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जो आचार्य - गुरु आगमोक्त विधिपूर्वक शिष्यों के लिए संग्रह (वस्त्र-पात्र, क्षेत्र आदि का) तथा उपग्रह (ज्ञान-दान आदि का) नहीं करता, श्रमण-श्रमणी को दीक्षा देकर साधु-समाचारी नहीं सिखाता एवं बाल शिष्यों को सन्मार्ग में प्रेरित न करके केवल गाय-बछड़े की तरह उन्हें जीभ से चूमता या चाटता है, वह आचार्य (गुरु) शिष्यों का शत्रु है। % गुरु-वैरी
जीहाए विलिहंतो, न भद्दओ सारणा जहिं नत्थि । दण्डेण वि ताडंतो, स भद्दओ सारणा जत्थ ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 337 ]
- गच्छाचार पयन्ना - १/१७ जो आचार्य शिष्यों को स्नेह-वात्सल्यपूर्वक चुम्बन करते हैं, परन्तु हितमार्ग में प्रवृत्ति करानेवाली तथा स्वकर्तव्य का बोध करानेवाली सारणा, वारणा, चोयणा आदि नहीं करते हैं, वे आचार्य हितकारी-कल्याणकारी नहीं हैं, किन्तु जो सदगुरु सारणा-वारणादि के साथ कभी दण्डादि से ताड़नातर्जना करते हैं, तो भी वे हितकारी हैं, श्रेष्ठ हैं । 97 ज्ञान ज्योतिष्मान्
जह दीवो दीवसयं पइप्पए दीप्पइ य । सो दीव समा आयरिआ, अप्पं च परं च दीवंति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 337 ]
- उत्तराध्ययन नियुक्ति - ४ जिसप्रकार दीपक स्वयं प्रकाशमान होता हुआ अपनी दीप्ति से अन्य सैकड़ों दीपकों को जला देता है, उसीप्रकार सद्गुरु आचार्य स्वयं ज्ञान-ज्योति से प्रकाशित होते हैं और दूसरों को भी प्रकाशमान करते हैं। 98 गच्छ-धुरि
मेढी आनंबणं खंभं दिट्ठि जाण सु उत्तमं । सूरी जं होइ गच्छस्स, तम्हा तं तु परिक्खए ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 348 ]
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 81