Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा गया और दूसरा नन्दिसेन के आवास में जाकर निष्ठर शब्दों में उसकी भर्त्सना करने लगा : “बाहर रोगी पड़ा हुआ है और तुम सेवावृत्ति स्वीकार करके भी घर में सो रहे हो !”
नन्दिसेन हड़बड़ाकर उठा और बोला : “ सेवाकार्य का आदेश हो।" देवसाधु ने कहा : “बाहर अतिसार से ग्रस्त तृषाकुल रोगी पड़ा है। उसके लिए जो उपाय जानते हो, करो।" व्रतस्थित नन्दिसेन विना पारण किये ही रोगी के लिए पानक (विशिष्ट पेय) खोजने निकल पड़ा। नन्दिसेन की भक्ति के प्रति आस्थारहित देव ने पानक का कृत्रिम अभाव उत्पन्न कर दिया। फिर भी, नन्दिसेन पानक लेकर रोगी के समीप पहुँच ही गया। रोगी उसे गालियाँ देता हुआ बोला : “तुम्हारा ही आसरा लेकर मैं ऐसी हालत में आया हूँ। और, तुम भोजनलम्पट बनकर मेरी उपेक्षा कर रहे हो? अरे अभागे ! तुम केवल 'सेवाकारी' शब्द से ही सन्तोष करते हो !"
नन्दिसेन ने प्रसन्न चित्त से नम्रतापूर्वक निवेदन किया : “अपराध क्षमा करें, मुझे आज्ञा दें, मैं आपकी सेवा करता हूँ।" यह कहकर उसने मल से भरे रोगी के शरीर को धो दिया। और, उसे, नीरोग होने का आश्वासन देकर, उपाश्रय (जैनसाधुओं के आवास) में ले गया। रोगी पग-पग पर उसे कठोर बातें कहता और उसकी भर्त्सना करता, लेकिन वह (नन्दिसेन) यन्त्र की भाँति निर्विकार भाव से यत्ल कर रहा था। देवरोगी ने उसपर अत्यन्त दुर्गन्ध-युक्त मल का त्याग कर दिया, फिर भी नन्दिसेन ने दुर्गन्ध की परवाह नहीं की, न ही उसके कठोर वचनों की गिनती की। इसके विपरीत रोगी को मीठी बातों से सान्त्वना देता हुआ, उसकी नाजबरदारी करता हुआ, सेवा में लगा रहा।
नन्दिसेन की सच्ची सेवा-भावना से देवरोगी प्रसन्न हो गया और उसने अपना अशुभ परिवेश समेट लिया। उसी समय आकाश से घ्राणमनोहर फूलों की बरसा हुई। दोनों देवों ने साधु का प्रतिरूप छोड़कर दिव्य रूप धारण किया और नन्दिसेन की तीन बार प्रदक्षिणा करके क्षमा याचना की । देवों द्वारा वर माँगने का आग्रह करने पर नन्दिसेन ने कहा : "मुझे जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग प्राप्त हो गया है। इसलिए, और किसी दूसरी वस्तु से मेरा प्रयोजन नहीं।” उसके बाद देवों ने उसकी वन्दना की और वे चले गये। __साधुओं की सेवावृत्ति के साथ श्रामण्य का अनुपालन करते हुए नन्दिसेन के पचपन हजार वर्ष बीत गये। मृत्यु के समय, मामा की तीनों कन्याओं द्वारा दुर्भाग्यवश न चाहने की बात उसके ध्यान में आ गई। उसने संकल्प किया : “तप, नियम और ब्रह्मचर्य के फलस्वरूप मैं आगामी मनुष्य-भव में रूपसी स्त्रियों का प्रिय होऊँ।" यह कहकर वह मर गया और महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्रतुल्य देवता हो गया।
यह कथा सुनाकर सुप्रतिष्ठ साधु ने राजा अन्धकवृष्णि से कहा कि “नन्दिसेन महाशुक्र स्वर्ग से च्युत होकर आपके दशम पुत्र (वसुदेव) के रूप में उत्पन्न हुआ है।"
वसुदेव जब युवा हो गये, तब उनके रूप-यौवन की प्रशंसा चारों ओर फैलने लगी। युवतियाँ उनके रूप पर रीझकर उन्हें एकटक देखती रह जातीं । एक दिन ज्येष्ठ भ्राता समुद्रविजय ने उन्हें बुलवाया और समझाया कि “दिन-भर बाहर घूमते रहने से तुम्हारे मुख की कान्ति मलिन पड़ जाती है, इसलिए घर में ही रहो। कला की शिक्षा में ढिलाई नहीं होनी चाहिए।” तब उन्होंने (वसुदेव ने) वैसा ही करने की प्रतिश्रुति दी।