Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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कतिपय विशिष्ट विवेचनीय शब्द
बैंगन ।
रिवाइंगणी (१११.३) : [ देशी ] कटरेंगनी । वाइंगणी
रिभितवाणी (७७.२४) : स्वर के घोलन से युक्त वाणी; गूँजनेवाली वाणी; ऋषभस्वर - युक्त वाणी । ('रिभित' शब्द प्राकृत का प्रयोग-वैचित्र्य ही है ।)
रुइयाणि (१०६.७) : रुचितानि (सं.), पीसकर मिलाने या मिश्रण करने के अर्थ में प्रयुक्त । ('रिच्' वियोजन-सम्पर्चनयो: ) । सम्पर्चन मिश्रण । देशी प्राकृत में 'रिच्' का 'रुच्' आदेश ।
रूवावेक्खा (३०७.२६): रूपापेक्षा (सं.), रूप की अपेक्षा (परवाह) करनेवाली (स्त्री), रूपगर्विता ।
लेच्छारत्ता (२९६.२१) : क्रिया)
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[ल ]
लया (७५.१४) : लता (सं.), यष्टि; छड़ी । छड़ी या यष्टि के लचीलेपन की भावकल्पना के आधार पर ही कथाकार ने 'लता' का प्रयोग किया है। लचीलेपन के कारण ही सुन्दरी के शरीर को 'देहयष्टि' या 'अंगलता' कहा गया है।
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[ देशी ] लेपकर; लोकप्रयोग — लेसाड़कर। ( पूर्वकालिक
लेण (३०९:२) : लयन (सं.); गुफा, गिरिवर्त्ती पाषाणगृह; बिल; जन्तुगृह । गुफा में लीन होने की भावकल्पना को आधार बनाकर ही गुफा के अर्थ में 'लेण' का प्रयोग हुआ है।
लेसिय (९५.२९)' : लेसने, लेपने के अर्थ में प्रयुक्त देशी शब्द । 'लेसिय' का ही संस्कृत-रूप 'लेश्या' है। इसी से हिन्दी में 'लस्सा' या 'लट्ठा' शब्द विकसित हुआ है। जैनदर्शन की परिभाषा के अनुसार, जो कर्मों से आत्मा को लिप्त करती है, उसको 'लेश्या' कहते हैं ।
लोगक्खाडग (२२३.८) : लोकाक्षवाटक (सं.); रिट्ठविमान में स्थित देवों का अखाड़ा या विशेष बैठका । (अक्षवाटक अक्खाडग > अखाड़ा ।)
लोभघत्य (३०३.५) : लोभग्रस्त (सं.); लोभी; लोभ से ग्रस्त ।
ल्हसिउ (२८७.२५) : स्रंसित्वा (सं.), खिसककर, सरककर, गिरकर । ( ल्हस्— स्रंस् ।)
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[व]
वंचण (७६.८) : वञ्चन (सं.), बितानां । 'वञ्च्' गमने से निष्पन्न । मूलपाठ : 'दिवसावसेसवंचणनिमित्तं' दिन का शेष भाग बिताने के निमित्त ।
वंसीकुडंग (६७.२१) : [ देशी ] कुटङ्क – वंशकुटङ्क (सं.) संस्कृत में 'कुङ्क' का अर्थ छत या छप्पर है।
वंतवं (२१.२०) : वाक्तपः (सं.), वाक्संयम-रूप तप (वाक् > वाङ् > वं: 'पाइयसद्द - महणवो') ।
बाँसका बिट्टा; वंशगुल्म ।