Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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‘कथाकार' ने अहिंसा को ही जैनदर्शन की मूल धुरी सिद्ध की है। ज्ञातव्य है कि धर्म आचारपरक होता है और दर्शन विचारपरक । कथाकार संघदासगणी के दार्शनिक विचारों का आभास उनके . द्वारा वर्णित धार्मिक आचारों के माध्यम से ही मिलता है। इस प्रकार, उनकी दृष्टि में धर्म और दर्शन अन्योन्याश्रित हैं ।
संघदासगणी ने कुल सात धर्म-सम्प्रदायों का उल्लेख किया है और कथा के सूत्र में ही यत्र-तत्र दार्शनिक तथ्यों को पिरो दिया है। फलतः, उनकी विचारधारा में धर्म और दर्शन साथ-साथ चलते हैं । और इस प्रकार, उनका साम्प्रदायिक मतवाद ही दार्शनिक मतवाद का प्रतिरूप हो गया है । प्रत्येक सम्प्रदाय का एक सिद्धान्त या दर्शन होता है । विना दार्शनिक दृष्टिकोण के कोई सम्प्रदाय पनप नहीं सकता। परवर्त्ती काल में, आचार-पक्ष से सर्वथा स्वतन्त्र रूप में, विचार- पक्ष पर जोर डाला गया, जो जैन दर्शन के उत्तरोत्तर चिन्तन - विकास या प्रगति का साक्ष्य है । प्रायः प्रत्येक भारतीय धर्म और सम्प्रदाय में आचार से विचार- पक्ष की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। बौद्धों का हीनयान मुख्यतया आचारपक्ष-प्रधान है, तो महायान विचारपक्ष-प्रधान । महायान - परम्परा के शून्यवादी माध्यमिकों तथा योगाचारी विज्ञानाद्वैतवादियों ने बौद्ध विचारधारा को अधिक पुष्ट और प्राणवन्त बनाया। इसी प्रकार, वेदान्तियों की पूर्वमीमांसा में आचारवाद का आग्रह है, तो उत्तरमीमांसा में विचार- पक्ष की प्रबलता । सांख्य और योग में भी सांख्य का मुख्य वैचारिक प्रयोजन तत्त्व - निर्णय है, तो योग का मुख्य आचारिक ध्येय है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, इन अष्टांगमूलक यौगिक क्रियाओं द्वारा चित्तवृत्ि का निरोध । इसी प्रकार, जैन परम्परा को भी आचार और विचार की भेदकता के साथ स्वीकार किया जा सकता है । यद्यपि इस प्रकार के दो भेद स्पष्टतया उल्लिखित नहीं हैं। आचार और विचार की धाराएँ युगपत् प्रवाहित होती हैं। संघदासगणी का दृष्टिकोण यही है । इसलिए, उन्होंने परम्परागत रूप से आचार के नाम पर अहिंसा का ततोऽधिक व्यापक धर्म-दर्शन के समेकित रूप में विचार किया है। क्योंकि, अहिंसा ही जैनधर्म के महार्णव का प्राणतरंग है ।
जैनाचार्य संघदासगणी ने जैन धर्म और दर्शन का आधिकारिक विचार किया है और उसी क्रम में सात जैनेतर सम्प्रदायों का उल्लेख किया है। जैसे: चोक्ष या चौक्ष-सम्प्रदाय, त्रिदण्डीसम्प्रदाय, दिशाप्रोक्षित-सम्प्रदाय, नास्तिकवादी सम्प्रदाय, भागवत - सम्प्रदाय, ब्राह्मण-सम्प्रदाय और सांख्य-सम्प्रदाय। धर्म की दृष्टि से इन सम्प्रदायों पर यथास्थान पहले विवेचन किया जा चुका है। यहाँ केवल दार्शनिक मतवादों पर ही नातिदीर्घ चर्चा अपेक्षित होगी ।
कथाकार ने जगह-जगह अनात्मवादी नास्तिकों को आड़े हाथों लेने की गुंजाइश निकाली है। नास्तिकवादियों में हरिश्मश्रु नामक दार्शनिक की तो विशेष चर्चा कथाकार ने की है। हरिश्मश्रु नास्तिकवादी था। वह भारतवर्ष के वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणी में स्थित चमरचंचा नगरी के विद्याधरराज मयूरग्रीव के पुत्र राजा अश्वग्रीव का अमात्य था । अश्वग्रीव सभी विद्याधरों और भारतवासी राजाओं को जीतकर रत्नपुर में राज्यश्री का भोग करता था । हरिश्मश्रु ने राजा अश्वग्रीव को नास्तिक-धर्म में दीक्षित किया था ।
भारतीय दार्शनिकों ने कर्म-सिद्धान्त के विवेचन के क्रम में नास्तिकवादी सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला है । भूतवादी, भूतचैतन्यवादी, अनात्मवादी आदि नास्तिकवादियों, यानी शरीर से भिन्न आत्मा