Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा महामहिम के रूप में चित्रित करने के क्रम में उनकी मानवीयता, पराक्रम और साधना को भी रूपायित किया है। वसुदेव, इस महाकथा के चरितनायक हैं, इसलिए कथाकार ने उनमें अनेक गुणों का समाहार उपस्थित किया है। वसुदेव का व्यक्तित्व स्वाभिमान से दीप्त है, वह दीर्घायु हैं। सौ वर्षों तक तो वह केवल हिण्डन ही करते रह गये ('वाससयं परिभमंतेहिं; ११०.२०)। वसुदेव के व्यक्तित्व में कथाकार ने अनेक तीखे मोड़ प्रस्तुत किये हैं। कहीं वह अपनी पत्नी वेगवती के लिए करुण विलाप करते हैं (वेगवतीलम्भ : पृ.२२५), तो कहीं रतिक्रीडा में वह अपने को कामशास्त्रोक्त हस्ती-नायक सिद्ध करते हैं (तत्रैव : पृ.२२६)। वह रूप में तो कामदेव के प्रतिरूप हैं, सुन्दरियाँ उनपर निछावर हो जाती हैं (श्यामा-विजयालम्भ : पृ. १२०; भद्रमित्रा-सत्यरक्षितालम्भ : पृ. ३५३)। वेद और दर्शनशास्त्र में तो उनका प्रतिपक्षी होने का साहस किसी में नहीं था (ललितश्रीलम्भ : पृ.३६१)। शल्यचिकित्सा ओषधिविज्ञान, तन्त्रचिकित्सा या भूतचिकित्सा में उनके जैसे अधिकारी भिषक् की द्वितीयता नहीं थी।
वसुदेव कामिनीप्रसादनोपाय में चतुर, कलाकुशल चित्रकार और मालाकार के रूप में भी वर्णित हैं। संगीत और वीणावादन की कला से उन्होंने चम्पापुर के प्रसिद्ध संगीताचार्य जयग्रीव को चकित-विस्मित कर दिया था और संगीत प्रतियोगिता में विजयी होकर विद्याधरी गन्धर्वदत्ता को स्वायत्त किया था। नारद-प्रोक्त विष्णुगीत के गान में भी वह निपुण थे। दीनों और अनाथों के उद्धारकर्ता के रूप में भी उनकी चूडान्त प्रसिद्धि थी। सम्पूर्ण धनुर्वेद और युद्धविद्या में उन्होंने पारगामिता प्राप्त की थी। द्यूतकला की दृष्टि से भी वह 'अक्षशौण्ड' थे।
गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में यदि कहें तो, वसुदेव 'वज्रदेह दानवदलन' थे, तभी तो उन्होंने नरभक्षी राक्षस को अपनी भुजाओं में दबाकर मार डाला था (मित्रश्री-धनश्रीलम्भ : पृ.१९६)। संक्षेप में यह कि वह बहत्तर कलाओं में पण्डित थे। इस प्रकार, वह एक ऐसे वीर नायक थे, जिसके लिए कुछ भी असम्भव और अगम्य नहीं था। वह धीरोदात्त, धीरोद्धत और धीरललित, तीनों नायकों के सम्मिलित व्यक्तित्व से विभूषित थे। कुल मिलाकर, वह गुणातिशयता की प्रतिमूर्ति थे। ब्राह्मण-परम्परा में लोकनायकत्व की जो गरिमा राम और कृष्ण को प्रदान की गई है, वही गरिमा संघदासगणी ने वसुदेव को दी है। ब्राह्मण-परम्परा में कृष्ण के जिस अलौकिक चरित्र का महत्त्व रूपायित हुआ है, उसी का उदात्त रूप संघदासगणी द्वारा चित्रित वसुदेव की चरित-कल्पना में प्राप्त होता है।
मानवी और विद्याधरी-जाति को मिलाकर वसुदेव को कुल अट्ठाईस पलियाँ प्राप्त हुई हैं। ये सभी-की-सभी उत्तम कोटि की नायिकाएँ है, कलाविदुषियाँ और रूप-लावण्यवती हैं। ये सभी नारियाँ, कालिदास के शब्दों में कहें तो, वसुदेव की गृहिणी-सचिव-सखी तथा ललित कलाविधि में प्रियशिष्या के रूप में चित्रित हुई हैं। ये सभी स्वकीया और अनुकूला नायिकाएँ हैं, और भारतीय ललितकला के वैशिष्ट्यों की श्रेष्ठतम प्रतीक हैं। सबसे अधिक ध्यातव्य विषय यह है कि बहुपत्नीकता के बावजूद वसुदेव का जीवन, उनकी दाक्षिण्य-वृत्ति के कारण, कभी असन्तुलित नहीं बना है। उनमें अस्वस्थ विषयैषणा का सर्वथा अभाव ही इसका सबसे बड़ा कारण है। वह एक आदर्श दक्षिणनायक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। ___ 'वसुदेवहिण्डी' अनेकान्तवादी कथाशैली में परिनिबद्ध हुई है। इसमें भारतीय संस्कृति का सन्तुलित चित्र उपन्यस्त हुआ है। विषयैषणा को इसमें जितना अधिक महत्त्व दिया गया है, उसी