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- ज्ञानसार - 15/4 जैसे योद्धाओं द्वारा खेले गए युद्ध का श्रेय राजा को मिलता है वैसे ही अविवेक के कारण कर्मस्कन्ध का पुण्य-पापरूप फल शुद्ध आत्मा में आरोपित है। 86 सदा अकेला Vएगो वच्चइ जीवो, एगो चेवु व वज्जई । एगस्स होइ मरणं, एगो सिज्झइ नीरओ ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 232]
- आतुर प्रत्याख्यान - 26 जीव अकेला आता है और अकेला ही जाता है। अकेला ही मरता है और अकेला ही सिद्ध होता है। 87 शाश्वत तत्त्व
एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग-2 पृ. 232] .
एवं [भाग 6 पृ. 457]
- आतुर प्रत्याख्यान - 27 ज्ञान-दर्शन स्वरूप मेरी आत्मा ही शाश्वततत्त्व है । इससे भिन्न जितने भी (राग-द्वेष-कर्म-शरीरादि) भाव हैं वे सब संयोगजन्य बाह्यभाव हैं । अत: वे मेरे नहीं हैं। 88 संयमास्त्र
संयमाऽस्त्र विवेकेन शाणेनोत्तेजितं मुनेः । धृति धारोल्बणं कर्म, शत्रुच्छेदक्षमं भवेत् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 233]
- ज्ञानसार - 15/8 जिसने संयमरूपी शस्त्र को विवेक रूप शाण पर चढाकर धैर्य रूप तीक्ष्णधार की हो, वह मुनि कर्मरूपी शत्रु का छेदन-भेदन करने में समर्थ होता है।
अभिधान राजेन्द्र में सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 78