SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 78 समता कुण्ड स्नान य स्नात्वा समता कुण्डे, हित्वा कश्मलजं मलम् । पुन न याति मालिन्यं, सोऽन्तरात्मा परः शुचि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 232] - ज्ञानसार - 14/5 जो आत्मा समता कुण्ड में स्नान कर पाप-मल को धोकर साफ करती है, वह पुन: मलिन नहीं बनती । ऐसी अन्तरात्मा विश्व में अत्यन्त पवित्र है। 79 अविवेकी इष्टकाद्यपि हि स्वर्णं, पीतोन्मत्तो यथेक्षते । आत्माऽभेद भ्रमस्तद्वद् देहादावविवेकिनः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 232] - ज्ञानसार - 15/5 जैसे धतूरे का पानकर उन्मत्त जीव ईंट आदि को भी स्वर्ण मानता है वैसे ही अविवेकी पुरुष देह और आत्मा को एक मानता है । 80 लक्ष्मी-आयु-देह-नश्वर तरङ्ग तरलां लक्ष्मी-मायुर्वायुवदस्थिरम् । अदभ्रधीरनु ध्यायेदभ्रवद् भङ्गरं वपुः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 232] - ज्ञानसार - 143 बुद्धिमान् मनुष्य लक्ष्मी को समुद्र-तरंग की तरह चपल, आयुष्य को वायु के झोंके की तरह अस्थिर और शरीर को बादल की तरह क्षणध्वंसी मानता है। 81 अप्पा सो परमप्पा पश्यन्ति परमात्मान-मात्मन्येव हि योगिनः । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 232] - ज्ञानसार 14/8 योगी पुरूष अपनी आत्मा में ही परमात्मा के दर्शन पाता है । अभिधान राजेन्द्र में सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 76
SR No.002317
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages198
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy