Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व
५०७ (पृ.८७), सिलायले< शिलातले (पृ.९१) रसातलं< रसातलं (पृ.१९१), भणतिर भणति (पृ.९३), णिग्गतो अइगतो< निर्गत: अतिगत: (पृ.९५), वज्जति< व्रजति (पृ.९५), ट्ठितो< स्थितः (पृ.९७), कयरी< कतरी (पृ.१०३); ठितो< स्थित: (पृ.११२); पिया मतो< पिता मृत: (पृ.११३), सोचिहिति< शोचिष्यति (पृ.१६८), सचेयणो< सचेतन: (पृ.१६७), ठिया< स्थिता (पृ.१६८); अतिगया< अतिगता (पृ.१६८), संकुचितो< संकुचित: (पृ.१६८), सुट्ठयरं< सुष्ठुतरं (पृ.२०६), . रायमाया- राजमाता (प.३१७) पच्छति पृच्छति (प.२०४); कहिओर कथित: (पृ.२०६: य-श्रुतिरहित); पच्चुग्गतो< प्रत्युद्गत: (पृ.२०६), पुरतो< पुरत: (पृ.३६९), मातं< मातरं (पृ.६०), जीवियं< जीवितं (पृ.२९), अयरिभूतचित्तपडियारा< अजरीभूतचित्तप्रतिकारा (पृ.१६३), परिहायति< परिजहाति या परिजहति (पृ.२२९); अहिजातीय< अभिजात्या या आभिजात्यया (पृ.२२९); बंधुमती< बन्धुमती (पृ.२८२); रतिसेणिया< रतिसेनिका (पृ.२२९); कयनाडयं< कृतनाटकं (पृ.२९२), कतंजली< कृतांजलि: (पृ.१४३); नरवती< नरपति: (पृ.२९३), सुरवती< सुरपति: (पृ.१६२), चिट्ठति< तिष्ठति (पृ.२२८); मियावती< मृगावती या मृगवती (पृ.२७५); देवगतीते< देवगत्या (पृ.१५९) आदि-आदि।
कहना न होगा कि अर्द्धमागधी की, 'त' की यथावत् स्थिति या 'त' का 'य' में परिवर्तन की प्रकृति 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा में व्यापक रूप में प्रचुरता से विद्यमान है। कहना तो यह चाहिए कि 'त' की यथास्थिति 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा की अपनी विशेषता है। इसके अतिरिक्त, अर्द्धमागधी की 'द' की यथास्थिति या फिर 'द' का 'त' में परिवर्तन भी 'वसुदेवहिण्डी' में भूरिशः उपलब्ध होता है। यहाँ कतिपय, इस प्रकार के संयुक्त और असंयुक्त ध्वनियों के उदाहरण द्रष्टव्य हैं :
५. विदियसारो- विदितसार: (पृ.४); विदारियमुहो< विदारितमुख: (पृ.९), मेहोदएण< मेघोदयेन (पृ.१०) ललियंगतो< ललितांगदो (पृ.१० तथा १६६, १७४, १७५); वमणविरेयणादीहिं< वमनविरेचनादिभिः (पृ.१३), पदेसे< प्रदेशे (पृ.१४), अभिवादयामि< अभिवादये (पृ.१८), तदावरणिज्जखओवसमेण< तदावरणीयक्षयोपशमेन (पृ.२२), अद्धसहस्सं< अर्द्धसहस्रं (पृ.२९), वुद्धेहिं< वृद्धैः (पृ.७८); वदित्ता< वदित्वा (पृ.३९); सामिपादमूलं< स्वामिपादमूलं (पृ.३९); पसादेण< प्रसादेन (पृ.३९), अच्चादरेण< अत्यादरेण (पृ.४१), मदभिंभलस्स< मदविह्वलस्य (पृ.६४), कम्मावदायं< कर्मावदातं (पृ.६९), मदनसर< मदनशर (पृ.८०), वरदानदीतीरे< वरदानदीतीरे (पृ.८०), दामोदरेण< दामोदरेण (पृ.८१); वादत्थी< वादार्थी (पृ.८५); अवदायसामो< अवदातश्याम: (पृ.८६), नारदो< नारदः (पृ.९३, १९०); बदरमुण्डं< बदरमुण्डं (पृ.९५), आदीवियाणी< आदीपितानि (पृ.११३), गंधव्ववेदपारंगया< गन्धर्ववेदपारंगता (पृ.१२६), पदाणि< पदानि (पृ.१३६), इदाणि< इदानीं (पृ.१४२), आच्छादनालंकार< आच्छादनालंकार (पृ.१४५), आसंदए< आसन्दके (पृ.१४७), करगोदयं< करकोदकं (पृ.१४८); नदि< नदीं (पृ.१४८), उदंतं< उदन्तं (वृत्तान्तं : पृ.१५२), धम्मोवदेसगो< धर्मोपदेशक: (पृ.१५३), विसंवदितदेहबंधो< विसंवदितदेहबन्ध: (पृ.१६८), वेदपरिच्चयं वेदपरिचयं (पृ.१८२), खारकदंबो< क्षीरकदम्ब: (पृ.१९०), जीहच्छेदो< जिह्वाच्छेदः (पृ.१९१); हितयरुइता< हृदयरोचिता: (पृ.२२१), पदुट्ठो< प्रदुष्टः (पृ.२९३); महानदी< महानदी (पृ.३०५), तदागतो< तदागत: (पृ.३३२), कदायि< कदाचित् (पृ.३३४), अण्णता< अन्यदा (पृ.३३१) भूयवातिएहि< भूतवादिभिः (पृ.३१३); मदीएहिं< मदीयैः (पृ.२८५),
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