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________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ.180] - एवं [भाग-3 . 1171] - ज्ञानसार - 8/5 आत्म-तत्त्व के प्रकाश से जबतक अपनी भूल को पहचान कर स्वयं में गुरूत्व न आ जाए तब तक उत्तम गुरु की सेवा करनी चाहिए । 57 अनात्म-प्रशंसा गुणै यदि न पूर्णोऽसि कृतमात्म प्रशंसया । गुणैरेवासि पूर्णश्चेत् कृतमात्मप्रशंसया ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 181] - ज्ञानसार 184 यदि तू गुणों से पूर्ण नहीं है तो अपनी प्रशंसा व्यर्थ है और यदि तू गुणों से पूर्ण है तब भी अपनी प्रशंसा व्यर्थ है । 58 सर्वमुक्त . सव्वत्थेसु विमुत्तो, साहू सव्वत्थ होइ अप्पवसो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 185] - मूलाराधना - 335 एवं गच्छाचारप्रकीर्णक - 68 जो साधु सभी वस्तुओं की आसक्ति से मुक्त होता है, वही जितेन्द्रिय तथा आत्मवशी होता है । 59 आत्मदृष्टि - - आततो बहिया पास - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 186] - आचारांग - 13/3122 अपने समान ही बाहर में दूसरों को भी देख । 60 त्रिविध आत्मा बाह्यात्मा चान्तरात्मा च परमात्मेति त्रयः । कायाधिष्ठायक ध्येयाः, प्रसिद्धा योगवाङ्मये ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2.71
SR No.002317
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages198
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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