Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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परम्परा में प्रायोविस्मृत 'चोक्षवादी' और 'दिशप्रोक्षित' सम्प्रदायों का नामोल्लेख-मात्र किया है। पवित्रात्मा वैष्णव कहलानेवाले चोक्षवादी, अपने को वैष्णव-परम्परा के अन्तर्गत मानते थे। कथाकार ने एक चोक्षवादिनी पर व्यंग्य करते हुए लिखा है कि ताम्रलिप्ति नगरी के महेश्वरदत्त सार्थवाह की चोक्षवादिनी माता बहुला ऊपर से अपने को पवित्रात्मा प्रदर्शित करती थी, किन्तु भीतर से वह माया-कपट के प्रयोग में कुशल थी (कथोत्पत्ति : पृ. १४) इसी प्रकार, 'दिशाप्रोक्षित' नामक धार्मिक सम्प्रदाय, विशिष्ट तापस-जातियों का सम्प्रदाय था, अथवा यह भी सम्भव है कि दिग्बलि-प्रथा के समर्थक होने के कारण तथाकथित तापसों को जैनागमों ने स्वतन्त्र अभिधा दे डाली हो । 'पाइयसद्दमहण्णवो' के अनुसार 'दिशाप्रोक्षी' शब्द का प्रयोग एक प्रकार के वानप्रस्थी साधु के अर्थ में किया गया है। वैदिक कर्मकाण्ड की शब्दावली में 'प्रोक्षण' शब्द का व्यवहार यज्ञ में पशुवध के लिए भी होता है। पुन: यज्ञ के अवसर पर 'बलि के लिए समर्पित' अर्थ में 'प्रोक्षित' का प्रयोग उपलभ्य है (द्र. आप्टे-कोश) । इस प्रकार, यह 'दिशाप्रोक्षित' सम्प्रदाय उन वानप्रस्थी साधुओं की ओर संकेत करता है, जो यज्ञ के अवसर पर दिग्बलि अर्पित करते थे। ज्ञातव्य है कि कथाकार संघदासगणी ने यथोल्लिखित जैनेतर सभी धार्मिक सम्प्रदायों को पशुवध-मूलक यज्ञ के प्रवर्तक-प्रचारक के रूप में उपस्थित कर उन्हें अपने तीक्ष्ण आक्षेप का लक्ष्य बनाया है। भूतचैतन्यवादी या देहात्मवादी नास्तिक दार्शनिकों के हिंसापरक भोगवाद की तो उन्होंने सर्वाधिक भर्त्सना की है।
इस प्रकार, शास्त्रप्रज्ञ कथाकार संघदासगणी द्वारा परिचर्चित दार्शनिक मतवादों में चार्वाक या लोकायत (नास्तिक), सांख्य और जैन दर्शनों की ही गणना की जा सकती है। शेष सभी दर्शन सुनिश्चित सैद्धान्तिक विचारों की अपेक्षा केवल सम्प्रदाय-विशेष से ही अधिक अनुबद्ध होने के कारण विशुद्ध सम्प्रदायवादी ही हैं।
इस प्रकार, महान् मानवतावादी कथाकार आचार्य संघदासगणी ने अपनी महत्कथाकृति 'वसुदेवहिण्डी' में लोकजीवन का एक विराट् संसार ही उपन्यस्त कर दिया है। उनके द्वारा प्रस्तुत लोकजीवन में जीवन की समष्टि या संस्कृति से समृद्ध समाज की मर्मोद्भावना व्यापक रूप से हुई है, जिसमें सामाजिक यथार्थ की बहुलता और विविधता का विनियोग अतिशय प्रभावकारी ढंग से हुआ है। कथाकार संघदासगणी की, लोकजीवन के प्रस्तवन की पद्धति का लक्ष्य करने योग्य वैशिष्ट्य यह है कि इसमें सामाजिक तत्त्व और कला-तत्त्व का सफल और समानान्तर समन्वय हुआ है। कहना न होगा कि कथाकार द्वारा प्रतिबिम्बित लोकजीवन में समाज का सर्वांगपूर्ण चित्रण सुलभ हुआ है, जिससे उनकी यह महत्कथा सच्चे अर्थ में भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा बन गई है।