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- ज्ञानसार - 7/ इन्द्रिय-पाश में फंसा जीव मोह से पर्वत की मिट्टी को धन मानकर दौड़ता है, परन्तु अन्तस्थ अनादि अनन्त ज्ञान-धन को वह नहीं देख सकता
है।
146 इन्द्रिय परवश की दुर्दशा - पतङ्गभंग मीनेभ सारङ्गा यान्ति दुर्दशाम् । एकैकेन्द्रिया दोषाच्चेत् दुष्टैस्तैः किं न पञ्चभिः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 597]
- ज्ञानसार 70 जब पतंग, भ्रमर, मत्स्य, हाथी मृग, एक-एक इन्द्रिय-दोष से भी दुर्दशा प्राप्त करते हैं तब फिर पाँचों दुष्ट इन्द्रियों के वश हुए जीव का क्या कहना ? 147 विकार विषवृक्ष
वृद्धास्तृष्णाजलाऽपूर्णैरालवालैः किलेन्द्रियः । मूर्छामतूच्छां यच्छन्ति, विकार विषपादपाः ॥ .
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 597]
- ज्ञानसार 72 तृष्णारूपी जल से, लबालब भरी इन्द्रियरूपी क्यारियों से फले-फूले विषय-विकार रूपी विषवृक्ष जीवात्मा को तीव्र-मूर्छ-मोह पैदा करते हैं । 148 इन्द्रिय-विजेता बनो
बिभेषि यदि संसारान् मोक्ष-प्राप्तिं च काङ्क्षसि । तदेन्द्रिय जयं कर्तुं स्फोरय स्फारपौरूषम् ॥ __ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 597]
- ज्ञानसार 74 यदि तुम संसार से भयभीत हो और मोक्ष-प्राप्ति चाहते हो, तो अपनी इन्द्रियों पर विजय पाने के लिए दृढ़ पराक्रम करो ।
अभिधान राजेन्द्र में सूक्ति-सुधारस • खण्ड-20 94