SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 82 आत्मद्रष्टा से मोह-चोर दूर य पश्येन्नित्यमात्मानमनित्यं परसङ्गमम् । छलं लब्धुं न शक्नोति, तस्य मोहमलिम्लुचः ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 232] ज्ञानसार 14/2 जो सदा आत्मा को नित्य, अविनाशी देखता है और पुद्गल - सम्बन्ध को अनित्य, अस्थिर देखता है उसके छल छिद्र देख पाने में मोहरूपी चोर कभी समर्थ नहीं होता । - 83 राजहंस - मुनि कर्म जीवश्च सश्लिष्टं सर्वदा क्षीर नीरवत् । विभिन्न कुरुते योऽसौ मुनिहंसो विवेकवान् ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 232] - ज्ञानसार 151 दूध और पानी की तरह ओतप्रोत बने जीव और कर्म को जो मुनिरूपी राजहंस सदैव अलग करता है, वही मुनिहंस विवेकी होता है । 84 दारूण - भ्रान्ति - शुचीन्यप्यशुचीकर्तुं समर्थेऽशुचिसंभवे । देहे जलादिना शौचं भ्रमो मूढस्य दारुणः ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 232] ज्ञानसार 14/4 पवित्र पदार्थ को भी अपवित्र करने में समर्थ और अपवित्र पदार्थ - से उत्पन्न हुए इस शरीर को पानी वगैरह से पवित्र करने की कल्पना दारूण भ्रम है। 85 लड़े सिपाही नाम सरदार का यथा योधैः कृतं युद्धं स्वामिन्येवोपचर्यते । . शुद्धात्मन्यविवेकेन, कर्मस्कन्धोजितं तथा ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 2 पृ. 232] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 77 Conta
SR No.002317
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages198
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy