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158 आकृष्ट मन का त्याग अवि चए इत्थीसु मणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 616]
- आचारांग - 1/5/4064 स्त्रियों के प्रति आकृष्ट होने वाले मन का परित्याग करें । 159 विचरण अविगामाणुगामं दूइज्जेज्जा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 616] __ - आचारांग - 1/5/4064
ग्रामानुग्राम विहार करें। 160 काम-से कलह और आसक्ति ८ इच्चेए कलहा संगकरा भवंति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 616]
- आचारांग 1/5/4464 __ये काम-भोग, कलह और आसक्ति पैदा करनेवाले होते हैं । 161 प्रभूतज्ञानी का पर्यालोचन
से पभूयदंसी.... सदा जते टुं विप्पडिवेदेति अप्पाणं किमेस जणो करिस्सति ?
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 2 पृ. 616]
- आचारांग - 1/5/4464 विपुलदर्शी, विपुलज्ञानी सदा इन्द्रियजयी पुरुष (ब्रह्मचर्य से विचलित करने के लिए उद्यत स्त्रीजन को) देखकर अपने मन में विचार करता है "वह स्त्रीजन मेरा क्या करेगा ?" 162 तीन अदृश्य
जल मज्झे मच्छपयं, आगासे पक्खियाण पयपंती । महिलाण हिययमग्गो, तिन्नवि लोए न दीसंति ॥
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-2 • 97