित्यं परसङ्गमम् । छलं लब्धुं न शक्नोति, तस्य मोहमलिम्लुचः ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 232] ज्ञानसार 14/2
जो सदा आत्मा को नित्य, अविनाशी देखता है और पुद्गल - सम्बन्ध को अनित्य, अस्थिर देखता है उसके छल छिद्र देख पाने में मोहरूपी चोर कभी समर्थ नहीं होता ।
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83 राजहंस - मुनि
कर्म जीवश्च सश्लिष्टं सर्वदा क्षीर नीरवत् । विभिन्न कुरुते योऽसौ मुनिहंसो विवेकवान् ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 232]
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ज्ञानसार 151
दूध और पानी की तरह ओतप्रोत बने जीव और कर्म को जो मुनिरूपी राजहंस सदैव अलग करता है, वही मुनिहंस विवेकी होता है । 84 दारूण - भ्रान्ति
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शुचीन्यप्यशुचीकर्तुं समर्थेऽशुचिसंभवे ।
देहे जलादिना शौचं भ्रमो मूढस्य दारुणः ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 232] ज्ञानसार 14/4
पवित्र पदार्थ को भी अपवित्र करने में समर्थ और अपवित्र पदार्थ
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से उत्पन्न हुए इस शरीर को पानी वगैरह से पवित्र करने की कल्पना दारूण भ्रम है।
85 लड़े सिपाही नाम सरदार का
यथा योधैः कृतं युद्धं स्वामिन्येवोपचर्यते । . शुद्धात्मन्यविवेकेन, कर्मस्कन्धोजितं तथा ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 232]
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- ज्ञानसार - 15/4 जैसे योद्धाओं द्वारा खेले गए युद्ध का श्रेय राजा को मिलता है वैसे ही अविवेक के कारण कर्मस्कन्ध का पुण्य-पापरूप फल शुद्ध आत्मा में आरोपित है। 86 सदा अकेला Vएगो वच्चइ जीवो, एगो चेवु व वज्जई । एगस्स होइ मरणं, एगो सिज्झइ नीरओ ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 232]
- आतुर प्रत्याख्यान - 26 जीव अकेला आता है और अकेला ही जाता है। अकेला ही मरता है और अकेला ही सिद्ध होता है। 87 शाश्वत तत्त्व
एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग-2 पृ. 232] .
एवं [भाग 6 पृ. 457]
- आतुर प्रत्याख्यान - 27 ज्ञान-दर्शन स्वरूप मेरी आत्मा ही शाश्वततत्त्व है । इससे भिन्न जितने भी (राग-द्वेष-कर्म-शरीरादि) भाव हैं वे सब संयोगजन्य बाह्यभाव हैं । अत: वे मेरे नहीं हैं। 88 संयमास्त्र
संयमाऽस्त्र विवेकेन शाणेनोत्तेजितं मुनेः । धृति धारोल्बणं कर्म, शत्रुच्छेदक्षमं भवेत् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 233]
- ज्ञानसार - 15/8 जिसने संयमरूपी शस्त्र को विवेक रूप शाण पर चढाकर धैर्य रूप तीक्ष्णधार की हो, वह मुनि कर्मरूपी शत्रु का छेदन-भेदन करने में समर्थ होता है।
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8 युक्ति युक्त ग्राह्य
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 278 ] . - लोकतत्त्वनिर्णय - 38
न तो मुझे महावीर का पक्षपात है और न कपिल आदि मतों से द्वेष है । जिसका वचन युक्ति सङ्गत है उसीके वचन को स्वीकार करना चाहिए। 90 मति-श्रुत अन्योन्याश्रित
जत्थ आभिणिबोहियणाणं, तत्थ सुयनाणं । जत्थ सुअनाणं, तत्थाऽऽभिणिबोहियं णाणं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 279 ]
- नंदीसूत्र सवृत्ति 4 जहाँ पर आभिनिबोधिक (मतिज्ञान) होता है वहाँ श्रुतज्ञान अवश्य होता है, यह नियम नहीं है; किन्तु जहाँ श्रुतज्ञान होता है उससे पहले मतिज्ञान अवश्य होता है। 91 निःसार संयमी
कुल गाम नगररज्जं, पयहियं जो तेसुकुणइ हुममत्तं । सोनवरिलिंगधारी,संजम जोएण निस्सारो॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 334 ]
- गच्छाचार पयन्ना - 1/24 _____ जो कुल = घर, गाँव, नगर और राज्यादि शाहीठाठ छोड़कर पुन: उसके प्रति ममत्त्व भाव या आसक्ति रखते हैं, तो वे आचार्य संयम भाव से शून्य हैं, रिक्त हैं, मात्र वेशधारी ही आचार्य हैं। 92 आचार्य भ.-उत्तरदायित्त्व
विहिणा जो उ चोएइ, सुत्तं अत्थं च गाहई । सो धन्नो सो अ पुण्णो अ, स बंधू मुक्खदायगो ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 334 ]
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- गच्छाचारपयन्ना - 1/23 जो आचार्य शिष्य समूह को विधिपूर्वक सारणा, वारणा, चोयणा आदि में प्रेरित करते हैं तथा सूत्र और अर्थ का अध्यापन करवाते हैं; वे ही आचार्य धन्य, पवित्र, बन्धु के समान और मुक्तिदायक हैं। 8 पुरः स्पर्शी पारदर्शी
स एव भव्वसत्ताणं, चक्खुभूए वियाहिए । दंसेइ जो जिणुद्दि, अणुटाणं जहाट्ठियं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 35 ]
- गच्छाचार पयन्ना - 1/26 जो आचार्य भगवन्त तीर्थंकर परमात्मा द्वारा प्रकाशित सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूपी रत्नत्रयी यथास्थित दर्शाते हैं, वे ही आचार्य भव्य प्राणिओं के लिए चक्षु के समान कहे गए हैं। 4 आचार्य गोपाल तुल्य
आचार्यस्यैव तत् जाड्यं, यच्छिष्यो नावबुध्यते । गावो गोपालकेनैव कुतीर्थे नावतारिताः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 337 ]
- आवश्यकमलयगिरि - 14 यदि शिष्य को ज्ञान नहीं होता तो वह आचार्य की ही जड़ता है, क्योंकि गायों को कुघाट में उतारने वाला वस्तुत: गोपाल ही है। 5 शत्रु-गुरु
संगहोवग्गहं विहिणा न करेइ य जो गणी । समणं समणिं तु दिक्खित्ता समायारि न गाहए ॥ बालाणं जो उ सेसाणं, जीहाए उवलिंपए । तं सम्ममग्गं गाहेइ, सो सूरी जाण वेरिओ ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 337 ] - गच्छाचार पयन्ना - 15/16
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जो आचार्य - गुरु आगमोक्त विधिपूर्वक शिष्यों के लिए संग्रह (वस्त्र-पात्र, क्षेत्र आदि का) तथा उपग्रह (ज्ञान-दान आदि का) नहीं करता, श्रमण-श्रमणी को दीक्षा देकर साधु-समाचारी नहीं सिखाता एवं बाल शिष्यों को सन्मार्ग में प्रेरित न करके केवल गाय-बछड़े की तरह उन्हें जीभ से चूमता या चाटता है, वह आचार्य (गुरु) शिष्यों का शत्रु है। % गुरु-वैरी
जीहाए विलिहंतो, न भद्दओ सारणा जहिं नत्थि । दण्डेण वि ताडंतो, स भद्दओ सारणा जत्थ ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 337 ]
- गच्छाचार पयन्ना - १/१७ जो आचार्य शिष्यों को स्नेह-वात्सल्यपूर्वक चुम्बन करते हैं, परन्तु हितमार्ग में प्रवृत्ति करानेवाली तथा स्वकर्तव्य का बोध करानेवाली सारणा, वारणा, चोयणा आदि नहीं करते हैं, वे आचार्य हितकारी-कल्याणकारी नहीं हैं, किन्तु जो सदगुरु सारणा-वारणादि के साथ कभी दण्डादि से ताड़नातर्जना करते हैं, तो भी वे हितकारी हैं, श्रेष्ठ हैं । 97 ज्ञान ज्योतिष्मान्
जह दीवो दीवसयं पइप्पए दीप्पइ य । सो दीव समा आयरिआ, अप्पं च परं च दीवंति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 337 ]
- उत्तराध्ययन नियुक्ति - ४ जिसप्रकार दीपक स्वयं प्रकाशमान होता हुआ अपनी दीप्ति से अन्य सैकड़ों दीपकों को जला देता है, उसीप्रकार सद्गुरु आचार्य स्वयं ज्ञान-ज्योति से प्रकाशित होते हैं और दूसरों को भी प्रकाशमान करते हैं। 98 गच्छ-धुरि
मेढी आनंबणं खंभं दिट्ठि जाण सु उत्तमं । सूरी जं होइ गच्छस्स, तम्हा तं तु परिक्खए ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 348 ]
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- गच्छाचार पयना - ४ आचार्य भ. गच्छ के प्रमुख परिवाहक (स्तम्भरूप परिचालक) हैं और निश्छिद्रवाहन हैं। अत: चहुमुखी दृष्टि से आचार्यश्री का निरीक्षण करते रहो, साधते रहो, समझते रहो और मानते रहो व सूझबूझ से देखते रहो। 9 जिणवाणी-सार / अंगाणं किं सारो ? आयारो ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 372 ]
- आचारांग नियुक्ति - 16 जिणवाणी (अंग-साहित्य) का सार क्या है ? 'आचार' सार है। 100 आचरण से निर्वाण सारो परूवणाए चरणं तस्स विय होइ निव्वाणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 372 ]
- आचारांग नियुक्ति - 17 प्ररूपणा का सार है-आचरण । आचरण का सार (अन्तिमफल) है - निर्वाण। 101 स्वाध्याय तप - निर्मल सज्झाय सज्झाणरयस्स ताइणो, अपाव भावस्स तवेरयस्स । विसुज्झइ जं से मलं पुरे कडं, समीरियं रूप्पमलं व जोइणा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 387 ]
- दशवैकालिक - 8/8 जैसे अग्नि द्वारा तपाए हुए सोने-चाँदी का मैल दूर हो जाता है वैसे ही स्वाध्याय-सद्ध्यान में लीन, षट्काय रक्षक, शुद्ध अन्त:करण एवं तपश्चर्या में रत साधु का पूर्व संचित कर्म-मैल नष्ट हो जाता है । 102 त्रस-हिंसा निषेध तसे पाणे न हिंसेज्जा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 387 ] - दशवकालिक - 8/12
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चलते-फिरते जीवों की हिंसा मत करो। 103 स्व-पर रक्षक तव चिमं जोगयं च, सज्झाय जोगं च सया अहिट्ठिए । सूरे व सेणाए समत्त माउहे, अलमप्पणो होइ अलं परेसिं ॥
. - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 387]
- दशवैकालिक - 8/62 जो श्रमण तपयोग, संयमयोग एवं स्वाध्याय-योग में सदा निष्ठापूर्वक प्रवृत्ति करता है, वह अपनी और दूसरों की रक्षा करने में उसीप्रकार समर्थ होता है जिसप्रकार सेना से युक्त समग्र आयुधों से सुसज्जित शूरवीर । 104 अनभ्र चन्द्र सम श्रमण से तारिसे दुक्खसहे जिइंदिए, सुएण जुत्ते अममे-अकिंचणे । विरायइकम्मघणम्मिअवगए, कसिणप्भपुडागमेवचंदिमित्ति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 387]
- दशवैकालिक - 8/64 जो श्रमण सर्व गुणों से युक्त हैं, दु:खों को समभावपूर्वक सहन करनेवाला है, जितेन्द्रिय, श्रुत से युक्त, ममत्व-रहित और अकिंचन है, वह कर्मरूपी मेघों से दूर होने पर वैसे ही सुशोभित होता है जैसे सम्पूर्ण अभ्रपटल से मुक्त चन्द्रमा । 105 निष्काम आचार नो कित्ति-वण्ण सद्द-सिलोगट्ठयाए आयार महिद्वेज्जा।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 389]
- दशवकालिक - 9/4/5 आचार का पालन कीर्ति, वर्ण (यश) शब्द और श्लाघा के लिए नहीं होना चाहिए। 106 अप्रमत्त-साधक
जे ते अप्पमत्त संजता ते णं नो आयारंभा नो परारम्भा, जाव आणारम्भा । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 83
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 392]
- भगवती 1/10 (2) आत्म-साधना में अप्रमत्त रहनेवाले साधक, न अपनी हिंसा करते हैं, न दूसरों की; वे सर्वथा - अहिंसक रहते हैं । 107 शोक नहीं V अलाभोत्ति न सोएज्जा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 393]
- आचारांग 12/5/89 (इष्ट वस्तु का) लाभ न होने पर शोक नहीं करें । 108 संग्रह-वृत्ति-त्याग बहुंपि लद्धं ण णिहे।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 393]
- आचारांग - 12/5/89 अधिक मिलने पर भी संग्रह न करें । 109 आहार की अनासक्ति V लाभोत्ति ण मज्जेज्जा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 393]
- आचारांग 12/5/89 (इष्ट वस्तु का) लाभ होने पर अहंकार न करें । 110 परिग्रह से दूर परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 393]
एवं [भाग-4 पृ. 2737]
- आचारांग - 1/2/5/89 साधक परिग्रह से अपने आपको दूर रखें । 111 मुनि का आहार
लद्धे आहारे अणगारे मातं जाणेज्जा ।
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 393]
- आचारांग - 12/5/89 आहार प्राप्त होने पर मुनि आगम के अनुसार उस भोजन का परिमाण जाने अर्थात् जितना आवश्यक हो उतना ही ग्रहण करें । 112 द्विविध बन्धन दुहाओ छित्ता नेयाइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 393] - आचारांग - 10/5/88
एवं 188 भिक्षु राग-द्वेष दोनों बन्धनों को छेदकर नियमित जीवन जीता है । 113 आरम्भ-निवृत्ति आरंभा विरमेज्ज सुव्वते ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 398]
- सूत्रकृतांग - 1203 सुव्रती आरम्भ के कार्यों से दूर रहे । 114 उद्बोधन णो सुलभा सुगई वि पेच्चओ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 398]
- सूत्रकृतांग - 1243 मरने के बाद जीव को सद्गति आसानी से प्राप्त नहीं होती। (अत: जो कुछ सत्कर्म करना है यहीं करो ।) 115 आलम्बन
सालंबणो पडतो, अप्पाणं दुग्गमेऽवि धारेइ । इय सालंबण सेवा, धारेइ जई असढभावं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 421] - आवश्यक नियुक्ति - 3/1186
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किसी आलम्बन के सहारे दुर्गम गर्त आदि में नीचे उतरता हुआ व्यक्ति अपने को सुरक्षित रख सकता है । इसीतरह ज्ञानादिवर्धक किसी विशिष्ट हेतु का आलम्बन लेकर अपवाद मार्ग में उतरता हुआ सरलात्मा साधक भी अपने को दोष से बचाए रख सकता है ।
116 विशिष्ट - ज्ञान
सालंबसेवी समुवेति मोक्खं ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 421] एवं [ भाग-7 पृ. 778] व्यवहारभाष्य पीठिका - 184
जो साधक किसी विशिष्ट ज्ञानादि हेतु से अपवाद ( निषिद्ध) का आचरण करता है वह भी मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी है । 117 यथार्थ - आत्मलोचन
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जह बालो जंपतो कज्जमकज्जं व उज्जुयं भणइ । तं तह आलोएज्जा मायामय विप्पमुक्को उ ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 428-431] ओघनियुक्ति - 801
बालक जो भी उचित या अनुचित कार्य कर लेता है, वह सब सरल भाव से कह देता है इसीप्रकार साधक को भी गुरुजनों के समक्ष दंभ और अभिमान से रहित होकर यथार्थ आत्मालोचन करना चाहिए ।
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118 कर्मभार- मुक्ति
उद्धरियं सव्व सल्लो आलोइय निंदिओ गुरु सगासे । होड़ अतिरेग लहुओ, ओहरिय भरोव्व ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 432] ओघनियुक्ति - 806
जो साधक गुरूजनों के समक्ष मन के समस्त शल्यों (काँटों) को निकाल कर आलोचना, निन्दा (आत्म-निंदा ) करता है, उसकी आत्मा उसीप्रकार हल्की हो जाती है जैसे- सिर का भार उतार देने पर भारवाहक ।
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119 विश्वमैत्री मित्ति मे सव्वभूएसु, वे मज्झ ण केणइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 432]
एवं [भाग-5 पृ. 317]
- महानिशीथ 1/59 एवं श्राद्धप्रतिक्रमण 49 समस्त प्राणियों के साथ मेरी मित्रता है। किसी के साथ भी मेरा वैर विरोध नहीं है। 120 प्रमाणोपेत आहार
बत्तीसं किर कवला, आहारो कुच्छि पूरओ भणिओ। पुरिसस्स महिलाए, अट्ठावीसं भवे कवला ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 449]
- पिण्ड नियुक्ति गाथा 642 सामान्यतया पुरुष के लिए (श्रमण) बत्तीस कवल जितना आहार और स्त्री (श्रमणी) के लिए अट्ठावीस कवल जितना आहार प्रमाणोपेत कहा जाता है। 121 आलोचना : पर-साक्षी
छत्तीस गुणसम्पन्ना गण्णते णावि अवस्स कायव्वा । परसक्खिया विसोही, सुटु वि ववहार कुसलेण ॥ जह कुसलो वि वेज्जो, अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाही। विज्जस्स य सोयंतो, पडिकम्मं समारभतो ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 450]
- ओघनियुक्ति - 794/795 __ आचार्य के छत्तीस गुणों से समन्वित एवं श्रेष्ठ ज्ञान व क्रियाव्यवहार आदि में विशेष निपुण श्रमण भी पाप-शुद्धि पर-साक्षी से ही करे, अपने आप नहीं । जैसे परम कुशल वैद्य भी अपनी बीमारी दूसरे वैद्य से कहता है, उससे ही इलाज करवाता है एवं उस वैद्य के कथनानुसार कार्य भी करता है; वैसे ही आलोचक प्रायश्चित्त-विधि में स्वयं दक्ष होते हुए भी अपने दोषों की आलोचना प्रकट रूप से अन्य के समक्ष करे । ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 87
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122 आलोचना से ऋजुता / आलोयणाए णं उज्जुभावं च जणयइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 465]
- उत्तराध्ययन - 2917 आलोचना से ऋजुता-निष्कपटता के भाव पैदा होते हैं । 123 सांध्य आवश्यक
समणेण सावएण य अवस्स कायव्व हवति जम्हा । अंतो अहो निसिस्सउ तम्हा आवस्सयं नाम ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 472]
- अनुयोगद्वार - 29-3 दिन-रात की संधि के समय श्रमण-श्रावक को अवश्य करने योग्य होने से इसे 'आवश्यक' कहा गया है । 124 शुभाशुभ-कर्म-सञ्चय
मैत्र्यादिवासितं चेतः, कर्म स्यूते शुभात्मकं । कषायविषयाक्रान्तं, वितनोत्यशुभं मनः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 503] .
- योगशास्त्र - 4/15 मैत्री आदि चार भावनाओं से सुवासित किया हुआ मन शुभ कर्म उत्पन्न करता है जबकि क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषाय तथा विषयों से व्याप्त हुआ मन अशुभ कर्म सञ्चित करता है । 125 सत्यासत्यवचन
शुभार्जनाय निर्मिथ्यं, श्रुतज्ञानाश्रितं वचः । विपरीतं पुनर्जेयमशुभार्जनहेतवे ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 503]
- योगशास्त्र - 416 आगमानुसारी सत्यवचन तथा उससे विपरीत वचन क्रमश: शुभ और अशुभ कर्म की प्राप्ति कराते हैं ।
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126 शुभाशुभ कर्म उपार्जन
शरीरेण सुगुप्त शरीरी चिनुते शुभम् । सततारम्भिणा जन्तुघातकेनाशुभं पुनः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 503] . - योगशास्त्र - 4/17
शुभ प्रवृत्तिवाले शरीर द्वारा प्राणी शुभ कर्म सञ्चित करता है और हिंसक तथा पाप-प्रवृत्तिवाले शरीर द्वारा वह अशुभ कर्म उपार्जित करता है । 127 अशुभ-कर्म-हेतु - कषाया विषया योगाः प्रमादाविरती तथा । मिथ्यात्वमार्तरौद्रे चेत्यशुभं प्रति हेतवः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 503]
- योगशास्त्र - 408 कषाय, विषय, योग, प्रमाद, अविरति, मिथ्यात्व और आर्त-रौद्र ध्यान – ये सब अशुभ कर्म के हेतु हैं । 128 धर्मोपदेश - पद्धति - अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खमाणेणो अत्ताणं,
आसादेज्जा णो परं आसादेज्जा । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 512]
- आचारांग 1/6/507 विवेक पूर्वक धर्म की व्याख्या करता हुआ भिक्षु न तो अपने आपको पीड़ा पहुँचाए और न दूसरे को पीड़ा पहुंचाए। 129 अनुग्रहार्थ - प्राकृत - रचना
बाल-स्त्री-मूढ-मूर्खाणां, नृणां चारित्रकाक्षिणाम्। अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञैः, सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 512] - धर्मबिन्दु सटीक 2169 [60]
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बाल, स्त्री, मूढ व मूर्ख मनुष्यों तथा चारित्र ग्रहण करने की इच्छावालों पर अनुग्रह करने के लिए तत्त्वज्ञों ने सिद्धान्त की रचना प्राकृत में की है। 130 महामुनि - असंदीनद्वीप
जहा से दीवे असंदीणे एवं से भवति सरणं महामुणी । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 512] आचारांग - 1/6/5/197
महामुनि संसार-प्रवाह में डूबते हुए जीवों के लिए वैसे ही शरणभूत होता है । जैसे - समुद्र में डूब रहे जलयात्रियों के लिए असंदीनद्वीप । 131 रसासक्ति
-
विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः । रसवर्ज रसोऽप्येवं, परं दृष्टवा निवर्तते ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 548] भगवद्गीता 2/59
यद्यपि इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण नहीं करनेवाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु राग (आसक्ति) निवृत्त नहीं होता और स्थिरबुद्धि पुरुष का तो राग भी परमात्मा को साक्षात् करके निवृत्त हो जाता है।
-
--
132 लङ्घन हितकर ज्वरादौ लङ्घनं हितं ।
--
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 548]
ज्वरादि में लङ्घन
1
चरक संहिता - ज्वर प्रकरण
उपवास हितकारी है 1
-
133 भूख- वेदना
i/ नत्थि छुहाए सरिसा वेयणा ।
1
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 548] ओघनियुक्ति भाष्य 290
संसार में भूख के समान कोई वेदना नहीं है ।
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134 आहार त्याग किसलिए?
छहिं ठाणेहि समणे निग्गंथे आहारं वोच्छिदमाणे णाइक्कमइ तंजहा - आयंके उवसग्गे तितिक्खया बंभचेर गुत्तीसु । पाणिदया तवहेडं, सरीरवोच्छेयणट्ठाए ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 548]
- पिण्ड नियुक्ति 96 . छह कारणों से श्रमण-निर्ग्रन्थ आहार का त्याग करता हुआ जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं करता । जैसे- रोग एवं उपसर्ग होने पर, ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकने पर, जीवदया न पल सकने पर, तपश्चर्या करने के लिए और अनशनादि द्वारा शरीर छोड़ने के लिए। 135 संसार-वलय से मुक्त
नो जीवियं णो मरणाभिकंखी । चरेज्ज वलया विमुक्के ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 550]
- सूत्रकृतांग 11024 साधु न तो जीवन की आकांक्षा करे और न मरण की । वह संसारचक्र से मुक्त होकर संयम-पथ में विचरण करें । 136 समाधिकामी निरपेक्ष
निक्खम्म गेहाउ निरावकंखी । _ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 550]
- सूत्रकृतांग 1024 समाधिकामी साधु अपने घर से निष्क्रमण कर (दीक्षा लेकर) अपने जीवन के प्रति निराकांक्षी हो जाए। 137 साधक-परिशुद्ध
सुद्धे सिया जाए न दूसएज्जा ।
___ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 550]
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सूत्रकृतांग 1/10/23
साधक भलीभाँति शुद्ध होता हुआ समय व्यतीत करे और दूषित
नहीं होवे ।
138 संयम पराक्रम
धितिमं विमुक्केण य पूयणट्ठी । न सिलोयगामी य परिव्वज्जा ॥
-
-
सूत्रकृतांग 1/10/23
धैर्यशाली पुरुष विकारों से मुक्त होता हुआ अपने लिए पूजा और यशकीर्ति की इच्छा नहीं करे तथा संयमशील होता हुआ विचरे । 139 अनशन - लाभ
आहार पच्चक्खाणेणं जीविया संसप्पओगं वोच्छिद । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 554]
―
-
उत्तराध्ययन 29/35
अनशन से जीव जीवन की लालसा से छूट जाता है ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 550]
140 अहितकारिणी निन्दा
असेकरी अन्नेसिं इंखिणी ।
-
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 559] सूत्रकृतांग 122A
दूसरों की निन्दा अश्रेयस्कारिणी है अर्थात् हितकारिणी नहीं है ।
-
141 अनुपम सर्वोत्तम सूर्यप्रकाश
-
तावद् गर्जति खद्योतस्तावद् गर्जति चन्द्रमाः । उदिते तु सहस्त्रांशौ न, खद्योतो न चन्द्रमाः ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 572] कल्पसुबोधिका सटीक 2
-
-
जुगनू तब तक चमकता है, चन्द्रमा तब तक प्रकाशमान रहता है, जब तक सूर्य उदित न हो, मगर सूर्योदय होनेपर न तो जूगनूं का और न चन्द्रमा का प्रकाश रहता है ।
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142 त्रिपदी
उप्पन्ने वा, विगमे वा धुवेति वा ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 573] स्याद्वादमंजरी - 263
प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न भी होता है, नष्ट भी होता है और स्थिर भी रहता है - यही तीर्थंकर प्रदत्त 'त्रिपदी' कहलाती है । 143 आत्मा शरीर से भिन्न
-
-
क्षीरे घृतं तिले तैलं काष्ठेऽग्निः सौरभं सुमे । चन्द्रकान्ते सुधा यद्वत् तथात्माप्यङ्गतः पृथक् ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 573] कल्पसुबोधिका सटीक एवं
श्री कल्पसूत्रबालावबोध पृ. 254
जैसे दूध में घी, तिल में तेल, काष्ठ में अग्नि, फूल में सुगन्ध, चंद्र कान्ति अमृत विद्यमान है, वैसे ही आत्मा भी शरीर में रहते हुए भी शरीर से भिन्न है ।
144 विषय-दौड़
पुरः पुरः स्फुर तृष्णा, मृग तृष्णाऽनुकारिषु । इन्द्रियार्थेषु धावन्ति, त्यक्त्वा ज्ञानाऽमृतं जड़ाः ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 597]
ज्ञानसार - 7/6
जिन्हें उत्तरोत्तर बढ़ती हुई तृष्णा है, वे मूर्खजन ज्ञानरूपी अमृतरस का त्याग कर मृगतृष्णा के समान इन्द्रियों के विषयों की ओर दौड़ते रहते हैं ।
145 मूर्ख की मृग तृष्णा
गिरिमृत्स्नां धनं पश्यन् धावतीन्द्रियः मोहितः । अनादि निधनं ज्ञानं धनं पार्श्वे न पश्यति ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 597]
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- ज्ञानसार - 7/ इन्द्रिय-पाश में फंसा जीव मोह से पर्वत की मिट्टी को धन मानकर दौड़ता है, परन्तु अन्तस्थ अनादि अनन्त ज्ञान-धन को वह नहीं देख सकता
है।
146 इन्द्रिय परवश की दुर्दशा - पतङ्गभंग मीनेभ सारङ्गा यान्ति दुर्दशाम् । एकैकेन्द्रिया दोषाच्चेत् दुष्टैस्तैः किं न पञ्चभिः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 597]
- ज्ञानसार 70 जब पतंग, भ्रमर, मत्स्य, हाथी मृग, एक-एक इन्द्रिय-दोष से भी दुर्दशा प्राप्त करते हैं तब फिर पाँचों दुष्ट इन्द्रियों के वश हुए जीव का क्या कहना ? 147 विकार विषवृक्ष
वृद्धास्तृष्णाजलाऽपूर्णैरालवालैः किलेन्द्रियः । मूर्छामतूच्छां यच्छन्ति, विकार विषपादपाः ॥ .
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 597]
- ज्ञानसार 72 तृष्णारूपी जल से, लबालब भरी इन्द्रियरूपी क्यारियों से फले-फूले विषय-विकार रूपी विषवृक्ष जीवात्मा को तीव्र-मूर्छ-मोह पैदा करते हैं । 148 इन्द्रिय-विजेता बनो
बिभेषि यदि संसारान् मोक्ष-प्राप्तिं च काङ्क्षसि । तदेन्द्रिय जयं कर्तुं स्फोरय स्फारपौरूषम् ॥ __ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 597]
- ज्ञानसार 74 यदि तुम संसार से भयभीत हो और मोक्ष-प्राप्ति चाहते हो, तो अपनी इन्द्रियों पर विजय पाने के लिए दृढ़ पराक्रम करो ।
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149 अन्तरात्म-तृप्ति
सरित्सहस्र दुष्पूर समुद्रोदर सोदरः । तृप्तिमानेन्द्रियग्रामो, भव तृप्तोऽन्तरात्मना ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 597]
- ज्ञानसार 73 हजारों नदियों से समुद्र दुष्पूर होता है । इन्द्रियाँ भी तृप्त नहीं होती है । अत: अन्तरात्मा से ही तृप्त बन । 150 प्रमाणभूत अन्तर
तुल्लेवि इंदियत्थे, एगो सज्जइ विरज्जइ एगो । अब्भत्थं तु पमाणं, न इंदियत्था जिणावेंति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 598]
- व्यवहारभाष्य - 2/54 इन्द्रियों के विषय समान होते हुए भी एक उनमें आसक्त होता है, • और दूसरा विरक्त । जिनेश्वरदेव ने बताया है कि इस सम्बन्ध में व्यक्ति का
अन्तर् हृदय ही प्रमाणभूत है, इन्द्रियों के विषय नहीं । 151 नारी पंक - ___पंकभूयाउ इथिओ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 615]
- उत्तराध्ययन 29 स्त्रियाँ कीचड़ के समान होती हैं । 152 आत्मान्वेषक
चरेज्ज अत्तगवेसए । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 615]
- उत्तराध्ययन 209 आत्मस्वरूप की खोज में विचरण करें । 153 स्त्री संसर्ग-दुःख
पुव्वंदण्डा पच्छा फासा, पुव्वं फासा पच्छा दंडा ।
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 616]
- आचारांग - 1/5/4064 स्त्रीसंग में रत व्यक्तियों को कहीं यहीं पहले संकट उठने पड़ते हैं और बाद में स्पर्श-सुख प्राप्त होता है तो कहीं पहले स्पर्श-सुख और बाद में संकट सहने पड़ते हैं। 154 वासनोत्पीड़ित निर्बलाहारी उब्बाधिज्जमाणे गामधम्मेहिं अविनिब्बलासए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 616]
- आचारांग 1/5/4064 विषय-वासना से पीड़ित होने पर साधक निर्बल-हल्का भोजन करें। 155 उणोदरिका तप / अवि ओमोदरियं कुज्जा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 616]
- आचारांग - 1/5/4064 भूख की अपेक्षा कम खाए। 156 कायोत्सर्ग अवि उड्ढे ठाणं ठाएज्जा।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 616]
- आचारांग - 1/5/4064 उर्ध्वस्थान पर खड़े रहकर कायोत्सर्ग करें । 157 अनशन अवि आहारं वोच्छिदेज्जा।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 616]
- आचारांग - 1/5/4/064 काम-भोगों से पीड़ित होने पर सर्वथा आहार का परित्याग करें।
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158 आकृष्ट मन का त्याग अवि चए इत्थीसु मणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 616]
- आचारांग - 1/5/4064 स्त्रियों के प्रति आकृष्ट होने वाले मन का परित्याग करें । 159 विचरण अविगामाणुगामं दूइज्जेज्जा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 616] __ - आचारांग - 1/5/4064
ग्रामानुग्राम विहार करें। 160 काम-से कलह और आसक्ति ८ इच्चेए कलहा संगकरा भवंति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 616]
- आचारांग 1/5/4464 __ये काम-भोग, कलह और आसक्ति पैदा करनेवाले होते हैं । 161 प्रभूतज्ञानी का पर्यालोचन
से पभूयदंसी.... सदा जते टुं विप्पडिवेदेति अप्पाणं किमेस जणो करिस्सति ?
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 616]
- आचारांग - 1/5/4464 विपुलदर्शी, विपुलज्ञानी सदा इन्द्रियजयी पुरुष (ब्रह्मचर्य से विचलित करने के लिए उद्यत स्त्रीजन को) देखकर अपने मन में विचार करता है "वह स्त्रीजन मेरा क्या करेगा ?" 162 तीन अदृश्य
जल मज्झे मच्छपयं, आगासे पक्खियाण पयपंती । महिलाण हिययमग्गो, तिन्नवि लोए न दीसंति ॥
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 618]
- गच्छाचारपयन्ना सटीक - 2 अधि. जल की गहराई में मत्स्य के पैर, आकाश में पक्षियों के पैरों की पंक्ति और महिलाओं का अन्तर्हृदय - ये तीनों इस संसारमें दिखाई नहीं देते। 163 देव के लिए भी असंभव
अश्वप्लुतं माधवर्जितं च, स्त्रीणां चरित्रं भवितव्यता च । अवर्षणञ्चाप्यतिवर्षणं च, देवो न जानाति कुतो मनुष्यः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 618]
- गच्छाचारपयन्ना सटीक - 2 अधि. अश्व का उछलना, मधुमास में मेघों की गर्जना, स्त्रियों का चरित्र, भवितव्यता (होनहार) और अतिवृष्टि-अनावृष्टि-इतनी बातें देव भी नहीं जानते तो फिर मनुष्यों की बात ही क्या ? 164 अदृढ़ मन
यदि स्थिरा भवेत् विद्युत्, तिष्ठन्ति यदि वायवः । दैवात्तथापि नारीणां, न स्थेम्ना स्थीयते मनः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 618]
- गच्छाचारपयन्ना सटीक 2 अधि. कदाचित् विद्युत् स्थिर हो जाय और संयोग से वायु भी ठहर जाय; किन्तु स्त्रियों का मन प्राय: दृढ़ नहीं रहता । 165 धर्मवीर
धम्मम्मि जो दढमइ, सो सूरो सति ओ य वीरो य । णहु धम्मणिरूस्साहो, पुरिसो सूरो सुवलिओ य ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 98
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 624]
- सूत्रकृतांग नियुक्ति - 52 जो व्यक्ति धर्म में दृढ निष्ठा रखता है, वस्तुत: वही बलवान है, वही शूरवीर है । जो धर्म में उत्साहहीन है, वह वीर एवं बलवान होते हुए भी न वीर है; न बलवान है। 166 इन्द्रिय बलवत्ता
बलवानिन्द्रयग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ।। (पंडितोप्यऽत्र मुह्यति)
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 625]
- मनुस्मृति 2/215 इन्द्रिय समूह बड़ा बलवान होता है, वह अवसर आने पर विद्वान् को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेता है । 167 एकासन एकान्त निषेध मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 625]
- मनुस्मृति 2/215 पंडितजन को चाहिए कि माता, बहन तथा कन्या के साथ भी एकान्त में एक आसन पर न बैठे। 168 रस-लोलुप सीहं जहा च कुणिमेणं निब्भय मेग चरं पासेणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 626]
- सूत्रकृतांग 1/44/8 निर्भय अकेला विचरनेवाला सिंह भी मांस के लोभ से जाल में फँस जाता है (वैसे ही आसक्तिवश मनुष्य भी)। 169 विष-कण्टक तम्हा उ वज्जए इत्थी, विसलित्तं च कंटगं णच्चा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 626]
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- सूत्रकृतांग 1/Anml ब्रह्मचारी, स्त्री-संसर्ग को विष लिप्त कंटक के समान समझकर उससे बचता रहे। 170 स्त्री के साथ विहार निषेध - णो विहरे सहणमित्थीसु
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 626]
- सूत्रकृतांग 1/4An2 स्त्रियों के साथ विहार मत करो। 171 कुशील-वचन - वाया वीरियं कुसीलाणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 627] - सूत्रकृतांग - 1/
4a7 सच है कुशीलों के वचन में ही शक्ति होती है (कर्म में नहीं)। 172 भोगासक्त-प्राणी / गिद्धा सत्ता कामेहि।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 627]
- सूत्रकृतांग 1/4mM4 प्राणी काम-भोगों में आसक्त हैं । 173 स्त्री-परिचय-निषिद्ध अविधूयराहिं सुण्हाहि धातीहिं अदुवदासीहिं। . महतीहिं वा कुमारीहिं संथवं से णेव कुज्जा अणगारे ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 627] - सूत्रकृतांग 1/
43 चाहे पुत्री हो, पुत्रवधु हो, धाय हो या दासी हो, विवाहित हो या कुमारी हो - श्रमण इन सब में किसी के भी साथ सम्पर्क-परिचय नहीं करें। 174 माया महाठगिनी हम जानी
अन्नं मणेण चिंतेति अन्नं वायाइ कम्मुणा अन् । तम्हा ण सद्दहे भिक्खू, बहुमायाओ इथिओणच्चा ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 100
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 628]
- सूत्रकृतांग 1/44/24 स्त्रियाँ मन से कुछ और सोचती हैं, वाणी से कुछ और बोलती हैं और कर्म से कुछ और ही करती हैं । इसलिए स्त्रियों को बहुत मायावाली जानकर उन पर विश्वास न करें । 175 मायाविनी नारी बहुमायाओ इथिओ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 628] - सूत्रकृतांग - 1/
4 24 स्त्रियाँ बहुत मायाविनी होती हैं । 176 स्त्री-संसर्ग जतुकुंभे जहा उवज्जोती संवासे विदु विसीएज्जा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 629]
- सूत्रकृतांग 1/44/26 . जैसे लाख से निर्मित घड़ा आग से पिघल जाता है, वैसे ही
बुद्धिमान् पुरुष भी स्त्री-संसर्ग से स्खलित हो जाते हैं। 177 दोहरी मूर्खता
बालस्स मंदयं बितियंजं च कडं अवणाजई भुज्जो। दुगुणं करेइ से पावं, पूयण कामए विसण्णेसी॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 629]
- सूत्रकृतांग 1/44/29 मूर्ख साधक की दूसरी मूर्खता यह है कि वह बार-बार किए हुए पापकर्मों को नहीं किया' कहता है । अत: वह दुगुना पाप करता है । वह जगत् में अपनी पूजा चाहता है, किन्तु असंयम की इच्छा करता है। 178 प्रलोभन णीवारमेयबुज्झज्जा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 629]
- सूत्रकृतांग 1/4M/BI अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 101
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प्रलोभन को साधु सूअर को फंसानेवाले चावल के दाने के समान समझे। 179 मोहग्रस्त - मूर्खात्मा बद्धे य विसयपासेहिं मोहमागच्छती पुणो मंदे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 629]
- सूत्रकृतांग - 1/4MBI विषय-पाशों से बँधी हुई मूर्खात्मा बार-बार मोहग्रस्त होती है । 180 स्त्री-संसर्ग त्याग 1 एवित्थियाहिं अणगारा । संवासेण णासमुवयंति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 629] - सूत्रकृतांग 1/
427 स्त्रियों के संसर्ग से अणगार पुरुष भी शीघ्र ही नष्ट (संयमभ्रष्ट) हो जाते हैं। 181 अग्नि बिन जलती काया पुत्रश्च मूों विधवा च कन्या, शठं मित्रं चपलं कलत्रम् । विलासकालेऽपि दरिद्रता च विनाग्निना पञ्च दहन्ति देहम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 636]
- नग्गय. 31 मूर्ख पुत्र, विधवा कन्या, धूर्त मित्र, चञ्चल स्त्री और भोग-विलास के समय में दरिद्रता ये पाँचों चीजें बिना आग के शरीर को जलाती है । 182 ब्रह्मचर्य-गरिमा - इथिओ जे ण सेवन्ति आदि मोक्खा हु ते जणा। .
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 641]
- सूत्रकृतांग 1450 जो पुरुष स्त्रियों का सेवन नहीं करते, वे सर्वप्रथम मोक्षगामी अर्थात् मोक्ष पहुंचने में सबसे अग्रसर होते हैं ।
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183 ब्रह्मचर्य वाउ व जालमच्चेति, पिया लोगंसि इथिओ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 641]
- सूत्रकृतांग 1458 जैसे पवन अग्नि-शिखा को पार कर जाता है, वैसे ही महान् त्यागी पराक्रमी पुरुष स्त्रियों के मोह को उल्लंघन कर जाते हैं । 184 स्त्रीवशी - अज्ञ इत्थीवसंगता बाला, जिण सासण परम्मुहा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 651]
- सूत्रकृतांग - 13/4N स्त्री के वशीभूत अज्ञानी जीव जिनशासन से विमुख हो जाते हैं । 185 अनार्य-लक्षण अज्झोववन्ना कामेहिं ।
पूयणा इव तरूणए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 651]
- सूत्रकृतांग - 18/443 पूतना पिशाचिनी - डकिनी जैसे छोटे बच्चों पर आसक्त रहती है वैसे ही अज्ञानी-अनार्य काम-भोगों में अत्यधिक आसक्त रहते हैं । 186 नारी नेह दुस्तर
जहा नदी वेयरणी, दुत्तरा इह संमता । एवं लोगंसि नारीओ, दुत्तरा अमतीमता ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 652]
- सूत्रकृतांग - 1306 जिसप्रकार सर्व नदियों में वैतरणी नदी दुस्तर मानी गई है, उसीप्रकार इस लोक में कामिनियाँ अविवेकी साधक पुरुष के लिए दुस्तर मानी गई
हैं।
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187 समय-बद्धV जेहिं काले परिक्कंतं, न पच्छा परितप्पए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 652]
- सूत्रकृतांग - 1/3/445 जो समय पर अपना कार्य कर लेते हैं, वे बाद में पछताते नहीं । 188 सर्व विजयी
जेहिं नारीण संजोगा, पूयणापिट्ठतो कता । . सव्वमेयं निरा किच्चा, ते ठिता सुसमाहिए ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 652]
- सूत्रकृतांग 13/447 जिन पुरुषों ने स्त्रियों के संसर्ग तथा काम-विभूषा से पीठ फेर ली हैं, वे साधक इन सभी विघ्नों को पराजित करके सुसमाधि में स्थित रहते
हैं।
189 पीछे पछताय होत क्या ?
अणागयमपस्सन्ता, पच्चुप्पन्नगवेसगा । ते पच्छा परितप्पन्ति, झीणे आउम्मि जोव्वणे ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 652]
- सूत्रकृतांग 1/3/4/14 जो व्यक्ति भविष्य में होनेवाले दु:खों की तरफ न देखकर केवल वर्तमान-सुख को ही खोजते हैं, वे आयु और यौवन-काल बीत जाने पर पश्चात्ताप करते हैं। 190 बंधन-मुक्त धीरा बंधणुम्मुक्का।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 652]
- सूत्रकृतांग 13/405 धैर्यशाली बंधन से उन्मुक्त होते हैं।
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191 मृषा-वर्जन मुसावायं विवज्जेज्जा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 652]
- सूत्रकृतांग 18/419 झूठ को छेड़ो। 192 अस्तेय-त्याग अदिण्णादाणाइ वोसिरे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग-2 पृ. 652]
- सूत्रकृतांग 1/3/419 चोरी का त्याग करो। 193 सुव्रती सुव्बते समिते चरे।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 652]
- सूत्रकृतांग 13/409 सुव्रती समितियों का परिपालन करता हुआ विचरण करें । 194 शास्त्र
हस्तस्पर्श समं शास्त्र तत एव कथञ्चन । अत्र तन्निश्चयोपि स्यात् तथा चन्द्रोपरागवत् ॥ __ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 671]
- योगबिन्द 316 एवं द्वारा 16 द्वा. 26 अन्धा मनुष्य जैसे हाथ से छूकर किसी वस्तु के सम्बन्ध में अनुमान करता है, उसीप्रकार शास्त्र के सहारे व्यक्ति आत्मा, कर्म आदि पदार्थों के विषय में निश्चय कर लेता है । जैसे चन्द्र को राहु का स्पर्श शास्त्रों से ही जाना जाता है। 195 ज्ञान-ज्योति
दव्वुज्जोउ जोओ पगासई परमियम्मि खित्तम्मि । भावुज्जोउ जोओ, लोगालोगं पगासेइ ॥
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 772]
- आवश्यक नियुक्ति 24075 सूर्य आदि का द्रव्य प्रकाश परिमित क्षेत्र को ही प्रकाशित करता है, किन्तु ज्ञान का प्रकाश तो समस्त लोकालोक को प्रकाशित करता है । 196 धर्म का लक्षण
दुर्गति प्रसृतान् जन्तून् यस्माद्धारयते पुनः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पू 773]
एवं [भाग-4 पृ. 2665] |
- आवश्यकमलयगिरि द्वितीय खण्ड जो दुर्गति (पतन के गड्ढे) में पड़ते हुए प्राणियों - को बचाता है और सद्गति (उन्नति के स्थान) में पहुंचाता है, वह 'धर्म' कहलाता
197 अध्यात्म-स्नान
उदगस्स फासेण सिया य सिद्धि सिज्झंसु पाणा बहवे दगंसि ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 797]
- सूत्रकृतांग - 14 यदि जल स्पर्श (जलस्नान) से ही सिद्धि प्राप्त हो, तो पानी में रहनेवाले अनेक जीव कभी के मोक्ष प्राप्त कर लेते ? 198 हिंसा पाणाणि चेवं विणिहंति मंदा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 797]
- सूत्रकृतांग IMAG मन्दबुद्धिवाले व्यक्ति प्राणियों की हिंसा करते हैं। 199 अज्ञानी
आसुरियं दिसं बाला, गच्छंति अवसातमं ।
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 881]
- उत्तराध्ययन 710 अज्ञानी जीव विवश हुए अंधकाराच्छन्न आसुरी गति को प्राप्त होते हैं। 200 मूलधन . माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे । मूलच्छेदेण जीवाणं, नरग तिरिक्खत्तणं धुवं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 882]
- उत्तराध्ययन - 746 मनुष्य जीवन मूल धन है । देवगति उसमें लाभरूप है । मूलधन के नाश होने पर नर्क-तिर्यञ्च गतिरूप हानि होती है । 201 कर्म-सत्य कम्म सच्चा हु पाणिणो ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 883]
- उत्तराध्ययन 720 प्राणियों के कर्म ही सत्य है। 202 मानुषिक काम,क्षुद्र
जहा कुसग्गे उदगं समुद्देण समं मिणे । एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अन्तिए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 883]
- उत्तराध्ययन 723 मनुष्य सम्बन्धी काम-भोग, देव सम्बन्धी काम-भोगों की तुलना में वैसे ही हैं, जैसे कोई व्यक्ति कुश की नोक पर टिके हुए जल-बिन्दु की तुलना समुद्र से करता है। 203 धीर का धैर्य धीरस्स परस्स धीरत्तं, सव्व धम्माणुवत्तिणो ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 884] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 107
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- उत्तराध्ययन 7/29 क्षमा, मार्दव आदि समस्त धर्मों का परिपालन करने वाले धीरपुरुष की धीरता को देखो। 204 मूर्योपदेश -
उपदेशो हि मूर्खाणां, प्रकोपाय न शान्तये । पयःपानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्द्धनम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 887]
- हितोपदेश 1/4 मूों को दिया गया उपदेश प्रकोप के लिए होता है, शान्ति के लिए नहीं । सर्यों को दूध पिलाना मात्र उनके विष का वर्धन करना ही है। 205 मद्यपान-दुर्गुण
विवेकः संयमोज्ञानं, सत्यं शौचं दया क्षमा । मद्यात् प्रलीयते सर्वं, तृण्या वह्निकणादिव ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 928]
- योगशास्त्र - 346 जैसे आग की चिनगारी से घास का ढेर जलकर भस्म हो जाता है वैसे ही मदिरापान से विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य, शौच, दया और क्षमा आदि सभी गुण नष्ट हो जाते हैं। 206 मद्य से हानि मज्जं दुग्गइ मूलं हिरि सिरि मइ धम्म नासकरं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 928]
- धर्मसंग्रह - 2/12 ___ मद्य दुर्गति का मूल है, क्योंकि इससे लज्जा, लक्ष्मी, मति और धर्म का नाश होता है। 207 अहंकार सूरं मन्नति अप्पाणं जाव जेतं न पस्सति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1050] - सूत्रकृतांग 1AAN
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अपनी शेखी बघारनेवाला क्षुद्रजन तभीतक अपने को शूरवीर मानता है जबतक कि सामने अपने से बली विजेता को नहीं देखता है । 208 स्नेह-त्याग दुष्कर - एते संगा मणुस्साणं पाताला व अतारिमा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1051]
- सूत्रकृतांग 13202 माता-पिता स्वजन आदि का स्नेह सम्बन्ध छोड़ना मनुष्यों के लिए उसीतरह कठिन है जिसतरह अथाह समुद्र को पार करना । 209 अज्ञ-दुःखी / सीयंति अबुहा।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1051]
- सत्रकतांग - 13204 अज्ञानी दु:खी होते हैं। 210 स्नेहः एकबंधन
जहा रूक्खं वणे जायं मालुया पडिबंधति । एवं णं पडिबंधंति, णातओ असमाहिणा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1051]
- सूत्रकृतांग - 1/3nno जैसे वन में उत्पन्न वृक्ष को मल्लिकालता लिपटकर घेर लेती है उसीप्रकार ज्ञातिजन साधक के चित्त में असमाधि उत्पन्न करके उसे (स्नेह-सूत्र में) बाँध लेते हैं। 211 श्रेष्ठ धर्म ८ जीवितं नाहि कंखेज्जा, सोच्चा धम्म अणुत्तरं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1051]
- सूत्रकृतांग 18203 श्रेष्ठ धर्म का श्रवण करके जीने की आकांक्षा नहीं करें।
यम
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212 ज्ञाति-स्नेह-बंधन तं च भिक्खू परिण्णाय सव्वे संगा महासवा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1051]
- सूत्रकृतांग 18203 ज्ञाति-संसर्ग को संसार का कारण समझ कर साधु उसका परित्याग करे । 213 कायर-साधक कीवा जत्थ य किस्संति, नाय संगेहिं मुच्छिया ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1051] ___ - सूत्रकृतांग 1Ann2
उपसर्ग आने पर ज्ञातिजनों के स्नेह-सम्बन्ध में आसक्त हुए निर्बल- - कायर साधक अन्त में घोर क्लेश पाते हैं । 214 अज्ञ मरियल बैल तत्थ मंदा विसीयंति, उज्जाणंसि व दुब्बला ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1052] .
- सूत्रकृतांग - 18220 अज्ञानी साधक उच्च संयममार्ग पर प्रयाण करने में वैसे ही (मनोदुर्बल) दुर्बल होकर बैठ जाते हैं जैसे ऊँची चढाई के मार्ग में मरियल
बैल दुर्बल होकर बैठ जाते हैं। - 215 अज्ञानी-साधक-बूढ़ा बैल
तत्थ मंदा विसीयंति उज्जाणंसि जरग्गवा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1052]
- सूत्रकृतांग 13221 अज्ञानी साधक संकटकाल में उसीप्रकार खेदखिन्न हो जाते हैं जिसप्रकार बूढ़े बैल चढ़ई के मार्ग में । 216 स्वप्रतिष्ठा से बचो 3 णो विय पृयण पत्थए सिया ।
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1053]
- सूत्रकृतांग 1226 अपनी पुजा-प्रतिष्ठा के प्रार्थी मत बनो । 217 मोक्ष-मार्ग-समर्पित . पणया वीरा महाविहिं, सिद्धिपहं णेयाउयं धुवं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1053]
- सूत्रकृतांग - InM2I जो मुक्ति-मार्ग की ओर ले जानेवाला और ध्रुव है; वीरपुरुष उस महामार्ग के प्रति समर्पित होते हैं । 218 आत्म-निग्रह चेच्चा वित्तं च णायओ, आरंभं च सुसंवुडे चरेज्जासि ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1053]
- सूत्रकृतांग 1/24/22 . साधक धन-ज्ञातिजन एवं आरम्भ को छोड़कर आत्म-निग्रही होता हुआ विचरण करें। 219 मोह मुग्ध मोह जंति नरा असंवुडा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1053]
- सूत्रकृतांग - /24/20 इन्द्रियों के दास असंवृत मनुष्य हिताहित निर्णय के क्षणों में मोहमुग्ध हो जाता है। 220 आध्यात्मिक प्रयोगशाला : तपश्चरण
जहा खलु मइलं वत्थं, सुज्झइ उदगाइएहिं दव्वेहिं । एवं भावुवहाणे-ण सुज्झाए कम्ममट्टविहं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1076] - आचारांग नियुक्ति - 282
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जैसे जलादि शोधक द्रव्यों से मलिन वस्त्र भी शुद्ध हो जाता है वैसे आध्यात्मिक तप-साधना द्वारा आत्मा ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्ममल से मुक्त हो जाता है। 221 अज्ञानी
सोवधिए हु लुप्पती बाले। . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1082]
- आचारांग IMA/55 अज्ञानी मनुष्य परिग्रह से अवश्य ही क्लेश का अनुभव करता है । 222 उद्दिष्टाहार निषेध अहाकडं ण से सेवे।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1082]
- सूत्रकृतांग - INA/58 मुनि अपने लिए बना हुआ भोजन सेवन न करें । 223 यतना सह गमन - पंथ पेही चरे जयमाणे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1083] .
- आचारांग IN/61 साधक यतनापूर्वक जागरुक होकर रास्ते में देखते हुए चले। 224 निद्रा
णिपि णो पगामए। v - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1083]
- आचारांग - 12/68 बहुत निद्रा भी मत लो। 225 आहार मात्रा विज्ञ मातण्णे असण पाणस्स।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1083]
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- आचारांग - IMM/60 मुनि आहार-पानी की मात्रा को जाननेवाला हो । 226 भिक्षु - अलोलुप णाणु गिद्धे रसेसु अपडिवण्णे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1083]
- आचारांग - IMM/60 ___ असंकल्पित होता हुआ भिक्षु रसों में लोलुप न हो । 227 मुनि णोवि य कंडुयए मुणी गातं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1083]
- आचारांग - 10/60 मुनि शरीर को नहीं खुजलाए । 228 आहार-खोज ऐसे “अहिंसमाणो घासमेसित्था ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1087]
- आचागंग 18/4105 किसी को जरा भी कष्ट न देते हुए आहार की खोज करें । 229 धीरे चलो - मंद परिक्कमे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1087]
- आचारांग - 10/4105 धीरे-धीरे चले। 230 अनर्थ खान खाणी अणत्थाण उ काम-भोगा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1187] - उत्तराध्ययन - 14/03
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काम - भोग अनर्थों की खान है ।
231 अशरण भावना
जाया य पुत्ता न भवंति ताणं ।
-
एक
-
उत्तराध्ययन 14/12
औरस पुत्र भी शरणभूत या रक्षक नहीं होते ।
232 अल्प- सुखदायी
पकामदुक्खा अनिकाम सोक्खा ।
-
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 1187]
उत्तराध्ययन- 14/13
ये काम-भोग चिरकाल तक दुःख देते हैं अर्थात् बहुत दुःख और थोड़ा सुख देनेवाले हैं ।
233 निरन्तर भटकाव
—
परिव्वयन्ते अनियत्तकामे,
अहो य राओ परितप्यमाणे ।
-
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 1187 ]
उत्तराध्ययन
14/14
जो काम - भोगों को नहीं छोड़ते हैं वे अतृप्ति की ज्वाला से संतप्त
-
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 1187]
होते हुए दिन-रात भटकते रहते हैं ।
234 धन की खोज में - प्रमत्त पुरुष अण्णप्पमत्ते ण मेमाणे,
पप्पोति मच्चुं पुरिसे जरं च ।
-
-
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 1187]
उत्तराध्ययन 14/14
अन्य के लिए प्रमत्त होकर धन की खोज में लगा हुआ वह पुरुष
दिन बुढापा एवं मृत्यु को प्राप्त हो जाता है ।
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235 प्रमाद मत करो इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं तं एवमेवं लालप्पमाणं, हरा हरंति,त्ति कहं पमाओ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1187] __ - उत्तराध्ययन - 1445 ___'यह मेरा है और यह मेरा नहीं है।' यह मुझे करना है और यह नहीं करना है, इसप्रकार व्यर्थ की बकवास करनेवाले व्यक्ति को आयुष्य का अपहरण करनेवाले दिन और काल उठा ले जाते हैं । ऐसी स्थिति में प्रमाद करना कैसे उचित है ? 236 काम, मोक्ष-विपक्षी संसार मोक्खस्स विपक्ख भूया ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1187]
- उत्तराध्ययन 14/13 सारे-काम-भोग संसार-मुक्ति के विरोधी हैं । 237 शुक-विद्या Vवेया अधीया ण भवंति ताणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1187]
- उत्तराध्ययन - 1412 अध्ययन कर लेने मात्र से वेद-शास्त्र रक्षा नहीं कर सकते। 238 क्षणिक-सुख खणमेत्त सोक्खा बहु काल दुक्खा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1187]
- उत्तराध्ययन 1443 संसार के विषयभोग क्षणभर के लिए सुख देते हैं,किन्तु बदले में चिरकाल तक दु:खदायी होते हैं।
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239 धर्मधुरा धणेण किं धम्म धुराधिगारे ? '
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1188]
- उत्तराध्ययन 14/07 धर्म की धुरा को खींचने के लिए धन की क्या आवश्यकता है ? (वहाँ तो सदाचार की जरुरत है।) 240 संसार-हेतु V संसार हेडं च वयंति बंधं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1189]
- उत्तराध्ययन - 1419 यह बन्धन ही संसार का हेतु है । 241 निष्फल रात्रियाँ अधम्मं कुणमाणस्स अफला जंति राइओ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1189]
- उत्तराध्ययन 14/24 अधर्माचरण करनेवालों की रात्रियाँ निष्फल जा रही हैं। .. 242 नित्य क्या ?
नो इंदियग्गेज्झा अमुत्त भावा । अमुत्त भावा विय होइ निच्चो ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1189]
- उत्तराध्ययन 1449 आत्मा आदि अमूर्त तत्त्व इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होते और जो अमूर्त होते हैं, वे नित्य भी होते हैं। 243 बंध-हेतु अज्झत्थ हेडं निययऽस्स बंधो ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1189]
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 116
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उत्तराध्ययन 14/19
अन्दर के विकार ही वस्तुतः बन्धन के हेतु हैं ।
-
244 जरा - मरण
मच्चुणाब्भाहओ लोगो, जराए परिवारिओ ।
-
उत्तराध्ययन 14/23
जरा से घिरा हुआ यह संसार मृत्यु से पीड़ित हो रहा है अर्थात् यह संसार मृत्यु से पीड़ित है और वृद्धावस्था से घिरा हुआ है । 245 बीता कभी नहीं लौटा
जा जा वच्चइ रयणी ण सा पडिनियत्तई । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 1189]
—
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 1189]
- · उत्तराध्ययन 14/24
जो जो रात बीत रही है, वह लौटकर नहीं आती ।
246 सफल रजनी
धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जंति राइओ ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 1189] उत्तराध्ययन 14/25
धर्माचरण करनेवालों की रात्रियाँ सफल होती हैं ।
247 राग - मुक्ति कैसे ?
सद्धा खमं णे विणइत्तु रागं ।
-
-
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 1190]
उत्तराध्ययन 14/28
धर्मश्रद्धा राग को दूर करने में समर्थ हो सकती हैं।
248 कल का क्या भरोसा ?
जस्सऽत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्स चsत्थि पलायणं । जो जाणइ न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया ॥
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-2 117
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1190]
- उत्तराध्ययन 1427 जिसकी मृत्यु के साथ मित्रता हो, जो उससे कहीं भागकर बच सकता हो अथवा जो यह जानता हो कि मैं कभी मरूँगा ही नहीं, वही कल पर भरोसा कर सकता है। 249 स्थाणु
साहाहिं रूक्खो लभई समाहि । छिन्नाहि साहाहिं तमेण खाणुं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1190]
- उत्तराध्ययन 14/29 वृक्ष की सुन्दरता शाखाओं से हैं । शाखाएँ कट जाने पर वही वृक्ष . ठू (स्थाणु) कहलाता है। 250 भिक्षाचर्या धीरा हु भिक्खायरियं चरंति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1191] .
- उत्तराध्ययन - 14/35 धैर्यशाली ही भिक्षा-चर्या का अनुसरण करते हैं । 251 असमर्थ जुन्नो व हंसो पडिसोयगामी ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1191]
- उत्तराध्ययन 14.33 वृद्ध हंस प्रतिस्रोत (जल-प्रवाह के सम्मुख) में तैरने से डूब जाता है । (असमर्थ व्यक्ति समर्थ का प्रतिरोध नहीं कर सकता ।) 252 धन-से रक्षा नहीं
सव्वं जगं जइ तुहं, सव्वं वावि धण भवे । सव्वं पि ते अपज्जत्तं, नेव ताणाए तं तव ।।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1191]
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- उत्तराध्ययन 14/39 यदि यह जगत् और इस जगत् का समग्र धन भी तुम्हें दे दिया जाय, तब भी वह तुम्हारी रक्षा करने में अपर्याप्त अर्थात् असमर्थ है। 253 धर्म ही रक्षक
“एक्को हु धम्मो नरदेव ! ताणं । न विज्जए अन्नमिहेह किंचि ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1191]
- उत्तराध्ययन 14/40 राजन् ! एक धर्म ही रक्षा करनेवाला है । उसके अतिरिक्त विश्व में कोई भी मनुष्य का त्राता नहीं है । 254 मृत्यु अवश्यंभावी । / जातस्य हि ध्रुवं मृत्युः
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1192]
- भगवद्गीता - 2027 ___ यह ध्रुव सत्य है कि जन्मधारी की मृत्यु अवश्यम्भावी है । 255 दह्यमान-संसार - डज्झमाणं न बुज्झामो रागदोसग्गिणा जयं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1192]
- उत्तराध्ययन - 14/43 राग-द्वेष रूप अग्नि से जलते हुए इस संसार को देखकर भी हम नहीं समझ रहे हैं, यह आश्चर्य है । 256 चलो, संभलकर
गिद्धोवमे उ नच्चाणं कामे संसार वद्धणे । उरगो सुवण्ण पासेव्व संकमाणो तणुं चरे ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1192] - उत्तराध्ययन 14/47
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 119
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संसार को बढ़ानेवाले काम-भागों को गिद्ध के समान जानकर उनसे वैसे ही शंकित होकर चलना चाहिए, जैसे सर्प गरुड़ के निकट डरता हुआ बहुत संभल कर चलता है। 257 काम-भोग-दुस्त्याज्य ~ काम भोगे य दुच्चए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1193]
- उत्तराध्ययन 14/49 ___काम-भोग कठिनाई से त्यागे जाते हैं । 258 उत्सर्ग-अपवाद
जावइया उस्सग्गा तावइया चेव हुँति अववाया । जावइया अववाया, उस्सग्गा तत्तिया चेव ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1195]
- बृहत्कल्पभाष्य - 322 जितने उपसर्ग (विधि-वचन) हैं उतने ही उनके अपवाद (निषेधवचन) भी हैं; और जितने अपवाद हैं उतने ही उत्सर्ग भी हैं । 259 अधिकरण-दोष अतिरेगं अहिगरणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1209]
- ओघनियुक्ति - 741 आवश्यकता से अधिक एवं अनुपयोगी उपकरण आदि रखना वास्तव में अधिकरण (दोषरूप एवं क्लेशप्रद) हैं ।
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अभिः
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अकारादि अनुक्रमणिका
अभियानका
8888888888888888
180
62
195
231
23 अट्टेसु मूढे अजरामरव्व।
232 25 अवरेण पुव्वं ण सरंति एगे।
59 अहवा कायमणिस्स उ, सुमहल्लस्स वि उ कागणी मोल्लं। ।
वइरस्स उ अप्पस्स वि, मोल्लं होति सयसहस्सं ॥ 2 41 अप्पं च खलु आउं इहमेगेसिं माणवाणं। 2 176
अभिकंतं च खलु वयं संपेहाए ततो से एगया मूढभाव जणयंति।
176 53 अणभिकंतं च वयं संपेहाए ।
179 55 अत्ताणं जो जाणति जोय लोगं ।
अणिदिय गुणं जीवं, दुज्जेयं मंस चक्खुणा । 64 अस्थि मे आया उववाइए से आयावादी, लोगावादी, . कम्मावादी, किरियावादी ।
205 73 अरक्खिओ जाइपहं उवेई।
231 75 अप्पा खलु सययं रक्खियव्वो। 107 अलाभोत्ति न सोएज्जा। 128 अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खमाणेणो अत्ताणं,
आसादेज्जा णो परं आसादेज्जा। 140 अहऽसेयकरी अन्नेसि इंखिणी। 155 अवि ओमोदरियं कुज्जा।
616 156 अवि उड्ढं ठाणं ठाएज्जा।
616 157 अवि आहारं वोच्छिदेज्जा।
616 158 अवि चए इत्थीसु मणं । 159 अविगामाणुगामं दूइज्जेज्जा ।
616 163 अश्वप्लुतं माधवगजितं च,
स्त्रीणां चरित्रं भवितव्यता च। अवर्षणञ्चाप्यतिवर्षणं च, देवो न जानाति कुतो मनुष्यः ।।
2 618 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 123
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512
559
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652
652
1082
मवार रात को सकिमाम 173 अविधूयराहिं सुण्हाहिं धातीहिं अदुवदासीहि ।
महतीहिं वा कुमारीहि संथवं से णेव कुज्जा अणगारे।2 627 174 अन्नं मणेण चिंतेति अन्नं वायाइ कम्मुणा अन्नं ।
तम्हाण सद्दहे भिक्खू, बहुमायाओ इथिओ णच्चा ॥2 628 185 अज्झोववन्ना कामेहिं पूयणा इव तरुणए। 2 651
अणागयमपस्सन्ता, पच्चुप्पन्नगवेसगा।
ते पच्छा परितप्पन्ति, झीणे आउम्मि जोव्वणे।। 192 अदिण्णा दाणाइ वोसिरे। 222 अहाकडं ण से सेवे।। 228 अहिंसमाणो धासमेसित्था ।
1087 234 अण्णप्पमत्ते धणमेसमाणे, पप्पोति मच्चुं पुरिसे जरं च ।
1187 241 अधम्मं कुणमाणस्स अफला जंति राइओ। 2 1189 243 अज्झत्थ हेउं निययऽस्स बंधो ।
1189 259 अतिरेगं अहिगरणं ।
2 1209
आ 28 आगमचक्खू साहू।
2 90 30 आणाए मामगं धम्म ।
2 131 34 आणं अइक्कमंते ते कापुरिसे न सप्पुरिसे। 2 135
335 35 आणाए च्चिय चरणं, तब्भंगे किं न भग्गं तु।। 2 137-138 36 आणा नो खंडेज्जा, आणाभंगे कुओ सुहं ? 2 138-141
आणा खंडणकरीय, सव्वंपि निरत्थयं तस्स। आणा रहिओ धम्मो, पलाल पुलुव्व पडिहाइ॥ 2 141
आतंकदंसी अहियंति णच्चा। 40 आयंकदंसी न करेति पावं।
2 175 59 आततो बहिया पास।
2. 186 आया हु महं नाणे, आया मे दंसणे चरिते य। 2। आया पच्चक्खाणे आया मे संजमे जोगे॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 124
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HTRA
337
398
94 आचार्यस्यैवतत्जाड्यं, यच्छिष्यो नावबुध्यते ।
गावो गोपालकेनैव कुतीर्थेनावतारिताः ॥ 113 आरंभा विरमेज्ज सुव्वते। 122 आलोयणयाएणं उज्जुभावं जणयइ। 139 आहार पच्चक्खाणेणं जीविया संसप्पओगं वोच्छिदइ ।2 199 आसुरियं दिसं बाला, गच्छंति अवसातमं । 2
465
554
881
79 इष्टकाद्यपि हि स्वर्णं, पीतोन्मत्तो यथेक्षते ।
आत्माऽभेद भ्रमस्तद्वद् देहादावविवेकिनः ॥ 2 232 160 इच्चेए कलहा संगकर भवंति ।
2 616 182 इथिओ जेण सेवन्ति आदिमोक्खा हु ते जणा। 2 641 184 इत्थीवसंगता बाला, जिण सासण परम्मुहा। 2 651 235 इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं
तं एवमेवं लालप्पमाणं, हरा हरंति त्तिकहं पमाओ। 2 1187
432
573
616
118 उद्धरियं सव्वसल्लो आलोइय निदिओ गुरुसगासे ।
होइ अतिरेग लहुओ, ओहरिय भरोव्व ॥ 142 उपन्ने वा, विगमे वा धुवेति वा। 154 उब्बाधिज्जमाणे गामधम्मेहिं अविनिब्बलासए। 197 उदगस्स फासेण सिया य सिद्धि सिज्मंसु पाणा
बहवे दगंसि। • 204 उपदेशो हि मूर्खाणां, प्रकोपाय न शान्तये ।
पयः पानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्द्धनम् ॥
2
797
2
887
21 एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए।
2 30 27 एको भावः सर्वथा येन दृष्टः
सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावा सर्वथा येन दृष्टाः, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ।
2 79 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 125
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135 219 223
232
32 एगंतो मिच्छत्तं, जिणाण आणाय होइ णेगंतो।। 2 68 एगे आया।
2 69 एस आतावादी समियाए परियाए वियाहिते। 2 86 एगो वच्चइ जीवो, एगो चेवुव वज्जई।
एगस्स होइ मरणं, एगो सिज्झइ नीरओ॥ 2 87 एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ।
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ॥ 2 180 एवित्थियाहि अणगारा, संवासेणणासमुवयंति ॥ 2 208 एते संगा मणुस्साणं पाताला व अतारिमा । 2 253 एक्को हु धम्मो नरदेव ! ताणं! न विज्जए अन्नमिहेह किंचि॥
अं 99 अंगाणं किं सारो ? आयारो।
2
232
629
1051
1191
372
2
176 .
43 कडं च कज्जमाणं च आगमेस्सं पावगं ।
सव्वं तं णाणुजाणंति, आयगुत्ता जिइंदिया ॥ 83 कर्म जीवश्च सश्लिष्टं सर्वदा क्षीरनीरवत् ।
विभिन्नीकुरुते योऽसौ मुनिहंसो विवेकवान् ॥ 127 कषाया विषया योगाः प्रमादाविरती तथा ।
मिथ्यात्वमार्तौद्रे चेत्यशुभं प्रति हेतवः ।। 201 कम्मसच्चा हु पाणिणो।
2
503 883
गणा।
2
60
26 का अरइ ! के आणंदे एत्थंपि उग्गहे चरे। 257 काम भोगे य दुच्चए।
2
1193
213 कीवा जत्थ य किससंति, नाय संगेहिं मुच्छिया ॥ 2
1051
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wa5555305
13 कुसग्गे जह ओसबिंदुए, थोवं चिट्टइ लंबमाणाए ।
एवं मणुयाणं जीवियं, समयं गोयम मा पमायए ॥ 2 91 कुल गाम नगर रज्जं, पयहियं जो तेसु कुणइ हु ममत्तं ।
सो नवरि लिंगधारी, संजम जोएण निस्सारो॥ 2
11
। 334
2
179 1187
1187
54 खणं जाणाहि पंडिए! 238 खणमेत्त सोक्खा बहुकाल दुक्खा ।
खा 230 खाणी अणत्थाण उ काम-भोगा ।
गा 47 गात्रं संकुचितं गतिविगलिता, दन्ताश्च नाशं गता।
दृष्टि र्भश्यति रूपमेवहसते वक्त्रं च लालायते ॥ वाक्यं नैव करोति बान्धवजन: पत्नी न शुश्रूयते । धिक्कष्टं जरयाऽभिभूतं पुरूषं पुत्रोऽप्यवज्ञायते ॥
गि 145 गिरिमृत्स्नां धनं पश्यन् धावतीन्द्रियः मोहितः ।
अनादि निधनं ज्ञानं-धनं पार्वे न पश्यति ॥ 172 गिद्धा सत्ता कामेहिं । 256 गिद्धोवमे उ नच्चाणं कामे संसार वद्धणे ।
उरगो सुवण्ण पासेव्व संकमाणो तणुं चरे॥
2
177
2
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2
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180
56 · गुरुत्वं स्वस्य नोदेति, शिक्षा सात्म्येन यावता ।
आत्म-तत्त्व प्रकाशेन, तावत्सेव्यो गुरुत्तमः ॥ 57 गुणैर्यदि न पूर्णोऽसि कृतमात्मप्रशंसया ।
गुणैरेवासि पूर्णश्चेत् कृतमात्मप्रशंसया ॥
2
181
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152 चरेज्ज अत्तगवेसए ।
61
218 चेच्चा वित्तं च णायओ ।
सनि
11
चित्तं तिकाल विसयं ।
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121 छत्तीसगुणसम्पन्ना गण्णते णावि अवस्स कायव्वा । परसक्खिया विसोही, सुट्ठवि ववहार कुसलेण ॥
2
जह कुसलो वि वेज्जो, अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाही । विज्जस्स य सोयंतो, पडिकम्मं समारभतो ॥ 134 छहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे आहारं वोच्छिदमाणे णाइक्कमइ तंजहा
आयंके उवसग्गे तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु । पाणिदया तवहेडं, सरीरवोच्छेयणट्ठाए ॥
2
2
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2
जह तुब्भे तह अम्हे, तुम्हे विय होहिहा जहा अम्हे । अप्पाहेति पडतं पंडुय- पत्तं किसलयाणं ॥ जत्थ आभिणिबोहियणाणं, तत्थ सुयनाणं । जत्थ सुअनाणं, तत्थाऽऽभिणिबोहियंणाणं || जह दीवो दीवसयं पइप्पए दीप्पइ य । सो दीवसमा आयरिआ, अप्पं च परं च दीवंति ॥ 2 117 जह बालो जंपतो कज्जमकज्जं व उज्जयं भणइ | तं तह आलोएज्जा मायामय विप्पमुक्को उ॥ 130 जहा से दीवे असंदीणो एवं से भवति सरणं महामुणी | 2 162 जल मज्झे मच्छपयं, अगासे पक्खियाण पयपंती ।
2
2
615
महिलाण हिययमग्गो, तिन्नवि लोए न दीसंति ॥ 2 176 जतुकुंभे जहा उवज्जोती संवासे विदु विसीएज्जा । 2
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428-431
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186 जहा नदी वेयरणी, दुत्तरा इह संमता । एवं लोगंसि नारीओ, दुत्तरा अमतीमता ॥ 202 जहा कुसग्गे उदगं समुद्देण समं मिणे ।
2
एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अन्तिए । 210 जहा रूक्खं वणे जायं मालया पडिबंधति । एवं णं पडिबंधंति, णातओ असमाहिणा || 220 जहा खलु मइलं वत्थं, सुज्झइ उदगाइएहिं दव्वेहिं । एवं भाववहाणे - ण सुज्झाए कम्ममट्ठविहं ॥ 248 जस्सऽत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्स चऽत्थिपलायणं । जोजाइ न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया || 2
2
जा
17
जसद्धाणिक्खतो तमेव अणुपालिया विजहित्ता
विसोत्तियं ।
231 जाया य पुत्ता न भवंति ताणं ।
245 जा जा वच्चइ रयणी ण सा पडिनियत्तई ।
254 जातस्य हि ध्रुवं मृत्युः
258 जावइया उस्सग्गा तावइया चेव हुंति अववाया । जावइया अववाया, उस्सग्गा तत्तिया चेव । जी
96 जहा विलिहतो, न भद्दओ सारणा जर्हि नत्थि । दण्डेण वि ताडतो, स भद्दओ सारणा जत्थ । 211 जीवितं नाहिकंखेज्जा, सोच्चा धम्म अणुत्तरं । जु
251 जुन्नो व हंसो पडिसोयगामी ।
63
जे
2
2
2
2
2
2
2
2
2
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652
जे लोगं अब्भाइक्खति से अत्ताणं अब्भाइक्खति । जे अत्ताणं अब्भाइक्खति, से लोगं अब्भाइक्खति ॥ 2
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सन
223 223
70 जेण विजाणति से आता तं पडुच्च पडिसंखाए। 2 72 जे आता से विण्णाता, जे विण्णाता से आता। 2 106 जे ते अप्पमत्त संजता ते णं
नो आयारंभा नो परारम्भा, जाव आणारम्भा। 2 187 जेहिं काले परिकत्तं, न पच्छा परितप्पए । 2 188 जेहिं नारीण संजोगा, पूयणापिट्ठतो कता ।
सव्वमेयं निरा किच्चा, ते ठिता सुसमाहिए ॥ 2
652
652
2
23
24 जं किंचु वक्कमजाणे आउखेमस्समप्पणो ।
तस्सेव अन्तरद्धाए, खिप्पं सिक्खिज्ज पंडिए। 50 जंजं करेइ तं तं न सोहए जोव्वणे अतिक्ते ।
पुरिसस्स महिलियाए, एकं धम्मं पमुत्तूणं ॥
2
178
132 ज्वरादौ लङ्घनं हितं।
2
548
255 डज्झमाणं न बुज्झामो रागदोसग्गिणा जयं।
2
1192
7
1 45
ण एत्थ तवो वा दमो वा णियमो वा दिस्सति। 2 10
णा णा इच्चो उदेति ण अत्थमेति ।
2 3 णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा तुम पि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए वा ।
2 177-178
179
223
1083
71 णाणे पुण नियमं आया। 226 णाणु गिद्धे रसेसु अपडिवण्णे।
णि 67 णिच्चो अविणासी सासओ जीवो। 224 णिदं पि णो पगामए। '
2
210
1083
(
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सक
अभिमान राज
न सपल
178 णीवारमेय बुज्झेज्जा।
2
629
398
626
114 णो सुलभा सुगई वि पेच्चओ। 170 णो विहरे सहणमित्थीसु 216 णो विय पूयण पत्थए सिया। 227 णोवि य कंडुयए मुणी गातं ।
1053
__ 2
1083
232
387
2 तपसो निर्जराफलं दृष्टम्
28 4 तस्मात् कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः । 28. 80 तरङ्गतरलालक्ष्मी-मायुर्वायुवदस्थिरम् ।
_ अदभ्रधीरनु ध्यायेदभ्रवद्भङ्गुरं वपुः ॥ 102 तसे पाणे न हिंसेज्जा। 103 तवचिमंजोगयंच, सज्झायजोगंचसया अहिट्ठिए।
सूरेवसेणाए समत्तमाउहे, अलमप्पणो होइ अलंपरेसिं॥2 387 169 तम्हाउ वज्जए इत्थी, विसलित्तं च कंटगंणच्चा। 2 626 214 तत्थ मंदा विसीयंति, उज्जाणं सिव दुब्बला। 2 1052 215 तत्थ मंदा विसीयंति उज्जाणंसि जरग्गवा। 2 1052
ता 141 तावद् गर्जति खद्योतस्तावद् गर्जति चन्द्रमाः । ___ उदिते ते सहस्रांशौ न, खद्योतो न चन्द्रमाः ॥ 2 572
ति 33 तित्थयर समो सूरी।
135
150 तुल्लेवि इंदियत्थे, एगो सज्जइ विरज्जइ एगो।
अब्भत्थं तु पमाणं, न इंदियत्था जिणावेंति ॥ .
2
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सम्बर
980888
20 तं से अहियाए तं से अबोहियाए । 212 तं च भिक्खू परिण्णाय सव्वे संगा महासवा।
2 2
30 1051
195 दव्वुज्जोउ जोओ पगासई परमियम्मि खित्तम्मि।
भावुज्जोउ जो ओ लोगालोगं पगासेइ ।
2
772
112 दुहाओ छित्ता नेयाइ। 196 दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून् यस्माद्धारयत्ते पुनः ।
धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः॥ 2
773
77 देहात्माद्यविवेकोऽयं, सर्वदा सुलभो भवे।
भव कोट्यादि तद्भेद, विवेकस्त्वति दुर्लभः ॥ 2
232
28
.
15 धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ।
2 165 धम्मम्मि जो दढमइ, सो सूरो सति ओ य वीरो य।।
णहु धम्मणिरुस्साहो, पुरिसो सूरो सुवलिओ य ॥ 2 239 धर्णण कि धम्म धुराधिगारे?
2 246 धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जंति राइओ॥ 2
624 1188 1189
धि
2
550
138 धितिमं विमुक्केण य पूयणट्ठी । न सिलोयगामी य परिव्वएज्जा।
धी 190 धीरा बंधणुम्मुक्का। 203 धीरस्स परस्स धीरतं, सव्व धम्माणुवत्तिणो। 250 धीरा हु भिक्खायरियं चरंति।
652 884
2
1191
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 132
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A8
52 नइवेग समं चवलं च जीवियं, जोव्वणञ्च कुसुम समं ।
सोक्खं च अणिच्चं, तिण्णि वितुरमाण भोज्जाइं॥ 2 133 नत्थि छुहाए सरिसया वेयणा।
2
178 548
550
136 निक्खम्म गेहाउ निरावकंखी।
2
नो 44 नो य उपज्जए असं।
2 105 नो कित्ति-वण्णसद्द-सिलोगट्ठयाए आयारमहिढेज्जा 2 135 नो जीवियं णो मरणाभिकंखी।
चरेज्ज वलया विमुक्के॥ 242 नो इंदियग्गेज्झा अमुत्त भावा ।
अमुत्त भावा विय होइ निच्चो ।
176 389
550
2
1189
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232
278
393
18 पणया वीरा महावीहिं। 81 पश्यन्ति परमात्मान-मात्मन्येव हि योगिनः। 2 89 पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष: कपिलादिषु ।
युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ 2 110 परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा। 2 146 पतङ्गगमीनेभ सारङ्ग यान्ति दुर्दशाम् ।
एकैकेन्द्रिया दोषाच्चेत् दुष्टै स्तै किं न पञ्चभिः ॥ 2 217 पणया वीरा महाविहि, सिद्धिपहं णेयाउयं धुवं। 2 232 पकामदुक्खा अनिकाम सोक्खा ।
2 233 परिव्वयन्ते अनियत्तकामे, अहो य राओ परितप्पमाणे। 2
597
1053
1187
1187
198 पाणाणि चेवं विणिहंति मंदा ।
2
797
(
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 . 133.
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अभियान सनद माम
888888
पि 46 पिता रक्षति कौमारे-भर्ता रक्षति यौवने ।
पुत्राश्च स्थाविरे भावे, न स्त्री स्वातन्त्रमर्हति ॥
2
177
597 616
144 पुरः पुरः स्फुर तृष्णा, मृग तृष्णाऽनुकारिषु ।
इन्द्रियार्थेषु धावन्ति, त्यक्त्वा ज्ञानाऽमृतं जडाः ॥ 2 153 पुव्वं दण्डा पच्छा फासा, पुव्वं फासा पच्छा दंडा। 2 181 पुत्रश्च मूर्को विधवा च कन्या,
शठं मित्रं चपलं कलत्रम् । विलासकालेऽपि दरिद्रता च विनाग्निना पञ्चदहन्ति देहम् ॥
2
पं 151 पंकभूयाउ इथिओ। 223 पंथपेही चरे जयमाणे।
636
2
615
1083
48 प्रथमे वयसि नाधीतं, द्वितीये नार्जितं धनम् ।
तृतीये न तपस्तपं, चतुर्थे किं करिष्यति ।
2
177
393
108 बहुपि ल« ण णिहे।
2 120 बत्तीसं किर कवलो, आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ।
पुरिसस्स महिलाए, अट्ठावीसं भवे कवला ॥ 2 166 बलवानिन्द्रयग्रामो विद्वांसमि कर्षति। 2
(पंडितोप्यऽत्रमुह्यति) 175 बहुमायाओ इथिओ।
2 179 बद्धेय विसयपासेहिं मोहमागच्छती पुणो मंदे। 2
628 629
ना
60 बाह्यात्मा चान्तरात्मा च परमात्मेति त्रय :।
कायाधिष्ठायक ध्येयाः, प्रसिद्धा योगवाङ्गमये ॥ 2 188
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 134
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________________
सक्ति
129 बाल - स्त्री - मूढ - मूर्खाणां नृणां चारित्रकाङ्क्षिणाम् । अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञैः, सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ॥ 2 177 बालस्स मंदयं बितियं जं च कडं अवजाणई भुज्जो । दुगुणं करेइ से पावं, पूयण कामए विसण्णेसी || 2 बि
148 बिभेषि यदि संसारान् मोक्ष-प्राप्तिं च काङ्क्षसि । तदेन्द्रिय जयं कर्तुं स्फार पौरूषम् ॥
31
भ
2
10 भवकोटिभिरसुलभ, मानुष्यं प्राप्य कः प्रमादो मे । न च गतमायुर्भूयः, प्रेत्यत्यपि देवराजस्य भट्ठायारो सूरी ! भट्ठायाराणुवेक्खओ सूरी । उम्मग्गओ सूरी तिणिविमग्गं पणासंति ॥
म
206 मज्जं दुग्गइमूलं हिरि सिरि मइ धम्म नासकरं । 244 मच्चुणाब्भाहओ लोगो, जराए परिवारिओ ।
अभियान राजन काम
श्रम
मा
167 मात्रा स्वस्रा दुहित्रावा न विविक्तासनो भवेत् । 200 माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे ।
मूलच्छेदेण जीवाणं, नरगतिरिक्खत्तणं धुवं ॥ 225 मातण्णे असणपाणस्स ।
मि
119 मित्ति मे सव्वभूएस, वेरं मज्झ ण केणइ ।
मु
191 मुसावयं विवज्जेज्जा ।
2 597
2
2
2
2
2
2
2
2
512
629
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 135
11
135
335/336
928
1189
625
882
1083
432
652
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________________
98
124 मैत्र्यादिवासितं चेतः, कर्म स्यूते शुभात्मकं । कषायविषयाक्रान्तं, वितनोत्यशुभं मनः ॥
मो
219 मोह जंति नरा असंवुडा ।
229 मंद परिक्कमे ।
मे
मेढी आलंबणं खंभं दिट्टि जाण सुउत्तमं ।
सूरी जं होइ गच्छस्स, तम्हा तं तु परिक्खए ॥
मै
य
78
82
य स्नात्वा समताकुण्डे, हित्वा कश्मलजं मलम् । पुनर्न याति मालिन्यं, सोऽन्तरात्मा परः शुचि ॥ य पश्येन्नित्यमात्मानमनित्यं पर सङ्गमम् । छलं लब्धुं न शक्नोति, तस्य मोहमलिम्लुचः ॥ यथा योधैः कृतं युद्धं स्वामिन्येवोपचर्यते । शुद्धात्मन्य विवेकेन, कर्म स्कन्धोजितं तथा ।। 164 यदि स्थिरा भवेत् विद्युत्, तिष्ठन्ति यदि वायवः । दैवात्तथापि नारीणां न स्थेम्ना स्थीयते मनः ।।
85
ल
111 लद्धे आहारे अणगारे मातं जाणेज्जा ।
ला
109 लाभोत्ति ण मज्जेज्जा ।
19
51
लो
लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं ।
व
2
2
2
2
2
2
2
2
2
348
2
503
1053
1087
232
232
232
618
वओ अच्चेति जोव्वणं च ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 136
393
393
29
178
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________________
समा
888633998233988979838
N
वा 171 वाया वीरियं कुसीलाणं ।।
2 627 183 वाउ व जालमच्चेति, पिया लोगंसि इथिओ। 2 641
वि 3 विणया णाणं, णाणाउ दंसणं दंसणाहिं चरणं तु।
चरणाहिं तो मोक्खो मुक्खे सुक्खं अणाबाहं ॥ 2 8 विनयफलं शुश्रूषा, शुश्रूषाफलं ज्ञानं । ज्ञानस्य फलं विरति, विरति र्फलं चास्रव निरोधः ॥ संवरफलं तपोबलमथ, तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् । तस्मात्क्रिया निवृत्तिः क्रिया निवृत्तेरयोगित्वम् ।। योगनिरोधाद् भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः ।
तस्मात् कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥ 28 38 विहडइ विद्धंसइ ते सरीरयं, समयं गोयम ! मा पमायए।
2 174 92 विहिणा जो उ चोएइ, सुत्तं अत्थं च गाहई।
सो धन्नो सो अ पुण्णो अ, सबंधू मुक्खदायगो॥ 2 334 131 विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्ज रसाऽप्येवं, परं दृष्टवा निवर्तते ॥ 2 205 विवेकः संयमोज्ञानं, सत्यं शौचं दया क्षमा । मद्यात् प्रलीयते सर्वं, तृण्या वह्निकणादिव ।।
वी 65 वीरभोग्या वसुन्धरा ।
548
928
207
147 वृद्धास्तृष्णाजलाऽपूर्ण रालवालैः किलेन्द्रियः ।
मूर्ध्वमतूच्छं यच्छन्ति, विकार विषपादपाः ॥
2
597
237 वेया अधीया ण भवंति ताणं ॥
187
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 . 137
Page #146
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________________
126 शरीरेण सुगुप्त शरीरी चिनुते शुभम् ।
सततारम्भिणा जन्तुघातफेना शुभं पुनः ॥
2
503
2
232
84 शुचीन्यप्य शुचीकर्तुं समर्थेऽशुचिसंभवे ।
देहे जलादिना शौचं भ्रमो मूढस्य दारूणः ॥ 125 शुभार्जनाय निर्मिथ्यं श्रुतज्ञानाश्रितं वचः ।
विपरीतं पुनर्जेयमशुभार्जनहेतवे ॥
8 सव्वेसि जीवितं पियं।
2 10 सव्वे पाणा पियाउया सुहसाता दुक्ख पडिकूला
अप्पियवधा पियजीविणो जीवितुकामा। 2 10 12 समयं गोयम ! मा पमायए।
2 11 58 सव्वत्थेसु विमुत्तो, साहू सव्वत्थ होइ अप्पवसो। 2 185 93 स एव भव्वसत्ताणं, चक्खुभूए वियाहिए।
दंसेइ जो जिणुद्दिटुं, अणुट्ठाणं जहाट्ठियं ॥ 2 335 101 सज्झाय सज्झाण रयस्स, ताइणो, अपावभावस्सतवरयस्स विसुज्झइ जं से मलं पुरे कडं, समीरियं रूप्पमलं व जोइणा ॥
2 387 123 समणेण सावण्ण य अवस्स कायव्व हवति जम्हा।।
अंतो अहो निसिस्स उ तम्हा आवस्सयं नाम ॥ 2 472 149 सरित्सहस्रदुष्पूर समुद्रोदर सोदरः ।
तृप्तिमानेन्द्रियग्रामो, भव तृप्तोऽन्तरात्मना । 2 597 247 सद्धाखमं णे विणइत्तु रागं।
2 1190 252 सव्वं जगं जइ तुहं, सव्वं वावि धण भवे ।
सव्वं पि ते अपज्जत्तं, नेव ताणाए तं तव ॥ 2 1191
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 138
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________________
सिवान साल का माग
सा
372
421
421
100 सारो परूवणाए चरणं तस्स विय होइ निव्वाणं। 2 115 सालंबणो पडतो, अप्पाणं दुग्गमेऽवि धारेइ ।
इय सालंबणसेवा, धारेइ जई असढभावं ॥ 116 सालंबसेवी समुवेति मोक्खं ।
2 249 साहाहि रूक्खो लभई समाहि । छिनाहिं साहाहिं तमेण खाणुं ॥
सी 168 सीहं जहा च कुणिमेणं निब्भयमेग चरं पासेणं। 2 209 सीयंति अबुहा।
1190
626 1051
1
2
210
66 सुहदुक्ख संपओगो, न विज्जई निच्चवाय पक्खंमि ।
एगंतच्छेअंमि अ, सुहदुक्ख विगप्पणमजुत्तं ।। 74 सुरक्खिओ सव्व दुहाण मुच्चइ । 137 सुद्धे सिया जाए न दूसएज्जा।
2 193 सुव्वते समिते चरे।
231 550 652
207 सूरं मन्नति अप्पाणं जाव जेतं न पस्सति।
2
1050
16 से जहावि अणगारे उज्जुकडे नियाग पडिवण्णे अमायं कुव्वमाणे वियाहिते।
2 28 22 सेणे जह वट्टयं हरे।
2 32 49 से ण हासाए ण किड्डाए ण रतीए ण विभूसाए। 2 177 104 से तारिसे दुक्खसहे जिइंदिए, सुएण जुत्ते अममे-अकिंचणे। विरायइ कम्म घणम्मि अवगए, कसिणप्भपुडावगमेव चंदिमित्ति ।।
2 387 161 से पभूयदंसी... सदा जते दटुं विप्पडिवेदेति अप्पाणं किमेस जणो करिस्सति ?
2 616 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 139
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________________
PER
88888888
सो
14 सोही उज्जुय भूयस्स। 221 सोवधिए हु लुप्पती बाले।
2 2
28 1082
2
233
88 संयमाऽस्त्रं विवेकेन, शाणेनोत्तेजितं मुनेः ।
धृति धारोल्बणं कर्म, शत्रुच्छेदक्षमं भवेत् ॥ 95 संगहोवग्गहं विहिणा न करेइ य जो गणी।
समणं समणिं तु दिक्खित्ता समायारि न गाहए । बालाणं जो उ सीसाणं, जीहाए उवलिंपए।
तं सम्ममग्गं गाहेइ, सो सरी जाण वेरिओ॥ 236 संसार मोक्खस्स विवक्खभूया । 240 संसार हेउं च वयंति बंध।
2
337
1187
1189
194 हस्तस्पर्श समं शास्त्रं तत एव कथञ्चन ।
अत्र तन्निश्चयोपिस्यात् तथा चन्द्रोपरागवत् ।।
2
671.
573
143 क्षीरे घृतं तिले तैलं काष्ठेऽग्निः सौरभं सुमे। चन्द्रकान्ते सुधा यद्वत् तथात्माप्यङ्गतः पृथक् ॥ 2
ज्ञा 5 ज्ञानस्य फलं विरति ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 . 140
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________________
द्वितीय
परिशिष्ट विषयानुक्रमणिका
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________________
123
4
5
6
7
8
9
10
11
12
13
14
RBO 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
15
16
17
18
19
20
21
22
23
24
25
26
27
28
29
30
सूक्ति नम्बर
17
25
46628400
57
73
79
81
विषयानुक्रमणिका
104
106
127
129
139
140
141
149
157
164
181
185
192
197
199
207
209
214
215
221
230
231
सांत शीर्षका
अटूट श्रद्धा
अतीत- अनागत- निश्चिन्त
असत्-असत्
अनात्म-प्रशंसा
अमूर्त-गुण अरक्षितात्मा
अविवेकी
अप्पा सो परमप्पा
अनभ्र चन्द्र सम श्रमण
अप्रमत्त साधक
अशुभ कर्म - हेतु अनुग्रहार्थ - प्राकृत रचना
अनशन लाभ
अहितकारिणी निन्दा
अनुपम सर्वोत्तम सूर्य प्रकाश
अन्तरात्म
- तृप्ति
अनशन
अदृढ़ मन
अग्नि- बिन जलती काया
अनार्य-लक्षण
अस्तेय त्याग
अध्यात्म-स्नान
अज्ञानी
अहंकार
अज्ञ-दुःखी
अज्ञ मरियल बैल
अज्ञानी साधक
अज्ञानी
अनर्थ खान
अशरण भावना
--
बूढ़ा बैल
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 143
Page #152
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________________
33
36
कमा सति सम्बर मणि पोषक 232
अल्पसुखदायी 32 251
असमर्थ 259
अधिकरण दोष 34 10
आत्म-चिंतन 35 21
आरंभ आगम चक्षु आज्ञा-धर्म
आचार्य-तीर्थंकर 35
आज्ञा आज्ञोल्लंघन आज्ञा-खण्डित धर्म आतङ्कदर्शी आत्म-गुप्त जितेन्द्रिय आत्मज्ञाता आत्मदृष्टि आत्म अपलाप आत्म-प्रतीति आत्म-विज्ञाता आत्मद्रष्टा से मोह - चोर दूर आचार्य भ.-उत्तरदायित्व
आचार्य गोपाल तुल्य 100
आचरण से निर्वाण
आहार की अनासक्ति 113
आरम्भ-निवृत्ति 115
आलम्बन .
आलोचना : पर-साक्षी 57 122
आलोचना से ऋजुता 58 134
आहार-त्याग किसलिए? 59 143
आत्मा शरीर से भिन्न 152
आत्मान्वेषक 158
आकृष्ट मन का त्याग 218
आत्म-निग्रह अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-20144 )
109
121
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--------------------------------------------------------------------------
________________
सात सापक
220 225 228 146
148 166
53
114
155 222 258
11
27
32 68 167 64
आध्यात्मिक प्रयोगशाला: तपश्चरण आहार मात्रा विज्ञ आहार खोज ऐसे इन्द्रिय परवश की दुर्दशा इन्द्रिय-विजेता बनो इन्द्रिय-बलवत्ता उद्बोधन उद्बोधन उणोदरिका तप उद्दिष्टाहार-निषेध उत्सर्ग-अपवाद एकदिन ऐसा आयेगा एक जाना सब जाना एकान्त-अनेकान्त एकात्मा एकासन, एकान्त निषेध
औपपातिक-आत्मा कल्याण-पात्र कर्म-भार-मुक्ति कर्म-सत्य कापुरूष कायोत्सर्ग काम से कलह और आसक्ति कायर-साधक कामः मोक्षविपक्षी काम-भोग : दुस्त्याज्य किसे कल का क्या भरोसा ? कुशील-वचन कौन वीर? गच्छ-धुरि गुण-मूल्यांकन गुरु-वैरी चलो, संभलकर
118
201
34
156 160
213 236 257
90 91 92
248 171 18 98
95
256
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 145
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--------------------------------------------------------------------------
________________
समकारक
96
07
49
244
99
09
1008 101 10242 103 56 104 105 162 106 48 107 255 108
84 109 163 110 111 52 112 112 113 15 114 115 128 116 165 117 118 234
चेतना-शक्ति जराभिशाप जरा-मरण जिणवाणी-सार जीवन-प्रिय जीवन कामना ढलती आयु में मूढ़ । तबतक गुरु सेवा तप का फल तीन अदृश्य तुर्यावस्था में क्या करेगा? दह्यमान संसार दारूण-भ्रान्ति देव के लिए भी असंभव दोहरी मूर्खता
177
द्रुतगामी
द्विविध बन्धन धर्म निवास
50
धर्म
196
119
239
120
252
121
253
धर्मोपदेश - पद्धति धर्मवीर धर्म का लक्षण धन की खोज में प्रमत्त पुरुष धर्म धुरा धन से रक्षा नहीं धर्म ही रक्षक धिक्-धिक जरा धीर का धैर्य धीरे चलो नारी-रक्षा नारी-पंक नारी नेह दुस्तर निर्भय साधक
122
47
123
203 229
124
125
46
151
126 127
186
128
19
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 . 146
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
सकिसक
26
129 130
66
67
91
189
131 132 133 134 105 135 224 136 233 137
241 138 242 139 140 12 . 141
110 142 51 143
75 -144 . 145 93 146 120 147 150 148 149
178 150 235 151 245 152 190 153
243 154 182 155 183 156 . 226 157
250 158 133
172 160
41 16190
निष्काम ज्ञानी नित्यानित्यवाद नित्यात्मा निश्चय-रत्नत्रय निःसार संयमी निष्काम आचार निद्रा निरन्तर भटकाव निष्फल रात्रियाँ नित्य क्या ? परिग्रह जन्य दोष पल-पल अप्रमाद परिग्रह से दूर पानी केरा बुल-बुला पाप से बचाव पीछे पछताये होत क्या ? पुरस्पशी पारदर्शी प्रमाणोपेत-आहार प्रमाणभूत अन्तर प्रभूतज्ञानी का पर्यालोचन प्रलोभन प्रमाद मत करो बीता कभी नहीं लौटा बंधन-मुक्त बंध-हेतु ब्रह्मचर्य गरिमा ब्रह्मचर्य भिक्षु अलोलुप भिक्षाचर्या भूख-वेदना भोगासक्त-प्राणी मनुष्यायु-अल्प भी मति-श्रुत अन्योन्याश्रित
161
159
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 147
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________________
130
162 163
205 206
164
165
174
महामुनि असंदीनद्वीप मद्यपान-दुर्गुण मद्य से हानि महाठगिनी हम जानी मायाविनी नारी मानुषिक काम, क्षुद्र मुनि का आहार
166 167
175 202
168
111
169
227
मुनि
170
23
145 200
204
171 172 173 174 175 176
24
191
254
16
177 178
31
179
179
180
217
181
219
182
22
मूढ़ मानव मूर्ख की मृगतृष्णा मूलधन मूर्योपदेश मृत्युकला मृषा-वर्जन मृत्यु अवश्यंभावी मोक्ष-पथिक मोक्ष मार्ग नाशक मोहग्रस्त मूर्खात्मा मोक्ष-मार्ग समर्पित मोह-मुग्ध मौत: एक झपाटा यथार्थ - आत्मलोचन यतना सह गमन युक्ति-युक्त ग्राह्य रसासक्ति रस लोलुप राजहंस मुनि राग-मुक्ति कैसे ? लक्ष्मी-आयु-देह-नश्वर लड़े सिपाही नाम सरदार का लङ्गन हितकर वासनोत्पीड़ित निर्बलाहार विनय से अक्षय-सुख
117
184
223
185
89
186
131
187
168
83
189
247
190
80
191
85
192
132
154
193 194
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 0 148
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________________
कमा
माक पर
सक्ति शीर्षक
77
195 196 197
116 119 144
198
147
199 200
159
169
65
201 202 203 204 205
87
206
207. 208 209 210 '211 212
194 124 - 126
237 107
विवेक-दुर्लभ विशिष्ट ज्ञान विश्व-मैत्री विषय-दौड़ विकारः विषवृक्ष विचरण विष कण्टक वीर भोग्या शरणदाता नहीं शत्रु-गुरु शाश्वत तत्त्व शास्त्र शुभाशुभ कर्म सञ्चय शुभाशुभ कर्म उपार्जन शुक-विद्या शोक नहीं सर्वकल्याण का मूल:विनय सरलात्मा समय मूल्यवान् समय पहचानो सर्व-मुक्त समता का पारगामी समता-कुण्ड-स्नान सदा अकेला सत्यासत्य वचन समाधिकामी निरपेक्ष समयबद्ध सर्वविघ्नजयी सफल रजनी साधनाशील साधक परिशुद्ध सुरक्षितात्मा सुव्रती
38
54
58
213 214 215 216 217 218
86 125
219
220
221
136 187 188 246
222
39
223 224 225 226 227
137
74
193
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 149
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
कमा
साक नम्बर
मुक्ति शासक
228
229
88
108 135 138
240
230 231 232 233 234 235 236 237 238 239
123 249 210
208 103 216
240 241 242 243 244 245
101 170 173 176
.
सूर्योदयास्त भ्रान्ति संयमास्त्र संग्रहवृत्ति-त्याग संसार-वलय से मुक्ति संयम-पराक्रम संसार-हेतु सांध्य-आवश्यक स्थाणु स्नेह-एक बन्धन स्नेह-त्याग-दुष्कर स्व-पर-रक्षक स्व-प्रतिष्ठा से बचो स्वाध्याय-तप-निर्मल स्त्री के साथ विहार निषेध स्त्री परिचय निषिद्ध स्त्री-संसर्ग स्त्री-संसर्ग-त्याग स्त्री-संसर्ग-दुःख स्त्रीवशी-अज्ञ हिंसा अहितकारिणी हिंसा क्षण भंगुर जीवन क्षणिक-सुख श्रेष्ठ धर्म स हिंसा निषेध त्रिविध आत्मा त्रिपदी ज्ञान का फल ज्ञानात्मा ज्ञान ज्योतिष्मान् ज्ञान ज्योति ज्ञाति स्नेह बंधन
180
153
184
246 247 248
20
198
249
13
250
238
251
211
102
252 253 254
60
142
255
25671
257
.
258
195
259
212
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 150
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीय
परिशिष्ट अभिधान राजेन्द्रः
पृष्ठ संख्या अनुक्रमणिका भाग-२
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिधान राजेन्द्रः पृष्ठ संख्या अनुक्रमणिका
सक्ति
भाग-
D
88888888
to
the
tic
एवं भाग 6 पृ. 337 में एवं भाग 6 पृ. 337 में भी है। एवं भाग 6 पृ. 337 में भी है। एवं भाग 6 पृ. 337 में भी है। एवं भाग 6 पृ. 337.में भी है। एवं भाग 6 पृ. 730 में भी है।
to
the
te
एवं भाग 4 पृ. 2677 में भी है ।
एवं भाग 4 पृ. 2569 में भी है। एवं भाग 3 पृ. 1053 में भी है। एवं भाग 3 पृ. 1053 में भी है।
एवं भाग 7 पृ. 893 में भी है।
एवं भाग 4 पृ. 2346 में भी है। एवं भाग 6 पृ. 1062 तथा भाग 4 पृ. 234 में भी है।
एवं भाग 6 पृ. 131 में भी है ।
एवं भाग 7 पृ. 60 में भी है।
93
131
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 153
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
135/335-336 135 135 ___एवं भाग 4 पृ. 2314 में भी है । 135 एवं 335 137-138 138-141
141
174
174
एवं भाग 6 पृ. 1061 में भी है। एवं भाग 5 पृ. 1316 में भी है ।
175
176
176 176 176 177-178-179
177
177
177
177 178 178
178
179 179 180
एवं भाग 3 पृ. 559 में भी है। एवं भाग 3 पृ. 1171 में भी है।
180
181
185
186
188
193 195
-
(
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 154
)
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
81685 8 8 2 F N N N N P F ≈≈≈≈
63
64
66
67
68
69
70
71
72
73
74
75
76
77
78
79
80
81
82
83
84
85
86
87
88
89
90
91
92
93
94
REZI
195
205
207
210
210
219
223
223
223
223
231
231
231
231
232
232
232
232
232
232
232
232
232
232
232
233
278
279
334
334
335
337
2012
एवं भाग 4 पृ. 344 में भी है।
एवं भाग 6 पृ. 457 में भी है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2• 155
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
。
337 337
337
3488 372 372
100
101
387
102
387
103
387
104
387 389
105
106
392
107
393
108
393
109
393
110
393
49.2737于印言1
111
393 393
112 113 114 115
期期期明明明明明明明娜娜娜娜娜娜仍m
398 398
421
116 117
421 428-431
四师79.778 守可言!
118
432
119
432
四师5.3171
49
120 121
450
122
465
123
472
124
125
503 503 503
126
師
而言,如-TR809-2•156
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
503 512 512 512
548
548 548 548 550
550
127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 -143 144 145 146 147 148 149
550 550 554 559 572 573 573 597 597 597 597 597 597 598 615 615 616 616 616 616 616 616
150
151
152 153 154 155 156 157 158 159 160
616
616
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 157
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
161 162 163 164
616 618 618 618
165
624
625
166 167
625
626 626
169
170
626
171
.. 172
173 174
627 627 627
628
175
628
176
629
629
629
177 178 179 180
629
629
181
636
182
641
183
641
651
651
184 185 186 187
652
652
188
652
189
652
190
652
191
652
192
652
193
652
194
671
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 158
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
195 196 197 198 199 200
772 773 797 797
एवं भाग 4 पृ. 2665 में भी है ।
881
882
883
201 202 203
883 884 887 928
204 205
, 206
928
207 208 .209
210
211 212 213 214 215 216 217 218
1050 1051 1051 1051 1051 1051 1051 1052 1052 1053 1053
1053
219
220
221 222
223 224
1053 1076 1082 1082 1083 1083 1083 1083 1083
225 226 227
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 159
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
228
229
230
231
232
233
234
235
236
237
238
239
240
241
242
243
244
245
246
247
248
249
250
251
252
253
254
255
256
257
258
259
1087
1087
1187
1187
1187
1187
1187
1187
1187
1187
1187
1188
1189
1189
1189
1189
1189
1189
1189
1190
1190
1190
1191
1191
1191
1191
1192
1192
1192
1193
1195
1205
5
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 160
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थ
परिशिष्ट जैन एवं जैनेतर ग्रन्थः गाथा/श्लोकादि अनुक्रमणिका
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन एवं जैनेतर ग्रन्थः गाथा/श्लोकादि
अनुक्रमणिका
अनुयोगद्वार सूत्र सूक्ति क्रम सूत्र
गाथा ___ 123 29 11 146
121
आचारांग सूत्र सालका प्रथम भूतमध्यपतनसक
3
1-3
13
14
19
20
w www WNN
107 .108
109 110
wwwNuuuuuuwww
111
89
40 59
115 122 124/11 124
25
26
___ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2.163
)
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
A MANARAISINAMANNA
समयमा
829933333338888888888855558888888885565555
मशक
19
153 154 155 156 157
129 164 164 164
164
158 159
160 161 69
164 164 164 164 164 171 171 171 185 185
14
97
30 130 128 24 221 222
225
226 227 223
224 228
105 105
229
आचारांग नियुक्ति सूक्ति नं. गाथा ___99 16 ___ 100 17 220 282
आचारांग सूत्र सटीक प्रथम श्रुत. अध्ययन
सूक्ति क्रम
उद्देशक
सूत्र
65
1
4X
63
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 164
)
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
आतुर प्रत्याखान सूक्ति नं.
76
86
87
आवश्यक नियुक्ति अध्ययन 2
सूक्ति नं. 195 115
गाथा
1075 1186
आवश्यक मलयगिरि
खण्ड
सूक्ति नं. 94
196
उत्तराध्य अध्ययन
गाथा
सक्तिन. 151 152 14
15
199 200
201
202 203
13
38
231 237 230 232 236 238 233 234
235
14
239 240
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 165
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
242
14
14
14
14
14
243 244 241 245 246 248 247 249
14
251
250
252
253 255
256 257
14
122
139
उत्तराध्ययन नियुक्ति सूक्ति नं. गाथा 978
ओघ नियुक्ति सूक्ति क्रम गाथा 259
741
121 117 118
794-795
801 806
__ ओघ नियुक्ति भाष्य सूक्ति क्रम गाथा _133 290
कल्प सुबोधिका सटीक सूक्ति नं. क्षण प्र. 141 143 - 254
2
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 0 166
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
- गच्छाचार पयन्ना सक्ति नामका गाथा
8
15-16
17
24
. 164
गच्छाचार पयन्ना सटीक सूक्ति नं. अधिकार . 162
2 163 . 2
2
चरक संहिता सूक्ति नं. प्रकरण 132 ज्वर प्रकरण
तित्थोगाली पयन्ना सूक्ति नं.
32 - दशवैकालिक सूत्र सूक्ति क्रम अध्ययन उद्देशक गाथा 102 8 1038
8 104
गाथा
1213
-
12
101
105
सूक्ति नं.
दशवैकालिक चूलिका
चूलिका गाथा
2
16 16
74
16
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 167
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशवैकाविक नियुक्ति भाष्य सूक्ति नं.
गाथा 61
19
62
34
67
प
3
सूक्ति नं.
द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका सूक्ति नं. द्वा. गाथा
60 20 17 ___ धर्मसंग्रह सटीक सूक्ति नं. अधिकार गाथा 206
2 72 धर्मरत्न प्रकरण सटीक सूक्ति नं. अधिकार
21 - धर्म बिन्दु सटीक
अध्याय सूत्र श्लोक 129 2 69 [60]
नग्गय सूक्ति क्रम __181
नंदीसत्र सूक्ति नं. सूत्र 90
15 ___पिंड नियुक्ति सूक्ति नं. __134
गाथा
96
120
642
पंचतंत्र
सूक्ति नं.
अ.
श्लोक 194
47
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 168
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार
गाथा
34
सूक्ति नं. अध्ययन
3 प्रशमरति-प्रकरण सूक्ति नं. श्लोक
64
72
73
गाथा
106
74
72-73-74 बृहत्कल्प वृत्ति सभाष्य सूक्ति नं. उद्देश गाथा 35
1 3 बृहत्कल्प भाष्य सूक्ति नं. 258
322
भगवती सूत्र सूक्ति क्रम शतक उद्देशक सूत्र
1
1.. 7(2) 71
12 10 10
भगवद्गीता सूक्ति नं.
अध्याय श्लोक 254
2 131
महानिशीथ सूत्र सूक्ति नं. अध्ययन
गाथा 59 101 101
120 मनुस्मृति सूक्ति नं. अध्ययन
श्लोक 166
215 167 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-20169
27
215
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
योगबिन्दु
16
सूक्ति नं. श्लोक 194
316 योगशास्त्र सूक्ति नं. प्रकाश श्लोक 205 3 124
4 125 126 127
लोकतत्त्व निर्णय सूक्ति नं. श्लोक ___ 89
3 8 व्यवहार भाष्य सूक्ति नं. उद्देश गाथा 150 29 10 216
व्यवहार भाष्य पीठिका सूक्ति नं.
गाथा 116
184 समवायांग सूत्र सूक्ति नं. समवाय सूत्र
13
सूत्रकृतांग सूत्र प्रथम प्रत अध्ययन शक
2
54
सक्ति न.
था
।
22 113 114 219 217 218 140 216
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 170
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
1
12
13
सासनम अध्यकमा 207 210
10 208
12 213 211
13 212 209 214 215 184 185
13 189 187 190 186 188 191
19
14
15
15
16
17
192
19
soov VAAAAAAAAAAAAAwwwwwwwwwwwwwwwwwww
13
14
193 168 169 170 173 172 171 174 175 176 180 177 178 179 197 198
17 24 24
26
27
29
31 31 14 16
43
21 18
-
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 171
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
10
10
.
137 138 135 136
10
10
12
55
12
183
15
182
सूत्रकृतांग-नियुक्ति सूक्ति नं. गाथा __165
52 स्थानांग सूत्र सूक्ति नं. अध्ययन स्थान (ठाणा) उद्देशक 1
1 2 स्याद्वादमंजरी सूक्ति नं. 27
263 श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र सूक्ति नं. गाथा
142
गाथा
119
49
204
हितोपदेश सूक्ति नं. कथा संग्रह श्लोक
3 विग्रह 4 46 1 मित्रलाभ 120
हीरप्रश्न सूक्ति नं. प्रकाश
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 172
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञानसार
148
147 149 145 144 146
14
14 14 14
OUANOU AWNuvauwn
1
.
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूकि-सुपारस • खण्ड-2 0 173
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चम
परिशिष्ट 'सूक्ति-सुधारस'
में प्रयुक्त संदर्भ-ग्रंथ सूची
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची क्रमांक "सूक्ति-सुधारस" में प्रयुक्त जैन तथा अन्य ग्रन्थ 1. अनुयोगद्वारसूत्र 2. आचारांग सूत्र 3. आचारांग नियुक्ति
आचारांग सूत्र सटीक आतुरप्रत्याख्यान आवश्यक नियुक्ति आवश्यक मलयगिरि
उत्तराध्ययन 9. उत्तराध्ययन नियुक्ति 10. ओघनियुक्ति 11. ओघनियुक्ति भाष्य 12. कल्पसुबोधिका टीका 13. गच्छाचार पयत्रा 14. गच्छाचार पयत्रा सटीक 15. चरकसंहिता - ज्वरप्रकरण 16. तित्थोगाली-पयन्ना 17. दशवकालिकसूत्र 18. दशवैकालिक चूलिका 19. दशवैकालिक नियुक्तिभाष्य 20. द्वात्रिंशद्वात्रिशिका 21. धर्मसंग्रह सटीक
धर्मरत्नप्रकरण सटीक 23. धर्मबिन्दु आचार्य हरिभद्र - श्री मुनि चन्द्रसूरि रचित टीका 24. नग्गय. 25. नन्दीसूत्र 26. पञ्चतन्त्र 27. पिण्डनियुक्ति 28. प्रवचनसार 29. प्रशमरति प्रकरण 30. बृहत्कल्पवृत्ति सभाष्य
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 177
Page #186
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31. बृहत्कल्प भाष्य 32. भगवती सूत्र भगवद् गीता
33.
34. महाभारत
35. महानिशीथ सूत्र
36. मनुस्मृति
37. मूलाराधना 38. योगबिन्दु
39. योगशास्त्र
40. लोकतत्त्वनिर्णय
41. व्यवहारभाष्य
42.
43. समवायांगसूत्र
44. सूत्रकृतांगसूत्र 45. सूत्रकृतांगनिर्युक्ति
व्यवहाभाष्यपीठिका
46. स्थानांगसूत्र
47. स्याद्वादमंजरी
48. श्राद्धप्रतिक्रमण
49. हितोपदेश
50. हीरप्रश्न
51. ज्ञानसार
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विश्वपूज्य प्रणीत सम्पूर्ण वाङ्मय
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विश्वपूज्य प्रणीत सम्पूर्ण वाङ्मय
अभिधान राजेन्द्र कोष [1 से 7 भाग ]
अमरकोष (मूल) अघट कुँवर चौपाई
अष्टाध्यायी
अष्टाह्निका व्याख्यान भाषान्तर अक्षय तृतीया कथा (संस्कृत) आवश्यक सूत्रावचूरी टब्बार्थ उत्तमकुमारोपंन्यास (संस्कृत) · उपदेश रत्नसार गद्य (संस्कृत) उपदेशमाला (भाषोपदेश)
उपधानविधि
'उपयोगी चौवीस प्रकरण (बोल) उपासकदशाङ्गसूत्र भाषान्तर (बालावबोध) एक सौ आठ बोल का थोकड़ा कथासंग्रह पञ्चाख्यानसार
कमलप्रभा शुद्ध रहस्य
कर्त्तुरीप्सिततमं कर्म ( श्लोक व्याख्या) करणकाम धेनुसारिणी
कल्पसूत्र बालावबोध (सविस्तर ) कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी
कल्याणमन्दिर स्तोत्रवृत्ति (त्रिपाठ ) कल्याण (मन्दिर) स्तोत्र प्रक्रिया टीका
काव्यप्रकाशमूल
कुवलयानन्दकारिका
केसरिया स्तवन
खापरिया तस्कर प्रबन्ध (पद्य)
गच्छाचार पयन्नावृत्ति भाषान्तर
गतिषष्ट्या - सारिणी
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ग्रहलाघव
चार (चतुः) कर्मग्रन्थ - अक्षरार्थ चन्द्रिका - धातुपाठ तरंग (पद्य) चन्द्रिका व्याकरण (2 वृत्ति) चैत्यवन्दन चौवीसी चौमासी देववन्दन विधि चौवीस जिनस्तुति चौवीस स्तवन ज्येष्ठस्थित्यादेशपट्टकम् जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति बीजक (सूची) जिनोपदेश मंजरी तत्त्वविवेक तर्कसंग्रह फक्किका तेरहपंथी प्रश्नोत्तर विचार द्वाषष्टिमार्गणा - यन्त्रावली दशाश्रुतस्कन्ध सूत्रचूर्णी दीपावली (दिवाली) कल्पसार (गद्य) दीपमालिका देववन्दन दीपमालिका कथा (गद्य) देववंदनमाला घनसार - अघटकुमार चौपाई ध्रष्टर चौपाई धातुपाठ श्लोकबद्ध धातुतरंग (पद्य) नवपद ओली देववंदन विधि नवपद पूजा नवपद पूजा तथा प्रश्नोत्तर नीतिशिक्षा द्वय पच्चीसी पंचसप्तति शतस्थान चतुष्पदी पंचाख्यान कथासार पञ्चकल्याणक पूजा
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पञ्चमी देववन्दन विधि पर्युषणाष्टाह्निका - व्याख्यान भाषान्तर पाइय सद्दम्बुही कोश (प्राकृत) पुण्डरीकाध्ययन सज्झाय प्रक्रिया कौमुदी प्रभुस्तवन - सुधाकर प्रमाणनय तत्त्वालोकालंकार प्रश्नोत्तर पुष्पवाटिका प्रश्नोत्तर मालिका प्रज्ञापनोपाङ्गसूत्र सटीक (त्रिपाठ) प्राकृत व्याकरण विवृत्ति प्राकृत व्याकरण (व्याकृति) टीका प्राकृत शब्द रूपावली बारेव्रत संक्षिप्त टीप बृहत्संग्रहणीय सूत्र चित्र (टब्बार्थ) भक्तामर स्तोत्र टीका (पंचपाठ) भक्तामर (सान्वय - टब्बार्थ) भयहरण स्तोत्र वृत्ति भतरीशतकत्रय महावीर पंचकल्याणक पूजा महानिशीथ सूत्र मूल (पंचमाध्ययन) मर्यादापट्टक मुनिपति (राजर्षि) चौपाई रसमञ्जरी काव्य राजेन्द्र सूर्योदय लघु संघयणी (मूल) ललित विस्तरा वर्णमाला (पाँच कक्का) वाक्य-प्रकाश बासठ मार्गणा विचार विचार - प्रकरण
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विहरमाण जिन चतुष्पदी स्तुति प्रभाकर स्वरोदयज्ञान - यंत्रावली सकलैश्वर्य स्तोत्र सटीक सद्य गाहापयरण (सूक्ति-संग्रह) सप्ततिशत स्थान-यंत्र सर्वसंग्रह प्रकरण (प्राकृत गाथा बद्ध) साधु वैराग्याचार सज्झाय सारस्वत व्याकरण (3 वृत्ति) भाषा टीका सारस्वत व्याकरण स्तुबुकार्थ (1 वृत्ति) सिद्धचक्र पूजा सिद्धाचल नव्वाणुं यात्रा देववंदन विधि सिद्धान्त प्रकाश (खण्डनात्मक) सिद्धान्तसार सागर (बोल-संग्रह) सिद्धहैम प्राकृत टीका सिंदूरकर सटीक सेनप्रश्न बीजक शंकोद्धार प्रशस्ति व्याख्या षड् द्रव्य विचार षड्द्रव्य चर्चा षडावश्यक अक्षरार्थ शब्दकौमुदी (श्लोक) 'शब्दाम्बुधि' कोश शांतिनाथ स्तवन हीर प्रश्नोत्तर बीजक हैमलघुप्रक्रिया (व्यंजन संधि) होलिका प्रबन्ध (गद्य) होलिका व्याख्यान त्रैलोक्य दीपिका - यंत्रावली ।
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लेखिकाद्वय की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ
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लेखिकाद्वय की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ १. आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन (शोध प्रबन्ध)
लेखिका : डॉ. प्रियदर्शनाश्री, एम. ए. पीएच.डी. २. आनन्दघन का रहस्यवाद (शोध प्रबन्ध)
लेखिका : डॉ. सुदर्शनाश्री, एम. ए., पीएच.डी. ३. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस (प्रथम खण्ड)
अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति सुधारस (द्वितीय खण्ड)
अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (तृतीय खण्ड) ६. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (चतुर्थ खण्ड) ७. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (पंचम खण्ड) ८. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (षष्ठम खण्ड) ९. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (सप्तम खण्ड) १०. "विश्वपूज्य' : (श्रीमद्राजेन्द्रसूरिः जीवन-सौरभ) (अष्टमखण्ड) ११. अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका (नवम खण्ड) १२. अभिधान राजेन्द्र कोष में, कथा-कुसुम (दशम खण्ड) १३. राजेन्द्र सूक्ति नवनीत (एकादशम खण्ड) १४. जिन खोजा तिन पाइयाँ (प्रथम महापुष्प) १५. जीवन की मुस्कान (द्वितीय महापुष्प) १६. सुगन्धित-सुमन (FRAGRANT-FLOWERS) (तृतीय महापुष्प)
प्राप्ति स्थान :
श्री मदनराजजी जैन द्वारा - शा. देवीचन्दजी छगनलालजी आधुनिक वस्त्र विक्रेता, सदर बाजार,
पो. भीनमाल-३४३०२९ जिला-जालोर (राजस्थान)
: (02969) 20132
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राजेन्द कोष
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'अभिधान राजेन्द्र कोष' : एक झलक
विश्वपूज्य ने इस बृहत्कोष की रचना ई. सन् 1890 सियाणा (राज.) में प्रारम्भ की तथा 14 वर्षों के अनवरत परिश्रम से ई. सन् 1903 में इसे सम्पूर्ण किया। इस विश्वकोष में अर्धमागधी, प्राकृत और संस्कृत के कुल 60 हजार शब्दों की व्याख्याएँ हैं। इसमें साढे चार लाख श्लोक हैं।
इस कोष का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें शब्दों का निरुपण अत्यन्त सरस शैली में किया गया है । यह विद्वानों के लिए अविरलकोष है, साहित्यकारों के लिए यह रसात्मक है, अलंकार, छन्द एवं शब्द-विभूति से कविगण मंत्रमुग्धहो जाते हैं । जन-साधारण के लिए भी यह इसी प्रकार सुलभ है, जैसे-रवि सबको अपना प्रकाश बिना भेदभाव के देता है। यह वासन्ती वायु के समान समस्त जगत् को सुवासित करता है। यही कारण है कि यह कोष भारत के ही नहीं, अपितु समस्त विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में उपलब्धहै।
विश्वपूज्य की यह महान् अमरकृति हमारे लिए ही नहीं, वरन् विश्व के लिए वन्दनीय, पूजनीय और अभिनन्दनीय बन गई है। यह चिरमधुर और नित नवीन
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________________ विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी गुरु मन्दिर (भीनमाल) विश्वपूज्य गुरुदेवश्री द्वारा प्रदत्त अभिधान राजेन्द्र कोष : अलौकिक चिन्तन भि / अविकारी बनो, विकारी नहीं ! भिक्षुक (श्रमण) बनो, भिखारी नहीं ! धार्मिक बनो, अधार्मिक नहीं ! नम्र बनो, अक्कड़ नहीं ! राम बनो, राक्षस नहीं ! जे जेताविजेता बनो, पराजित नहीं ! न्यायी बनो, अन्यायी नहीं ! द्र द्रष्टा बनो, दष्टिरागी नहीं ! को कोमल बना कर नहीं ! पए या कन्यो, भक्षक नहीं / /