Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व
५२१ इससे स्पष्ट है कि खारवेल-परवर्ती 'वसुदेवहिण्डी' के रचनाकाल में भी संस्कृत का प्रभाव अक्षुण्ण था। 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा से कभी-कभी तो ऐसा भी प्रतीत होता है, जैसे संघदासगणी का मूल चिन्तन संस्कृत-भाषा से प्राकृत-भाषा में अनुवर्तित होकर लिपिबद्ध हुआ है।
(ख) साहित्यिक तत्त्व आगमोत्तर कथा-साहित्य के सांगोपांग विकास की दृष्टि से 'वसुदेवहिण्डी' का पार्यन्तिक महत्त्व है । अन्तःसाक्ष्य के अनुसार, 'वसुदेवहिण्डी' एक ऐसा चरित-ग्रन्थ है, जिसमें अद्भुत, शृंगार
और हास्यरसबहुल आख्यान उपन्यस्त हुए हैं। संघदासगणी ने कथा के व्याज से 'चरित' की प्रामाणिक परिभाषा ही उपस्थित कर दी है। दसवें पुण्ड्रालम्भ के आरम्भ की कथा है कि जयपुर-प्रवासकाल में एक दिन वसुदेव ने अपने साले अंशुमान् से कहा कि कुमार ! हम अब कोई अपूर्व जनपद देखें। अंशुमान् बोला: "आर्यपुत्र ! ऐसा ही हो। यहीं समीप में मलय नाम का देश है। वहाँ ललितकला-प्रेमी जन रहते हैं और वह देश उपवनों और काननों की श्री-सुषमा से सम्पन्न है। हम वहीं चलें, अगर आपका देशाटन का ही अभिप्राय है।" इसके बाद वे दोनों विना किसी को सूचना दिये, उल्टे-टेढ़े रास्ते से, माथा ढके हुए निकल गये और कुछ दूर जाने पर फिर सीधे रास्ते से चले।
वसुदेव को थका हुआ जानकर अंशुमान् बोला: 'आर्यपुत्र' ! मैं आपको अपने कन्धे पर ले चलता हूँ या आप मुझे अपने कन्धे पर ले चलें। 'वसुदेव ने सोचा' : 'मुझ थके हुए को अंशुमान् क्यों ढोयेगा? यह तो स्वयं सुकुमार राजकुमार है, मेरे लिए रक्षणीय और आश्रित है। इसलिए, मैं ही इसे ढो ले चलता हूँ ।' यह सोचकर उन्होंने उससे कहा : 'कुमार ! तुम्हीं मेरे कन्धे पर चढ़ जाओ, मैं ढो ले चलता हूँ।' अंशुमान् ने हँसते हुए कहा : आर्यपुत्र ! रास्ता चलने के क्रम में इस तरह नहीं ढोया जाता है । जो मार्गश्रान्त व्यक्ति के लिए अनुकूल कहानी कहते हुए चलता है, सही मानी में वही उसे ढोकर ले चलने का काम करता है।' वसुदेव ने कहा : 'अगर ऐसी ही बात है, तो कहानी कहने में तुम्हीं कुशल हो, अपनी पसन्द की कोई कहानी कहो' ('कहेहि ताव तुमं चेव कुसलो सि जं ते अभिरुइयं ति; पृ. २०८)।
कथा के विविध रूप :
अंशुमान् कहने लगा : “आर्यपुत्र ! कथा दो प्रकार की है : चरिता (सत्यकथा) और कल्पिता। इनमें चरिता दो प्रकार की है : स्त्री या पुरुष की कथा तथा धर्म-अर्थ-काम के प्रयोजन से सम्बद्ध कथा। दृष्ट, श्रुत और अनुभूत कथा को 'चरित' कहते हैं और जो विपर्यययुक्त कुशल व्यक्तियों द्वारा कथितपूर्व तथा अपनी मति से जोड़ी गई कथा होती है, उसे ‘कल्पित' कहते हैं। (फिर, यह भी जान लें कि) पुरुष और स्त्री तीन प्रकार के हैं : उत्तम, मध्यम और निकृष्ट । इनके चरित भी तीन प्रकार के हैं।" इस प्रकार, कथा के भेदों को कहकर अंशुमान् अद्भुत, शृंगार और हास्यरसबहुल चरित और कल्पित कथाओं को कहने लगा। फलतः कथा के व्याज से, थकावट महसूस किये विना, वे दोनों बहुत दूर निकल गये।