Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
संघदासगणी की कथाकृति 'वसुदेवहिण्डी' के संरचना-विधान में ही राजप्रासादीय सभ्यतामूलक स्थापत्य का विन्यास हुआ है, तो फिर उसकी कथाओं में वास्तुशास्त्रीय तथ्यों का विनिवेश कैसे नहीं हो ? 'वसुदेवहिण्डी' स्वयं राजप्रासाद के समान है (द्र. पीठिका: पृ. ७६) । प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्रियों ने जिस प्रकार वास्तुपुरुष और उसके अंग- उपांग की कल्पना करके वास्तु में प्राणप्रतिष्ठा को प्रतीकित किया है, उसी प्रकार संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में कथोत्पत्ति, पीठिका, मुख, प्रतिमुख और शरीर की कल्पना करके इस कथाकृति को स्थापत्य-पुरुष के प्रतीक के रूप में उपस्थापित किया है।
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प्राचीन वास्तुशास्त्रियों ने सर्पाकार में वास्तुपुरुष या वास्तुदेव की परिकल्पना की है। 'गरुडपुराण' के अनुसार, वास्तुपुरुष, वास्तु की बाईं ओर सोते हैं और तीन-तीन महीने के बाद एक दिशा से दूसरी दिशा में चले जाते हैं। इतना ही नहीं, प्राचीन वास्तुविदों ने वास्तुनाग के सिर, पृष्ठ क्रोड और पाद की भी कल्पना की है, साथ ही विभिन्न राशियों और महीनों में उसके अंगों के वास करने की दिशाओं का निर्देश भी किया है । जैसे : अगहन, पूस और माघ, यानी वृश्चिक, धनु और मकर राशियों में वास्तुनाग का सिर दक्षिण में, पृष्ठ पूर्व में, क्रोड पश्चिम में और पाद उत्तर रहता है। ऐसी स्थिति में पश्चिम की ओर पूर्वद्वार का गृह बनाना चाहिए आदि । इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया है कि वास्तुदेव के क्रोड में मकान बनाये, पृष्ठ पर नहीं । इस प्रकार, वास्तुविद्या का सम्बन्ध ज्योतिष - विद्या से सहज ही जुड़ जाता है। वास्तुपुरुष को ही प्रासादपुरुष कहा जाता है । यहाँतक कि प्रासाद की नींव में वास्तुपुरुष की स्थापना का मन्त्र' भी उपलब्ध होता है।
प्राचीन वास्तुवेत्ताओं के अनुसार, वास्तुमण्डल को सामान्यत: इक्यासी पग का होना चाहिए । वास्तु के समीप पेड़ लगाने का भी विशिष्ट विधान प्राप्त होता है। वास्तु के समीप कण्टकमय वृक्ष से शत्रुभय, क्षीरीवृक्ष से अर्थनाश और फलीवृक्ष से प्रजाक्षय होता है। इन सब वृक्षों की लकड़ियों का प्रयोग भी गृहनिर्माण में नहीं करना चाहिए। यदि इन वृक्षों को लगाकर काटने की इच्छा न हो, तो दोष परिहार के लिए उन वृक्षों के निकट पुन्नाग, अशोक, अरिष्ट, बकुल, पनस, शमी और शालवृक्ष लगा देना चाहिए ।
वास्तुमण्डल में कौन-सा वास्तु किस दिशा में रहना चाहिए, इसका भी निर्देश प्राचीन . वास्तुकारों ने किया है। वास्तु के सम्मुख देवालय, अग्निकोण में पाकशाला, पूर्व में प्रवेश - निर्गम और यज्ञमण्डप, ईशानकोण में गन्धपुष्पालय, उत्तर में भाण्डारगृह, वायुकोण में गोशाला, पश्चिम में वातायनयुक्त जलागार, नैर्ऋत कोण में कुश, काष्ठ आदि का गृह और अस्त्रागार तथा दक्षिण की ओर अतिथिशाला का निर्माण करना चाहिए ।
जैन मान्यता के अनुसार, वास्तुकला करणानुयोग का विषय है । यतिवृषभाचार्य- रचित 'तिलोयपण्णत्ति' के नौ अधिकारों में वर्णित नौ लोकों (सामान्यलोक, नारकलोक, भवनवासीलोक, मनुष्यलोक, तिर्यम्लोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक, देवलोक और सिद्धलोक) के वर्णन के क्रम में,
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नमो भगवते वास्तुपुरुषाय महाबलपराक्रमाय सर्वाधिवासितशरीराय ब्रह्मपुत्राय सकल ब्रह्माण्डधारिणे भूभारार्पितमस्तकाय पुरपत्तनप्रासादगृहवापिसरः कूपादेः सन्निवेशसान्निध्यकराय सर्वसिद्धिप्रदाय प्रसन्नवदनाय विश्वम्भराय परमपुरुषाय शक्रवरदाय वास्तोष्पते नमस्ते । पौराणिक वास्तुशान्तिप्रयोग ।