Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan

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Page 559
________________ वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व करपरिमिय- वट्टहारपहसियपीणथणजुयल-भारसीदमाणवलिभंगवलियमज्झा, ईसिंमउलायमाणवरकमलवियडणाभी, • ५३९ कण्णालक्खणवियक्खणपसंसियमदणसरनिवारणमणुज्जसोणिफलका, खंभणिभ-परमसुकुमाल-थिर-वरोरु, सुलीणजाणुप्पएसा, गूढसिर- रोम - गोपुच्छसरिसजंघा, सवण-मणग्गाहिरिभित नवनलिणिकोमलतल-कमलरागसप्पभनहमणिभासियपसत्थचलणा, वयण - विक्खणा, आलओ गुणाणं ।” (पीठिका : पृ. ८०) अर्थात्, उस रुक्मिणी का मुख सूर्य किरणों से रंजित कमल की तरह कान्त था, उसकी गरदन की लम्बाई चार अंगुल थी, जो मुख-कमल के नाल की भाँति लगती थी, उसकी बाहुलता कोमल, सुगोल, सुसंयुक्त, सुसंहत, सुकुमार, शुभलक्षणों से पूर्ण और किसलय की तरह उज्ज्वल थी, हाथ में अँटने लायक तथा गोलहार से सुशोभित दोनों स्तन पीन थे, जिनके भार से उसे (चलने में) कष्ट होता था, जिसका संकेत मध्यभाग में त्रिवली कि सिकुड़न से मिलता था, श्रेष्ठ कमल की थोड़ी खिली कली की भाँति उसकी नाभि खुली हुई थी, उसके श्रोणिफलक ( नितम्बभूमि) कन्यालक्षण-विचक्षणों द्वारा प्रशंसित थे और कामबाण के निवारण के निमित्त मनोज्ञ साधनस्वरूप थे, उसकी जाँघें परम सुकुमार, खम्भे के समान स्थिर और उत्तम थीं, उसके घुटने का भाग मांसलता में पूरी तरह डूबा हुआ था, उसकी जंघा (घुटने से पिंडुली तक का भाग) की सिराएँ न तो उभरी हुई थीं, न ही उसमें रोएँ थे और उसकी आकृति गावदुमा थी, उसके पैर नवविकसित कमलिनी के समान थे, तलवे कोमल थे और कमल की तरह लाल नखमणि से प्रभासित और प्रशस्त थे, वह ऐसी वाणी बोलने में विचक्षण थी, जिसके स्वर की गूँज श्रवण और मन को खींच ती थी । इस प्रकार, वह गुणों का आलय थी । लग्नमण्डप में उपस्थित होने के लिए, उज्ज्वल नेपथ्य (वेश) में कामदव सेठ की पुत्री बन्धुमती जब बाहर निकली थी, तब उसका जो रूप-सौन्दर्य उद्भासित हुआ था, उसका रमणीय उदात्त चित्र द्रष्टव्य है : “सह परियणेण य उज्जलनेवत्थेण निग्गया बंधुमती दुव्वंकुरमीसमाला, वरकुसुमकयकुंडला, चूडामणिमऊहरंजियपसत्यकेसहत्था, कलहोयकणयकुंडलपहाणुलित्तनयणभासुरंजियमुहारविंदा, मणहरकेयूरकणयमंडियसरत्तपाणितलबाहुलतिका, सतरलहारपरिणद्धपीवरथणहरकिलम्ममाणमज्झा, रसणावलिबद्धजहणमंडलगुरुयत्तणसीयमाणचलणकमला, कमलरहियसिरिसोहमुव्वंहिंती, ण्हाण - पसाहणकविविहभायणवावडचेडीजणकयपरिवारा, कासिकसियखोमपरिहत्तरीया । " (बन्धुमती लम्भ : पृ. २८० ) अर्थात्, उज्ज्वल वेश में परिजनों के साथ बन्धुमती बाहर आई। उस समय वह दूर्वांकुरमिश्रित फूल की माला पहने हुई थी, कानों में उत्तम फूलों के कुण्डल झूल रहे थे, उसका केशपाश चूडामणि की किरणों से अनुरंजित था, उज्ज्वल कनककुण्डल की प्रभा से लिप्त आँखों से मुखकमल जगमगा रहा था, लाल-लाल हथेलियोंवाली उसकी लता जैसी लचीली भुजाएँ मनोहर स्वर्ण-केयूर से अलंकृत थीं, तरलहार' से अलंकृत पुष्ट स्तनों के भार से उसकी देह का मध्यभाग मानों कष्ट पा रहा था और करधनी से बँधे जघनमण्डल की गुरुता से उसके कमल जैसे पैर १. मूल प्राकृत पाठ 'सतरल-हार' है। यदि इसका अर्थ सात लड़ियोंवाला हार किया जाय, तो इससे यह स्पष्ट होता है कि उस युग में पीन स्तनों को सात लड़ियोंवाले हार से अलंकृत करने की प्रथा थी और बन्धुमती के भी स्तनों को सात लड़ियोंवाले हार से ही सजाया गया था । —ले.

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