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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 881]
- उत्तराध्ययन 710 अज्ञानी जीव विवश हुए अंधकाराच्छन्न आसुरी गति को प्राप्त होते हैं। 200 मूलधन . माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे । मूलच्छेदेण जीवाणं, नरग तिरिक्खत्तणं धुवं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 882]
- उत्तराध्ययन - 746 मनुष्य जीवन मूल धन है । देवगति उसमें लाभरूप है । मूलधन के नाश होने पर नर्क-तिर्यञ्च गतिरूप हानि होती है । 201 कर्म-सत्य कम्म सच्चा हु पाणिणो ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 883]
- उत्तराध्ययन 720 प्राणियों के कर्म ही सत्य है। 202 मानुषिक काम,क्षुद्र
जहा कुसग्गे उदगं समुद्देण समं मिणे । एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अन्तिए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 883]
- उत्तराध्ययन 723 मनुष्य सम्बन्धी काम-भोग, देव सम्बन्धी काम-भोगों की तुलना में वैसे ही हैं, जैसे कोई व्यक्ति कुश की नोक पर टिके हुए जल-बिन्दु की तुलना समुद्र से करता है। 203 धीर का धैर्य धीरस्स परस्स धीरत्तं, सव्व धम्माणुवत्तिणो ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 884] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 107