Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व
४९९ के महाराष्ट्री प्राकृत-भाषा में निबद्ध होने की मान्यता का बहुमत है। फिर भी, यह मान्यता पुनर्विचार की अपेक्षा रखती है। __ जैन वाङ्मय के इतिवृत्त-लेखकों के मतानुसार, कथा, काव्य, चरित, अर्थात् सम्पूर्ण कथावाङ्मय, चाहे वह गद्य में निबद्ध हो या पद्य में, प्रथमानुयोग में परगणित है और प्रथमानुयोग में निबद्ध समग्र साहित्य की भाषा सामान्यतया महाराष्ट्री प्राकृत मानी गई है। इस सामान्य नियम के अनुसार ही प्रथमानुयोग में परिगणित 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत स्वीकृत हुई है। किन्तु, सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा बहुलांशतः आगमिक भाषा का प्रतिनिधित्व करती है, इसलिए यह आपाततः ‘आर्ष प्राकृत' जैसी प्रतीत होती है। और फिर, भाषागत प्रयोग-विकल्पता के बाहुल्य की दृष्टि से यह प्रतीति असंगत नहीं है।
'वसुदेवहिण्डी' की भाषा से यह संकेत मिलता है कि इस कथाग्रन्थ के रचयिता संघदासगणी वैदिक भाषा, संस्कृत, पालि तथा प्राकृत-भाषाओं की शास्त्रीय और लौकिक परम्परा के गहन अध्येता थे। विशेषकर प्राकृत-भाषा को तो उन्होंने उसके समस्त भेदोपभेदों की सूक्ष्मता के साथ स्वायत्त किया था। इसलिए, 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा में विभिन्न प्राकृतों की सघन बहुरंगी बुनावट दृष्टिगत होती है। भाषिक बुनावट की यह विचित्रता कहीं-कहीं ही नहीं, प्रायः सर्वत्र उपलब्ध होती है और इससे ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार के मस्तिष्क में, रचना-प्रक्रिया के समय प्राच्य भाषाओं की भारी भीड़ की टकराहट जैसी स्थिति रहती होगी और ऐसे क्षणों में कथाकार को कथा-प्रवाह की सुरक्षा की चिन्ता स्वभावतः अधिक होती होगी। यही कारण है कि 'वसुदेवहिण्डी' में कथा के प्रवाह की समरूपता जितनी अधिक मिलती है, भाषा की एकरूपता उतनी ही कम।
और इसीलिए, एक ही वाक्य में प्रयोग की अनेकता का समावेश हो गया है और शब्दों के प्रयोग की अनेकरूपता तो पदे-पदे दृष्टिगत होती है। उदाहरण के लिए, कुछ वाक्य द्रष्टव्य हैं :
१. मित्तबलेण य कयाइं च अम्हेहिं पुच्छिओ नेमित्ती । (पुण्ड्रालम्भ : पृ. २११) २. तं च छुहावसेण परिचयवसेण य तब्भाविओ अहिलसति । (कथोत्पत्ति : पृ. १०) ३. तओ अ णाए दुवे मुद्दाओ कारियाओ नामंकियाओ। (तत्रैव : पृ. ११) ४. वरस्स हत्थे दो वि मुद्दाउ ठावियाओ। (तत्रैव : पृ. ११) ५. राया पुणो वि पुच्छइ–कहं देवो केवली होहिति । (तत्रैव : पृ. २०) ६. तं च धम्मिल्लेण सुणंतेणं तुहिक्केण जोइया तुरया। (धम्मिल्लचरिय : पृ. ५३) ७. तेहिं वि बंधुववहारेण पूइओ गतो सपुरं । (पीठिका : पृ. ८०) ८. गब्भत्थस्स य पिया मतो। (प्रतिमुख : पृ.११३) ९. ततो चिंतापरायणाए मे सुमरिया देवजाती। (नीलयशालम्भ : पृ. १७१) १०. ततो ठाउं इच्छति, तं वहिउमारद्धो । (कपिलालम्भ : पृ. २००) ११. संजयंतो त्ति पुत्तो जाओ तस्सेव कणीयसो जयंतो नाम जातो।
(बालचन्द्रालम्भ : पृ.२ ६२) । १२. तओ पुणो एइ सत्ताहे । ततो णं पुणो कोमुइया लवइ । (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ : पृ. ३०७)