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चलते-फिरते जीवों की हिंसा मत करो। 103 स्व-पर रक्षक तव चिमं जोगयं च, सज्झाय जोगं च सया अहिट्ठिए । सूरे व सेणाए समत्त माउहे, अलमप्पणो होइ अलं परेसिं ॥
. - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 387]
- दशवैकालिक - 8/62 जो श्रमण तपयोग, संयमयोग एवं स्वाध्याय-योग में सदा निष्ठापूर्वक प्रवृत्ति करता है, वह अपनी और दूसरों की रक्षा करने में उसीप्रकार समर्थ होता है जिसप्रकार सेना से युक्त समग्र आयुधों से सुसज्जित शूरवीर । 104 अनभ्र चन्द्र सम श्रमण से तारिसे दुक्खसहे जिइंदिए, सुएण जुत्ते अममे-अकिंचणे । विरायइकम्मघणम्मिअवगए, कसिणप्भपुडागमेवचंदिमित्ति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 387]
- दशवैकालिक - 8/64 जो श्रमण सर्व गुणों से युक्त हैं, दु:खों को समभावपूर्वक सहन करनेवाला है, जितेन्द्रिय, श्रुत से युक्त, ममत्व-रहित और अकिंचन है, वह कर्मरूपी मेघों से दूर होने पर वैसे ही सुशोभित होता है जैसे सम्पूर्ण अभ्रपटल से मुक्त चन्द्रमा । 105 निष्काम आचार नो कित्ति-वण्ण सद्द-सिलोगट्ठयाए आयार महिद्वेज्जा।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 389]
- दशवकालिक - 9/4/5 आचार का पालन कीर्ति, वर्ण (यश) शब्द और श्लाघा के लिए नहीं होना चाहिए। 106 अप्रमत्त-साधक
जे ते अप्पमत्त संजता ते णं नो आयारंभा नो परारम्भा, जाव आणारम्भा । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 83