Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी की पौराणिक कथाएँ
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जन्मोत्सव की कथा (नीलयशालम्भ: पृ. १५८ ) उद्धरणीय है : एक दिन नाभिकुमार की पत्नी मरुदेवी बहुमूल्य शय्या पर सुख से सोई हुई थी । स्वप्न में उसने आकाश के आँगन से वृषभ को उतरते देखा । स्वप्न में ही वह सोचने लगी कि क्या यह चलने-फिरनेवाला रजतपर्वत है या उज्ज्वल मेघ ? जब वह निकट आया, तब उसके प्रशस्त मनोहर मुँह, आँख, कान, खुर, सींग, ककुद् और पूँछ को देखकर मरुदेवी चकित रह गई और ज्योंही वह जँभाई लेने लगी, वृषभ उसके मुँह में प्रवेश कर गया। उसे तब और आश्चर्य हुआ कि उसके मुँह में वृषभ के प्रवेश कर जाने पर भी, तनिक भी शरीर-पीड़ा नहीं हुई, वरन् परम सुख प्राप्त हुआ। इसके बाद वह जग पड़ी ।
फिर, नींद आ जाने पर स्वप्न में मरुदेवी ने और तेरह दिव्य दृश्य देखे । इस प्रकार, कुल चौदह स्वप्न देखने के बाद वह जगी । नाभिकुमार ने स्वप्नफल बताते हुए कहा : “ तुमने उत्तम स्वप्न देखा है, तुम धन्य हो । नौ महीने बीतने पर तुम हमारे कुलकर पुरुषों में प्रधान, त्रैलोक्यप्रकाशक, भारतवर्ष के तिलक- स्वरूप पुत्र को जन्म दोगी।” भगवान् ऋषभस्वामी पूर्वभव में वज्रनाभ थे । उन्होंने तीर्थंकर नाम गोत्र आयत्त किया था । सर्वार्थसिद्ध विमान में तैंतीस सागरोपम काल तक उत्तम विषयसुख का अनुभव कर वह, चन्द्रमा जब उत्तराषाढ नक्षत्र में था, मरुदेवी की कोख में अवतीर्ण हुए। नाभि कुलकर की पत्नी मरुदेवी देव-देवियों से समादृत होकर सुखपूर्वक तीर्थंकर का गर्भ वहन करने लगी। समय पूरा होने पर उसने चैत्र कृष्ण अष्टमी के दिन उत्तराषाढ नक्षत्र में तप्तकांचनवर्णाभ सर्वमंगलालय पुरुषश्रेष्ठ पुत्र को जन्म दिया ।
उसके बाद अधोलोकवासिनी आठ दिक्कुमारियाँ अपने-अपने अवधिज्ञान से तीर्थंकर के जन्म की बात जानकर दिव्यगति से मरुदेवी के घर पहुँची। उन्होंने तीर्थंकर और मरुदेवी की वन्दना करके जन्मोत्सव के निमित्त 'संवर्त्तक' नामक वायुविशेष से पवित्र किये गये एक योजन परिमण्डल में औत्सविक प्रदेश का निर्माण किया और वे गीत गाती हुई खड़ी रहीं । फिर, ऊर्ध्व लोकवासिनी आठ दिक्कुमारियों ने आकर गन्धोदक की वर्षा की । पुनः रुचक (देव- विमान) से आठ दिक्कुमारियाँ आईं और हाथ में झारी लिये नम्रतापूर्वक खड़ी रहीं । फिर, पश्चिम देव - विमान से आठ दिक्कुमारियाँ तालवृन्त हाथ में लिये आईं। उसी प्रकार उत्तर देव - विमान से आठ दिक्कुमारियाँ चामर हाथ में लिये आईं ।
इसके बाद रुचक देव-विमान की उपदिशा से चार विद्युत्कुमारियाँ आईं और चारों विदिशाओं में दीपिका हाथों में लिये खड़ी रहीं। तदनन्तर, देव - विमान के मध्य में रहनेवाली चार दिक्कुमारियाँ सपरिवार श्रेष्ठ विमान से आईं। उन्होंने जिनमाता मरुदेवी की वन्दना करके उसे अपने आने का प्रयोजन बताया। फिर, उन्होंने तीर्थंकर का जातकर्म संस्कार प्रारम्भ किया : नवजात के नाभिनाल को चार अंगुल छोड़कर काट डाला और उस कटी हुई नाभि को धरती में गाड़ दिया, फिर उस गड्ढे को रत्न और दूर्वा से भरकर उसपर वेदी बना दी । उसके बाद उन्होंने अपनी वैक्रियिक शक्ति से दक्षिण, पूर्व और उत्तर- इन तीनों दिशाओं में मरकतमणि की भाँति श्यामल आभूषणों से मण्डित कदलीघर का निर्माण किया । और फिर, कदलीघर के मध्यभाग में कल्पवृक्ष की, स्वर्णजाल से अलंकृत चतुश्शाला बनाई । उसमें उन्होंने पुत्रसहित जिनमाता को मणिमय सिंहासन पर बैठाकर क्रम से तेल- उबटन लगाया। फिर, दक्षिण-पूर्व दिशा में ले जाकर उन्हे त्रिविध (शीत, उष्ण और द्रव्यमिश्रित) जल से स्नान कराया और फिर उत्तरी चतुश्शाला में गोशीर्ष चन्दन और अरणी की