________________
अपनी शेखी बघारनेवाला क्षुद्रजन तभीतक अपने को शूरवीर मानता है जबतक कि सामने अपने से बली विजेता को नहीं देखता है । 208 स्नेह-त्याग दुष्कर - एते संगा मणुस्साणं पाताला व अतारिमा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1051]
- सूत्रकृतांग 13202 माता-पिता स्वजन आदि का स्नेह सम्बन्ध छोड़ना मनुष्यों के लिए उसीतरह कठिन है जिसतरह अथाह समुद्र को पार करना । 209 अज्ञ-दुःखी / सीयंति अबुहा।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1051]
- सत्रकतांग - 13204 अज्ञानी दु:खी होते हैं। 210 स्नेहः एकबंधन
जहा रूक्खं वणे जायं मालुया पडिबंधति । एवं णं पडिबंधंति, णातओ असमाहिणा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1051]
- सूत्रकृतांग - 1/3nno जैसे वन में उत्पन्न वृक्ष को मल्लिकालता लिपटकर घेर लेती है उसीप्रकार ज्ञातिजन साधक के चित्त में असमाधि उत्पन्न करके उसे (स्नेह-सूत्र में) बाँध लेते हैं। 211 श्रेष्ठ धर्म ८ जीवितं नाहि कंखेज्जा, सोच्चा धम्म अणुत्तरं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 1051]
- सूत्रकृतांग 18203 श्रेष्ठ धर्म का श्रवण करके जीने की आकांक्षा नहीं करें।
यम
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 109