Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा कथाकार ने शताधिक नगरों का निर्देश किया है, साथ ही इनके अन्तर्वर्ती बीस ग्रामों का भी उल्लेख किया है, जिनमें कतिपय सन्निवेश, कर्बट और खेट कोटि के ग्राम या बस्तियाँ थीं। उक्त सभी जनपदों, नगरों आदि में कुछ के तो केवल नामों का उल्लेख मिलता है और कुछ के वर्णन विवरण भी, जिनसे उनके भौगोलिक और राजनीतिक वैशिष्ट्य की जानकारी प्राप्त होती है।
कथाकार द्वारा यथाप्रस्तुत वर्णन से तत्कालीन अंग-जनपद की कई सांस्कृतिक विशेषताओं की सूचना उपलब्ध होती है। प्राचीन अंग-जनपद में गाय-भैंस पालनेवाले गोपों की बहुलता थी। फलतः घी का व्यापार बड़े पैमाने पर होता था। चम्पापुरी इस जनपद की राजधानी थी। इस नगरी के आसपास अनेक उद्यान थे और नगरी के निकट ही गंगा में मिलनेवाली चन्दा नाम की नदी बहती थी। चम्पा के पास चूँकि यह नदी झील के रूप में थी, इसलिए कमलवनों से आच्छादित भी रहती थी। इस नगरी का तत्कालीन राजा कपिल था, जिसके युवराज का नाम था रविसेन ( < रविषेण)। युवराज की ललितगोष्ठी के सदस्यों में अनेक कलावन्त कुमार सम्मिलित थे। एक बार सभी सदस्य अपनी-अपनी पत्नी के साथ रथ पर सवार होकर उद्यान-यात्रा के निमित्त निकले थे। 'धम्मिल्लहिण्डी' के मगधवासी कला-कुशल नवयुवा चरित्रनायक धम्मिल्ल को अपनी चहेती विमलसेना के साथ चम्पापुरी का अतिथि होने के नाते उक्त ललितगोष्ठी की ओर से आयोजित उद्यान-यात्रा में सम्मिलित होने का अवसर मिला था। इतना ही नहीं, राजा कपिल की रूपवती पुत्री कपिला से विवाह करने का भी सौभाग्य उसे प्राप्त हो गया था। राजा कपिल घुड़सवारी का बहुत शौकीन था। राजा कपिल का विद्वेषपात्र भाई सुदत्त चम्पा-प्रदेश में ही बहनेवाली कनकबालुका नदी के तटवर्ती संवाह अटवी-कर्बट (जांगल ग्राम) का अधिपति था। धम्मिल्ल ने ही दोनों भाइयों में मेल कराया था। . उस समय की चम्पानगरी श्रेष्ठियों एवं सार्थवाहों का प्रसिद्ध और प्रमुख केन्द्र थी। उस काल के इन्द्रदम सार्थवाह के पुत्र सागरदस्त की कीर्ति दिगन्त-व्यापिनी थी। सागरदत्त ही चम्पानगरी की प्रख्यात लोककथा 'बिहुला-विषहरी' के चरितनायक चाँदो सौदागर का प्रतिरूप है । उस समय के यहाँ के श्रेष्ठियों में भानुदत्त सेठ के पुत्र चारुदत्त की बड़ी ख्याति थी। इसे दुर्गम समुद्रमार्ग के माध्यम से अन्तर्देशीय और अन्तरराष्ट्रीय व्यापार करने का श्रेय प्राप्त था। चारुदत्त की पालिता विद्याधरपुत्री गन्धर्वदत्ता परम रूपवती तथा गन्धर्ववेद (संगीतविद्या) की पारगामिनी थी (इहं चारुदत्तसिट्ठिणो धूया गंधव्वदत्ता परमरूववती गंधव्ववेदपारंगया'; गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १२६) ।
चम्पापुरी में तीर्थंकर वासुपूज्य का उनके नाम से अंकित पादपीठ प्रतिष्ठित था, चम्पामण्डल में ही प्रतिष्ठित मन्दरपर्वत की पूज्यातिशयता की भावना तत्सामयिक जन-जन में व्याप्त थी। मन्दरपर्वत पर रहनेवाला अनगार विष्णुकुमार विष्णु का ही प्रतिरूप माना जाता था। चम्पानगरी की रजतबालुका नदी के तीर पर स्थित अंगमन्दर के उद्यान का धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्त्व था। अंगमन्दर में जिन-प्रतिमा प्रतिष्ठित थी, जिसपर फूल चढ़ाने के लिए भक्तों की भीड़ जुटती थी। वहाँ समय-समय चैत्य-महोत्सव तथा संगीत-प्रतियोगिता-सभा का आयोजन होता था। सुग्रीव और जयग्रीव की जोड़ी वहाँ के संगीतविद्या में निपुण आचार्यों में सातिशय प्रतिष्ठित थी।
चम्पापुरी-स्थित प्राचीन सुरवन की 'सूराबाँध' के रूप में पूर्वस्मृति की परम्परा आज भी सुरक्षित है। मेष-संक्रान्ति (सतुआनी) के अवसर पर इस बाँध पर पतंग या गुड्डी उड़ाने की