Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan

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Page 543
________________ वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व इस महत्कथाकृति में संवेदनी कथाओं के अन्तर्गत, मनुष्य-जीवन की असारता दिखाने वाली इहलोक-संवेदनी कथाएँ विन्यस्त हुई हैं, तो देव, तिर्यक् आदि के जन्मों की मोहमयता तथा दुःखात्मकता को निर्दिष्ट करनेवाली लोकसंवेदनी कथाओं का भी प्रचुरता से उल्लेख हुआ है । पुनः अपने शरीर की अशुचिता का प्रतिपादन करेवाली आत्मशरीर-संवेदनी एवं दूसरे के शरीर की अशुचिता की प्रतिपादिका परशरीर-संवेदनी कथाओं का प्राचुर्य भी इस कथाग्रन्थ में उपलब्ध होता है। निर्वेदनी कथाओं के प्रसंग में, इहलोक में किये गये दुष्कर्म और सुकर्म के इसी लोक में दुष्फल और सुफल देनेवाली कथाओं का आकलन हुआ है, तो परलोक के दुष्कृत और सुकृत के दुष्फल और सुफल देनेवाली कथाएँ भी निबद्ध हुई हैं। ५२३ कथा के अतिरिक्त, विकथाओं का भी उल्लेख 'स्थानांग ' ( ४.२४१ - २४५) में हुआ है । संघदासगणी ने तदनुसार विकथाओं का भी निबन्धन अपने महान् कथाग्रन्थ 'वसुदेवहिण्डी' में किया है। ये विकथाएँ मुख्यतः चार प्रकार की हैं : स्त्रीकथा, देशकथा, भक्तकथा और राजकथा । स्त्रीकथा के अन्तर्गत, महान् कथाविद् ने स्त्रियों की जाति, कुल, रूप और वेशभूषा की कथा कही है । भक्तकथा के प्रसंग में, उसने विभिन्न प्रकार की भोज्य-सामग्री से सम्बद्ध आवाप और निर्वाप कथाओं का पल्लवन किया है, तो धन की इयत्ता से सम्बद्ध आरम्भ और निष्ठान-कथाओं की भी भूयिष्ठ रचना की है। कथाकार ने देशकथा के सन्दर्भ में विभिन्न देशों में प्रचलित भोजन आदि बनाने के प्रकारों तथा वहाँ के विधि-नियमों की चर्चामूलक देशविधि - कथाओं का प्रस्तवन किया है, तो विभिन्न देशों में उपजनेवाले अन्नों और वस्तुओं का निर्देश करनेवाली देशविकल्पकथाओं को विस्तार दिया है। इसी प्रकार उसने विभिन्न देशों के विवाह आदि रीति-रिवाजों से सम्बद्ध देशच्छन्द-कथाओं का वर्णन किया है, तो विभिन्न देशों के पहनावे - ओढ़ावे से सम्बद्ध देशनेपथ्य-कथाओं का विधान भी इस कथाग्रन्थ में हुआ है। पुनः राजकथा के परिवेश में राजाओं के नगर - प्रवेश, नगर- निष्क्रमण, राजाओं के सैन्य वाहन तथा कोश और कोष्ठागार की कथाओं का भी विपुल वर्णन हुआ है । 'स्थानांग' (७.८०) में वर्णित विकथाओं के अन्य तीन भेदों— मृदुकारुणिकी, दर्शन भेदिनी तथा चरितभेदिनी को भी संघदासगणी ने अपने कथाग्रन्थ में समेटा है । आगमिक सिद्धान्त के अनुसार ही कथाकार ने वियोगजनित करुणरसप्रधान या मृदुकारुणिकी वार्त्तावाली कथाएँ कहीं हैं, तो चरित्र और विवेक या सम्यग्दर्शन को विनष्ट करनेवाली चरित्रभेदिनी और दर्शनभेदिनी कथाओं को भी अपने कल्पना - वैशिष्ट्य के साथ आकलित किया है। इस प्रकार, 'वसुदेवहिण्डी' कथाओं और विकथाओं का विशाल संग्रह बन गया है, साथ ही यह कथा - साहित्य में प्रायः अचर्चित सूक्ष्म कथाभेदों या कथाविधाओं के तात्त्विक विवेचन के नवीन आयामों का उपस्थापक भी हो गया है। 'दशवैकालिकसूत्र' में प्रकारान्तर या संज्ञान्तर से 'स्थानांग' में उल्लिखित कथाभेदों (अकथा, कथा और विकथा) की ही आवृत्ति हुई हैं।' इसी सूत्र के अनुसार, कथा के अन्य चार भेद भी संकेतित हैं : अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा और मिश्रकथा । मिश्रकथा को ही परवर्त्ती जैन रचनाकारों, जैसे आचार्य हरिभद्रसूरि ('समराइच्चकहा), जिनसेन ('महापुराण), उद्योतनसूरि ('कुवलयमाला) आदि ने संकीर्ण कथा कहा है। 'स्थानांग' - वर्णित कथा ही धर्मकथा है और विकथा में अर्थकथा २ १. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री : 'प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' : पृ. ४४३-४४४ २. उपरिवत् ।

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