Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
पडिसर (६४.११) : प्रतिसर या परिसर (सं.), घेरा, कनात । [ अँगरेजी : 'कैम्पस' ] । पsिहत्येल्लिय (४५.१३) : यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है : पूर्ण; भरा हुआ; जोरों की आवाज से भरा हुआ । मूल प्रयोग : 'पडिहत्थेल्लियरवुम्मीसं ; जोरों की आवाज के साथ; भयंकर स्वर - मिश्रित ।
पणामिअ (३२.१०) : (सं.), अर्पित के अर्थ में; समर्पित; देने के लिए सुरक्षित । पत्ता (९९.७) : कथाकार द्वारा प्रयुक्त यह शब्द ( पूर्वकालिक क्रिया) अस्पष्टार्थ है । इसे यदि 'पणित' से निष्पन्न माना जाय, तो 'बेचकर' ऐसा अर्थ होगा । मूलपाठ है : 'पणेत्ता पकासा जाया ।' 'पणेत्ता' को यदि 'प्रनेत्राः ' माना जाय, तो अर्थ होगा : नेत्र के प्रत्यक्षीभूत; प्रकटित ।
पत्त (२४७.२९) : पत्र (सं.); यह भी बह्वर्थक शब्द है । यहाँ कथाकार ने जूए के दाँव के अर्थ में इसका प्रयोग किया है। मूलपाठ है : 'ततो ते जिप्पमाणा बिउणतिउणानि पत्ताणि धरेंति ।
पत्त- पट्ट (१४६.१२) : पट्ट (सं.), समुद्रमग्न जहाज का बहता हुआ तख्ता ।
पत्थड (२२३.८) : प्रस्तट या प्रस्तर (सं.) विमान (देव - भवन) के बीच का अन्तराल भाग (गलियारा) ।
पत्थिया (२९.५): [ देशी ] बाँस की डलिया । इसी शब्द से कदाचित् 'पथरी' (पत्थर का भाजन-विशेष : 'पथिया') का विकास हुआ है।
पत्थु (३०३.२२) : यह शब्द भी अपने अर्थ में कथाकार के प्रयोग - वैचित्र्य का ही उदाहरण है । यथाप्रसंग 'पत्यु' शब्द मृत्युवाचक है, जिसमें प्रस्थान करने, इस दुनिया से कूच करने का भाव निहित है । मृत्यु के लिए प्राकृत में 'मच्चु ' रूप प्राप्त है, किन्तु 'पत्थु' प्रयोग तो विचारणीय है । मूलपाठ है : 'सप्पदट्टु बंभणपुत्तं पासेणं बंधुपरिवारियं पत्थुपरिभूयं उक्खविऊणं रायभवणं पवेसेइ ।' 'वसुदेवहिण्डी' में यथासंकेतित बंभणपुत्त की कथा 'महाभारत' में प्राप्य ब्राह्मणपुत्र की कथा के साथ ही पालि के ब्राह्मणपुत्तजातक से तुलनीय है।
पदेसिणी (१८४.१२) : प्रदेशिनी (सं.), तर्जनी अंगुली । 'प्राकृतशब्दमहार्णव' के अनुसार ' पड़ोसिन' भी ।
पमेयग (४४.२१) : प्रमेदक (सं.), अतिशय मेदस्वी; स्थूल (हाथी का विशेषण) । परत्ती-तत्तिल्ल (३१.७) : यह देशी शब्द है । यम दूसरे की चिन्ता ('तत्ती' : चिन्तित अवस्था) से ही तृप्त होता है : 'पिच्छसु कयंतस्स परतत्तीतत्तिल्लस्स' । (तत्तिल्ल = तृप्ति) । चिन्ता के अतिरिक्त इस शब्द का अर्थ है : प्रयोजन; तत्परता । ‘वसुदेवहिण्डी' के पृ. ९४, पं. २७ में 'तत्ती' शब्द तत्परता के अर्थ में प्रयुक्त है। इस प्रकार, उक्त मूल पाठ का अर्थ होगा : 'दूसरे को कष्ट (चिन्ता) में डालने के लिए सदा तत्पर क्रूर दुर्भाग्य ( कृतान्त) को देखो । (तत्तिल्ल
= तत्पर ।)